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नई सुबह
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नई सुबह (छब्बीस)
ISBN: 81-901611-13

 

 
 
देव को गुजरे एक माह हो चला था|
 
वीणा एक दम खाली हो गई थी| कोई काम नही था उसके पास| सभी की कोशिश रहती थी कि कोई न कोई उसके पास बना रहे| पहले कुछ दिन तो प्रमोद व कोमल दोनों दोपहर बाद आ जाते थे और रात देर तक वहीं रुके रहते थे। उनके उपस्थिति में वीणा को अच्छा लगता था| लेकिन माँ क्रष्णा को उनका यूँ रोज चला आना अखरने लगा था| क्योंकि प्रमोद की उपस्थिति उन्हें देव की बातें ही याद कराती थी| वह हर बात को लेकर बीच-बीच में एक बात ही कहती प्रमोद से "तुम्हें देखती हूँ तो देव याद हो आता है| उसका दुःख चाहकर भी कम नही कर पाते|"
 
देव याद सभी को आता था| लेकिन याद को बार-बार कुरेदना अच्छा नही लगता दूसरों को| धीरे-धीरे प्रमोद-कोमल का आना कम होने लगा| अमित वीणा को देखता तो सोचता कि यही स्थिति बनी रही तो वीणा वक्त गुजरने के सात-सात बिल्कुल निष्क्रिय हो जाएगी| ऐसे में वह देव के साथी प्रोफेसर ञिपाठी से मिलने चला गया|
 
प्रोफेसर ञिपाठी देव के साथ ही खालसा कालेज में पढाते थे| उनका अच्छा दबदबा भी था कालेज में| दोपहर जब वह कालेज में पहुँचा, उस समय वह स्टाफ-रुम में बैठे अपने दूसरे साथियों के साथ बातचीत में मग्न थे| अमित को देखते ही बड़ी गर्मजोशी से उठकर उससे मिले|
 
"आओ अमित! मैं सुबह ही तुम्हें याद कर रहा था|" - अपने पास बिठाते हुए बोले - "कहो कैसे चल रहा है?"
 
"सब ठीक है ञिपाठी साहब| कई दिनों से आपसे मिलने की सोच रहा था और आज आपसे मिलने चला आया|" - अमित ने कहा|
 
"अच्छा किया, मैं स्वयं तुमसे मिलकर वीणा जी की सैटलमैंट के विषय में बात करना चाह रहा था|" - अमित के मन की बात को जैसे उन्होने भाँप लिया हो| स्वयं ही उन्होंने बात छेड़ दी|
 
इसी बीच अमित को देखकर अन्य कई लेक्चरार, जो उसे देव के सन्दर्भ में जानते थे, चले आए| सबकी बातचीत का केन्द्र वीणा ही बन गई थी|
 
क्या सोचा है वीणा जी ने अपने लिए....?" - प्रश्न प्रोफेसर जसपाल सिंह का था|
 
"अभी तो वह संभली भी नहीं हैं अपने दुःख से| लेकिन मैं चाहता हूँ, कालेज की तरफ से यदि कोई आश्वासन मिल जाता देव की पोस्ट के एवज में| कालेज उन्हें यदि लेक्चरार के रुप में नियुक्त कर दे तो बहुत अच्छा होगा उनके लिए|" - अमित ने अपनी बात कही सबसे|
 
"क्यों नहीं, क्यों नहीं|" - एक साथ तीन-चार सम्मिलित स्वर उभरे|
 
"वीणा जी एम.एस.सी. है न?" - एक ने पूछा|
 
"जी हाँ, शादी से पहले तो वह केन्द्रिय विद्यालय में पढाती थी| देव की बीमारी के दौरान कोशिश की ट्रांसफर की और जब ट्रांसफर नही हुई तो उन्होंने त्यागपञ दे दिया|"
 
"बहुत-बडी गलती कर दी उन्होंने| इतनी अच्छी नौकरी नही छोडनी चाहिए थी| बिना तनख्वाह के छुट्टी ले लेती|" - प्रोफेसर ञिपाठी ने कहा|
 
"तब सोचा था देव ठीक हो जाएगा तो दुबारा से कोशिश कर लेगी और फिर उन्होंने सोचा था, देव के ठीक होने के बाद वह पी.एच.डी. करेंगी और तब कालेज की नौकरी ही बेहतर रहेगी उनके लिए|" अमित ने सफाई दी|
 
"खैर.... अब जो हो गया उसको सोचने का कोई फायदा नही| अब तो प्रिंसिपल साहब को मिल कर कहना चाहिए कुछ करने को|" - यह सुझाव प्रोफेसर मट्टू का था, जिसे देव की सलाह पर ही नौकरी के लिए चुना गया था|
 
तब प्रोफेसर ञिपाठी ने अमित से कहा - "अमित! ऐसे में बेहतर होगा तुम कल ही वीणा जी की तरफ से एक प्रार्थनापञ बनाकर ले आओ बेहतर रहेगा उन्हें साथ लेकर ही प्रिंसिपल साहब से मिल लो| हम भी आज या कल उनसे मिलकर बात कर लेंगे| और आगे की योजना उसके बाद ही बनाएँ तो ठीक रहेगा|"
 
"जैसा आप बेहतर समझें| मैं कल ही उन्हें लेकर आ जाउँगा|" - अमित ने कहा और उठने का उपक्रम करते हुए बोला - "अच्छा, चलता हूँ| कल मिलूँगा|"
 
- और सबसे हाथ मिलाकर वह बाहर निकल आया| तब उसके साथ-साथ प्रोफेसर मट्टू भी बाहर आ गए - "अमित, देव के प्रोविडेंट फण्ड के लिए भी फार्म भारना होगा और हाँ, कल मैं 'टीचर्स वेलफेयर फण्ड' का भी फार्म मंगवा लूँगा| उसके अन्तर्गत किसी भी टीचर की आकस्मिक म्रत्यु पर 21000 रुपये देने का प्रावधान है|"
 
यह सुनकर अमित ने कहा - "मट्टू भाई| आज हमें रुपये-पैसे की जरुरत नहीं, जरुरत है भाभी को सहारा देन की, उनके खलीपन को दूर करने की| उनके लिए कोई रास्ता बन जाए, बस यही कामना कीजिए|"
 
"मैं तुम्हारे साथ हूँ अमित! मुझसे और अन्य सभी से जो बन पडेगा वह हम करेंगे|" - तब प्रोफेसर मट्टू से हाथ मिलाकर अमित ने विदा ली|
 
अगले दिन वीणा को साथ लेकर अमित कालेज पहुँच गया| प्रिंसिपल साहब बहुत अच्छी तरह मिले| उनके व्यवहार से लगा कि जैसे प्रोफेसर ञिपाठी ने उनसे इस सम्बन्ध में पहले से ही बात कर ली थी| वीणा की अर्जी को देखने के बाद वह बोले - "देखिए वीणा जी! मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करुँगा कि आपको टीचिंग लाईन में ही कोई आफर दी जा सके| लेकिन मेरी अपनी राय में बेहतर होगा कि आप टीचिंग की अपेक्षा एडमिनिस्ट्रेशन की जाब ही लें|"
 
"ऐसा क्यों सर?" - वीणा उन्हें देखते हुए बोली|
 
"आप स्वयं देखिए| लगभग ग्यारह वर्ष पहले अपने कालेज की पढाई पूरी की थी| उसके बाद आपने प्राइमरी टीचर की नौकरी की| अब ढाई साल से बिल्कुल कुछ नहीं कर रही हैं| एक तरह से अपने विषय से आप लम्बे समय से बिल्कुल भी टच में नहीं हैं। ऐसे में कालेज स्तर की पढाई करवाना बिल्कुल सम्भव नहीं होगा...|" - उन्होंने अपनी राय स्पष्ट कर दी| "मैं मेहनत से अपने विषय को फिर से ग्रहण कर लूँगी|" - फिर कुछ रुकी और बोली, "लेकिन फिर भी आप जो उचित समझें वह कीजिए|"
 
- अमित को तब लगा अन्तिम वाक्य भाभी को नहीं कहना चाहिए था| वे दोनों तब उनसे विदा लेकर बाहर निकले|
 
स्टाफ-रुम में पहुँच कर जब अमित ने सारी बात प्रोफेसर ञिपाठी से कही तो उन्होंने भी कहा, "भाभी जी, आपके अन्तिम वाक्य से सब गडबड हो गई| अब वह यही कहेंगे कि आपको कोई क्लैरिकल जाब दे दी जाए|"
 
"वह तो मैं करुँगी नही!" - तब वीणा ने कहा|
 
"वह तो आपको उन्हीं से कहना होगा|" - तब प्रोफेसर ञिपाठी ने कहा|
 
"चलिए, उन्हें कोई प्रपोजल तो देने दीजिए| तभी बात की जाएगी|" - तब अमित ने कहा|
 
"अमित! तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन आजकल जमाना दूसरे की राय अपने उपर लादने का नहीं है| आज तो अवसर मिलते ही अच्छी नौकरी हासिल करने के लिए सभी नीतियाँ अपनानी पडती है| लैक्चरारशिप के लिए जो न्यूनतम योग्यता होनी जरुरी है, वह तो है फिर काहे का डर| एक बार नौकरी मिल जाए फिर सब ठीक हो जाता है|" फिर धीरे से फुसफुसाते हुए बोले, "ये लोग भूल रहे है| प्रोफेसर जसपाल की पत्नी को देव ने ही नियुक्त करवाया था| चाहे राजनीतिक दवाब के कारण उनकी पत्नी को नौकरी मिली थी| लेकिन देखो दोनों पति-पत्नी एक ही कालेज में लैक्चरार है| दोनों की ही एम.ए. सैकिंड डिवीजन|" - अमित को लगा प्रोफेसर ञिपाठी सहानुभूति प्रकट कर, ऐसी बाते कर अपने को उनका सबसे बड़ा हिमायती साबित करना चाहते है|
 
"भाभी के परिस्थिति दूसरी है, ञिपाठी साहब! उन्हें आज हौसला देकर कहा जाना चाहिए कि आप यह करें हम आपके साथ है|" - अमित ने कहा|
 
"यही तो मै कह रहा हूँ| हम सब इनके साथ है| अब आप प्रिंसिपल साहब से फिर मिलना और लैक्चरारशिप के लिए ही जोर देना|" - ञिपाठी साहब के शब्दों से वीणा का साहस फिर बढ गया था|
 
 
 
घर पहुँच कर इन्होंने देखा कि पन्नालाल व निर्मला आए हुए थे| वीणा अपनी माँ को देखकर उससे लिपट गई और बरबस उसकी आँखें बहने लगी| उनके आने का प्रयोजन अमित को अपनी माँ से ग्यात हुआ| वे वीणा को अपने साथ ले जाने के लिए आए थे| क्रष्णा का मन भी खिन्न था| पिता श्रीराम अपनी आदत के अनुसार चुप थे|
 
अमित ने ही बात चलाई - "अभी कुछ दिन रुक जाएं भाभी तो बेहतर होगा| शायद नौकरी की कुछ बात बन जाए|"
 
"बेटा, कोई सदा के लिए तो नही ले जा रहे उसे हम|" - माँ निर्मला ने कहा - "थोड़े बदलाव से इसका मन भी ठीक हो जाएगा और थोड़ा हमें भी अच्छा लगेगा| घर में हर समय इसी में ध्यान लगा रहता है|"
 
तब क्रष्णा ने कहा, "हमारा भी अब कौन है? वीणा तो मेरी अपनी बेटी है| देव नही रहा अब इसी को देखकर यही लगता है हमारा दूसरा देव यही है|"
 
"आपकी ही बेटी है बहन जी, मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप भी चलिए, कुछ दिन हमारे पास रह आइए| आपको भी अच्छा लगेगा|" - यह पन्नालाल ने कहा था क्रष्णा से|
 
तब पिता श्रीराम ने अपनी चुप्पी तोड़ी, "वीणा का मन है तो ले जाइए बेशक! उसकी खुशी में ही हमारी खुशी है|"
 
वीणा को देहरादून जाने की सोचकर ही अच्छा लग रहा था| एकाएक उसे लगा कि कहीं कुछ खालीपन है यहाँ| यहां से दूर हटकर अच्छा लगेगा उसे| ऐसे में नौकरी मिलने से बेहतर उसे लग रहा था कुछ आराम| नौकरी पाने की लालसा जो दोपहर तक थी उसके मन में, उससे उपर उठ आई माँ के पास बैठकर आराम करने की चाह!
 
ऐसे में अमित कुछ कहता तो शायद वीणा को, निर्मला व पन्नालाल को, अन्यथा लग सकता था| उसने चुप रहना ही बेहतर समझा|
 
अगले दिन सुबह-सवेरे वह उन सबको बस पर बिठा कर लौट आया| चाहकर भी अमित माँ निर्मला से प्रिया की कोई बात नहीं कर पाया| चाहकर भी वीणा भाभी के हाथ प्रिया को कोई पञ न भेज सका| उसे उचित नही लग रहा था ऐसे में प्रिया की कोई बात भी करना| हाँ, वीणा ने बस पर चढ़ते-चढ़ते उससे पूछ लिया था - "कुछ कहना है प्रिया को?" एकाएक कुछ सुझाई नही दिया उसे, बस यही बोल सका - "मेरी हैलो कहना|"
 
 
 
अमित की दिनचर्या बिल्कुल बदल गई थी| एकाएक उसे लगा वह काम होते हुए भी बिल्कुल खाली हो गया हैं। कहां सुबह से शाम तक अपने काम के बाद उसे सिर्फ एक ही चिन्ता सताए रहती थी - देव की, वीणा की| और देव के बाद दो महीने सिर्फ वीणा की और अब कुछ नही! सुबह उठता नाश्ता करता अपने काम पर चला जाता और कोशिश रहती उसकी ज्यादा से ज्यादा देर तक बना रहे| घर लौटकर उसे कुछ करना अच्छा नही लगता था| देर रात घर लौटता नहाकर खाना खाता और सो जाता| सोते-सोते नीद खुलती तो प्रिया को याद करने लगता| कभी रात एक बजे, कभी दो बजे तो कभी तीन बजे उठकर उसे पञ लिखता|
 
वीणा को गए पन्द्रह दिन हो गए थे और इस बीच प्रिया के कई पञ आए, उसने भी उसे लगभग रोज एक पञ लिखा| भाभी के लिए उसके पास वही शब्द थे| भाभी के बिना घर सूना है| खाली-खाली लगता है| कब घर में खाना बनता है, कब खत्म हो जाता है| सूनेपन के अतिरिक्त कुछ नही| और प्रिया भी यही कुछ लिखा करती दीदी अब बहुत बदल गई है| चुप रहने के सिवा कुछ नही करती| एक मिनट भी अकेला छोड़ो तो रोने लगती है| देव की याद उसका पीछा नही छोड़ती| हम भी उसे अकेला नही छोड़ते| ऐसे में अमित दीदी को दिल्ली भेजना उचित है क्या? - और ऐसे में अमित कुछ नही लिख पाता|
 
प्रोफेसर ञिपाठी भी आए थे इस बीच| उन्हीं से मालूम पड़ा की प्रिंसिपल ने मैनेजिंग कमेटी से वीणा के लिए आफिस की नौकरी के लिए पेशकश की थी| वीणा की अनुपस्थिति में कुछ नहीं हो सकता था| तब अमित ने देहरादून जाने का निर्णय कर लिया| माँ-बापू जी को इस विषय में उसने संक्षेप में सूचित कर दिया और अगले ही दिन सुबह चार बजे कार उठाकर देहरादून के लिए रवाना हो गया| माँ ने उसे केवल इतना ही कहा, "एक दिन से ज्यादा तुम न रुकना और वीणा को साथ ही लेकर आना|" और अमित अपनी धुन में कार चलता हुआ चार घंटे में ही देहरादून पहुँच गया| न कार रास्ते में रोकी उसने और न ही स्पीड कम हुई| सुबह-सवेरे सड़क पर यातायात शून्य के बराबर था|
 
अमित को आया देखकर सभी ने उसका बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया| प्रिया उसे एकटक देखती ही रह गई| अमित ने देखा खुशी से उसके गाल लाल हो गए थे| शब्द न जुटा पाई कुछ एकाएक उसे सामने देखकर| बस खुशी-खुशी भागकर उसके लिए चाय बना लाई| अमित का आना वीणा भाभी को भी अच्छा लगा| चाय पीते-पीते अमित ने वीणा से कहा, प्रिंसिपल ने आपके लिए क्लेरिकल पोस्ट के लिए ही मन्जूरी दी है|"
 
- "और वह मुझे नहीं करनी|" - वीणा ने दो टुक उतर दिया|
 
"ऐसा तो मैंने भी कहा है प्रोफेसर ञिपाठी को| लेकिन उनकी राय है कि आपके प्रोटेस्ट किए बिना कुछ नहीं हो सकता|"
 
"देखो अमित! जहाँ तक सिर्फ नौकरी की बात है उचित है उनकी यह आफर| लेकिन जिस कालेज में देव प्रोफेसर था, वहाँ उसकी पत्नी को वे लोग क्लर्क बना कर रख छोड़ें, यह देव के नाम का अपमान होगा| हाँ, मुझसे कहते एक साल मेहनत करो| कोई परीक्षा पास कर लो तब नौकरी देंगे| मैं दिन-रात एक कर देती| लेकिन अब मैं अपनी भावनाओं की थाह देने को गिड़गिड़ाउँ? ऐसा मुझसे नही होगा|" - वीणा का स्वर द्रढ़ था|
 
"गिड़गिड़ाने को कौन कह रहा है, भाभी? मै भी अपने हक की बात कर रहा हूँ|" - अमित ने कहां।
 
"अपना हक....| वह तो उन सभी को पता है| क्या प्रिंसिपल देव के साथी नही थे? क्या उन्हें स्वयं इस बात का एहसास नही कि अपने साथी की पत्नी का मानसिक-संतुलन बनाए रखने के लिए उसे सम्मानजनक पद ही आफर करना चाहिए? - ऐसा क्या कि अपने कर्तव्य का बोझ उतारने के लिए एक क्लर्क की आफर देकर बात समाप्त कर दी जाए?" फिर प्रोफेसर ञिपाठी या जसपाल कोई क्यों नही कहता? क्यों मेरे ही मुँह से सब कहलवाना चाहते है? क्यों नही जसपाल की पत्नी का उदाहरण सामने रखते?"
 
"भाभी! अभी बात समाप्त कहाँ हुई है| अभी तो समय है|" हम सब बातें उन्हें कह सकते है|"
 
तब वीणा कुछ सोचती रही फिर बोली, "देखो अमित! सच कहूँ तो यहाँ आकर मुझे लगा कि मुझमें हिम्मत नही अभी कुछ करने की| मैं अभी स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ| देव के बिना तो कुछ अच्छा नही लगता, न यहाँ न दिल्ली में. दिल्ली में देव नही अब दिल्ली जाने का मन भी नही|" - वीणा चाहकर भी अपने आँसुओं का प्रवाह न रोक पाई|
 
"दिल्ली से नाता तोड़ लोगी, भाभी! इतनी जल्दी? माँ-बाबू जी भी तो हैं|" - अमित का स्वर भर्रा आया था|
 
"सब है अमित, लेकिन सबके बीच मैं अकेली पड़ गई हूँ|" वीणा के आँसू बहने लगे, "मैं यहाँ भी अकेली हूँ| सबके लिए एक ही बात है कि वीणा का अब क्या होगा? शादी से पहले ऐसा नही था| यह वीणा का घर था| अब तो मैं यहाँ भी पराई हूँ|" - और वीणा रोने लगी फूट-फूटकर|
 
"अरे वीणा! बेटी ऐसा क्यों कह रही है तू? तू हमसे भी मन ही मन रुठी है| सबसे रुठी है| क्यों ऐसी दशा बना रखी है तूने? तब माँ निर्मला ने उसके सिर को अपनी बाहों में लेकर सहलाते हुए कहा|
 
"मैं किसी से नहीं रुठी, माँ! मेरा भाग्य मुझसे रुठा है| देखो न, भाग्य रुठा है, तभी तो सभी मेरे भाग्य का रोना रोते है| ऐसे में मैं कैसे हँसू?" - वीणा के आँसू रुकने का नाम नही ले रहे थे|
 
तब अमित ने भर्राए शब्दो में कहा - "भाभी! मुझसे कोई भूल हो गई हो या कुछ गलत कहा हो तो माफ कर दो| लेकिन रो-ओ नहीं|"
 
"नही अमित, तुम गलत न समझो मुझे| मेरी जगह खड़े होकर सोचो| यदि मुझे शान्त-सुखी देखना चाहते हो तो बोलो क्या उचित है मेरे लिए? मैं कुछ करना चाहती हूँ, लेकिन भीख के कटोरे में कुछ लेकर नहीं| अपनी योग्यता के बल पर| और उससे उपर मैं कुछ समय अकेले रहना चाहती हूँ और इसीलिए सोचा है न दिल्ली रहूँ न देहरादून| मसूरी के किसी स्कूल को ज्याइन कर लूँ और वहीं होस्टल में रहूँ|" - वीणा ने एकाएक मन की बात कही| सब साफ हो गया| अमित भी वही करना चाहता था, जो वीणा चाहती थी| वह वीणा की इच्छा को नही बदलना चाहता था|
 
"यह तो अच्छी बात हैं| आपको वही करना चाहिए जो आपको स्वयं अच्छा लगे| ऐसे में आप दो टूक शब्दों में कह देती मुझे दिल्ली नौकरी नही करनी| बस!" - तब अमित भी संभल गया|
 
"मैं कह सकती थी, लेकिन चुप थी - माँ-बाबू जी क्या सोचेंगे? बेटा चला गया| अब बहू भी नही आना चाहती| न जाने कैसे मैं तुम्हारे परिवार से इतना बंध गई हूँ अमित, कि न तुम लोगों से दूर जाते बनता है अब, न निकट रहते| देव में जो आकर्षण था, उसकी डोर बहुत मजबूत है अमित|" वीणा फिर रोने लगी|
 
ऐसे में अमित ने मन की बात कही - "अच्छा है, भाभी! मन से जो करना चाहो वही करो| माँ-बाबू जी को मैं संभाल लूँगा|"
 
दिन भर अमित प्रिया के साथ घूमता रहा और शाम चार बजे दिल्ली के लिए रवाना हो गया| रात दस बजे के करीब वह दिल्ली लौटा| क्रष्णा व श्रीराम जैसे उसी की प्रतीक्षा में बैठे थे| अमित को अकेला आए देखकर उनका मन उदास हो गया| धीरे-धीरे उसने सारी बातें उन्हें समझा दीं और साथ ही कहा, "अब अच्छा यही रहेगा कि हम भाभी को अपने मन की करने दें| उसे जो अच्छा लगता है, वही हमें अच्छा लगना चाहिए|"
 
तब क्रष्णा ने कहा, "लेकिन मैं बिरादरी को क्या कहूँगी? सब लोग तो यही कहेंगे कि बेटा गया तो बहू को भी मायके भेज दिया|"
 
"कहने को बहुत कुछ है लोगों के पास, लेकिन जरुरी नहीं कि बेकार की बातों को तूल दिया जाए| कोई कुछ भी कहे लेकिन हमारी खुशी भाभी की खुशी में है, बस|" अमित के शब्दों का अर्थ जानकर श्रीराम ने ही कह दिया क्रष्णा से, "अमित ठीक कह रहा है| दुनियाँ की हमें कोई परवाह नही|" - तब क्रष्णा कुछ और न बोल पाई| उसे अपनी उदासी, अपना दुःख पहले से अधिक बढ़ा हुआ लग रहा था|
 
मसूरी में वीणा को कान्वेट आफ जीजस एण्ड मेरी में नौकरी मिल गई| सिस्टर सुप्रीम ने उसे 'हाँ' कहने में जरा-सा भी समय नहीं माँगा| वीणा की आप बीती और उसकी वर्तमान दशा ही जैसे उसके लिए सबसे बड़ी पहचान बन गई थी| वीणा का वहीं दूसरी अध्यापिकाओं के साथ रहने का प्रबन्ध भी हो गया|
 
कुछ ही दिनों में होस्टल के नियमों में वीणा बंध कर इतनी व्यस्त हो गई कि अगले एक माह में केवल एक दिन के लिए देहरादून गई| वैसे भी अवकाश मिलना कठिन था सभी के लिए| सुबह सात बजे से लेकर शाम आठ बजे तक कोई न कोई काम रहता था उसे| सुबह-शाम बच्चों के साथ होस्टल में और दिन में कक्षाओं में व्यस्तता बनी रहती थी|
 
लेकिन इतनी व्यस्तता के बावजूद रात देर गए अक्सर उसकी नींद खुल जाती और खिड़की के पास खड़ी होकर वह बाहर दूर तक फैले अंधियारे में बनती-बिगड़ती स्याह परछाईयों को ही देर तक घूरा करती| कभी सिसक पड़ती तो उसकी रुममेट नीरा उठ कर उसको सांत्वना दिया करती| उसे अपने बीते दिनों को भूल जाने को कहती|