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नई सुबह
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नई सुबह (तेंतीस)
ISBN: 81-901611-13
दिल्ली लौट कर प्रिया ने सबसे पहले माँ निर्मला से फोन पर बात की - "मम्मी वीणा दीदी ने मुझसे वायदा किया है कि वह इस वर्ष दिसम्बर में जरुर आएँगी, आपसे मिलने| और कोई नहीं भी आए चाहे, देख लेना, वीणा दीदी जरुर आएँगी|" - प्रिया बहुत उत्साहित थी|

माँ ने सुनी उसकी बात और बोली, "चल, बेटी तू कहती है तो मान लेती हूँ| वैसे तो हर बार जब भी उससे बात होती है, वह यही कहती है|" - निर्मला समझती थी कि वीणा अपने मन की असली बात तो किसी से कहती नही है| प्रिया को यह कहा है तो वास्तव में वह आएगी? यह तो समय ही बताएगा| यदि ना कहती तो प्रिया उसे बार-बार कहकर जिदद् करती| बात को कम-से-कम करने का सबसे सरल उपाय है सामने वाले की हाँ-में-हाँ मिला देना!

तुम अपनी कहो प्रिया! कैसा रहा तुम्हारा ट्रिप?" निर्मला ने आगे बात बढाई|

"बहुत अच्छा, बहुत ही अच्छा! दीदी के पास रहने के बाद और भी मजे आए| वीणा दीदी जहाँ रहती है, वहाँ तो कुछ भी नही था, बस प्राक्रतिक सुन्दरता के अतिरिक्त| और अमेरिका तो बस कुछ न पूछो! हमारे लिए तो स्वर्ग समान था| लास ऐंजलस, सनफ्रांसिस्को और फिर डिजनी वल्ड्र| डिजनीलैण्ड में रहे हम सात दिन और वह सात दिन तो बच्चो के साथ-साथ हमारे लिए यादगार दिन है| लासविगास जैसा शहर तो देख कर मन को लगा हम जैसे एक ऐसी दुनियाँ में रहते है, जहाँ कोई काम नही करता| जहाँ सिर्फ आनन्द लूटते है लोग|"

प्रिया के शब्दो से ही माँ निर्मला को अन्दाज हो गया था कि प्रिया बहुत खुश है| बेटी खुश तो माँ की खुशी में चार चाँद लग जाते है| ऐसे में वह बोली "चलो बेटी, सब आराम से सुनेगे तुम्हारी बातें| अभी तो कुछ दिन और है बच्चों के स्कूल खुलने में| तुम देहरादून आने का जल्दी से प्रोग्राम बना लो|"

"हाँ मम्मी| जरुर आएँगे| तीन-चार दिन जरा अपनी थकावट उतार लें फिर आ जाएँगे, दो-दिन के लिए| अभी तो स्कूल खुलने में पूरे पन्द्रह दिन बाकि है|" - प्रिया भी माँ से मिलने को बेताब थी|

"अच्छा, माँ, डैडी से तो बात कराओ|" प्रिया ने कहा माँ निर्मला से|

"ठहरो बेटी, आवाज लगाती हूँ| आजकल तो कुछ सुनते नही, और सुनते है तो मन में आए तो जवाब दे देते है| मन में आए तो चुप ही रहते है|" निर्मला ने कहा|"

तब प्रिया ने कहा, "ऐसा हो जाता है माँ, इस उम्र में आप उनसे बात किया करो|"

"अरे बेटी, और कौन है मेरे पास तुम्हारे डैडी के सिवा? पर मै भी तो सारा दिन काम में जुटी रहती हूँ| और फिर, चलो छोडो, ले आ गए तुम्हारे डैडी, लो कर लो बात|" निर्मला ने फोन शायद पन्नालाल को दे दिया था|

प्रिया को दूसरी तरफ चुप्पी सुनाई दी| बोली - "हैल्लो! हैल्लो डैडीजी, नमस्ते!" - लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया|

वह फिर बोली, "हैलो, डैडी! आप सुन रहे है न? नमस्ते|" उत्साहित प्रियाने फिर कहा| आवाज सवयं ही उँची हो गई थी| फोन ठीक था, उसे दूसरी तरफ निर्मला की धीमी आवाज सुनाई दे रही थी - "अरे, प्रिया है, आपकी बेटी| बात करो|"

- प्रिया सुनकर चौंकी मम्मी शायद कुछ छुपा रही थी इतने चुस्त-दुरुस्त डैडी को भला यह कहने की क्या जरुरत कि प्रिया है? आपकी बेटी है? तभी आवाज आई दूसरी ओर से "हैल्लो| मै ठीक हूँ, आप कैसी हो? मैं बिल्कुल ठीक हूँ|" - एक साथ बोल गए सब कुछ पन्नालाल|

"अरे डैडी, आपकी आवाज कुछ बदली लग रही है| कैसे बोल रहे है आप? प्रिया धीरे-धीरे बोलकर जैसे समझना चाह रही हो| और उधर पन्नालाल की आवाज फिर आई "प्रिया! प्रिया! मैं ठीक हूँ|"

"डैडी! मम्मी को फोन दो|" घबरा गई प्रिया - "माँ कुछ छिपा रही है| सोचा उसने|

फोन पर डैडी तो रट लगाए थे "मैं ठीक हूँ| सब ठीक है|" - कुछ देर बाद मम्मी ने फोन स्वयं ले लिया|

"तुझे कहा था न कि बेटी, आजकल अपनीही धुन में रहते है।" - निर्मला तो जैसे नार्मल थी|

"ऐसा कैसे लग रहा है आपको? मम्मी! डैडी तो बिल्कुल नार्मल नही है| डेढ महीने में इतना फर्क आ गया है| चेक-अप करवाया है क्या?" - प्रिया घबरा रही थी|

"अरे बेटी, डाक्टर को तो कल भी दिखाकर आए है| वह तो कह रहा है, बिल्कुल नार्मल है| कभी-कभी शुगर के घटने से थोडा फर्क आ जाता है| अब तू खुद समझ डैडी तेरे पिचासी वर्ष के हो चले है|" - माँ ने कहा|

"हाँ ठीक है, लेकिन दो महीने पहले के डैडी की आवाज में और आज की आवाज में तो बहुत अन्तर है| आप मुझसे कुछ छिपा रही है| मैं अभी आ रही हूँ दिल्ली से आपके पास|" प्रिया को लगा जैसे मम्मी एकदम उसे कुछ बताना नही चाह रही|

अरे बेटी, ऐसा मत सोच, तू आएगी न अगले सप्ताह? स्वयं देख लेना| अभी इतने दिन बाहर लगाकर आई है| और सफर कि थकावट है, घर की भी सफाई है| आराम से आ जाना|" निर्मला के बात के लहजे से लगने लगा प्रिया को कि जरुर कुछ हुआ है| पीछे से|

लेकिन माँ निर्मला ने कुछ नही बताया| सुबह उसकी गीता से भी बात हुई थी| उसने भी कोई ऐसी बात नही बताई| डैडी का हाल तो उसने भी पूछा था| उसने भी यही कहा था" सब ठीक है|" - वह तो प्रिया से कुछ नही छिपाती| फिर क्यों उसे अभी सब अटपटा लग रहा है!

पन्नालाल अपने मन में ही खोए रहते है| अपनी ही दुनियाँ में लीन| बचपन से ही देखा था बच्चों ने, वह सुबह पाँच बजे उठ जाते थे और सात बजे उनकी पूजा शुरु हो जाती थी| पहले पहल यह पूजा आधा घंटा लेती थी और उम्र बढने के साथ-साथ पूजा का समय हर वर्ष के साथ पाँच मिनट बढता चला गया| रिटायरमेंट के बाद तो कम से कम दो घंटे की यह नियमित दिनचर्या बन गयी थी उनकी| बेटियों की शादी हो जाने के बाद तो जैसे पन्नालाल का जीवन घर के मन्दिर में ही बीतने लगा था| जब समय मिला बस वहीं उसी कोने में अपने गणेश जी की मूरत के पास जा बैठते थे| वही उनके प्रिय सखा थे!

कभी-कभी निर्मला को बहुत गुस्सा आ जाता था| खाने के समय में खाने की सुध नहीं और जा कर पूजाघर में 'गायत्री मन्त्र' का जाप किए जा रहे है|

हर व्यकित के जीवन में बदलाव आता है| कुछ परिस्थितियाँ करवा देती है, कुछ स्वयं करने का मन करता है| और कुछ वक्त के साथ-साथ व्यकित का स्वभाव नए-नए रुप धारण करता रहता है| कभी-कभी यह बदलाव कब आया, कैसे आया, इसका स्वयं को भी पता नही लगता| साथ रह रहे अपने प्रिय को भी नहीं होता| काफी अन्तराल के बाद मिले दूसरे को इसका आभास तुरन्त हो जाता है|

प्रिया ने तो अभी बात ही की थी| उसे तो एकाएक लगा कि डैडी की तबीयत कुछ गडबड है| मम्मी छिपा रही है या फिर उन्हें इसका इतना आभास नहीं हुआ| गीता से भी दुबारा बात हुई, उसने तो यही कहा कि 'डैडी तो अपनी धुन में रहते है| कभी-कभी तो अच्छी तरह बोलते है| कभी-कभी तो किसी की बात का उतर नही देते| अभी मुझे तो कुछ महसूस नही हुआ| मै भी तो सप्ताह में एक दो बार ही जा पाती हूँ| हाँ शरीर से तो बिल्कुल ठीक है, डैडीजी, चुप रहना या बात का जवाबनही देना, मुझेअटपटा नही लगा| अब ध्यान दूँगी|'
लेकिन प्रिया को तो चैन नहीं था| वह तो और कुछ सोच ही नहीं पा रही थी| उसने अमित को बात बताई और अगले ही दिन वे चार-पाँच दिनों के लिए देहरादून जा पहुँचे|

प्रिया अपने डैडी पन्नालाल के सम्मुख बैठ कर उन्हें निहार रही थी| बहुत प्यार आ रहा था उसे उनके चेहरे पर छाई मासूमियत को देखकर| वह चुप बैठे हुए कहीं और खोए हुए थे| प्रिया ने महसूस किया था कि अब वह अपने आप से कुछ नहीं माँगते| समय पर खाना मिल जाए तो ठीक, न मिले तो भी कोई शिकायत नही| पहले तो ऐसा नही था| एक मिनट की देरी भी नही सहन करते थे| समय पर खाना नही मिला तो बस फिर कोई उन्हें खाने के लिए राजी नहीं कर सकता था| लेकिन अब ऐसी कोई बात नही थे| अब उन्हें खाने के लिए जब बोलो, वह चुपचाप खाने की टेबल पर आकर बैठ जाते थे| और तो और, प्रिया ने देखा, जब तक उन्हें स्वयं कोई न रोके, वह लगातार खाना खाते रहते थे|

"मम्मी| आपने महसूस नही किया| डैडीजी, स्वयं से कुछ नही करते| न खाना खाने को और न ही खाना बस करने को| आप उनकी प्लेट में डालती जा रही हो रोटी और वह खाए जा रहे है| उनकी खुराक तो कभी इतनी नहीं थी| तीन रोटी से अधिक तो कभी खाते नही थे| अभी मैंने देखा सात रोटी खा चुके है और चुप बैठे है| अभी और देगी आप तो वह भी खा जाएँगे|" प्रिया थोडी नाखुश-सी थी| मम्मी का यह सेवाभाव उसे अखर रहा था|

"क्या बताउँ बेटी, मुझे तो यही लगता है, छोटी-छोटी रोटी है| कही भूखे न रह जाएँ| और फिर कुछ कहते भी तो नही| मुझे तो यही लगता है कि भूख है| तभी खाए जा रहे है| ऐसे भला बिना भूख के कोई खाए थोडे जाता है?" - माँ की बात शायद ठीक होती, यदि कोई गबरु जवान व्यक्ति खाना खा रहा होता| प्रिया को यह बात अच्छी नही लगी माँ की - "आप पिछली बार अस्पताल गईं, डाक्टर को बताया?" पूछा उसने मिर्मला से|

"डाक्टर क्या करते है, बेटी! इन आर्मी अस्पताल के डाक्टरों की क्या कहूँ! बस सरसरी निगाह से देखते है| पूछते है| और कह देते है, सब ठीक है| ब्लड-प्रैशर और शुगर की जो दवा पिछले दस वर्षो से चल रही है, वही दुबारा से लिख देते हैं|" - सरल शब्दों में माँ ने उतर दिया प्रिया को|

"वह तो ठीक है, मम्मी, अगर आपको तो बताना चाहिए कि आजकल डैडी चुप रहते है| बात का जवाब बडी मुशिकल से देते है| मैं चलूँगी कल आपके साथ|" प्रिया ने कहा|

"कल तो डाक्टर होगा नहीं, बेटी और कोई इमरजेंसी तो है नहीं कि कल ही ले जाएँ| दस दिन बाद फिर से जाना है| तभी सब विस्तार से बता दूँगी| तू अधिक चिन्ता न कर| उम्र भी तो देख अपने डैडी की! बुढापे में याददाशत भी तो कमजोर पड जाती है|" निर्मला जैसे जानती थी की प्रिया के डैडी को और कुछ नही, बस याददाशत कमजोर पड गई है| लेकिन प्रिया को चैन नही था| उसने यही सारी बात अमित से कही और शाम को वह फिर से अपने पिता के पास बैठ गई|

"डैडी! आप आजकल मन्त्र जोर से क्यों नही बोलते?" पूछा उसने| लेकिन जवाब नदारद|
"डैडीजी! पूजा करते हो?" - फिर से पूछा उसने|
"हाँ करता हूँ|" कहा पन्नालाल ने|
"मन्त्र नहीं बोलते?"
"बोलता हूँ| उँ त्रयम्बकम यजामहे.......... भूर्भव स्वः| तत्सवितुर्वरेण्यं| उँ| उँ|" - पन्नालाल को जैसे नहीं पता कि वह क्या बोले जा रहे है|
"ये क्या? आप तो दो मन्त्रों को मिक्स कर रहे है?" - प्रिया चौंक उठी| उसने झट से जान लिया अपने डैडी की कमजोरी को|
"कर रहा हूँ| मन्त्र मिक्स? ..... ये मिक्स-विक्स क्या है?"
- पन्नालाल की जुबान एकाएक खुल गई थी| कोई और देखे पन्नालाल को बात करते, तो यही कहता की बुढापे में बचपन लौट आया है| शब्द बच्चों के उच्चारण की तरह निकल रहे थे, उनके मुँह से| प्रिया को दुलार भी आ रहा था और मन से वह परेशान भी हो रही थी| डैडी की चुप्पी को उनकी आदत समझकर सब गडबड हो रहा था, किसी को इसकी खबर नहीं थी|
"डैडी| राजा राम कौन थे?" - पूछा प्रिया ने|
कौन थे?" - उलटे पूछ लिया पन्नालाल ने|
"आप बताओ?" - फिर कह प्रिया ने|
"आप बताओ.?" - ये क्या जो पूछ रही थी, प्रिया वही दोहराने लगे थे पन्नालाल|
"डैडीजी, मै आपसे पूछ रही हूँ, आप बताओ मुझे राजा राम कौन थे?" - प्रिया ने प्यार से विह्वल होकर पन्नालाल के गालों को सहलाया|
"राजा राम राजा थे| दशरथ के पुत्र थे| और क्या?"
- एकाएक जवाब दिया पन्नालाल ने| जैसे उन्हें लगा पूछने वाला इतनी-सी बात नहीं जानता|

तब तक अमित, जो बच्चों के साथ बाजार गया हुआ था, आ पहुँचा| बाप-बेटी के बीच होता वार्तालाप वह भी सुनने लगा था| बच्चे भी वही बैठ गए| नाना से अपने बच्चों की बात भी कम ही होती थी| सभी अपनी नानी के चेहते थे| सच बात तो यह है कि पन्नालाल स्वयं ही अपनी घर में उपस्थिति में ही विरक्ति को खोजते थे| वह बच्चों के साथ बैठे रहते| घंटो उनका वार्तालाप सुनते, उनकी हंसी-ठिठोली को देखते। बच्चे हँसते तो वह भी हँस देते थे| बच्चे झगडा करते तो वह उन्हें एकदम रोक देते| गुस्सा नही करते| लेकिन उनकी आवाज सुनकर सब झगडा बन्द कर देते थे| दूसरे कमरे में बैठी नानी माँ को ही सभी अपनी फरियाद करते थे|

और बच्चों के आने पर नानी माँ तो उनकी दिवानी बनी रहती थी| उसे रसोईघर से ही फुर्सत नहीं मिलती थी| बस हर घडी कोई न कोई पकवान बनता रहता था| ऐसे में घर में जब दोनों अकेले रह जाते तो आपस में उनका वार्तालाप 'न' के बराबर होता था| निर्मला अपने काम में मग्न रहती| आस-पडोस की खबर में व्यस्त रहती| बच्चों को नियम से पत्र लिखती और दिनभर बीच-बीच में समय के अनुसार टेलीविजन पर आपने पसन्दीदा प्रोग्राम देखती रहती| ऐसे में समय बीतता रहा और पन्नालाल की चुप रहने की आदत में, पूजा-पाठ की व्यस्तता में, घर में बागवानी करते रहने के शौक में और शाम को टेलीविजन पर खबरें सुनने के नियम में कब परिवर्तन आया, इसकी खबर किसी को नही लगी!

शरीर में दिखने वाली बिमारी की खबर तो बिना बताए भी लग सकती है| लेकिन चुप्पी की आदत में, शिकायत न करने की नियम में कब परिवर्तन आया, किसी को खबर नही लगी| बेटियां आती थीसाल में एक-आध बार और वह भी दो-तीन दिन के लिए| सभी अपनी कहानियाँ लिए आती थीं और माँ से उसकी कहानियाँ सुनने| ऐसे में डैडी के बचपन के रौब में, कब उनके डैडी में परिवर्तन आ गया, बेटियों को भी पता नहीं लगा| वास्तव में इस घर में पन्नालाल की उपस्थिति की खबर सभी को थी, पर यह घर वास्तव में बेटियों की बातों और माँ के वार्तालाप से ही आबाद रहता था| उसने पन्नालाल की उपस्थिति एक बडे-बुजुर्ग की उपस्थिति भर थी|

इस घर के बडे-बुजुर्ग में इतना परिवर्तन देख कर सभी हतप्रभ रह गए थे| निर्मला को भी पन्नालाल की मानसिक-स्थिति देखकर बहुत दुःख पहुँचा| एकाएक अपने पति में इतना परिवर्तन देखकर उसे स्वयं पर ही क्रोध आ गया| आँसू भी आए उसकी आँखों में| - "मैं तो समझती थी, ये इनकी आदत है| प्रिया तुमने तो एकदम से पकड ली उनमें आई इतनी बडी परेशानी! देखते-देखते ही इतना बडा परिवर्तन आ गया इनमें!" - निर्मला को तो अभी भी विश्वास नहीं आ रहा था|

"अरे मम्मी, आप क्यों रोती हैं? सच है, यह उम्र के साथ ही होता है| और इसमें दोष आपका तो नहीं| डैडी ही चुप रहते थे| चुप्पी में ही यह बदलाव आता गया| शरीर से तो डैडी बिल्कुल ठीक हैं| कुछ नहीं हुआ उनको। बस। अब चुप हो जाएँ आप| हम दिल्ली ले चलते है आपको| प्रेम को भी कहते है, वह भी छुट्टी लेकर आ जाए| डाक्टर को दिखाएँगे| डैडी ठीक हो जाएँगे| आप चिन्ता न करो|" - अमित ने ढाढस बंधाया माँ निर्मला को|

तब स्निग्धा अपने नाना की ओर आमुख हो बोली "नानाजी| मैं कौन हूँ बताओ न?"

"तुम कौन हो? तुम मेरी बेटी हो| प्रिया!" पन्नालाल ने उतर दिया|
"नही नानाजी, प्रिया तो मेरी मम्मी है| आपके पास बैठी हैं|" स्निग्धा ने उतर दिया| उस छोटी बच्ची को तो अपने नाना से खेलने का अवसर मिल गया था|
"डैडी| आप भूल रहे है| ये तो गुडिया है| आप गुडिया कहते है इसे| मैं हूँ प्रिया| आपकी बेटी|" प्रिया प्रेम में पिता के वशीभूत थी, भावुक हो चली थी|
"मेरी बेटी? मेरी बेटी तो वीणा है! वीणा है! कहाँ है वह?" - एकाएक पन्नालाल तो प्रिया को देखते हुए, वीणा को खोजने लगे थे| वीणा की याद हो आई थी| वीणा की याद|
"वीणा तो कनाडा में है| मैं वही तो गई थी| उसी से मिलकर आई हूँ|" - प्रिया को आशा बंधी कि डैडी अपने वर्तमान में लौट कर बात करने लगेंगे|
"वीणा कनाडा में है| कनाडा इग्लैंड में है| वीणा आएगी| मेरी बेटी वीणा आएगी?" पन्नालाल कुछ का कुछ बोल रहे थे|
"हाँ आएगी डैडी|" प्रिया के आँसू रुक नही पा रहे थे| आँखों से बहने लगे|
"लेकिन नानाजी, वीणा माँसी कनाडा में है| कनाडा इग्लैंड में नहीं होता|" - स्निग्धा को नानाजी के ग्यान पर अचम्भा हो चला था| नानाजी तो फर्राटेदार इंग्लिश बोलते थे| इंग्लिश की ग्रामर उनकी बहुत अच्छी थी| दुनिया-देश की किताबें-पढते थे| घर की अलमारी किताबों से भरी थी| सोच रही थी स्निग्धा, मम्मी तो कहती थीं हर बार डैडी से कहूँगी, ढूँढ कर देंगे वे अपनी अलमारी से ग्रामर पर लिखे अपने नोट्स| और आज नानाजी कैसी बात कर रहे हैं| न ग्रामर| न भूगोल| न जी.के| क्या हो गया है नानाजी को?

प्रिया माँ निर्मला से कह उठी तब, "आप अब यहाँ अकेली नहीं रहेंगी| आप मेरे साथ दिल्ली चलेंगी|" - आदेश भरे शब्द थे उसके|

"मैं चलूँगी बेटी, अभी कल कैसे जाउँगी? तू चिन्तित न हो| गीता है न यहाँ| वह तो आती रहती है| एकदम से घर बन्द तो नहीं कर सकती| कुछ दिन में आ जाउँगी, डैडी के साथ| अभी गीता आती होगी| उसे भी तो पता नही लगा| उसे क्या मुझे भी तो पता नही लगा वह तो खुद से इतनी व्यस्त हैं। हफ्ते में दो-तीन बार आती है। लेकिन बेटी सच बात तो यह है कि तेरे डैडी की चुप्पी की आदत से ही सब कुछ गडबड हुआ है|"

निर्मला के आँसू अब थम नही रहे थे| कुछ देर में वह संभली और प्रिया से कहा, "चल उठ अब, डैडी को खाना देते हैं और दवाई देकर सो जाने को कह इनको| तेरी बात मान कर सो जाएँगे|"

निर्मला तब रसोई में चली गई और प्रिया चुपचाप प्यार से अपने डैडी को निहारती हुई, उनके हाथ को सहलाती हुई उनके पास बैठी रही|

यह कैसा जीवन है? चलते-फिरते रहो सब ठीक रहता है| बिस्तर पर पड जाओ तो धीरे-धीरे उठ सकने की हिम्मत भी जवाब दे जाती है| और यदि मस्तिष्क साथ दे रहा हो तब भी अपने बीतते हर दिन की गिनती रख सकते हैं हम| और यदि यह मस्तिष्क निष्क्रिय हो जाए तब शेष कुछ नही रहता| दो दिन का बच्चा संवेदनशील होता है, माँ का स्पर्श वह भी महसूस करता है| लेकिन यहां तो दो दिन के बच्चे की बात नही थी| यहाँ बात थी पिचासी वर्ष के उपर हो चले पन्नालाल की| दुनियाँ सारी देखी भाली थी उनकी| ग्यान का भंडार था उनका मस्तिष्क! और आज वही पन्नालाल एक बालक की भाँति अपने मस्तिष्क की संवेदनाओँ को व्यक्त करने की क्षमता को खो बैठे थे! कहाँ गई वे सब भावनाएँ? मन में क्या है कोई नही जानता| मस्तिष्क बाहर वालो के लिए निष्क्रिय है, भीतर ही भीतर कुछ सोचता है, कोई नहीं जानता| हाँ, इतना जरुर दिखता है कि कभी-कभी जैसे रुकी हुई मशीन चल पडती है और शब्द निकलता है एक ही - 'मेरी बेटी वीणा! वीणा कहाँ है?"

ऐसे में कोई यदि कहे कि 'आएगी! वीणा जल्दी आएगी!' - यह शब्द ग्रहण करने योग्य भी नहीं मस्तिष्क पन्नालाल का| जो कहता है वह कह देता है उनका मन| सुनने-समझने की शक्ति जैसे नहीं थी अब| यह कैसा रुप है मानव का! यह कैसे रंग हैं जिन्दगी के!

संवेदनशील ही समझ सकता है इस मन को| और अमित जिसे समझ रहा था पन्नालाल की दशा को| महीने में एक-दो बार अब वह और प्रिया देहरादून हो आते थे| सुबह शताब्दी एक्सप्रेस पकडते थे| दोपहर देहरादून पहुँच जाते थे| एक रात रुक कर अगले दिन शाम को शताब्दी से वापिस दिल्ली चले जाते थे| वे कुछ कर तो सकते नही थे| बस दिन भर घर में बैठे रहते| पन्नालाल की गतिविधियों को देखते रहते| हां , माँ निर्मला को उनके आने से सहारा मिल जाता था| उनके अकेलेपन में कोई साथी आ मिलता था। पन्नालाल की दिनचर्या के विषय में उनकी बातें सुन लेते थे| माँ का दिल इसी बात से हलका महसूस करने लगता था|

गीता देहरदून में थी| लगभग रोज आती थी| उसका पति नवीन भी उसके साथ ही आता था| दोनों से जो कुछ भी बन पडता, वह सब, वह करते थे| पन्नालाल को सप्ताह में एक बार अस्पताल ले जाने का जिम्मा भी नवीन ने ले रखा था| लेकिन जो पास रहता है, उसे कुछ बताने की जरुरत नही पडती| उसे तो सारी दिनचर्या की खबर होती है| ऐसे में प्रिया के आने से माँ निर्मला को अपनी व पन्नालाल की दिनचर्या की बातें बताते हुए बहुत अच्छा लगता था| मन चंचल है कितना उसका, जो सकून पाता है जब-जब कोई बाहर से आकर उसका हाल जानने को उत्सुक होता है|

अमित ने वीणा से बात भी की थी| पन्नालाल की दशा की बात भी बताई थी| वह सुनकर चुप हो गई थी| उसकी भीगी आवाज सुनकर अमित को लगा था कि वह रो रही है| लेकिन अरुण जैसे इन संवेदनाओं से परे था| वह सुनकर भी नार्मल रहा| केवल इतना ही बोला था, 'यह तो आम बात है| यहाँ कनाडा में तो हर दूसरा बूढा व्यक्ति अपनी सुध-बुध भूल जाता है| वीणा ऐसे ही ओल्ड-ऐज होम में तो काम करती है| उसे क्या समझाने की जरुरत है? अब वह बूढे हो चले है तो यह सब तो होगा ही!"

यह कैसी भावनाएँ थीं जो अरुण व्यक्त कर रहा था| वह तो इस परिवार की भावनाओं से परे है| उसे जैसे कोई चिन्ता नहीं| वह एक बूढे आदमी से ज्यादा महत्व नही दे रहा था पन्नालाल को| लेकिन वीणा, वह तो उसी बूढे आदमी की बेटी है| उसे तो खबर होनी चाहिए| खबर सुनकर चिन्ता भी होनी चाहिए| और चिन्तित है यदि, तो उसे अपने पिता से मिलनेआना चाहिए! ऐसा ही कुछ सोचते हुए उसकी कलम चल उठी और उसने अंग्रेजी में चन्द शब्द लिख दिए जो एक कविता के रुप मे ढल गए थे| अमित ने पढा उनको| प्रिया को दिखाया| पढकर उसकी आँखों में आँसू भर आए| अमित ने यूँ लिखा था ...........

Your father is not Well
But lost all his memories
But you,
- He does nothing but calls you
He is speechless
He is motionless.
- You know
He is Eighty Six
But acts like
Not older than Six!
He calls you
He wants you.
Whole family is here,
But you are absent
- For long Sixteen years
Lord Rama was in exile
For FOURTEEN years,
- Yours is passed Sixteen years
Rama could not see his father,
It was a curse for King Dashrath,
No one here exiled you
- Then why HE is suffering
When you left
- You left as a bride
- Like an obedient daughter
Now you are grown old
You have a son
And beautiful daughters……..
He has now empty mind,
Playing like a child,
But at times
Searched for his daughter
- A beautiful doll
- A beautiful daughter
He may not recognize you,
He may not at all treat you
But needs you
He wants to meet you
Just show him your face
He may have a
Peaceful journey to thee!

तुम्हारे पिता अब ठीक नहीं हैं।
सारी यादें उनकी खो गई हैं
बस तुम ही याद आती हो|
- वह कुछ नहीं करते,
बस तुम्हें याद करते है|
न शब्द कोई शेष बचे है
न भावनाएँ कोई व्यक्त करने को
बस तुम्हें याद करते हैं।
छियासी वर्ष के हो चले है
पर अब व्यक्त भाव है
छः वर्ष के बालक से|
तुम्हें पुकारते है
तुम्हें चाहते है|
सारा परिवार पास है
तुम्हारी कमी खलती है
- सोलह वर्ष बहुत लम्बे होते है|
राजा राम को वनवास मिला था
चौदह वर्ष का
तुम्हारे तो बीत चले है सोलह वर्ष|
तुम्हें तो किसी ने वनवास नही दिया,
तब यह क्यों तडप रहे है?
तुम गई थी
एक दुल्हन की भाँति
एक आग्याकारी पुत्री की भाँति
अब तुम बडी हो चुकी हो
तुम्हारे भी एक बेटा है
और सुन्दर बेटियाँ....
वह तो खाली मन से हैं,
बच्चों की तरह खेलते है,
कभी-कभी ढूँढते हैं
अपनी बिटिया को
- प्यारी-सी गुडिया को
- प्यारी-सी बिटिया को
वह तुम्हें शायद न पहचान पाएँ
वह तुम्हारा स्वागत शायद न कर पाएँ
पर तुम्हारी जरुरत है उन्हें
वह तुम्हें मिलने को बेताब है
आओ! उन्हें मिल जाओ
अपन चेहरा दिखा जाओ
तभी शायद वह शान्ति से अपनी
यात्रा पूरी कर सकें!

मुझे नही लगता, प्रिया! कि वीणा दीदी इतनी जल्दी आएँगी|"

- अमित ने फिर अपनी सोच से अवगत कराया प्रिया को|
"ऐसा मैं नहीं मानती| दीदी अब जरुर आएँगी| डैडी की दशा को समझेगी तो देखना वह जरुर आएँगी|"

प्रिया के विश्वास को देखकर अमित ने भी तब यही कहा, "चलो! तुम्हारी सोच ही ठीक हो शायद| अच्छा ही होगा यदि वह आ जाएँ|"

बात यहीं समाप्त हो गई| वे फिर अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए?