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नई सुबह
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नई सुबह ( तेरह)
ISBN: 81-901611-13
 
 
जैसे-जैसे वीणा की छुट्टियाँ खत्म होने को आ रही थीं, देव की परेशानी बढ़ती जा रही थीं| वीणा की बदली की बात अभी अधर में लटकी हुई थी| ऐसे में वीणा के पास देहरादून जाने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं था| हाँ, छुट्टियाँ बढ़वा सकती थी, बिना वेतन के|
 
देव का मन किसी अग्यात शंका से बेचैन था| वीणा देहरादून जाएगी| बातों ही बातों में बात निकल जाएगी| वह अपने माता-पिता सब से कह बैठी तो न जाने क्या होगा! उससे दूर रहेगी तो कहीं उसके प्रति उसका मोह कम न हो जाए!
 
ऐसा कुछ वीणा के मन में नहीं था| न ही वह मन के किसी कोने में किसी डर को अब बैठा देख रही थी| चार महीने बीतने को आ गए थे| देव भला-चंगा था और अब उसकी बिमारी की बात तो उसके मनो-मस्तिष्क से मिट गई थी| सुबह की उसकी परेशानी उसे अपनी दिनचर्या काएक अंग लगने लगी थी|
 
लेकिन जिसके मन में चोर होता है, परेशान वह बेवजह होता रहता है| देव परेशान था और यह सोच रहा था कि कैसे रोके वीणा को अपने से दूर जाकर रहने को| सीधे कहता तो वह नौकरी तो छोडती नहीं| सरकारी नौकरी आसानी से तो नहीं मिलती? ऐसे मेंभूमिका बाँधने की कोशिश करता रहता| बात-बात में घुमाफिरा कर वीणा को अपनी भावनाओ की धारा में बहा कर ले जाता|
 
'वीणा! मेरा जन्म सुधर गया| तुम्हारे आने के बाद लगता है, मैं कभी अकेला नहीं था| बीते दिन अब स्वप्न की भाँति लगते हैं| कुछ याद नही करना चाहता|'
 
वीणा मुस्कुरा देती| उसकी भावनाओ की कद्र करती थी| देव का साथ पाकर वह भी खुश थी| जब भी उसके साथ कालेज जाती और देखती देव के प्रति सभी के मन में बसे आदर भाव को| उसके साथियों में देव के दबदबे को। सभी छात्रों मे देव के प्रति आदर को। मन खिल उठता उसका| स्कूल मेंवह तो प्राथमिक स्तर की शिक्षिका थी| यहाँ तो सब कालेज में एम ए, बी ए के व्यस्क छाञ थे| छाञ ऐसे की जरा सी चिंगारी को हवा देकर आग बना देने वाले| वही छाञ जो प्रिंसिपल के सामने तो नारे लगाते और देव को सामने पाकर एक दम चुप हो जाते| क्या था ऐसा आकर्षण, कैसा था ऐसा तेज देव के चेहरे पर कि सब उससे बात करके सौम्य हो जाते थे!
 
यही कहते सुना था उसने सभी से कि सब कुछ ठीक रहा तो देव समय से पहले प्रोफेसर बन जाएगा और फिर एक दिन दिल्ली विश्वविद्यालय का वाइस-चाँसलर! कितना गर्व था उसके सभी साथियों को! ऐसे व्यकित की पत्नी बनना उसके भाग्य की सबसे बड़ी उपलब्धि थी|
 
ऐसी भावनाओ की तरंगो में बहती वीणा को आखिर एक दिन देव ने कह दिया, "वीणा, हमें किसी बात की कमी नहीं है| तुम्हारी बदली की मैं कोशिश तो कर ही रहा हूँ| ऐसे में तुम मुझसे दूर जाकर रहो, इसकी मैं आवश्यकता नही समझता| अच्छा रहेगा कि हम दोनों साथ रहें| कोशिश करते रहें और ऐसे में तब तक तुम बिना वेतन के छुट्टी लिए रहो| इससे स्कूल के अधिकारियों पर दबाव भी बना रहेगा| और जल्दी से तुम्हारी बदली हो जाएगी!"
 
चूँकि वीणा देव को अपने से या अपने हर किसी शुभचिन्तक से अधिक समझदार मानने लगी थी, उसने देव की इस राय को सहर्ष स्वीकार कर लिया और इसी आशय की चिट्ठी अपने स्कूल में डाल दी|
 
उधर देहरादून में जब माँ निर्मला को इस बात का पता लगा तो उन्होंने एक ही शब्द में बात समाप्त कर दी - "हमारी बेटी शादी के बाद खुश है| जैसा वह चाहती है या जैसा उसका पति चाहता है, वही अच्छा है| अब हमें अपनी राय नही देनी| वह छुट्टी ले या नौकरी करे, अब यह उसका निजी मामला है|"
 
लेकिन उसकी बहन सुनीता को इस बात का जब पता लगा तो उसने अपनी नारजगी स्पष्ट लिख दि थी - "मुझे मम्मी से पता लगा तुम्हारी लम्बी छुट्टी के आवेदन का| यह तुमने ठीक नही किया| सरकारी नौकरी कोई रास्ते पर पड़ी नहीं मिलती| जब तक बदली नही होती तुम्हें देहरादून जाकर रहना चाहिए और नियमित रुप से स्कूल जाना चाहिए| मुझे देखो शादी के बाद साल में सिर्फ दो-तीन महीने ही अपने पति के पास रह पाती हूँ| हिमाचल के एक कोने में मेरा स्कूल है और दूसरे कोने में उनका होटल| लेकिन नौकरी की वजह से हम दोनों ने परिस्थितियों से समझौता कर रखा है| तुम्हारा पति भी तो नौकरी ही करता है| ऐसे में तुम्हें सदैव अपने व अपने परिवार के भविष्य की सुरक्षा के लिए नौकरी पर नियमित रुप से जाना चाहिए|"
 
वीणा को बात तो सुनीता को भी उचित लगी| लेकिन पञ पढ़कर देव की प्रतिक्रिया देखकर उसने अपनी राय नही बदली| देव ने पञ पढ़ते ही कहा था, "ठीक है सुनीता दीदी तुमसे बड़ी है| लेकिन अपनी परिस्थितियों की तुलना वह हमसे नही कर सकती और दूसरे हमारे निजी मामले में कोई इस तरह दखलांदाजी करे यह मुझे अच्छा नही लगता|"
 
ऐसे में वीणा ने दो शब्दों का पञ सुनीता को भेज दिया "दीदी! आपकी राय पर मैं अमल नहीं कर सकती मेरी परिस्थितियाँ आपसे अलग हैं| मेरे पति की मुझ पर नौकरी करने की बंदिश नहीं है| और अभी वक्त ही कितना हुआ है? वे मेरी बदली करवाने के लिए पुरी कोशिश कर रहे हैं| बदली हो जाएगी, तब मैं अपने घर के साथ-साथ अपनी नौकरी के प्रति न्याय कर सकूँगी| और जब तक बदली नही होती मैं अपना घर, अपने पति के निकट ही रहना चाहती हूँ|"
 
- वीणा ने इतनी सी बात लिख कर यह एह्सास करवा दिया था कि उसकी निजी जिन्दगी में सुनीता की राय कोई मायने नहीं रखती। वह अपनी जिन्दगी स्वयं जीना चाहती है। उसे अपने विवाहित-जीवन में किसी तीसरे की दखलादाजी उचित नहीं लगती| इसके बाद सुनीता की कोई चिट्ठी वीणा को नही आई|