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नई सुबह
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नई सुबह ( पंद्रह)
ISBN: 81-901611-13
देव को तीन दिन बाद फिर दर्द हुआ| सारी रात वीणा उसकी मलिश करती रही| एक-एक करके देव ने दर्द की चार गोलियाँ खा लीं| तब कहीं वह सो पाया| सुबह-सवेरे वीणा ने अमित से देव की दशा के विषय में बात की| वह भी चिन्तित हो उठा|

देव उस समय बाथरुम में था| वीणा के पास समय था अमित से बात करने का, बोली वह, "अमित! उस दिन डाक्टर गुप्ता की बात सुनकर मुझे डर लग गया| एकाएक ऐसा लगा कि जैसे वह कहना चाह रहे हों कि आगे यदि दर्द हो तो वे दूसरे किसी अस्पताल में जाएँ| वहाँ के स्पेशलिस्ट को दिखाएँ और रेडियोथरैपी करवा लें!"

अमित यह सुनकर बोला, "रेडियोथरैपी! आपने उस दिन तो मुझे बताया नहीं|" - उसे तनिक आश्चर्य हुआ, "उसकी क्या जरुरत है?"

"वह तो बोला कि मैने आपरेशन के बाद ही कहा था|" - वीणा ने संयत स्वर में कहा, "अब भी देर नहीं हुई| देव को दर्द बार-बार उठ रहा है| ऐसा क्यों कहा उसने?" - अपने मन के भय को कुछ उजागर किया उसने|

"मै क्या जानूँ, भाभी, उसने ऐसा क्यों कहा? हाँ आपरेशन के बाद उसने ऐसा कुछ नहीं कहा था, उसका मुझे पुरा पता है| तब वह बात रमेश भाई या मोहन भाई से ही करता था| वे सारी बातें मुझे बता देते थे|" - अमित की बात में सच्चाई थी वीणा को लगा|

वीणा की आँखों से आँसू टपक पड़े| अमित भी भावुक हो गया| बोला, "भाभी! दुःखी मत होईए| मैं तो हर किसी से आपकी मिसाल देता हूँ| आपने कितनी हिम्मत की देव से शादी की हाँ करके|"

वीणा ने आँसू पोंछते हुए देखा अमित की ओर| घर में सबसे छोटा| शब्दों में कही उसे चतुराई न दिखी| एकाएक कह उठी "तुम भी ऐसा ही समझते हो कि मुझे पता था?"

"हाँ, विग्यापन तो जो बनाया था वह देव ने ही लिख कर दिया था| शेष मैं इतनी बात जानता हूँ कि देव ने आपसे जरुर बात की होगी या फिर रमेश भाई ने आपके डैडी से....|" - अमित को आश्चर्य हो रहा था. वीणा के मुख से ऐसा सुनकर|

वीणा तब बोली, "तुम्हें प्रेम-सा दर्जा दिया है| अपना छोटा भाई मानने लगी हूँ| तुमसे ही कहकर मन हल्का कर रही हूँ कि मुझे इस बात का कुछ पता नही चला| विग्यापन जो लिखा था वह तो मेडिकल टर्म मेरे क्या, किसी भी पढ़े-लिखे को समझ नहीं आ सकती| लेकिन उसके बाद किसी ने भी इस बात का जिक्र नही किया| मेरे घर वाले तो अभी भी नही जानते कि देव में कोई कमी है भी| सब मेरी और देव की जोड़ी को देख-देख कर ही खुशी से भरे हैं|"

वीणा की बात सुनकर सन्न रह गया अमित| बोला, "ये कैसे हो सकता है भाभी? मैं जो घर भर की जिम्मेवारी निभाता हूँ, मै भी इस धोखे में रहा|" - थोड़ा आवेश में आ गया वह, "मैं आज ही रमेश भाई को पञ लिखकर पूछँगा| उन्होंने ये बात क्यों नही खोली?"

"नहीं - तुम ऐसा कुछ नही करोगे| किसी से भी नही बोलोगे| और न ही देव से भी पूछोगे| तुम्हें मेरी कसम, इस बात को तुमसे कह दिया यही काफी है| न जाने कैसे मैं हिम्मत कर बैठी| आज मेरे दिल का बोझ हल्का हो गया है| लेकिन जो कुछ कहा है, भाई मानकर| इससे आगे तुम चुप रहोगे|" - वह बोलती जा रही थी - "मम्मी-डैडी आ रहे हैं| ध्यान रहे उन्हें कुछ न पता लगे| मेरे डैडी वैसे तो बहुत शान्त प्रक्रति के है| पर जब उन्हें गुस्सा आ जाए तो कुछ न कुछ कर देते है| न जाने क्या निर्णय ले बैठें| मैंने सब अपने भाग्य पर छोड़ दिया है| देव का मेरे जीवन में आना लिखा था, वह हो गया| अब जो होगा, अच्छा ही होगा| मुझे तो लगता भी नही कि मैं कभी देव को नहीं जानती थी| मैं मन से देव को चाहने लगी हूँ| ऐसे मे तुम मेरी इतनी ही मदद कर दो कि मेरे माता-पिता जैसे हँसते हुए खुशी से आएँ, वैसे ही वह लौटे| शेष जो होगा, जैसा होगा, अच्छा ही होगा, ऐसा मेरा विश्वास है|"

अमित को लगी वीणा दैवी-रुप! एक शक्ति!इस तेज रफ्तार से चलती जिन्दगी में अनूठी औरत| जिसे शादी के बाद पता लगा कि उसके साथ धोखा हुआ है, लेकिन खुश है| अपनी खातिर ही नही अपने परिवार की भी खातिर| जिसने कितनी खुशी से सब अपना लिया है| अभी दस मिनट पहले तक उसे जो लग रहा था, वह तो बिल्कुल असत्य था। उसके मन में जो भाव थे, वह और उपर उठा गए वीणा के स्वरुप को| बरबस उसकी आँखों से आँसू बह निकले| बोला वह, "मैं भी आपका गुनाहगार हूँ| मुझे जो चाहे सजा दे दो|"

"कैसी बात करते हो अमित! भाई समझा तभी मन की बात कह रही हूँ| ऐसा कुछ भी मत सोचो| मुझे तुमसे क्या किसी से गिला नहीं है|"

वीणा की बात सुनकर अमित नतमस्तक हो गया| बाथरुम से पानी चलने की आवाज बन्द हो गई थी| देव के निकल आने में चन्द ही मिनट थे तब वीणा ने बात समाप्त करते हुए कहा, "ध्यान रखना जो तुम्हें कहा है|" और यह कहकर वह रसोईघर की ओर बढ़ गई| और अमित अपने कमरे में चला गया| देव को देवर-भाभी के बीच हुए वार्तालाप का कुछ पता न चला|

अपने माता-पिता से मिलकर वीणा का मन प्रसन्न हो उठा| प्यार से माँ की गोदी में सिर रख कर आँखें बन्द कर लीं उसने| पिता पन्नालाल, माँ-बेटी का प्रेम देखकर मुस्कुरा रहे थे| माँ से मिलकर वीणा को एकाएक लगने लगा था कि जैसे जीवन में उसके, देव से उपर भी बहुत बड़ा सहारा है| माँ का सहारा| माँ जिसे वह अपने दिल का सब हाल बता सकती थी| माँ जो उसके मन की भाषा को बड़ी सरलता से पढ़ सकती थी| माँ निर्मला को लग रहा था जैसे वीणा बहुत दिनों बाद शान्ति पा रही है उससे मिलने के बाद| जैसे मन में उसके ढ़ेर-सी बातें हैं जो वह उससे कहना चाहती है| ऐसे में ही जब वे दोनों कमरे में अकेले रह गए तब पूछा निर्मला ने, "वीणा! तू खुश है न?"

हाँ, माँ, बहुत खुश हूँ|" - वीणा ने आखें बन्द किए हुए कहा, "बहुत खुश हूँ|" - और उसके शान्त चेहरे पर बन्द आँखों से आँसू बहने लगे| यह आँसू खुशी के थे या कि किसी गम की पहचान करवा रहे थे, एकाएक निर्मला न समझ पाई बोली, "अरे, आँसू क्यों बहाती हो| मुझसे मिलने की इतनी चाह थी तो चली आती देहरादून! मै दूर तो नहीं इतनी|"

- उसकी आँखें पोछते हुए बोली - "शादी के बाद रही भी कितना है तू मेरे पास? दो ही दिन! अब नागपुर से आउँगी तो साथ चलना मेरे| दस-पन्द्रह दिन मेरे पास रहना| देव आकर तुझे ले जाएँगे|"

आँखें बन्द किए वीणा ने तब कहा, "तुम लौट आओ माँ, नागपुर से| मेरे पास रहना कुछ दिन| मेरे लिए तो देव को छोड़कर जाना मुश्किल है|"

"अरे, क्यों मुश्किल है?" - माँ को वीणा का यूँ कहना अच्छा भी लगा| मन में सोचा, कितनी अच्छी बात है| पति-पत्नी में इतना प्यार हो गया है कि अब एक-दूसरे के बिना कहीं रहना नहीं चाहते| वैसे ही भाव लिए बोली, "अच्छा लगा सुनकर| पर बेटी माँ को भी तो तेरी याद आती है| देव जी से मैं कहूँगी| कुछ दिन जरुर रहने को चलना मेरे साथ|"

वीणा को लगा वह भावुक हो उठेगी| मन की बात कहीं शब्द बनकर मुख से निकल न जाएँ| एकाएक उठकर बैठ गई| आँखें साफ करते हुए बोली, "चलो न माँ, आप नागपुर से पहले अच्छी खबर ले आओ| मेरा क्या है, जब मन आएगा मैं आ जाउँगी| और रजनी की शादी की तारीख पक्की हो जाएगी | तब तो मैं शादी से पहले आकर साथ ही तो रहूँगी आपके|"

बात वहीं रुक गई| देव कालेज से लौट आया था| माँ निर्मला और पिता पन्नालाल को उसने चरण-स्पर्श किया और उनका हाल-चाल पूछने लगा| बातों ही बातों में निर्मला को लगा कि देव जैसे बेचैन है| पूछ उठी वह, "तबियत ठीक है न, देव जी? कुछ बेचैन लग रहे है?

देव तब हल्का सा दर्द महसूस कर रहा था, उसे दबाते हुए बोला - "नहीं बस थक गया हूँ| इसीलिए थोड़ा सिर में दर्द महसूस हो रहा है|"

माँ को सच लगी उसकी बात| बोली, "चलो बेटा आप आराम कर लो| मैं थोड़ी देर बहनजी के पास बैठती हूँ| वैसे भी शाम की तो हमारी गाड़ी है|" - माँ ने पति-पत्नी को अकेला छोड़ दिया|

वीणा तब बोली - "दर्द हो रहा है क्या?"

"हाँ, हल्का-सा! कालेज में ही गोली खा ली थी|" - देव ने तब कहा| आँखें बोझिल हो रही थीं उसकी|

"आप आराम कर लीजिए| मै खाना तैयार करती हूँ| शाम तक आराम आ जाएगा| ठीक रहेंगे तो मम्मी-डैडी को स्टेशन छोड़ने चलेंगे|" - वीणा तब कमरे से बाहर जाने को हुई| देव ने तब पूछा - "कुछ बात तो नही हुई, मम्मी-डैडी से ?" - मन का चोर उजागर किया उसने| जैसे इसी बात की परेशानी थी| इसीलिए ही बचैन था वह|

"कैसी बात करते हैं, आप! चलिए आराम कीजिए" - और वीणा बाहर निकल गई| देव का आधा दर्द तो ठीक होता महसूस हुआ|
नागपुर से लौट कर माँ निर्मला ने अच्छी खबर दी| रजनी की शादी वह पक्की कर आए थे| दो महीने बाद का महूर्त निकला था| लडके वाले देहरादून आने को मान गए थे| "लड़के वालों में है ही कौन? लड़का ही अपने घर का कर्ता-धर्ता है| बड़े भैया तो उसके रेलवे में चीफ-इन्जीनियर हैं| अपनी नौकरी में मस्त रहते है| छोटे दो भाई और है, वे भी अपने-अपने काम में लगे रहते है| माँ विधवा है| वह बेचारी तो यही कहती रही कि पञों का जवाब देने के लिए वह अपने बड़े बेटे को लिखती थी. लेकिन उसे उनकी चिन्तानहीं| तब हिम्मत करके लड़के ने स्वयं लिखा| बात कुछ भी नही थी| वे यूँ ही चुप बैठे थे|" - माँ ने वीणा को विस्तार से सब बात बताते हुए कहा|

"लड़के के बारे में सब देख लिया न, माँ?" - वीणा ने तब पूछा| "भले लोग है| इससे अधिक और क्या देख-समझ सकते है हम| विश्वास तो करना ही पड़ता है| लड़की की शादी तो जुआ है, बेटी! ग्रहस्थी ठीक चलती रहे, यही कामना कर सकते है लड़की वाले और जो शादी के बाद होता है वह सब लड़की का अपना भाग्य ही होता है|"

-मां निर्मला ने सहज भाव से कहा वीणा से| वे क्या जाने वीणा की बात में छिपे मर्म को|

"हाँ, माँ, तुम ठीक कहती हो| शादी के बाद जो कुछ भी होता है वह लड़की के भाग्य में लिखा होता है| शादी ऐसा बन्धन है, हमारे समाज का, जिसे जितना निभाना चाहो, जैसे निभाना चाहो वैसे ही निभ जाता है| कुछ बातें तो जानकर भी नही देख पाते हम| कुछ बातें समझकर भी समझ नही पाते हम| बात-बात पर शक तो नहीं किया जा सकता| फिर भी रजनी का भाग्य बलवान होगा, यही कामना है मेरी|"

"हाँ बेटी, रजनी का भाग्य अपनी दोनों बड़ी बहनों जैसा ही होगा| सुनीता खुश है अपने पति के साथ| तुम खुश हो अपने पति के साथ| हमारा जीवन तो सफल हो गया| रजनी के बाद अब प्रिया और गीता के हाथ पीले हो जाएँ जल्दी से तो मेरा जीवन भी सफल हो जाएगा|

माँ की आँखों में छिपी खुशी को वीणा ने सहारा दिया| वह उसकी आँखों की चमक को कम नहीं और अधिक बढ़ते हुए देखना चाह रही थी| बोली, "प्रिया के लिए, माँ, मुझे अमित बहुत अच्छा लगता है| बहुत अच्छा लड़का है| अपने परिवार में सबसे अलग| सब की भावनाओं की चाह रहती है उसे| मेरा तो बहुत ध्यान रखता है|" - अमित के प्रति अपनी भावनाओं को वह माँ के सम्मुख व्यक्त कर रही थी और कह बैठी - "मै भी यहाँ खुश हूँ| और अमित तो अपनी पत्नी को पलकों पर बिठा कर रखेगा|

माँ को जैसे वीणा की बात बहुत अच्छी लगी| बोली, "मै प्रिया से पूछूँगी| डैडी से भी बात करुँगी तुम्हारे|" - जैसे कुछ याद आया उन्हें, बोली, प्रिया के जन्मदिन पर अमित का कार्ड भी आया था| वह भी उसे पाकर खुश हुई थी!"

वीणा को यह खबर सुनकर आश्चर्य हुआ| अमित ने अपने मन की बात उससे छिपा कर रखी थी| उसे अमित पर और अधिक स्नेह उमड़ आया| प्रिया के लिए उसे अमित में कोई कमी जो नहीं लग रही थी|

उनकी बात वहीं रुक गई| शाम अमित अपने काम से लौट कर जब आया तो वीणा ने उसे छेड़ा, "अमित! प्रिया ने तुम्हारी शिकायत की है|" एकाएक प्रिया का नाम सुनकर वह हड़बड़ा गया, बोला, "मेरी शिकायत! मैने क्या किया है ?"

"यह तुम ही जानो| मुझसे तो बातों ही बातो में पूछा था उसका जन्मदिन और फिर तुमने क्या किया , मै क्या जानूँ!" मुस्कुरा रही थी वीणा|

"मैने क्या किया....," सोचने का नाटक किया अमित ने, "मैने कुछ नही किया, बस ग्रीटिंग कार्ड के साथ अपना भी एक कार्ड भेज दिया|" - मुस्कुराने लगा वह यह कहकर|

"बस यही शिकायत कि उसके बाद अमित ने उसकी कोई खबर नहीं ली...!" - वीणा की बात सुनकर अमित खुश हो गया|

"ऐसी बात है, भाभी! जानती हो मैं उसके नाम रोज कुछ न कुछ लिखता हूँ अपनी डायरी में|" - अमित जो कितने दिनों से हिम्मत कर रहा था अपने मन की बात कहने की वह इतनी सरलता से बता पायेगा वीणा को, इसका तो उसे अन्देशा भी न था| वह कह रहा था, "अब मुझे लगता है उसे पञ लिखना चाहिए ?"

- "ऐसा मुझसे क्यों पूछ रहे हो, खुद से निर्णय लो|" - वीणा के चहरे में स्नेह भरे भाव थे| अमित को अपनी मुँह मांगी मुराद पूरी होती दिख रही थी|