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नई सुबह
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नई सुबह (चौंतीस)
ISBN: 81-901611-13
"सात समुन्दर पार से
गुडियों के बाजार से
अच्छी-सी गुडिया लाना|
- गुडिया चाहे ना लाना
पापा जल्दी आ जाना!
पापा जल्दी आ जाना!
रेडियों पर भूला-बिसरा यह गीत आ रहा था| पन्नालाल के कानों ने सुना| जैसे स्पन्दन हुआ उनके शरीर में| शब्द जुबान पर चले आए| वह लौट आए गीत को एक नया रुप देने! रेडियों पर गाना तो बन्द हो गया| और पन्नालाल के मुख से बोल स्वतः निकलने लगे....
 
"सात समुन्दर पार से
मेरी गुडिया ले आना!
गुडियों के बाजार से
मेरी गुडिया ले आना!
बीत गई अब शाम सुहानी
मेरी गुडिया अब हुई बेगानी
राह दिखा दे कोई उसको
मेरी चाहत बता दे उसको|
मेरी गुडिया ले आना!
मेरी गुडिया ले आना!
वीणा जल्दी आ जाना|
वाणा जल्दे आ जाना|"
 
और वह फूट पडें| बच्चों की तरह रोने लगे! माँ निर्मला ने देखा| ये क्या हुआ? ये किस दुनियाँ में विचरते हुए बातें करने लगे है| हमें नही जानते| किसी को नही पहचानते| बस भीतर-ही-भीतर जिस गुडिया को पन्द्र्ह वर्षो से याद कर रहे है| उसी गुडिया के सपनों में खोए रहते है| उसी गुडिया की जैसे याद है उनको| उसी गुडिया से मिलने की चाह है उनकी| उसी गुडिया की राह ताक रहे है| उसी गुडिया से मिलने को बेताब है|
 
और वह गुडिया अपनी दुनिया में अपनी गुडियों से खेल रही है! उन्हीं में मस्त है| उन्हीं की चिन्ता है|
 
कैसा है जीवन! एक से दो बनते है| दो से चार| और चार फिर बंट जाते है अपनी-अपनी दुनियाँ बसाने| अपनी-अपनी राह पर चलने को बेताब| एक की गिनती जहाँ से शुरु होती है उस पर कोई वापिस नहीं लौटना चाहता| सभी आगे की ओर देखते हैं| और एक बेचारा अपनी पहचान की तलाश में भटकता रहता है| जैसे यहाँ पन्नालाल भटक रहे थे|
 
माँ निर्मला ने यही सब लिख दिया वीणा को| अन्त में यही लिखा कि वीणा! तुम मुझे भूल सकती हो| सबको भूल सकती हो लेकिन अपने डैडीजी को कैसे भूल गई हो? जिन्होंने बचपन में तुम्हें गोदी में बिठा कर बस प्यार ही दिया है| जिन्होंने कभी तुमसे कुछ माँगा ही नहीं| बस दुआएँ ही दी है| उनकी दुआ सुन लो उनकी दुआ जान लो| उनके प्राण तुम्ही में टिके हैं| आकर उन्हें शान्ति दे दो|'
 
माँ को देखो! अपनी भावनाओं में बहकर अपने पति की शान्ति की प्रार्थना कर रही थी वह|
 
अमित की ई-मेल पढकर वीणा भावुक हो गई थी| लेकिन उतर देते नहीं बन पा रहा था| एक नौकरी की व्यस्तता और उपर से बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी में डूबी वीणा चाहकर भी देश लौटने की नहीं सोच पाती थी| अरुण की भावनाएँ तो केवल अपने इसी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती थी| उसे दूसरे सभी बेगाने लगते थे| उसके बीते दिन की कहानियों को सुनकर उसकी हाँ-में-हाँ मिलाने वाले उसे जरुर अपने लगते थे| लेकिन ऐसा कोई भी उसे मिला नही| जब वीणा ही उसके बहुत पहले बीत चुके बचपन से विरक्त भाव रखती थी तब और कौन मिल सकता था उसे हमदर्दी जताने भर से उपर साथ देने वाला!
 
बच्चों की समझ इतनी नही थी कि वे सब समझ सकते| उन्हें भी अपनी यही दुनियाँ ही अपनी लगती थी| हाँ उनकी माँसी आई थी| उससे मिलकर उन्हें जरुर अच्छा लगा था| लेकिन इतनी अलग थी उनकी सभ्यता और संस्क्रति कि वे अपनी माँ के अपनों को बिल्कुल अपना नही समझ पा रहे थे| उन्हें सब बातें नाना-नानी के घर की, मामा-माँसी की - दूर कहीं उनके परिवार की बातें - अपने माँ से सुनी वैसी ही कहानियाँ लगती थी जैसी वे किसी कोर्स की किताब में पढते थे| उस पर उन्हें तो मशीनों की, रोबोर्टस की, स्टार-वार की और सुबह से शाम तक व्यस्तता भरी जिन्दगी की कहानियाँ ही अच्छी लगती थी| वे क्या जानें परिवार की जडों में रची-बसी भावनाओं को! उनकी भावनाओं में सिर्फ मां होती हैं जो बच्चों का ख्याल रखती है। उनकी भावनाओं में एक बाप होता है जो बच्चों को हिदायतें देता है| उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना जिसका कर्तव्य है| उस कर्तव्य से यदि कभी हटता है या हटने की कोशिश करता है तो उन बच्चों को अपने अधिकारों का पता है| तभी तो वीणा की जब कभी अपनी बडी बेटी से तकरार हो जाती तो वह यही कह कर वीणा को चुप करा देती थी कि 'कालेज जाने के बाद वह घर आना पसन्द नही करेगी| वह होस्टल में रहेगी और वही की होकर रह जाएगी|' ऐसे में वीणा एकदम सहम जाती थी| उसने तो अपने बचपन में ऐसा कभी नही सोचा था| वह तो बचपन से अब तक भावनाओं के सहारे जीती रही है| सब साथ-साथ चलता है उसके! उसका आज इन बच्चों के साथ बंधा है| उसका बीता कल उसकी यादों में बसा है| वह जब-जब बीते दिन याद करती है, उनसे सीख ही लेती है| अपने आज को सँवारने की| अपने आज में वह अपने परिवार में इसीलिए इतना रम गई है कि उसके बीते दिनों की भावनाएँ उसके बीते कल की यादें ही उसे समझाती है|
 
ये बच्चे तो अपने आज में जीते है| उन्हें उसके बीते कल से क्या लेना! बीता कल तो वीणा का वहाँ उसके देश में अभी भी जीवन्त है| बीच की एक कडी जो टूट गई थी, वही उसकी दुखती रग है| वही कभी-कभी उसे अपने बीते दिनों से दूर रहने को कहती है| उस देश में जाकर वह देव के साथ बिताए क्षणों को पुनः जीवन्त देख पाएगी| यह भाव कभी-कभी आते है उसके मन में| लेकिन क्षण भर के लिए ही| वह सागर में एक बुलबुले की भाँति उठते हैं और पल भर में विलीन भी हो जाते है|
 
आज में जीते उसे यदि कोई याद आ रहा है तो वह उसके डैडीजी! वह भी उनसे मिलने को बेताब हो चली थी| अपने आस-पास देखा उसने| अरुण को बता सकती थी अपनी इच्छा| वही कुछ कर सकता था| बच्चो की छुट्टियाँ आ रही थीं| वे भी शायद मान जाएँगे| वह बस जाएगी - उनसे मिलेगी और दस दिन में ही लौट आएगी|
 
मन हर दम सोचता ही रहता है| पल में तोला, अगले ही पल हिमालय पर्वत के वजन से भी ज्यादा बात सोच लेता है| एक पल तितली-सा बना फूल-फूल पर मंडराता है और दूसरे ही पल पत्थर-सा कठोर बना, निर्मोही-सा एक किनारे पडा रह जाता है| पल में सात समुन्दर क्या, आकाश गंगा की दूरी माप लेता है और अगले ही पल एक कदम भी उसका उसे भारी लगता है| यह मन ही है जो जीवन के सारे खेल खेलता है| यह मन ही है जो वास्तव में इस जीवन का खिलाडी है|
 
वीणा का मन भी सोचता बहुत है| रोज ही नई योजनाएँ बनाता है और उन योजनाओ को पूरा करने के सपने भी लेता है| उन्ही में एक योजना इस वर्ष के अन्त में दूर उसकी प्रतीक्षा में आँखें गढाये बैठे अपने डैडी से जाकर मिलने की है| वह अपने डैडी से मिलना चाहती है, क्योंकि उनके लिए वह अभी भी एक गुडिया है| ठीक वैसी ही गुडिया, जैसी वह अपनी बेटी को कहती है| जैसे उसकी दोनों बेटियों से उसे प्रेम है, वैसे ही उसके डैडी, उसकी माँ उससे प्रेम करते है| उन भावनाओ की तय तक पहुँच पाना भी इसी मन का काम है| यह मन दयालु भी, नाजुक भी, निष्ठुर भी, निर्मोही भी|
 
अमित की ई-मेल से मिली सोच से अभी उबर भी नहीं पाई थी कि माँ की चिट्ठी मिल गई| अब तो वह रोने लगी| अभी जाना चाहती है वह| नहीं जाएगी तो उसे उसके डैडीजी कभी नहीं मिल पाएँगे| उन्होंने अपनी बेटी से कभी कुछ नही माँगा, अब भी नहीं माँग रहे| लेकिन इस बेटी को याद बहुत करते है| क्या मालूम उससे मिलकर कुछ अच्छा लगने लगे! क्या मालूम उससे मिलकर अपनी होश में लौट आएँ!
 
लेकिन वीणा जो चाहती है, वह कभी नहीं होता| उसका जाने का उत्साह एकाएक ठण्डा पड गया| माँ की चिट्ठी अभी हाथ में ही थी कि फोन की घंटी बज उठी| दूसरी ओर अमित था| भर्राये गले से बोला, "दीदी! डैडी नहीं रहे!" वह आगे कुछ नहीं सुन पाई| फफक उठी| अमित 'हैल्लो-हैल्लो' करता रह गया| दूसरी ओर कान लगाए अरुण सुन रह था| एकदम चुप-सा हो गया| अमित की 'हैल्लो' का जवाब नहीं दे पाया एकाएक| कुछ पल फोन में अमित की आवाज आती रही और फिर फोन कट गया|
अभी बहुत सुबह थी| बच्चे सो रहे थे| माँ का रोना सुन कर उठ गए| घबराये हुए से उनके कमरे में चले आए| "ये क्या हुआ माँ को?" - पूछा उसके बेटे ने| "तुम्हारे नानाजी अब नही रहे|" - जवाब में अरुण ने धीरे से कहा।
 
तीनों बच्चे माँ से लिपट गए| कुछ कहने लायक शब्द नही जानते थे| बस माँ की पीठ थपथपाने लगे|
 
आँसू थम गए| लेकिन मन का रोना नही रुका| वह तो भीतर-ही-भीतर रोता रहा| अरुण वीणा के पास बैठा रहा| तरह-तरह की सांत्वना देता रहा और अन्त में यही बोला, "लगता है, अभी जाना नहीं लिखा हमारा इण्डिया| जब भी प्रोग्राम बनता है कुछ न कुछ गडबड हो जाती है! अभी अपनी मां को फोन कर लो| उनसे बात कर लो| और उन्हें यहाँ आकर मिल जाने को कह दो|"
 
वीणा ने कोई उतर नही दिया| चुप रहना ही बेहतर समझा| मन उसका यही सोच रहा था कि यह मोह उसके पति अरुण का और स्वयं उसका अपने बच्चो के प्रति इतना अधिक जकडा हुआ है उसके साथ कि उस जकडन से निकल पाना सरल नहीं|
 
भावनाओ का तूफान थोडा थमा तो वीणा ने माँ से बात करने को नम्बर मिला लिया| उधर प्रेम ने फोन उठाया था| वीणा की आवाज पहचान कर उसने, उससे एक ही प्रश्न किया, "दीदी! डैडी की तेहरवीं तक क्या आप आ जाएँगी?"
 
वीणा इतना ही जवाब दे पाई, "नही प्रेम! अभी आना नही हो सकेगा| मेरी माँ से बात कराओ|"
 
माँ निर्मला ने फोन लिया, लेकिन सिर्फ "वीणा!" कहकर सुबुकने लगी| वीणा भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाई| बस इतना बोली, "मेरा मन था बहुत डैडी से मिलने को| पर उन्होंने मेरा इन्तजार नहीं किया| माँ अब तुम मेरे पास चली आओ| मेरे साथ रहना तुम|"
 
जैसे और सभी को त्याग दिया है वीणा ने अपने परिवार की खातिर| माँ ही रह गई है वहाँ और अच्छा होगा वही चली आए|
 
वीणा की बात का माँ ने उतर नही दिया| बस यही बोली, "तुझे याद करते हुए ही चले गए| किसी से कुछ नही कहा| कोई कष्ट नही दिया हमको|"
 
वीणा माँ से बात कम कर पा रही थी| आँसू थे कि माँ की आवाज सुनते ही बहने लगे थे, जो कि अब रुकने का नाम नही ले रहे थे| तब बोली माँ से, "माँ, मै तुम्हें पत्र लिखूँगी| जल्दी ही| तुम अपना ध्यान रखना|"
 
तब वीणा ने एक एक करके अपनी बहनों से बात की| गीता से बात हुई तो उसने कह दिया, "दीदी! आप क्यों कट गई सारे परिवार से? सब यहाँ है, सिर्फ आपकी कमी खल रही है| ऐसी भी क्या बंदिश है जो अपने पति व बच्चों के सिवा कुछ नहीं सूझता आपको?"
 
गीता को लगा कि जैसे वीणा ने उसकी बात सुनी और उतर नहीं दिया। एकाएक फोन काट दिया| वीणा के पास उतर था भी और नही भी, लेकिन फोन उसने नही काटा, अरुण ने, जो दूसरे फोन को कान से लगाए था, आगे बढकर फोन काट दिया|
 
वीणा ने प्रश्न भरी द्रष्टि से उसे देखा तो वह बोला, "एक ही बात है सबकी जुबान पर - चली आओ! चली आओ! और कुछ नही| कोई नही समझना चाहता कि यह जिन्दगी इतनी आसान नही है जीना यहाँ| प्रिया तो देखकर गई, नहीं समझाया उसने किसी को या फिर वह भी समझ नही पाई कि तीन बच्चों को अच्छी पढाई, उनकी देखभाल और उनके सुन्दर भविष्य के लिए हम अभी वहाँ जाने की स्थिति में नहीं हैं और फिर वहाँ रखा भी क्या है अब तुम अपनी माँ को यहीं बुलवा लेना|"
 
वीणा ने उसकी बात का कोई उतर नहीं दिया| चुप रहना ही बेहतर समझा उसने|
 
रात देर गए वह माँ को लिखने बैठ गई|
 
"मेरी प्यारी माँ|,
ढेर-सा प्यार|
मै अपने प्रिय डैडीजी से उनके अन्तिम समय में भी नहीं मिल पाई, इसका मुझे दुःख है| वक्त बहुत जल्दी बीत गया| जीवन को सुचारु बनाने में, परिवार की देखभाल में| एक सपना जो हम सबका था, जिसमें तुम भी थीं, डैडी भी थे और मेरे सभी भाई-बहन भी थे - वह सपना था कि सबका अपना-अपना परिवार हो| सबकी जिन्दगी की गाडी ढंग से चलती रहे और मैं तुम्हारी बेटी, अपनी इस गाडी को चलाते-चलाते अपने अस्तित्व में इतना तल्लीन हो गई कि मुझे अपने माँ-बाप की भी सुध नही रही| सिर्फ मैं ही नही, माँ, हर औरत कितनी आशावादी होती है! अपने जीवन की हर सुबह को वह नई-सुबह का दर्जा देती है| हर नई सुबह वह एक नए सपने को जन्म देती है| हर रोज उसकी नई पहचान बनती है| और हर नई सुबह से उसकी आँखें इसी प्रतीक्षा में लगी रहती हैं कि कब उसके, उसके परिवार के सपने साकार होंगे! कब वह पूर्णता को प्राप्त होगी! माँ, मैं भी इन सपनों से अपने को अलग नहीं कर पाई| तुम्हें, तुम्हारे परिवार को देखकर, तुमसे मिले संस्कारों को पाकर मेरा भी यही रुप बन गया है| अपने बचपन से जवानी तक मैंने हर सुबह यही सपना तुम्हारी आँखों में पलता देखा था| कितनी तन्मयता से तुम अपने परिवार के कल्याण में जुटी रहती थीं! तुम्हें कभी अपने सुख की चिन्ता में, सिर्फ अपनी भावनाओं में जकडे नहीं देखा था| तुम्हारी चिन्ता, तुम्हारी भावना सिर्फ एक थी - जो तुम्हारे परिवार, तुम्हारे बच्चों के कल्याण से जुडी थी| तुम हर दम अपने बच्चों की चिन्ता में मग्न रहती थीं| उन्हीं की खुशी में तुम खुशी पाती थीं| उन्हींके कष्ट तुम्हें अपने लगते थे| ऐसे में तुम हमारी नानी को सांत्वना देकर यही कहती थीं न कि 'माँ मेरी चिन्ता न करो| मेरे बच्चे खुश है तो मैं खुश हूँ| तुम इसी से खुश रहो कि तुम्हारी बेटी उन्हीं में मग्न, उसी दुनियाँ में प्रसन्न है|' - ऐसे में हमने कितने वर्ष तो तुम्हें डैडी से दूर इस तपस्या में रत देखा था| आज मेरा भी यही हाल है| मैं जैसी भी हूँ, अच्छी हूँ| अरुण जैसा है, अच्छा है| जो सोच है उसकी, उससे आगे कुछ नही सोच सकता| पति बनकर आया वह मेरे जीवन में तो सिर्फ इन बच्चो के लिए| इसके इलावा कुछ भी नही है| हमारे विचार, हमारी सोच, हमारी सहनशक्ति, सब एक दूसरे से भिन्न हैं| लेकिन यह जब तब समझ आता, देर हो चुकी थी| ऐसे में अपने जीवन से समझौता कर लिया मैने| और क्या करती? बच्चों की दुनियाँ में मस्त हो गई| मेरा ध्येय एक है, सिर्फ अपने बच्चों का कल्याण| मेरा सपना एक है कि मेरे बच्चे बडे हो जाएँ, अपने पैरो पर खडे हो जाएँ| ऐसे में, माँ, मुझे ये सात समुन्दर पार की दूरी तुमसे, सात जन्म दूर लगती है| इसे दूरी से कभी-कभी दर्द भी होता है, मन बहुत करता है, लेकिन मेरे बच्चो की खुशहाली उसे छिपा लेती है अपने ही भीतर| मैंने, माँ, अपने कष्टों में, कठिनाइयों में सिर्फ सुख की तलाश की है| मुझे हर भाव में सुख मिल जाता है और यह सुख मुझे बहुत अच्छा लगता है|
और क्या लिखूँ? मेरी ओर से सभी को यथायोग्य कहना| अगली गर्मियों में मैं तुम्हें यहाँ बुला लूँगी| प्रेम से कहना वह तुम्हारा पासपोर्ट तैयार करवा ले|
अपनी ढेर-सी प्यार भरी भावनाओं के साथ|
तुम्हारी बेटी
वीणा|"
पत्र बन्द करके उसने अपने सिरहाने रख लिया| सोच, सुबह आफिस जाते वह स्वयं डाक में डाल देगी| दिन भर की थकान से उसकी आँखें स्वयं झपक गई और वह सो गई| अपने जीवन की अगली नई सुबह के आने की प्रतीक्षा उसके मन ने शुरु कर दी थी|