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नई सुबह
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नई सुबह (चौबीस)
ISBN: 81-901611-13

 

 
 
रात एक बजे अमित अपने कमरे में सोने पहुँचा| प्रिया को इसी समय वह याद कर पाता था| उसके पञ का स्मरण आया तो उसे लिखने बैठ गयाः-
 
"मेरी प्यारी प्रिया,
ढेर-सा प्यार|
आधी रात बीत चुकी है| अभी आकर अपने बिस्तर में बैठा हूँ| अभी तक देव के कमरे में था उसे खून चढ़ रहा है| मै भी बैठा था, वीणा भाभी और मम्मी के पास| पिछले दो दिनों में उसमें काफी परिवर्तन आया है| उसकी दशा कभी बिगड़ती है, कभी ठीक हो जाती है| हर दम बाबा भूतनाथ को याद करते रहते है| आज उन्होंने संदेश भिजवाया है| संदेश मिलने के बाद तो वह अधिक आशान्वित हो गया है| बाबा 27 तारीख को आ रहे हैं और उनका यही संदेश आया है कि देव को घबराने की कोई आवश्यकता नहीं, उसके कष्ट का निवारण होगा| और ऐसे में चुप होकर अपने से जो बन सके वही करना ही बेहतर है| बाबा इतने निश्चय से कह रहे है तो कोई कारण होगा ही| इसलिए धैर्य से देख लेंगे कि क्या होगा| ऐसे ही शान्ति से उसका समय बीतना चाहिए| देव के सिर के ट्यूमर का आकार भी अब कुछ कम हो गया है| यदि यह शुभ का प्रतीक है तो यह सब वीणा भाभी की तपस्या का फल है और धैर्य में, सेवा भाव में, जिन्दगी की कीमत को समझने में मैंने उन्हें अपना गुरु मान लिया है|
जानता हूँ तुम आजकल इसी कारण से उदास रहती होगी| ऐसे में हम दोनों यदि इक्ट्ठे होते तो शायद हमारी उदासी एक-दूसरे की निकटता पाकर कुछ कम हो जाती| अभी उपर बैठा रहा तो वीणा भाभी को सुला दिया था| वह कल रात भी नही सो सकी थी| देव भी दवा की खुमारी में था| ऐसे में खून की बोतल से निकलती हर बूँद को देखते हुए कभी दीवार की तरफ देखता था, कभी तुम्हारी मम्मी की तरफ जो उँघ रही थी लेकिन मेरे बार-बार कहने पर भी नहीं उठ रही थीं और कभी तुम्हें याद करता था| मेरी प्रिया मुझे बहुत याद आ रही थी| लेकिन मैं उससे अभी नही मिल सकता| इसलिए यहाँ रहते हुए भी मै अपनी प्रिया को अधिक से अधिक याद करता रहता हूँ इतना याद करता हूँ कि उसकी याद मेरी नस-नस को, मेरी आत्मा को उसके नाम से त्रप्त कर देती है|
इसी के साथ
सिर्फ तुम्हारा
अमित|"
 
27 तारीख सुबह देव ने रह-रह कर एक जिद्द शुरु कर दी| वीणा कैसे पूरी करती उसकी जिद्द| माँ निर्मला ने सुना| निकट चली आई देव के| बोली, "देव जी कैसे कह रहें है आप? आपकी इस दशा को देखते हुए कैसे सम्भव है?"
 
"मेरी दशा ऐसी है.... तभी तो कह रहा हूँ........?"
 
- देव ने फिर दोहराई अपनी बात| आँसू उसकी आँखों से टपक रहे थे| वीणा थी कि देव के आँसू पोंछती लेकिन अपने आँसू नहीं रोक पा रही थी|
 
"अमित मान जाएगा क्या? प्रिया मानेगी नहीं - क्या, इस समय उचित लगेगा उन्हें अपनी सोचने की.....?" - मां ने पुनः कहा|
 
"मेरी इच्छा है - मेरी अन्तिम इच्छा| दोनों मुझे इतने प्रिय है कि उन दोनों को मैं इकट्ठा देखना चाहता हूँ|" फिर कुछ रुक कर बोला - "मैं अब नहीं रहूँगा, वे दोनों ही वीणा का ध्यान रखेंगे मेरे बाद|"
 
"कैसी बात कहते हो देव...| तुम ठीक हो....|" अभी वीणा पूरी बात नही कर पाई थी देव ने टोक दिया उसे - "अब इस भ्रम में न रहो वीणा, अब मुझे कोई नही रोक सकता| अब मुझे सिर्फ तुम्हारी चिन्ता है... अमित-प्रिया तुम्हारे लिए एक हो जाएँ मेरी आँखों के सामने!"
 
देव निढाल हो गया| माँ निर्मला रोने लगी| कैसीविवशता थी उसके सामने| देव की दशा को देखकर कुछ बोल नहीं पा रही थी| देव से लड़ना चाहती तो भी शब्द नहीं थे उसके पास| कैसा हक था उसे इन सब पर? किस जन्म का ऋण था देव का उनके परिवार के उपर कि वे सब इतने थोड़े समय में उससे इतने बंध गए थे कि उससे स्वयं को अलग नहीं कर पा रहे थे? देव के रुप ने उन्हें इतना अधिक सम्मोहित कर लिया था|
 
देव निर्मला की ओर आशा भरी द्रष्टि से देख रहा था| क्या था उसके मन में कोई जान न पाया| - अपने जीवन से बहुत प्यार था उसे...! अपने मनोभावों की बहुत चाह थी उसे!
 
अपने मन की हर मुराद पूरी करने के लिए उसके प्राण अटके पड़े थे| और अपना अन्त सामने देखकर यह कल्पना नहीं कर पा रहा था कि उसके बाद उसकी वीणा किसी और के साथ बंध जाएगी| - अपना अन्त सामने देखकर वह अपने आज को भूल गया था और उसके बाद के विषय में सोचकर अपने वर्तमान के कष्ट को भूलने की चेष्टा कर रहा था|
 
माँ निर्मला कुछ संभली तो बोली "आज सुनीता भी आ रही है उसके बाद बुलवा लूँगी प्रिया को - तब आप ही प्रिया से बात कर लेना, आप ही अमित को मना लेना|"
 
देव ने सुना और इतने से ही उसे तसल्ली हो गई| माँ निर्मला ने सोचा दिन में बाबा भूतनाथ आएँगे उन्ही से प्रार्थना करेगी वही कहेंगे देव को अपना हठ छोड़ देने को|
 
लेकिन ऐसा नही हो पाया| न बाबा आए न ही देव को कोई रोक पाया जाने से| देव चला गया, रात को नौ बजे| एकएक उसके शरीर ने ग्लूकोज व खून लेना बन्द कर दिया| देव की साँस उखड़ी और अन्तिम क्षण उसके हाथ उपर उठे और 'बाबा-बाबा' कहकर देव चला गया| जाने वाले के मन में जो आस्था जन्मी थी किसी दूसरे व्यक्ति के लिए, जिसे उसने अपने 'संस्कारों के राम' की पदवी दी थी, जिसे उसने अपने जीवन का रखवाला मान लिया था. वह उसी 'राम' को स्मरण करता हुआ अपना शरीर छोड़ गया|
 
बाबा के तन्ञ ग्यान ने जान लिया था कि 27 को देव कष्टों से मुक्ति पा लेगा - कष्ट निवारण से उनका यही तात्पर्य रहा होगा! वीणा और देव का यह कष्टमय साथ दो वर्षो से कुछ दिन उपर का था|
 
 
 
देव के दाह-संस्कार के बाद अमित ने महसूस किया कि मोहन कुमार, निर्मला, सुनीता और निम्मी एक कमरे में बन्द होकर कुछ विचार-विमर्श कर रहे हैं| उसे कुछ समझ नही आया| जिग्यासा थी, लेकिन उनके कमरे की ओर जाना उसे उचित नहीं लगा|
 
लेकिन उसे अधिक देर प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी| निम्मी आकर उसे अपने साथ कमरे में ले गई| कमरे में सबकी उपस्थिति होते हुए भी बिल्कुल चुप्पी थी|
 
मोहन ने अमित को अपने पास बिठा लिया| कुछ ही क्षण पश्चात् उसने बात शुरु कर दी, "अमित, देव के बाद वीणा के प्रति हमारा फर्ज बनता है कि हम उसके भविष्य के प्रति कुछ निर्णय करें|"
 
निर्णय कैसा...?" - अमित ने बीच में ही प्रश्न किया|
 
"उसी के लिए हम विचार-विमर्श कर रहे थे और अब हमें तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है.......|" - तब मोहन कुमार ने कहा अमित से| अमित ने देखा माँ निर्मला चाह कर भी उससे आँखें नही मिला रही, बस उनकी आँखें आँसुओं से गीली होती जा रही था| सुनीता की ओर देखा उसने और उसके चेहरे के भावों को देखकर अमित को न जाने क्यों अपनी धड़कन बढ़ती महसूस हुई| सुनीता के चेहरे पर दुःख की अपेक्षा कुछ खुशी के भाव थे| जैसे मोहन कुमार से विचार-विमर्श करने के पश्चात् उसके मन से सभी के प्रति रोष समाप्त हो गया हो|
 
तब अमित ने कहा - "मेरी सहायता...? मैं भी तो भाभी की खुशी के लिए पहले दिन से यथासम्भव प्रयत्न करता रहा हूँ और करता रहूँगा| इसके लिए किसी को मुझे मेरे कर्तव्य का स्मरण करवाना जरुरी नहीं...|"
 
"नहीं ऐसी बात नहीं है| हम तो समाज के दस्तूर की बात कर रहे हैं| देव के जाने के बाद वीणा इस घर में अकेली न रहे और हमारे घर का कोई सदस्य उसे अपना ले....|" मोहन कुमार ने दो टूक बात कह दी| अमित के सिर पर पहाड़ गिरा जैसे| फूट पड़ा सुनकर, "क्या बहकी बात कर रहे हैं! किसके दुःख को कम करने की सोच रहे हैं आप...?" - रोना तो रुका था कुछ देर पहले लेकिन रोने का वातावरण तो था ही और अमित इतनी जोर से रोने लगा कि निर्मला को आगे बढ़कर उसका सिर अपनी गोद में लेना पड़ा|
 
तब निम्मी ने कहा, "अरे रोने से कुछ नहीं होगा| धैर्य से सोचो और सोच कर ही कुछ निर्णय लो| तुम पर कोई जोर-जबरदस्ती नहीं कर रहा| यह बात तो हम सब विचार कर रहे थे... हमने तो तुम्हारी राय माँगी है...|"
 
तब अमित ने आँसू पोंछते हुए कहा, "विचार करने से पहले या मेरी राय माँगने से पहले आप लोग ये तो सोचते कि अनहोनी जो हुई है उसको सहने की शक्ति पैदा करनी है हमें भाभी में, और आप एक और अनहोनी की बात कर रहे हैं| जिसे जानते-समझते हुए आप होने ही दावत दे रहे हैं - एक नहीं तीन-तीन जिंदगियों से खलने की कोशिश करना कितनी बड़ी समझदारी है?"
 
तब मोहन कुमार ने कहा - "अमित यह समय भावुकता का नहीं, सोच-समझ कर कुछ करने का है| हम में से कोई तुम पर जोर-जबरदस्ती नहीं कर रहा| हम तो यही कह रहे है कि समाज में ऐसा होता रहा है| ऐसा अभी भी होता है| और यह इसीलिए होता है क्योंकि घर की इज्जत घर में ही बनी-ढकी रहती है|" और इससे आगे निर्मला ने कहा, "बेटा, तुम्हें अपना बेटा तो मैं कह्ती ही हूँ, इसीलिए हक समझ कर कुछ कह रही हूँ| जानते है वीणा कहाँ मानेगी| जानते है प्रिया भी नहीं सह पाएगी| उस पगली को भी मैं तैयार कर लूँगी| अपनी बहन की खातिर वह भी कुर्बानी दे देगी...|" - यह सुनकर अमित को लगा कि उसका सिर घूम रहा है|
 
वह कुछ कहने के लिए तैयार हो ही रहा था कि प्रेम कमरे में आ गया| अमित के मनोभावों के विषय में प्रेम व प्रेम के मनोभावों को अमित काफी सीमा तक समझने लगे थे| तब अमित ने उचित जाना कि वह इस सबसे बेहतर प्रेम से बात कर सकता है| उसने तब उठते हुए कहा, "में सबसे पहले प्रेम से अलग से बात करना चाहता हूँ...|" और इससे पहले कि कोई कुछ और बात कहता वह प्रेम को लेकर बाहर चला गया|
 
प्रेम को अमित ने जैसे उन सबके विचारों से अवगत कराया, वह एकाएक बोल उठा, "तुम भी कमाल के हो, अमित| इतनी बेतुकी बात के विषय में सोचते की या सलाह करने की क्या आवश्यकता हैं? इसका एक ही शब्द में उपर 'न' है| बस, और कुछ नहीं|"
 
इस पर अमित ने कहा, "सिर्फ भैया कहते तो और बात थी मम्मी और सुनीता दीदी की राय भी उसी में थी| - मम्मी से उसका तात्पर्य निर्मला से था|
 
"मम्मी दूसरों की बातों में जल्दी आ जाती हैं और यही हाल सुनीता दीदी का है| दीदी के लिए 'प्यार' का कोई अर्थ नहीं| वे प्यार को बकवास समझती है और प्यार की भावनाओं को झुठलाने के लिए हमेशा फर्ज की दुहाई देने लगती हैं| उनको तो इस बात में सबसे अच्छी बात यही लगी होगी कि वीणा का घर बस जाएगा| बस.....| प्रिया की भावनाओं की थाह नही उन्हें| वे समझती हैं वह झट से समझ जाएगी|" - प्रेम की बातों से अमित का मन शान्त हो रहा था| प्रेम कहे जा रहा था, "इस बात को भूल जाओ ऐसे कि कभी कुछ तुमने ऐसा सुना ही नहीं| मैं समझता नहीं क्या कि वीणा दीदी को तुम मुझसे ज्यादा प्यार करते हो| प्रिया व तुम्हारे प्यार की कोई सीमा नहीं| एक नया रिश्ता बनाकर मैं तीन-तीन हत्याएँ देव की दुःखद घटना के साथ-साथ नहीं होने दूँगा| वक्त वीणा दीदी का यह घाव भर देगा| देख लेना| मुझे तो भरोसा है भगवान पर, तुम पर और उसके हर शुभचिन्तक पर| पर यह घाव यदि लगा दिया तो तीनों को कैंसर से भी अधिक बुरी तरह चाट लेगा|"
 
तब अमित प्रेम से लिपट गया|
 
कमरे में लौट कर प्रेम ने माँ निर्मला से, मोहन कुमार से अलग जाकर दो-टूक बात कर ली और यह निर्णय स्वयं पूरी तरह रद्द हो गया| अमित को इसका आभास बहुत जल्दी लग गया जब निम्मी भाभी ने उससे कहा था, "मैं आँटी से अब बात करुँगी देव की क्रिया के बाद कि अमित-प्रिया की शादी सादगी से दो-तीन महीने बाद ही कर देनी चाहिए...|" तब अमित न चाहते हुए भी मुस्कुरा पड़ा|
 
निर्मला व सुनीता को भी प्रेम ने अच्छी तरह समझा दिया था| तभी अगले दिन निर्मला अमित को अलग लिए बैठी रही और उसके बालों में अंगुलियाँ फिराते हुए प्यार से बोली - "बेटा! तुम्ही पर भरोसा है मुझे प्रेम जितना| तुम ही मेरी वीणा का ख्याल रखोगे| उसके भविष्य के विषय में तुम स्वयं कुछ सोचना|......... मैं जो कुछ भी कह गई थी उस दिन, भूल जाना उसे| कभी भी प्रिया से जिक्र मत करना इस बात का| उसे भी दुःख होगा| वीणा संभल जाए फिर हम तुम दोनों की शादी कर देंगे|"
 
अमित को एक बात समझ आ गई उस दिन माँ निर्मला के विचारों के प्रति कि भावनाओं की थाह लेकर उनके विचारों को बड़ी आसानी से बदला जा सकता है|
 
लेकिन माँ निर्मला स्वयं कहकर भी यह बात प्रिया से न छिपा पाई | वीणा के लिए रोते हुए सब कह गई प्रिया से देहरादून पहुँच कर| प्रिया भावनाओं से लिपटी अमित को पञ लिखने बैठ गई|
 
"मेरे प्रिय अमित,
प्यार!
मेरा मन ठीक नहीं| बहुत जटिल उलझन में उलझा हुआ मन तुमसे कुछ कहना चाहता है| अमित, कहाँ से शुरु करुँ और कहां इस बात का अन्त होगा, अभी पता नही| हर चीज आज वीरान नजर आती है| क्यों अमित? ऐसा क्यों होता है? प्यार की कोई इज्जत नहीं करना जानता| क्या प्यार सिर्फ प्यार नहीं होता? क्यों सब इसे केवल एक भावना माञ समझते है| सभी कहते हैं समय के साथ हर कोई अपनी परिस्थितिओं में एडजस्ट हो जाता है| परिस्थितियाँ बदल देती हैं सभी को, लेकिन नर्म दिल बदल कर पत्थर का कोई कैसे लगा सकता है कोई नही जानता| अमित, कैसे तुम तक अपने मन की हर एक बात पहुँचाउँ? कैसे लिखूँ वह सब जिसे लिखते समय मेरे हाथ काँपने लगते है? अमित, बताओ मुझे, जोर से बताओ मुझे कि सारी दुनियाँ सुन ले कि तुम मेरे हो, सिर्फ, मेरे! मै तुम्हारी रहूँ या न रहूँ मुझे इससे कोई शिकायत नहीं होगी| कभी भी नहीं क्योंकि मै जानती हूँ कि मेरे लिए तो तुम हमेशा-सदा-सदा के लिए मेरे रहोगे, चाहे परिस्थितियाँ कितनी विपरीत रहें? तुम्हें मेरे दिल ने जब एक बार अपना मान लिया है तो तुमको मेरे मन से कौन निकाल सकता है? कोई नही, भगवान भी नही! अमित, तुम मेरी आँखों से दूर हो, मेरी आँखें तुम्हें देख भी नही पाती| लेकिन कहीं न कहीं हर समय तुम्हें अपने ही भीतर ढूँढ लेती है| हर आहट पर तुम्हारे आने की शंका होती है मेरे कान चौबीस घंटे तुम्हारी कार की ही आवाज सुनते है| कभी लगता है कोई कार रुकी - गेट खुला, मेरा दिल धक-धक करने लगता है, पर तुम कभी नही होते| अमित तुम्हारी बेहद याद आती है| ऐसा लगता है कभी-कभी कि सब तुम्हें मुझसे छीन रहे है और तब देखती हूँ तुम्हें कोई जबरदस्ती मुझसे छीन कर ले गया| न मैं कुछ कर पायी, न तुम| बस, सूनी आँखों से एक-दूसरे को देखते-देखते हम जुदा कर दिए गए| अमित, बहुत डर लगता है अब, हम बेबस न हो जाएँ, हमारे सपने टूट कर न बिखर जाएँ कहीं| अमित, हमारी किस्मत हमें चाहे कही भी ले जाए पर एक बात याद रखना हमेशा कि तुम मेरी नजरों से जितने दूर होगे, मेरा मन तुम्हें उतना ही करीब पाएगा|
अमित, मैं लिखना क्या चाह रही हूँ और लिखा कुछ और ही जा रहा है! जो लिखना चाह रही हूँ वो लिख नहीं पा रही| मेरा मन बहुत अस्थिर है| तुम मुझे अपनी चिट्ठी में जो कुछ नही लिख पाए मैंने उसे जान लिया है| तुम आजकल बहुत परेशान हो मुझे पता है| हाँ, अमित इसका कारण भी मुझसे छिपा नही है| बहुत समझदार तो नही हूँ मैं लेकिन फिर भी कुछ तो समझती हूँ| और इसीलिए तुमसे तुम्हारी परेशानी कम करने के लिए कह रही हूँ कि तुम अपने लिए अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंञ हो, इसमें मुझसे पूछने की क्या जरुरत? अमित देखो, तुम मुझे अपना कहते हो न फिर तुम्हारा निर्णय क्या मेरा निर्णय नही है? क्या तुमको मुझ पर इतना भी विश्वास नहीं? - मैं स्वार्थी नहीं हूँ अमित, और सबकी खुशी के आगे मेरी खुशी कोई मायने नहीं रखती| फिर मैं दुःखी भी तो नहीं हूँ| तुम खुश रहो मेरी तो यही सबसे बड़ी खुशी है| अमित, अभी कुछ नही बिगड़ा, तुम्हें यह पञ कल मिल जाएगा , मैं इसे नवीन भाई साहब के हाथ भेज रही हूँ| वे आज मम्मी के पास शोक प्रकट करने आए थे और किसी काम से दिल्ली जा रहे है| वहीं वीणा दीदी से मिलने की इच्छा रखते है| अमित, मेरी चिन्ता मत करना लेकिन करना वही जिसके लिए तुम्हारा दिल तुम्हें इजाजत दे...|"
इन्ही भावनाओं के साथ|
सिर्फ तुम्हारी
प्रिया"
 
- अमित पञ पढकर भावुक हो उठा| वह किसी तरह उड़कर प्रिया के पास पहुँचना चाहता था| साथ ही उसे माँ निर्मला पर भी क्रोध आ रहा था| स्वयं उसने उसे रोका था प्रिया से कुछ भी जिक्र करने को और स्वयं घर लौटकर उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की थी|
 
अमित जल्दी से प्रिया को कुछ शब्द लिखकर भेजना चाह रहा था ताकि नवीन भाई के हाथ आज ही प्रिया को उसके मन का हाल मालूम पड़ जाए|