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नई सुबह
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नई सुबह (तीस)
ISBN: 81-901611-13

 

 
 
नई सुबह से आगे
वीणा के जीवन में एक नया अध्याय जुड गया| देव गया, अरुण मिल गया| पिछले कुछ वर्ष, कई जन्मों का लेख समेट लाए थे| एक जन्म था देव से शादी से पहले का, जो अब दूर का सपना लगता है| जो जन्म कभी था ही नहीं - जो वीणा के इस चोले ने कभी देखा ही नहीं| बस उसकी कल्पना माञ ही कर सकती है - कल्पना है कहीं था वह अल्हडपन, कहीं थी वह मस्ती, कहीं थी वह खुशी - वह उमंग - वह तरंग| सब एक छलावा माञ ही लगता है| अब वे दिन नहीं आ सकते| आएँगे भी तो अपने न लगेंगे|
 
दूसरा जन्म था देव के साथ का| दो वर्ष का साथ, दो जन्म-सा है| शायद उससे भी ज्यादा| देव के साथ बिताया एक-एक दिन, एक वर्ष समान था| दुःख था उसका, लेकिन आशा थी साथ जीने की उमंग थी| डर तो उस आशा, उस उमंग, उस लग्न को देखकर कहीं छुप-सा गया था| तभी तो देव के साथ रहते हुए वीणा ने रोज नए सपने बुने थे और तभी तो उसके जाने के बाद भी उसने अमित और प्रिया का विवाह रचाया था| अपने हाथों से उसने प्रिया को मेंहन्दी लगाई थी, अपने हाथों से उसने उसे विवाह का जोडा पहनाया था|
 
वीणा का तीसरा जन्म अब शुरु हुआ है, अरुण के आने पर| विवाह के बाद वीणा को कोई ससुराल नहीं मिला इस बार| पिता का घर तो अरुण के लिए काँटो की सेज से कम न था| उससे तो उसका सम्बन्ध भी ना था| अरुण की माँ अकेली छोटे-से किराये के फ्लैट में रहती थी| कभी किसी बेटे ने उसे अपने साथ रखने की पेशकश न की थी| ऐसे में उसे भी किसी का बोझ बनकर रहना मन्जूर न था|
 
दिल्ली पहुँच कर वीणा को आशा थी, उसकी आरती होगी, कोई स्वागत को खडा होगा उसका पहले से| शायद शहनाई बजे इसकी भी कल्पना कर ली थी उसने| वीणा कुछ अधिक ही आशावादी थी| आशा से अधिक आशावादी होना ही दुःखों का मूल कारण है| इसीलिए उसे सब अच्छा ही दिखाई देता था|
 
लेकिन ये क्या, टैक्सी तो बजाए क्रष्णा नगर जाने के सीधा दरियागंज स्थित आगरा होटल पहुँच गई| अरुण के मिञ ने पहले से ही कमरा रिजर्व करवा लिया था उसके लिए| चाय पीकर माँ अरुण के मिञ के साथ चली गई| जाते-जाते बस इतना ही बोली, "देहरादून वापिस लौटने से पहले मिलना जरुर|'
 
वीणा को कुछ समझ नही आया बस 'जी' भर कह सकी| अरुण और वीणा अब अकेले रह गए थे| अरुण रोमांटिक हुआ जा रहा था| लेकिन वीणा चिन्तित थी| रह न सकी चुप और बोली अरुण से, 'क्या हम यहीं रहेंगे?'
 
"हाँ, और कहाँ? मेरे कनाडा जाने तक!" - अरुण ने सहज भाव से कहा|
 
"ऐसा क्यों? क्या हम माँ जी के साथ नहीं रह सकते? यहाँ होटल में बहुत अटपटा लगेगा|" - वीणा को समझ नही आ रहा था कि ऐसा क्यों कर रहा है अरुण|
 
"अरे, कैस अटपटा! मैं परदेसी हूँ, बाहर से आया हूँ, और कुछ दिनों बाद तुम्हें भी परदेश जाना है| - ऐसे में होटल में रहना ही ठीक है| माँ के एक कमरे के फ्लैट में कैसे रह सकते है हम?" अरुण अब भी नही समझ पा रहा था वीणा की मनोदशा को|
 
"वह तो 'ठीक है, लेकिन आपके रिश्तेदर हैं सब यहाँ| मामा है आपके, पहले तो आप वहीं ठहरे थे| अब शादी के बाद एकाएक उनके पास न रहने का क्या कारण है?"
 
वीणा की बात बीच में ही काट दी अरुण ने, "भई, सबको रोज-रोज तंग तो नहीं किया जा सकता| और हमें भी प्राईवेसी चाहिए|" बेताब था अरुण, बात बदलना चाह रहा था| बोला - "अब छोडो इन बातों को, आओ मेरे पास बैठो|" और अरुण ने वीणा को अपनी बाहों में खींच लिया एकाएक| लेकिन वीणा छटपटा कर हट गई|
 
"ऐसा क्या? अभी कुछ अच्छा नही लग रहा| अभी मैं परेशान हूँ| मैं समझ नही पा रही अपनी स्थिति| शादी हो गई, आप कनाडा वापिस जाएँगे| सब ठीक है| लेकिन मैं यहाँ अपनी सास के पास नहीं रह पाउँगी| एक होटल में, वह भी गन्दे-से होटल में रहूँगी और यहीं से दस दिन बाद वापिस मायके लौट जाउँगी - ऐसा नही जानती थी मैं| ऐसा नही कहा था आपने|"
 
वीणा की परेशानी अरुण को अटपटी लग रही थी| लेकिन पुरुष जब दिवाना होता है, उस समय स्ञी की हर बात को मान जाता है| उसका गुणगान करता है, उसकी गुलामी करना चाहता है| लेकिन सब कामग्नि के रहते| ऐसा ही अरुण के साथ हो रहा था| बैठ गया वीणा के कदमों में और उसकी टाँगों को अपनी बाँहों के घेरे में लेकर बोला, "तुम क्यों परेशान हो वीणा? ऐसा कुछ भी नही है| एक कमरा उनके पास, हम रहेंगे वहाँ या माँ? और माँ अपनी गरीबी नही दिखाना चाहती तुम्हें| रायबहादुर की बेटी, रायबहादुर उतम प्रकाश की पत्नी - हवेली के होते छोटी-सी कोठरी में अपनी बहू को नही ठहरा सकती| सब कुछ तो बताया तुम्हें अपना, अपने परिवार का इतिहास|" वह भाव विह्वल हो रहा था| वीणा से लिपट जाने को बेताब| बोला फिर से, "और रही रिश्तेदारों की बात| सब रिश्तेदार दिखावटी हैं| डरते है अभी भी मेरे बाप से| इसीलिए वह शादी में शरीक भी नही हुए और इसीलिए शादी के बाद मैं उनके घर नही जाना चाहता|" अरुण एकाएक भावुक हो उठा| उसकी आँखें नम देखकर वीणा आश्वस्त हो गई| उसे अरुण ही अपना सब कुछ नजर आया| सोचने लगी, 'अरुण मेरा भला ही तो चाहेगा, वह जो कर रहा है ठीक है|'
 
मन को तसल्ली दी और मन की बात आशा की ज्योति जगा गई उसके मन में| बस वीणा उसी ज्योति के सहारे अरुण में समा जाने को बेताब हो गई| उसे प्यार करते यही लग रहा था कि यही कमी थी जो पूरी हो गई अरुण के आने से| और ऐसे में औरत भी सौ खून माफ कर देती हैं!
 
दस दिन बाद अरुण लौट गया कनाडा| जाने से पहले वीणा अपनी सास से मिलने गई क्रष्णा नगर| घर देखकर उसे मन में अरुण की बात ठीक लगी| तंग गली में सौ गज के घर में एक छोटा-सा कमरा और छोटा-सा गुसलखाना और बरामदे में टीन शीट से बनी रसोई। कहां देहरादून में उनका दो बीघे का घर और फिर देव का घर और अब यह घर| अच्छा ही किया जो अरुण ने उसे वहाँ लाकर नही रखा| वह कहाँ रह पाती| मन ही मन घुटती रहती| ऐसे में अच्छा है कि कनाडा जाने तक वह अपनी माँ के पास ही रहे देहरादून|
 
अरुण के जाने के बाद जब माँ को उसने सब बात बताई तो निर्मला फिर से चिन्तित होकर कह उठी - "बेटी, मेर दिल डर से तेज धडकने लगा है तेरी बात सुनकर| कहीं जल्दबाजी में, विदेश का चक्कर महँगा न पड जाए, न जाने वहाँ कैसे रहता होगा|"
 
तब वीणा के मन में जगी आशा की ज्योति फिर से बोल उठी - "अरे माँ कैसी बात करती हो! देखा न, उसकी माँ की मजबूरी भी तो है| किसी ने साथ नही दिया उसका| जो कुछ किया उसके साथ उसके पति ने, फिर भी उसने हिम्मत नही हारी| लड रही है अकेले| खुद के भाई भी डरते है उसके| और अरुण वह तो पचीस वर्ष से कनाडा में है| डिग्री देखी है उसकी? बात करने का लहजा देखा है? इन्श्योरेंस कम्पनी का मैनेजर - कोई कमी नही होगी| मेरा अरुण कहीं किसी से कम नहीं होगा| मैने इतने दिनों में ही जान लिया है|" - वीणा माँ को तसल्ली दे रही थी, स्वयं को भी ऐसे ही दिलासा देती थी| अब अरुण की निशानी भी उसके पेट में आकर उसे गुदगुदाती जो रहती थी हर दम| उसने देव की छवि देख ली थी शायद अरुण में या फिर देव को भूल जाने का रास्ता दिखा दिया था अरुण ने|
 
अरुण की दिवानी, सुबह-शाम घडियाँ गिन रही थी कनाडा जाने की|
 
जो दिन हम जीते है उस दिन का हिसाब दिन बीतने पर ही मिल जाता है| सुबह से शाम होने तक लगता है, बहुत काम किया है दिन भर| थक कर घर लौटते है| आराम करते है| नए दिन की शुरुआत के लिए| दिन-दिन गिनते हैं| और बीते दिनो का हिसाब लगाने का मौका नही मिलता| मिलता है कभी तो एकाएक महसूस होता है - अरे! कितनी जल्दी समय बीत गया! जो पल -पल कभी बोझिल लगते है, जो दिन कभी बिताए नहीं बीतता, वह सब व्यस्तता के साथ इतनी जल्दी बीत जाते हैं - इसका हिसाब ही नही रहता|
 
सबकी अपनी दिनचर्या है| कर्म में इतनी तल्लीन है हर जिन्दगी कि किसी को चिन्ता भी नही रहती दूसरों की| सब अपनी जिन्दगी जीते है| एक-दूसरे से जो बंधा है, एक-दूसरे के पास जो है, उसी पर ध्यान केन्द्रित रहता है| आँखों से दूर जो बैठा है, वह तो खाली समय में ही याद आता है| उसकी चिन्ता तो व्यस्तता में नहीं सताती| इसीलिए बच्चे अपनी-अपनी जिन्दगी जीते हैं| माँ-बाप अपनी जिन्दगी जीते हैं|
 
कुछ खबर लगती है किसी अपने की तो चिन्ता होती है| वरना लगता है जैसे हमारी गाडी चल रही है, वैसे ही दूसरो की चल रही होगी| मै अच्छा हूँ, तो जग अच्छा है| मै दुःखी हूँ, तो जग दुःखी लगता है| मेरा मन दुखी है तो दूसरे की हँसी अच्छी नहीं लगती|
 
वीणा कनाडा में है, सुखी ही होगी| क्योंकि जब-जब उसकी चिट्ठी आती है, यही लिखा होता है| माँ को इसी से तसल्ली है| वीणा का अपना हँसता-खेलता परिवार है - दो बेटियाँ, एक बेटा| सब बच्चे कितने प्यारे हैं| उनके फोटो देखकर यही लगता है| अब इससे ज्यादा कोई क्या जाने|
 
हाँ, निर्मला की एक ही इच्छा थी कि वीणा एक बार आए, मिल जाए सभी को| पन्नालाल भी यही चाहते थे| सब बच्चे छुट्टी के दिनों में देहरादून इकटठे होते थे, लेकिन वीणा की अनुपस्थिति सबको खलती थी| उसके जाने के बाद गीता की शादी भी हो गई| प्रेम ने भी प्रेम-विवाह कर लिया| लेकिन वीणा आने के नाम पर हमेशा टाल जाती, "कैसे आ सकती हूँ, जिन्दगी बहुत व्यस्त है|" यही नपा-तुला बहाना होता था उसका|
 
अरुण से कभी-कभार अमित की बात होती थी| उसे तो एक बात करनी अमित से ध्यान रहती - "यहाँ इण्डिया में रखा ही क्या है? दुनियाँ कितनी आगे निकल गई है| हम इण्डिया आकर क्या करेंगे? जो भी वहाँ से आता है, यही बताता है कि कुछ भी नही बदला| सब काम अधूरे पडे रहते है| हर जगह रिश्वतखोरी है| इतनी अधिक कामचोरी है, तभी तो मेरी माँ के जीते जी उसका कोर्ट का फासला नही हो सका| मेरा बाप हमारी खानदानी जायदाद बेच कर अपने हरामी बच्चों को ऐश कराने में लुटा रहा है| कोई कुछ नही करता| मैं इण्डिया आना चाहता हूँ, तभी जब कोई मेरी मदद करे| मेरे बाप को कानून के घेरे में लाना है| तुम यदि कोशिश करो तो यह काम हो सकता है| मैं तुम्हें पिटीशन बनाकर भेज सकता हूँ| क्या तुम मेरी अर्जी प्राईम मिनिस्टर, ला मिनिस्टर तक पहुँचा कर ऐसा आडर ले सकते हो कि वह अपनी पहली पत्नी और असली बच्चों के साथ फ्राड करने के जुर्म में जेल चला जाए और मुझे मेरा हक मिल जाए?"
 
ऐसे में अमित यदि उससे कहता कि यह सब कुछ कितना और कैसे हो सकता है - इसका पता तभी लगेगा जब अरुण कुछ समय के लिए इंडिया आ जाए और अपने व अपने भाईयों के साथ मिलकर नए सिरे से केस फाईल करे| ऐसे में अरुण यही कहकर टाल जाता, 'चलो बनाउँगा प्रोग्राम.' लेकिन साथ ही उसका एक ही बहाना शुरु हो जाता - 'ऐसा इण्डिया में हो सकेगा, नहीं मालूम| यहाँ सब दकियानूसी लोगों का राज हैं।
 
अमित भी तंग आ जाता था, और बात समाप्त कर देता यही कहकर - 'आप न जाने कौन सी दुनियाँ में रहते है, अरुण जी| यहाँ सब बदल चुका है| लोग खुशहाल है| न्याय जरुर मिलता है यदि कोई कोशिश करे| आप आएँ यहाँ, जिस वकील से मिलना होगा, मिलेंगे| लेकिन आपके वहाँ बैठने से कुछ नही हो सकता|'
 
बात वहीं खत्म हो जाती| वीणा तो फोन पर केवल 'हाँ' 'न' में ही बात करती थी| अरुण हमेशा दूसरे फोन से सारी बातें सुनता रहता था और ऐसे में बातें भी क्या होती - केवल यही कि 'सब ठीक है| बच्चे अच्छे है|"
 
'मैं ठीक हूँ| रोज काम पर जाती हूँ|'
 
इससे आगे, जितने मुँह उतनी बातें|
 
घर में सभी जब इकटठे होते, यही बातें होती रहती| अरुण कंजूस है| इण्डिया खर्चे के कारण नही आना चाहता| शायद इतना स्टेटस ही नही है उसका कि खर्चा सहन करे| लेकिन सच्चाई क्या है किसी को नही पता!
 
 
 
समय पंख लगा कर उडता रहा| पन्नालाल-निर्मला बुढापे की ओर बढ गए थे| सब परिवार फल-फूल रहा था| प्रेम अब कर्नल बन गया था| गीता कालेज में लेक्चरार थी| अमित-प्रिया व्यापार में काफी उन्नति कर चुके थे| पन्द्रह वर्ष बीत गए वीणा के आने की कोई खबर नही थी| ऐसे में एक दिन अमित-प्रिया ने प्रोग्राम बनाया गर्मी की छुट्टियो में अमेरिका घूमने का| साथ ही में कनाडा जाकर वीणा से मिलने का| अमित-प्रिया और दोनों बच्चे इतने व्यस्त हो गए अपना प्रोग्राम बनाने में सब कुछ तय हो जाने पर प्रिया ने वीणा को फोन किया| प्रिया ने अपने आने की खबर देते हुए वीणा से कहा, "दीदी, तुम तो आती नही, हम आ रहे है आपके पास|"
 
"विश्वास नही हो रहा अपने कानों पर| सच कह रही हो?" वीणा के शब्दों में अविश्वास झलक रहा था|
 
"हा दीदी, मैं, अमित और वरुण, स्निग्धा सभी| पहले दस दिन हम आपके पास रहेंगे और फिर एक महीना हम अमेरिका की सैर करेंगे|" प्रिया के शब्दों में खुशी झलक रही थी|
 
'सच, प्रिया! मुझे अभी भी विश्वास नही हो रहा| कब आ रहे हो? कौन सी फ्लाइट से? हम टोरोंटो से छः सौ मील दूर हैं| मुझे जल्दी से बताओ?" - वीणा खुशी से एकाएक झूमने लगी थी|
 
"मै सब विवरण फैक्स कर देती हूँ आपको| हम 18 मई को पहुँचेंगे टोरोंटो| वह स्वयं मैनेज कर लेंगे हम| रात तक आपके पास पहुँच जाएँगे|"
 
- प्रिया ने अपना प्रोग्राम उसे बताया|
 
वीणा को लग रहा था जैसे वह सपना देख रही है| खुशी से उसकी आँखें छलक गई| गला भर आया और बोली - मैं अभी से तुम सबकी प्रतीक्षा करने लगी हूँ| बहुत-बहुत प्यार तुम सबको| जल्दी आओ तुम सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगेगा|" और वीणा फफक उठी खुशी से| जैसे बहुत बातें करनी हो उसे प्रिया से| अभी से बेताब हो उठी थी वह|
 
फोन रखकर वह अरुण से बोली, जो चुपचाप दूसरा फोन कान पर लगाए दोनो बहनों की बात सुन रहा था "देखो, आखिर अमित-प्रिया आ रहे हैं हमसे मिलने| तुम्हें मेरी खातिर अब उन्हें रिसीव करने जाना होगा टोरोंटो!"
 
"हाँ-हाँ, जाउँगा, जरुर जाउँगा! फोन पर नहीं हो सकती बातें, अब विस्तार से बैठकर उससे बात करुँगा अपने केस के बारे में| लगता है वह बहुत बडा सेठ बन गया है| तभी तो बीस-पच्चीस हजार डालर खर्च करने की योजना है उसकी इस टूर पर!" अरुण भी उत्साहित था उसके आने की खबर सुनकर|
 
जरुर करना अरुण, पर प्लीज सारा टाइम इसी चर्चा में न लगे रहना| कहीं बोर न हो जाएँ|" - वीणा शायद इस चर्चा से परेशान रहती थी|
 
"अरे अपने है, तभी तो बिन बुलाए आ रहे हैं| और फिर जब हमारे पास आकर रहेंगे तो बात तो कुछ करनी ही है| अपनों को ही अपना कष्ट बताया जा सकता है|" - अरुण अपनी कहानी बताने को बेताब था| कोई नया सुनने वाला उसे मिलने आ रहा था|
 
"चलो ठीक है| अब जैसे-तैसे घर ठीक कर लें| बच्चे अभी स्कूल से लौटेंगे तो उन्हें भी यह न्यूज देनी है| सब खुश हो जाएँगे|" - वीणा खुशी से फूली नहीं समा रही थी| उसने अभी से दिन गिनने शुरु कर दिए थे|
 
नई दुनिया, नया देश|
एक नया परिवेश,
नई-नई मुखाक्रतियाँ,
लेकिन सभी अजनबी|
भीड के रेले से बाहर निकलते सभी मन ही मन घबराए हुए थे| टोरोंटो से छः सौ मील दूर जाना था - मन ही मन अमित इसी उधेडबुन में था कि बाहर निकलते ही एक अधेड व्यक्ति, एक पहचाना-सा चेहरा, प्लेस कार्ड लिए खडा था, जिस पर लिखा था, "अरुण बसंल आपका स्वागत करता है|" मेहमान का नाम नहीं था, लेकिन अमित एकदम पहचान गया| यह अरुण ही है| वीणा का पति |
 
अमित ने प्रिया को बताया| बच्चों ने भी सुना और सबने देखा उसी ओर| सभी के चेहरों से चिन्ता एकाएक लुप्त हो गई| लम्बे सफर की थकान उडन-छू हो गई| थके हुए चेहरे खिल गए| हाथ-पैर स्फूर्ति से भर गए और सबने हाथ उठाकर अरुण का अभिभादन किया|
 
"स्वागत है आप सभी का|" - गर्म जोशी से अरुण ने आगे बढकर अमित को गले लगाया| एक-एक करके सभी से मिला| वरुण ने जब अरुण के पैर छुए तो वह भाव-विभोर हो गया| जैसे उसे भूली-बिसरी भारतीय परम्परा याद हो आई हो|
 
"आशा थी आपको कि मैं यहाँ मिलूँगा?" अरुण ने पूछा|
 
"इमिग्रेशन पर पहुँच कर एकाएक न जाने क्यों प्रिया को कहा था मैने कि बाहर आप मिलेंगे|" अमित ने जो महसूस किया था वह बता दिया| सामान की ट्राली लिए सभी कार पार्किंग की ओर चल दिय|
 
बाहर धूप थी| समय था दिन के दो बजे का| तारीख वही थी जो कल अपने देश से चलते समय थी| समय की सुईयाँ ठीक साढे दस घंटे पीछे करनी थी|
 
"हमें घर पहुँचने में कितना समय लगेगा, जीजा जी?" प्रिया ने पूछा अरुण से|
 
"कम से कम सात घंटे| चिन्ता ना करो, सफर यूँ ही कट जाएग| रास्ता बहुत खूबसूरत है और ढेर-सी बातें करते है| आपकी पिछले पन्द्रह सालो की बातें है| और मेरी पिछली तीस सालों की बाते है| सात घंटे क्या सात दिन भी कम है| - अमित-प्रिया को अच्छी लग रही थी वरुण की बाते| कार में बैठते ही बच्चे तो एकदम गहरी नींद में सो गए| और अमित व प्रिया शिष्टाचार और अरुण के अपनेपन से बेहाल हुए नींद की बेहाली को भूले हुए थे|
 
सात घंटे, सात युगों के समान थे प्रिया के लिए| बच्चे सोते रहे इस बीच| अमित कभी सो जाता, कभी उठ जाता| अरुण की बोलने की शकित देखकर प्रिया आश्चर्यचकित थी| वह तो टेपरिकार्डर की तरह सात घंटे बोलता ही रहा| कुछ सुनने की शक्ति तो उसमें जैसे थी ही नही| प्रिया शिष्टाचारवश सुनती रही| लेकिन सच बात तो यह थी कि अरुण की कही सभी बातें केवल कानों ने ही सुनी| कुछ याद रही, कुछ भूली-सी महसूस हुई|
 
रास्ता बहुत सुन्दर था| झीलों का देश था यह| हरे-भरे उपवन, नीले पानी की भरी झीलें और मीलों लम्बी सड़क| ट्रेफिक नाम माञ| ऐसा सफर एक सुन्दर स्वर्ग की भाँति प्रतीत हो रहा था|
 
रात दस बजे आखिर वे घर पहुँचे| बाहर ही खड़ी थी वीणा| पन्द्रह वर्ष बाद एक-दूसरे को देखकर भाव-विभोर हो उठे सभी| बार-बार गले लगती बहनें| तीन बच्चे थे वीणा के| दो लड़कियाँ, एक लड़का| प्रिया अमित उनसे मिलते रहे| वे अरुण-स्निग्धा से मिले| बस भावनाओं में बधे सभी बैठे रहे| रात कब बीती पता भी नही चला|
 
"तुम्हें मिलकर ऐसा लग रहा है, कई युग बीत गए|" प्रिया को अपने सामने बिठाकर वीणा अपने बच्चों की तरह उसे सहला रही थी| बड़ी बहन थी प्रिया की| पूरे आठ वर्ष बड़ी| बचपन में प्यार से गोदी में उठकर घूमती थी उसे| जब प्रिया स्कूल जाने को हुई तो उसकी चोटी भी बाँधती थी| प्यार से कभी-कभार उसके लिए अपने जेब खर्च में से कुछ उपहार भी ले आती थी| और तो और जब अमित को उसने पहली बार देव के साथ देखा था तो एकाएक प्रार्थना भी कर बैठी थी कि प्रिया को अमित-सा ही वर मिले| वीणा के भाग्य में जो लिखा था, वही हुआ| प्रिया के लिए उसने जो चाहा था, वही मिला उसे भी|
 
"पन्द्रह वर्ष बाद मिले, दीदी हम| वरुण छः महीने का था| आज दसवीं में पढ़ता है|" - प्रिया भी भाव-विहवल अपनी बहन की ओर देखे जा रही थी|
 
"सामने रहो तो लगता है, वक्त की रफ्तार बहुत धीमी है| आँखों से दूर रहकर वक्त का ध्यान ही नहीं रहता|" - वीणा ने बीते दिनों की यादों में खोए हुए कहा|
 
"हम अपनी-अपनी जिन्दगी जीते हैं - हमारा समय उसी में कट जाता है| जब कभी दिनचर्या से वक्त मिलता है, दूर बैठे अपने प्रियजनों की याद आ जाती है| तब समय को देखकर एकाएक हैरानी होती है| इतने दिन हो गए देखे अपने किसी प्रिय को|" प्रिया भावुक है सदा से| आँखें छलक आती है उसकी झट से| अश्रुमिश्रित शब्दों से बोल रही थी, "लेकिन हमारे बड़े हमारे मम्मी-डैडी, जिन्हें अब और कुछ काम नही है उनसे पूछिए| हर समय आपको ही याद करते है| हमें तो मिल लेते है महीने-दो-महीने में, और आपको नही देखा इतने समय से| बस आपकी ही बातें करते रहते| 'वीणा कैसी होगी? उसके बच्चे कैसे होंगे? पति कैसा होगा? वह खुश तो है?' उनकी दिनचर्या का बड़ा भाग तो आप ही की बातें करते बीत जाता है|" आँसू अब बह निकले थे प्रिया के, भीग गया था स्वर उसका, "डैडी तो आपको पता है कुछ ज्यादा नही बोलते| मम्मी बस हर बात में कोई ऐसी बात निकाल लेती है और आपकी मिसाल जरुर देती है| सब बेटियों में आप ही से सबसे ज्यादा बंधी लगती है| ऐसा क्या है, जो आप एक बार भी उनसे मिलने का वक्त नहीं निकाल पाईं?" पूछ लिया प्रिया ने| वीणा एकाएक कुछ न बोल पाई| प्रिया ने तब फिर कहा, "अमित के कितने दोस्त यहाँ रहते है, सब साल में एक-दो महीने के लिए जरुर आते है इण्डिया| एक मिञ तो ऐसा है जिसका कोई सगा-सम्बन्धी अब नहीं बचा वहाँ, फिर भी चला आता है अपनी यादें ताजी करने| और किसी को नहीं तो अमित से मिलने|"
 
तब वीणा ने कहा, "सभी की अपनी-अपनी मजबूरियाँ हैं, प्रिया| तुम्हारे जीजा को जैसे इण्डिया के नाम से बुखार चढ़ जाता है| कई कड़वी यादें हैं उनकी, जिन्हें वह भुलाए बैठे हैं| यही कहते है हर बार, वहाँ जाउँगा फिर लिपट जाएँगी सब| कोई नहीं है ऐसा जिसके लिए इण्डिया जाउँ|" वीणा ने शब्द जैसे उधार लिए थे अरुण से| अपना जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं था उसका|
 
तब प्रिया ने कहा, "उन कड़वी यादों से ही निकल कर उन्होंने आपको भी तो ढूँढा था! आपको पा लिया, अपना परिवार बसा लिया| यही संसार है उनका और उस संसार में आपका अपना अस्तित्व भी तो है! वहाँ जो आपके अपने हैं, उनमें तो कुछ कड़वापन नहीं| उनमें तो मिठास ढूँढी जा सकती है| अब तो हम सब लोग उनके अपने है| रिश्ते समझने की चीज है, रिश्ते अपनाने के लिए बनते है| और उनके लिए कुछ न कुछ भूलना भी पड़ता है|"
 
प्रिया ने समझे वीणा के मनोभाव, और समझा उन शब्दों में छिपे भावों का अर्थ| उसी लय में उसने शब्द बांध लिए थे| लेकिन वीणा किस मिट्टी की बनी थी वह समझना शायद उसके बस की बात नहीं थी| वीणा को लगा वह प्रिया से लम्बी बात करने के लिए अभी तैयार नही है| ऐसे में बात समाप्त करते हुए बोली "अभी इस विषय पर बात नहीं करते| तुम ही पूछ लेना अपने जीजा जी से| सब बात समझ आ जाएगी| चलो अब सो जाओ, सफर की थकान मिटा लो| अभी बहुत दिन है साथ| सब समझ आ जाएगा|" और वीणा प्रिया को उसके कमरे तक छोड़ आई जहाँ अमित पहले से सोया हुआ था|