+91-11-41631787
नई सुबह
Select any Chapter from
     
नई सुबह ( चार)
ISBN: 81-901611-13

 

 
 
घर से विदा होकर वीणा अरुण के संग मधुबन होटल में आ गई| आगे का कार्यक्रम वहीं से तय होना था| मधुबन होटल में प्रेम ने पहले से ही दो कमरे बुक करवा रखे थे| एक में वीणा व अरुण रुक गए और दूसरे में अरुण का मिञ सुनील व माँ कलावती ठहर गए|
 
यह सादगीपूर्ण परिणय बन्दन वीणा के पिछले दिनो से बिल्कुल विपरीत था| कोई बहू के स्वागत के लिए नहीं था| न ही ग्रह-प्रवेश कि रस्म थी, न कोई मंगलगीत, न आरती उतारी किसी ने| सास, साथ में थी, पर उसकी उपस्थितिन के बराबर थी| जो अरुण को समझ आ रहा था, वही वह करवा रहा था अपने मिञ से कहकर| हाँ, उसका फोटो सेशन बड़ा लम्बा चला| वीणा के संग उसने लगभग दो रील खिंचवाई| शादी के इन पलों को वह संजोकर रखना चाहता था| रीति-रिवाज की उसे जानकारी न थी और न ही कलावती कोई रीति-रिवाज निभाना चाह रही थी| वीणा अपने में ही खोई हुई थी और अपनी उपस्थितिमुस्कुरा भर कर पूरी कर रही थी|
 
रात का खाना खाने के समय प्रेम व सुनीता भी आ गए थे| सबने एक साथ खाना खाया और वहीं तय हुआ कि वे लोग कल सुबह दिल्ली वापिस लौट जाएँगे| खाना समाप्त कर प्रेम व सुनीता ने उनसे विदा ली और अरुण उन्हें नीचे छोड़ने आया| रिसेप्शन काउण्टर के पास रुक कर उसने प्रेम से एकाएक पूछ लिया, "प्रेम! यहाँ का बिल क्या तुमने अदा कर दिया है या कि सुबह तुम आओगे?"
 
प्रेम को कुछ अटपटा-सा लगा, एकाएक अरुण का पूछना और ऐसे में वह बस इतना ही कह पाया, "इसकी आप चिन्ता न कीजिए| मैं सब स्वयं कर लूँगा!"
 
"ऐसी बात नहीं है प्रेम, मैंने बस अपनी जानकारी के लिए पूछा है| मैं सुबह स्वयं पुछकर क्रेडिट-कार्ड से पेमेन्ट कर दूंगा!" --अरुण ने अपनी बात सफाई से कह दी| पहले तो उसने पूछा, फिर स्वयं ही अपने प्रश्न का खुलासा किया| लेकिन प्रेम शिष्टाचार में फिर से बोला, "यह सब आप मुझ पर छोड़िए, मैं सुबह नो बजे आपको यहीं मिलूँगा|"
 
इससे आगे बात यहीं समाप्त करते हुए प्रेम ने कहा, "अब आप आराम कीजिए| सुबह से थके हुए हैं|" --और अरुण से हाथ मिला कर उसने विदा ली| सुनीता इस बीच कुछ नही बोली| बस अरुण को निहारती रही|
 
शादी दो आत्माओं का मिलन है| संयोग जब बनता है तो सात समुंदर पार से भी रिश्ता जुड़ जाता है| एक सप्ताह पहले कोई अरुण को जानता भी न था और एक सप्ताहबाद वह घर का सदस्य बन गया है| यह रिश्ता बनाने कनाडा से चलकर अरुण का आना जैसे निश्चितथा| सुनीता कुछ ऐसी ही बाते सोचती है| घर मै सभी उसे मजाक मै 'दादी माँ' भी कहते हैं|
 
कमरे में लौट कर अरुण ने देखा, वीणा पर्दा हटा कर बाहर जगमगाती मसूरी की सुन्दरता को देखरही थी| देहरादून से मसूरी और मसूरी से देहरादून की छटा रात को देखने से ऐसा लगता कि एक आकाशगंगा उपर है और दूसरी यहाँ धरती पर| लेकिन अरुण को इस समय न उपर की आकाशगंगा दिखरही थीऔर न दूर मसूरी की जगमगाती रोशनी से आनन्द आ रहा था| वह तो वीणा को अपने निकट देखकर असीम आनन्द की अनुभूति पा रहा था| वह चुप बैठी वीणा को एक टक निहारने लगा| कितनी सुन्दर थी वह! बड़ी-बड़ी सी आँखें, लम्बी पतली नाक, सुन्दर होंठ - कुल मिलाकर एक आकर्षक चेहरा| देखने वाला एकटक देखता रह जाता| वीणा ने एक नजर अरुण की और देखा| उसे स्वयं को देखते पाकर वह लजा गई और अपनी आँखें नीची कर लीं| उसने हल्के से मुस्कुराने की चेष्ठा की| अरुण ने उसे आमन्ञण समझ कर उसका चेहरा उठाया| उसकी आँखों में झांकते हुए उसने कहा, "मैंजब कनाडा से आया था, तो सपने में भी उम्मीद नही थी कि तुम जैसी सुन्दर लड़की मुझे अपनी पत्नी के रुप में मिलेगी| आज मुझे अपनी किस्मत पर नाज है| तुम्हें अपने साथ पाकर भूल गया हूँ कि मैं पंद्रह वष्रो से बिल्कुल अकेला हूँ|"
 
--अरुण ने अपनी हथेलियों में ले लिया था वीणा के चेहरे को| वीणा भी अब एक टक देख रहीथीउसको| लेकिन वह बोली नहीं कुछ भी| अरुण ने उसे देखते हुए फिर कहना शुरु कर दिया, "तुम्हें मेरेसाथ कुछ दिन अजीब-सा लगेगा| लेकिन मेरी कोशिश रहेगी की मै तुम्हें खुश रख सकूँ| -- और खुश रख सकूंगा तभी जब तुम अपने बीते दिनो को भूल जाओगी और मेरे साथ आने वाले हर पल का सुख भोग सकोगी|"
 
उसकी बात सुनकरवीणा की पलकें भीग आई थीं| वह कुछ बोलने को हुई| उसके होंठ लेकिन फड़फड़ा कर रह गए| अरुण को लगा की उसे ऐसी बात नहीं करनी चाहिए थी| तब उसने कहा, "ओह! आय अम रियली वैरी सारी| मुझे ऐसी बात नहीं करनी चाहिए थी| और वीणा, विश्वास रखो आगे से ऐसा कुछ न कहूँगा|"
 
यह कहकर अरुण ने उसके गालो को थपथपाया और हाथ हटाते हुए बोला --"चलो उठो, अब चेंज कर लो|"
 
--वीणा उठने को हुई| तब अरुण ने फिर कहा, -- "मैं पिछ्ले पन्द्रह वर्षो से अकेला हूँ कनाडा में| मेरे अकेलेपन कासाथी नहीं मिला मुझे| तुम मिली हो इतने वर्षो बाद तो अब लगता है जीवन में अकेलेपन की घड़ियाँ अब नहीं आएंगी| और मेरी कोशिश भी रहेगी कि तुम भी कोई कमी महसूस नहीं कर सको|"
 
वीणा मुस्कुरा कर बाथरुम में चली गई और अरुण बैठ गया उसी कुर्सी पर जहाँ वीणा बैठी बाहर देख रही थी| एकाएक जीवन बदला-सा महसूस हुआ उसे| एककीपन में कभी सोचा भी न था उसने, बस दिन-रात काम में डूबा रहता था| पैसा कमाने और पैसा जोड़ने की धुन में मस्त रहता था| घर बसाने की बात तभी उसके मन में उठती थी जब वह दो-चार महीने में एक बार माँ से फोन पर बात करता था| वही कहती थी, 'उम्र बीतती जा रही है अब घर बसाने की सोच लो| यहाँ आकर लड़की ढूँढ लो या फिर वहीं किसी गोरी-मेम से शादी कर लो|
 
अरुण 'हाँ-सोचूँगा' कहकर बात समाप्त कर देता| बार-बार सोचता था भारत जाउँगा, वहीं से अपनी दुल्हन लाउँगा| यहाँ गोरी-मेमों के चक्कर में नहीं पडूँगा| दोस्ती तक सब ठीक है| घर बसाने के लिए संस्कारोंवालीलड़की चाहिए| संस्कारक्या अपनी सोच जैसी लड़की चाहिए | मनुष्य की जैसी सोच होती है, वैसे ही उसके संस्कारबन जाते है| कनाडा में रहते हुए भी उसके संस्कार पूर्णतः भारतीय ही थे| पूर्ण रुप से शाकाहारी| मदिरा से दूर रहने वाला| सभी उसे 'पणिडत जी' कहते थे| ऐसे में उसे वहाँ कनाडा में गोरी-मेम से पटरी बैठती नही दिखतीथी| भारतीय मूल के लोगों में भी उसे अपनी सोच के अनुरुप कोई जंचती नहीं थी| हाँ, एक-दो पसन्द आई उसे लेकिन उन्हें वह पसन्द नहीं आया| कसरती शरीर, लम्बा-चौड़ा, डील-डौल और उस पर रंग भी उसका गहरा साँवला था | आवाज भी कड़कदार| काम के लिए तो सम्बन्ध सभी रखते थे| मौज-मस्ती के लिए सभी मिल जाते थे| लेकिन घर बसाने की बात पर कोई नहीं मिल पाया|
 
संयोग से मिली थी वीणा| तभी इतने वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी| एकाएक उसे लगा जैसे उसकी जन्मभूमि उसे बुला रही है| पन्द्रहसाल का प्रवास जैसेपूरा हुआ उसका| एक महीने का प्रोग्रामबना लिया| आने से पहले अपने कालेज के मिञ से बात कर ली| एक वही था, सुनील जिससे उसका पञ-व्यवहार हो जाता था| उसी ने अरुण के आने से पहले अखबार में विग्यापन दे दिया था| अच्छी लड़की का|
 
उम्र आड़े आ रही थी| उसी को गोल-मोल कर गए| अच्छीलड़की चाहिए, चाहे विधवा हो, चाहे तलाकशुदा बस बाहर चलकर रहने को राजी हो| एन आर आई की छाप बड़ा महत्व रखती है| और अरुण तो अब भारतीय मूल का कनाडा का नागरिक था|
 
एक समस्या और भी थी| देश लौटकर माँ के पास रहने की समस्या| वह तो एक कमरा किराये पर लेकर अकेली रहती थी| पति से कानून की लड़ाई लड़ रही थी पिछ्ले बीस वर्षोसे| अपने स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए भाईयों से भी मदद नहीं माँगती थी| दोनों खानदान दिल्ली के नामी-गिरामी रईसों के थे| लेकिन माँ थी कि गुमनामी की जिन्दगी जीती थी| ऐसे में अरुण ने ही माँ को समझाया कि उसकी शादी की खातिरवह कुछ दिन तक उसके मामा के घर पर ही रह ले| माँ कैसे रहती है, कैसे पीछे के दिन बिताए, इसकी सोच उसके मस्तिष्क में नहीं आती थी| बस कर्तव्य माञ इतना समझाया था कि साल-छः महीने में हजार-दो-हजार डालर वह माँ को जरुर भेज देता था|
 
अब शादी करने की इच्छा बलवती हो रही थी तो यह सब बातें उसके लिए मायने रखती थीं| माँ को तो पिछले पन्द्रह सालों में शायद पन्द्रह-बीस हजार डालर भेजे थे उसने| परन्तु मामा-मामी के लिए जरुर बेशकीमती उपहार लाना नहीं भूला| हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है| कितने भी रईस क्यों न हों हम, जब कोई बहुमूल्य उपहार लाता है तो मन बाग-बाग हो उठताहै|
 
अरुण जब पहुँचा तो चिट्ठियों का ढ़ेर लगा था| वीणा की चिट्ठी उसे जँची और उसने तुरन्त उसका जवाब भेज दिया| मिलने की इच्छा जताई और ऐसे में चट मंगनी पट शादी हो गई| अरुण परिणय बन्धन में बधं गया| वीणा की बीती जिन्दगी की दास्तान सुनकर उसे लगा, यही वह लड़की है जो उसकी सोच का सम्बल बन सकती है| यही वह लड़की है जो उसके देश में, उसके परिवेश में ढल जाएगी|
 
परिणय-सूञ में बंधने का समय आ गया था उसकी जिन्दगी में और ऐसे में चन्द दिनों में उसकी जिन्दगी के एक नए अध्याय की शुरुआत हो गई| मन बाग-बाग हो उठा वीणा को अपने जीवन में पाकर|
 
अरुण कीतन्द्रा भंग हुई| वीणा कपड़े बदल कर आ गई थी| उसे देखकर अरुण कुर्सी से उठा और उसकी ओर बढ़ गया|
 
वीणा को पाकर वह भाव-विभोर हो उठा| जीवन में उसके नई बहारें आ गई| ऐसा एह्सास उसे पहले कभी नही हुआ था, वीणा को अपनी बाहों में लेकर वह मस्त-मदहोश हो गया|
 
रात के दो बज रहे थे जब वीणा की आँख खुलीं| उसके पहलू में अरुण सोया हुआ था| एक नजर अरुण पर डाली उसने| फिर खुद को देखने की चेष्टा की उसने - शर्मा गई अपने को देखकर|
 
कमरे में हल्की सी रोशनी थी| अरुणकी बाजू धीरे से हटाकर वह करवट बदल कर लेट गई| अब उसकी आँखों के सामने खिड़की थी और खिड़की के बाहर उसे तारों भरा आकाश दिख रहा था|
 
वीणा की नजर और नहीं झपकी - उन्हीं तारों में से एक तारे पर ठिठक कर रह गई| बहुत चमक रहा था| वह तारा| उसे वह तारा अपनी आँखों के निकट आता दिखाई दिया| बहुत दिनों बाद उसे लगा यह रात अच्छी है, यह तारे उसके साथी हैं| और सबसे अलग उसे यह सोचकर भी अच्छा लगा कि इन तारों को देखकर अब वह मुस्कुरा सकती है| वह मुस्कुराई भी और फिर से एक नजर अरुण पर डाली|
 
वह एकटक उसे देखने लगी| अरुण सो रहा था| साँसों की आवाज आ रही थी| शरीर से भारी था अरुण| साँवला था| बिना चश्मे के इस समय चेहरा वीणा को अन्जान सा लगा| आकर्षण हीन| - एकाएक न केवल वीणा की मुस्कुराहट लुप्त हो गई बल्कि वह उदास हो गई| भूल गई कि अभी कुछ देर पहले इसी व्यक्तिने उसे शारीरिक-सुख दिया है| अरुण उसे अजनबी सा लगने लगा|
 
वीणा ने अरुण से अपनी द्रष्टि हटा ली| फिर बाहर की ओर देखने लगी और उसे वही तारा फिर दिख गया| वह उसे और अधिक टिमटिमाता लगा| जैसे उस तारे ने आकाश के दो-चार तारों का तेज चुराकर अपने आपको और अधिक आकर्षक बना लिया हो|
 
वह तारा धीरे-धीरे उसे आकार में बदलता दिखाई दिया| ओ! ये क्या| - वीणा एकाएक उठकर बैठ गई| कुछ डरी भी| कुछ सहम सी गई| वह देव था| हाँ देव| सामने खिड़की में| देख रहा था वीणा की ओर|
 
"वीणा!" - आवाज गूँजी देव की| वीणा काँपने लगी|
 
उसकी आँखें स्वयं बहने लगीं|
 
"तुमने शादी कर ली वीणा! मुबारक हो| बहुत-बहुत मुबारक|" देव मुस्कुरा रहा था उसके सामने| कितना सुन्दर, कितना आलौकिक रुप लग रहा था उसका| इस समय उसने वही कपड़े पहन रखे थे| सबसे सुन्दर लगते थे जो उसे - सफेद उज्जवल सफारी सूट| जिसे हर अच्छे अवसर पर पहनने की वीणा ही जिद्द करती थी|
 
देव के मुँह से मुबारक सुनकर वीणा मुस्कुराई नहीं| और अधिक आँसू बहने लगे उसकी आँखों से| होंठ बुदबुदाये भी| देव का ही नाम|
 
"देव! - देव!" - वही मन ही मन उसका नाम लेने लगी|
 
"मेरे नाम से जुदाकर लिया अपना नाम वीणा|
 
अब कोई नहीं कहेगा देव की वीणा| अब कोई नहीं कहेगा वीणा कादेव| - ये तुमने क्या किया वीणा! मैं तुम्हें अपने से अलग कैसे कर पाउँगा ? - भूल गई क्या तुम तो स्वयं कहती थी हमारा जन्म-जन्म का साथ है| पिछले जन्म में हम मिलेथे| इस जन्म में मिलेहैं और थोड़े से इन्तजार के बाद मैं तुमसे आकर मिल जाउँगी ताकि अगले जन्म में फिर से मिल सकें| - अब ऐसा कुछ नहीं होगा - अब ऐसा कुछ नहीं होगा|
 
- वीणा को लगा देव मायूस हो उठा है|
 
-- "नहीं-नहीं देव! तुम मायूस न हो| यह मायूसी तुम्हें अच्छी नहीं लगती| तुम मुस्कुराओ| मैं तुम्हें कहाँ भूली हूँ ? मैं तुम्हें नही भूल सकती| - यह जग दिखावा है देव, यह दुनिया की रीतिहै| मैंने दुनिया से अपना पीछा छुड़वाया| है, मैंने तुमसे अपना पिण्ड नही छुड़वाया मैं तो तुम्हारी हूँ - तुम्हें कैसे भूल पाउँगी ? - मैं तुम्हें नहीं भूल सकूँगी कभी-भी|"
 
और वीणा हल्के से सिसकने लगी थी| लेकिन अरुण ने उसकी सिसकियाँ नही सुनी| वह तो निद्रा में लीन था| उसकी वर्षो की प्यास मिटी थी और वह उसी से मदहोश हो गया था| वीणा कहाँ थी इस समय इससे बेखबर|
 
कुछ देर बाद वीणा ने फिर आँखें उठा कर देखा- देव वहीं खड़ा था| खिड़की के बाहर| वीणा को ही देख रहा था|
 
एकाएक वीणा उठी| खिड़की की तरफ गई| खिड़की के बाहर झाँक कर देखा| वहाँ तो कुछ भी नही था| उसने खिड़की बन्द कर दी| वही रखीं कुर्सी पर बैठकर वह अरुण को देखने लगी|
 
उसे याद आया हो जैसे कि देव तो अब कहीं नहीं| आज उसकी इस सामने सो रहे व्यक्तिसे शादी हुई है| वह अब उसकी पत्नी है| देव से अब उसका कोई नाता नहीं| देव अब उसके लिए पिछले जन्म की कहानी बन गया है| इस नए जन्मसे उसका कोई सम्बध नहीं| लेकिन क्या ये सच है कि वह इस नए जन्म में देव को अपने मन से निकाल पाएगी| उसे अपने से किए इस प्रश्न का कोई उतर सुनाई नही दिया|
 
कितनी चुप्पी से, कितनी सादगी से आज उसकी शादी हो गई अरुण से| उसे जैसे विश्वास नहीं आया| शादी तो कितनी धूम से होती है| कितनी खुशियाँ मनाई जाती हैं| हर दिन मंगल गीत गाए जाते हैं| कितने सपने संजोतीहै लड़की! - हाँ, सपने ही तो होते हैं वे सब| वीणा के लिए सभी कुछ स्वप्न रहा है| अभी तक| उसने भी कभी कितनी खुशियाँ मनाई थीं| उसके लिए भी मंगल गीत गाये गए थे| घर भर में हफ्ते भर तक ढोलक की थाप गूँजी थी| शादी के दिन से मेहमानों का आना जाना लगा हुआ था| और वीणा स्वयं ? - वह स्वयं तो मदहोश थी| शादी के दिन ही नही, बल्कि उस दिन से जब पहली बार उसने देव को देखा था|
 
- हाँ देव कितना सुन्दर था!
 
-वीणा को सामने देव दिखाअब अरुण की जगह और उसकी आँखें वहीं कुर्सी पर बैठे मुंद गई| खो गई वह बीते दिनों में| देव के सहवास में| देव ही यादों में| देवके साथ बीते पल-पल में| जिसमें ढ़ेर सी खुशियाँ भी थीं, ढ़ेर से गम भी| हँसी भी थी आँसू भी थे|
 
लेकिन इन सबसे उपर उसे अपने जीवन की कितनी कीमत चुकानी पड़ी, उसका कोई हिसाब भी वीणा के पास न था|