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नई सुबह
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नई सुबह (ग्यारह)
ISBN: 81-901611-13
आज देव-वीणा की शादी की रिसेप्शन थी| अमित सुबह से ही घर और यूनिवर्सिटी क्लब के बीच भाग-दौड़ कर रहा था| सुबह से केवल एक ही बार वह वीणा से मिला था| वीणा को लगा कुछ पूछना चाहता था वह, लेकिन किसी संकोचवश वह पूछ न सका| और यह बात उसे शाम को समझ आ गई थी जब देहरादून से प्रिया, गीता व प्रेम आ गए थे| उन्हें आया देखकर अमित की आँखों में जो चमक आई थी उसे वह छिपा न सका था| सुबह से वीणा को वह जितना व्यस्त लग रहा था, अब उतना ही निश्चिन्त लगा उसे|
 
अब कल की तरह वह वीणा के आसपास मंडरा रहा था| प्रेम तो देव के साथ दूसरे किसी कमरे में था और वीणा अपनी बहनों के साथ हँसी-ठिठोली में मग्न थी| वीणा के चहरे की रौनक कहीं भी ऐसा कुछ आभास नहीं करवा रही थी कि रात में देव और उसके बीच कुछ गम्भीर वार्तालाप हुआ है| तीसरी बार जब अमित आया तो वीणा ने उसे बैठने को कहा| तब अमित बोला, "कैसे बैठूँ भाभी, अभी तो साँस लेने की फुर्सत भी नहीं है|"
 
यह तो मैं देख रही हूँ, लेकिन अभी कुछ देर से लगता है तुम कुछ बोर हो रहे हो| शायद सब काम पूरा हो चुका है" वीणा को अमित के व्यवहार से, उसके काम में व्यस्त रहने की आदत से सुखद अनुभूति हो रही थी|
 
"मेरा काम तो पूरा हो चुका है| बस, अब तैयार होना है सबको|"
 
- अमित को सबको तैयार करने की भी जिम्मेदारी थी|
 
"...हाँ, सभी तैयार होंगे| तुम सबसे पहले शुरु हो जाओ|"
 
- वीणा ने मुस्कुराते हुए उससे कहा|
 
"मैं सबसे पहले कैसे हो सकता हूँ ? घर मेहमानों से भरा है| सबको तैयार करके ही मुझे मौका मिलेंगा तैयार होने का|" और जैसे उसे कुछ और याद आया, "अरे! कोमल भाभी आपको ब्यूटी सैलून ले जाने वाली थीं न? न जाने क्या कर रही हैं - देखकर आता हूँ|" यह कहकर वह फिर बाहर निकल गया|
 
वीणा उसकी बात सुनकर केवल मुस्कुरा भर दी| उसने अपनी बहन प्रिया और गीता की ओर देखा| वे भी अमित की ओर देख कर मुस्कुरा रही थीं| अमित कमरे से निकला तो वीणा ने कहा" बहुत अच्छा लड़का है| सबका ध्यान रखताहै|"
 
"आपका तो कुछ ज्यादा ही रख रहा है|" - गीता ने कहा|
 
"हाँ, लेकिन सबके लिए हर काम करने को तैयार रहता है| कल से देख रही हूँ सारे घर में छाया हुआ है|" और जैसे उसे कुछ याद हो आया वह प्रिया व गीता से बोली, "तुम एक-दो दिन रुकोगी न ?"
 
"भैया कह रहे थे कल चले जाएँगे" - प्रिया ने कहा|
 
"नही कल नहीं|" अभी वह पूरी बात कह भी न पाई थी कि अमित फिर से आ गया| अमित ने वीणा का शब्द सुन लिया था- "कल नहीं क्या ?" उसने पूछा लिया|
 
वीणा मुस्कुराती हुई बोली, "यूँ ही प्रिया कह रही थी कल वापिस जाने के लिए|"
 
"अरे कल ही ?" प्रिया की ओर देखा उसने फिर वीणा को कहा, "कल क्यों जाएँगी ? दो चार दिन रुक कर जाएँ| इन्होंने दिल्ली नहीं देखी होगी।मैं सब घुमा दूँगा|"
 
गीता सुनकर खुश हो गई| लेकिन प्रिया ने कहा, वैसे भी मैं कहाँ रुक सकती हूँ, अगले हफ्ते मेरे प्रैक्टिकलशुरु होने हैं|"
 
तभी कोमल भीतर आ गई| उसको देखकर अमित का हौसला और बढ़ गया| वह उसी की ओर आमुख होकर बोला, "हमें क्या ऐतराज हो सकताहै। लेकिन कोमल भाभी जाने देगी तब न ?"
 
"किसको जाने देगी... जरा मैं भी तो जानूँ ?" - कोमल ने कहा|
 
"प्रिया व गीता को...|" - वीणा ने बताया|
 
"अरे ये कैसे हो सकता है| इस हफ्ते हमारे साथ रहें| दिल्ली घूमे| अगले हफ्ते तुम व देव देहरादून चक्कर लगाने जाओगे ही तुम्हारे साथ ही वापिस चली जाएँगी|" - कोमल जैसे अमित के मन की चाहना को भाँप चुकी थी, अमित को मुस्कुराते देखकर फिर बोली, "क्यों अमित, ठीक रहेगा न...?"
 
"हाँ-हाँ, मैं तो पहले ही कह रहा था|" लेकिन कोमल की अर्थपूर्ण मुस्कुराहट देखकर वह झेंप-सा गया| तब कोमल वीणा को लेकर ब्यूटी सैलून जाने को चल दी| अमित शेष तैयारी में जुट गया|
 
पार्टी बड़ी धुमधाम से सम्पन्न हो गई|
 
वीणा का मन खुश हो गया| देव के नाते-रिश्तेदार, देव के मिञ उसे जितने प्यार से मिले और उसने यह बार-बार महसूस किया कि अपने समाज में देव की बहुत इज्जत है| सभी उसके ग्यान की, उसके स्वभाव की प्रशंसा कर रहे थे|
 
वीणा को यह सब देखकर स्वयं पर गर्व महसूस हुआ| प्रिया व गीता भी ऐसा देखकर बहुत खुश हुई| प्रेम को अमित ने अपने पास से हिलने ही न दिया था| प्रेम उससे बहुत प्रभावित हो गया था|
 
पार्टी से लौटकर देव व वीणा जब अपने कमरे में आ गए| तब देव ने पूछा वीणा से - "कैसा लगा सब तुम्हें ?"
 
"बहुत अच्छा|" - वीणाने मुस्कुराते हुए देव को दखते हुए कहा |
 
तब तक देव ने सिगरेट सुलगा लीथी| उसे ऐसा करते देखकर वीणा ने कहा, "आपको सिगरेट नहीं पीनी चाहिए|"
 
"कुछ नहीं होता इससे|" - देव ने लापरवाही से कहा| तभी उसे कुछ याद आया, बोला, "मैंने बातों ही बातों में रमेश भाईसेपूछा था| उन्हें बताया कि तुम मेरे आपरेशन के बारे में कुछ नही जानती| रमेश भाई इस बात को लेकर परेशान हो गए| उन्हें मैंने और नहीं कुरेदा| अब क्या सच है और क्या झूट यह तो बता पाना मुश्किल है! मैं स्वयं को ही गुनाहगार महसूस कर रहा हूँ|"
 
वीणा की मुस्कुराहटफिर लुप्त हो गई| बोली, "दखिए, मैं अब इस बहस में नहीं पड़ना चाहती| मुझे जो मालूम था वह मैने आपको बता दिया है| और अब मैं बार-बार उस बात को सोचकर अपने मस्तिष्क का संतुलन नहीं बिगाड़ना चाहती| मुझे आपकी बात पर विश्वास करने को जी चाहता है और इसलिए मेरे मन मेंअब कोई गिला नहीं है|" - वीणा की आँखे नम हो आई थीं| वह कहती रही, "मैंने आप जैसे पति की कल्पना की थी और वह मेरी पूरी हो गई| अब मेरे मन में सदा यही चाहना रहेगी कि मेरे और आपके बीच एक-दूसरे को समझने की भावना बनी रहे| आप अब अच्छे-भले हैं| मैं यही प्रार्थना करतीरहूँगी कि आप हमेंशा तन्दुरुस्त रहें|"
 
देव शायद यही सुनना चाह रहा था| अपने मन की आवाज, अपनी हर इच्छा को एक नए रुप में निखरते देखने की चाह इतनी बलवती हो गई थी उसमें कि इस सच-झूँठ के भंवर में फंसना ही नहीं चाह रहा था| जो हो चुका है, इसको कुरेदना वह इसलिए नहीं चाहता था कि उसकी पर्त के पीछे छिपा घाव बहुत जहरीला था| "तुम वास्तव में बहुत बड़े दिल वाली हो वीणा|" - देव ने उससे कहा फिर अपनी सिगरेट बुझा दी और वीणा को अपनी बाँहों में ले लिया| वीणा के बदन में झुरझुरी-सी दौड़ गई| एक क्षण पश्चात् ही संयत होकर देव से उसने विनती-युक्त स्वर में कहा, "आपको एक वायदा करना होगा मुझसे...?"
 
"एक नहीं हजार बोलो...|" - देव ने कहा| वह वीणा पर सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार था|
 
"बस, केवल एक ही आप आज के बाद किसी से भी इस विषय में कोई बात नहीं करोगे| न अपने किसी भाई से और न ही मेरेकिसी परिवार के सदस्य से| आपकी हर परेशानी में मैं आपके साथ रहूँगी और मैं नहीं चाहती कि मैं अपनी-आपकी किसी बात की राय अपने किसी परिवार के सदस्य से लूँ|" कुछ रुकी वीणा| पुनः बोली, "मैं नही चाहती कि मैं अपने माता-पिता, भाई-बहनों को ऐसा कुछ बता कर उनकी चिन्ताएव्यर्थमें बढ़ा दूँ| आप कह रहे हैं और मुझे विश्वास है कि आपको कुछ और नहीं होगा| उनको कुछ बताउँगी तो व्यर्थ में वह चिन्ता करेंगे| मेरे माता-पिता ने हम सब बहनों को अच्छी शिक्षा दिलाई है| बड़ी कठिन परिस्थितियों में उन्होंने हमें पाल-पोस कर बड़ा किया है| मैं उन्हें और चिन्ता करते नही देख सकती| और मेरी बड़ी तमन्ना है कि मेरा अपना एक घर हो - छोटा-सा| जहाँ मैं और तुम बिना किसी के दखल के अपना जीवन व्यतीत कर सकें|"
 
देव वीणा के शब्द सुनकर आत्मविभोर हो उठा था| बोला, "वीणा| तुम्हारे विचार जानकर मुझे लग रहा है मै बहुतभाग्यशालीहूँ| तुम जो कहोगी, मै वैसा ही करुँगा|" फिर कुछ रुक कर बोला, "अब हम अपनी बातें यहीं समाप्त करें| बहुत रात हो गई है और तुम भी दो रातों से ठीक से नहीं सो सकी हो|" हमें अब आराम करना चाहिए|"
 
इतना कहकर देव ने बती बन्द कर दी| और पलंग पर लेट गया|
 
नींद कोसों दूर थी दोनों की आँखों से| शादी की दूसरी रात देव वीणा को छूना चाहता था| उसे सहलाना चाहता था| उसे प्यार देना चाहता था| उससे सहवास की इच्छा थी| लेकिन झिझक रहा था| जो ललक थी उसमें वीणा को प्यार देने की, वीणा से प्यार पाने की वह दब गई थी| यही चाह रहा था कि वीणा उसे छू ले, बस इतनी भर पहल वह कर ले, शेष वह सब करेगा|
 
और उधर वीणा अंधेरे कमरे में सीधी लेटी छत में कुछ आक्रतियाँ बनती-बिगड़ती देखने की कोशिश कर रही थी| मन में उसके भी चाह बलवती होती जा रही थी कि साथ लगभग छः इंच दूर लेटा देव उसे अब छू ले| प्रेमिलक्षणों की चाह किस औरत में नहीं होती! किसे अच्छा नहीं लगता पुरुष का स्पर्श!
 
इस चुप्पी को कौन तोड़े? इस चुपीसे तो और अधिक दूरी बढ़ जाएगी| अभी तो मन मान नही रहा वीणा का भी कभी कुछ हुआ भी था देव के साथ| अभी तो यही चाह है कि जिस खुशी से उसने देवसे शादी की है उसमें चार-चँद लग जाएँ| देव उसे छू ले| देव उसे सहला ले| वह देव का प्यार पा ले| और उसके प्यार में खो जाए| भूल जाए सब| भूल जाए कि जो हो चुका है, उसमें उसका भविष्य नही छिपा| जो हो रहा है और जो आगे होगा वही उसका भविष्य है| वही नई राह बनाएगा| वही नए सपनो का निर्माणकरेगा| जो सुख अब उसे मिलने जा रहा है| जो सुख उसे मिलेगा वही उसका भविष्य संवारेगा| वही सुख उसके नए जीवन में नए-नए रुप बनाएगा| देव के संसर्ग के सुखसे उपर उसे कुछ नही लग रहा था| देव के स्पर्श को पाने को वह भी बेताब थी!
 
जो पहले तनाव से मुक्त होगा, वही आगे बढ़ पाएगा| और दोनों एक-साथ इस तनाव से मुक्त होने को तैयार होने की चेष्टा करने लगे| देव ने हल्के से हाथ बढ़ाया| वीणा भी अपना हाथ बढ़ा रही थी और पलभर में ही हाथोका स्पर्श दोनों ने महसूस किया|
 
अगले ही पल दोनों एक-दूसरे की ओर बढ़ गए थे| प्रेम की दीवानगी में आलिंगन-बद्ध हो गए दोनों| कमरे में अंधेरा था और बाहर चाँदनी रात थी| समुद्र में तूफान आ गया था| लहरें एक-दूसरे का आलिंगन कर रही थी| दो लहरें उँचा उठकर आसमान को छूने को बेताब थीं जैसे एक हो जाने की चाह थी उनमें| एक ही गिनती हो, एक ही कहलाएँ जैसे वह दोनों| वीणा को यह तूफान बहुत अच्छा लग रहा था | देव का स्पर्श, देव का आलिंगन उसे नए युग की शुरुआत लग रही थी| अभी तूफान जोरो पर था कि देव की उमंगों की लहर एकाएक ढ़ीली पड़ गई| देव एकाएक पस्त हो गया| एकाएक बिजली कौंधी और देव को निढाल कर गई| वह अपनी सासों को और अधिक न रोक पाया| लेकिन वीणा का तूफान अपनी गति अभी बनाए था| वह देव को अपने से अलग न कर पाई| देव के हाथ को उसने अपने शरीर से अलग न होने दिया| जैसे बिजली का करंट चलने पर भी शरीर अपनी गति नहीं पकड़ पा रहा था| देव के मन को वीणा के मन की पहचान करनी थी| वह निढ़ाल था मगर वीणा की इच्छा को जान गया| वह वीणा के हर अंग को सहलाता रहा| उसे लगा वीणा को आनन्द मिल रहा है| वह रुका नही, बस उसकी अंगुलियाँ वीणा के शरीर में एक-एक करके प्रवेश करती रही और वीणा भी चन्द मिनटों में शान्त हो गई|
 
वीणा को यह सुख कैसा लगा, यह नही जान पायावह| पूछ भी नहीं सका उससे| बस ऐसे ही दोनों की आँख लग गई|
 
सुबह महसूस हुआ उसे कि देव उससे फिर लिपटा हुआ है| वह प्यार पाने को उतारु है| जैसे बीती रात का तूफान फिर से बेकाबू हो गया है| लेकिन यह तूफान वीणा को चन्द मिनटों का लगा| देव फिर से निढ़ाल हो गया|
 
वीणा कुछ समझ न पाई| अभी वह कुछ सोचती कि देव ने फिर से सिगरेट सुलगा ली और कश लेते हुए बोला - "वीणा! मुझे माफ करना| मैं स्वयं को मानसिक तनाव से मुक्त नही कर पा रहा| मेरे इस तनाव को अन्यथा नही लेना| मैं जल्द ही इस तनाव से मुक्त हो जाउँगा और सब ठीक हो जाएगा|
 
वीणा क्या कहती ? सुनकर चुप ही रही|
 
देव के व्यक्तित्व की इस कमजोरी को भी वीणा ने दबा लिया अपने मन के भीतर| न जाने किस मिट्टी की बनी थी वह| अपने मन की बात अपने में ही छिपाये रहती थी| शादी के बाद देहरादून भी देव के साथ हो आई थी, लेकिन घर में किसी कोभी इस बात का एहसास न होने दिया था उसने कि कहीं कुछ कमी पाई है उसने देव के शरीर में, या कहीं एक डर है उसके मन की गहराईयों में बैठा हुआ देव की बिमारी के नाम का! वह हरदम खुश रहती थी| माँ-बाप, भाई-बहन सभी खुश थे| देव के आकर्षक व्यक्तित्व पर सबके सब मोहित थे| उजला-खिला चेहरा, रौनक से भरी आंखें, चहरे पर ग्यान का तेज टपकता| उस पर गणित शास्ञ की कठिन से कठिन समस्या का समाधान पल भर में निकाल देना गीता के लिए वरदान साबित हो रहा था| तीन दिन रहे थे वह देहरादून और गीता ने अपनी हर समस्या का समाधान पा लिया था|
 
एक मध्यम वर्गीयशिक्षित परिवार क्या चाहता है? एक माञ यही चाह होती है कि जैसी शिक्षा वे अपने बच्चो को दे रहे है, वैसा ही जीवन साथी उन्हें मिल जाए| अच्छी नौकरी वाला होगा तो जीवन सुधर जाएगा, उनके बच्चो का| ऐसे में देव को पाकर वीणा के माता-पिता फूले नही समाते थे| और देव ने भी अपने प्रियदर्शी स्वभाव से उन्हें अपना दिवाना बना दिया था| सबसे पञ-व्यवहार उसकी दिनचर्या का एक अंग बन गया था|
 
ऐसे में कहीं किसी भी भाव से वीणा ने किसी को भी इस बात की भनक नहीं पड़ने दी कि देव के शरीर में कहीं कुछ कमी है| हाँ, देहरदून में सबने एक बात जरुर नोट की थी कि सुबह-सवेरे देव को पतीला भर कर गर्म पानी की जरुरत पड़ती है| बाथरुम वे वह लगभग पौना घंटा लगाता है| कारण, चाहकर भी कोई न पूछ सका| न देव से, न वीणा से| आखिर कोई शंका और कहीं दिखती तभी यह भाव कुछ उलटे रुप से मन में आता| ऐसे में वीणा के मन की बात वीणा की निजी बात ही होकर रह गई| वही देव की दिनचर्या से परिचित थी|
 
देव सुबह छः बजे उठ जाता था| तब वह जल्दी से चाय बनाकर कर ले आती थी| तत्पश्चात् उसके लिए वह एक बड़ा पतीला भर कर पानी गरम करती थी| यह पानी वह पहले अपने क्रञिम मलद्वार से पम्प करके भीतर करता था फिर उसी तरह पम्प करके पानी और शरीर का सारा मलबाहर निकालता था| वीणा ने पहले दिन यह प्रक्रिया देखने की इच्छा जाहिर की थी और देव केन नुकर करने पर भी नही मानी थी| देव तब उसे रोक नही सका था और वीणा बाथरुम में उसके पास खड़ी होकर देखती रही थी| इस प्रक्रिया के दौरान उसे कई बार उबकाई आने को हुई लेकिन उसने उसे रोके रखा|
 
देव को इस प्रक्रिया में लगभग पौना घंटा लग जाता था| इससे वह थक भी जाता था| लेकिन आपरेशन के बाद लगे बैग से यह प्रक्रिया अधिक सुविधापूर्ण थी| लगभग चौबिस घंटे उसे कोई परेशानी नही होती थी।
 
नहा धोकर दस बजे के लगभग देव कालेज चला जाता था और दो बजे वापिस लौटता था| खाना खाकर एक घंटे तक अपनी रिसर्च का काम करता था| वीणा को उसकी पढाई करने की आदत बहुत अच्छी लगती थी। देव का गणित की अति विकसित शाखा का गूढ़ ग्यान उसकी समझ से परे था| इस बीच वह देव के लिए कुछ न कुछ खाने को बनाती रहती थी|
 
सात बजे के बाद दोनों घूमने निकल जाते थे| एक-डेढ़ घंटे के बाद लौटकर वीणा रसोईघर में अपनी सास का हाथ बँटाने के लिए घुस जाती थी और देव किसी पञिका के पन्ने पलटता रहता था|