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नई सुबह
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नई सुबह (अट्ठाइस)
ISBN: 81-901611-13

 

 
 
राअमित व प्रिया वीणा से विदा लेकर लौट आए| वीणा ने चलते हुए यही कहा था - "देव की बरसी के बाद तुम दोनों का ब्याह रचा लूँ यही मेरी इच्छा है| शेष सब बाद में सोचेंगे|" एकाएक अमित को लगा कि शायद अभी भी वीणा अपनी सोच को कुछ समय देना चाहती है शायद| लेकिन उसमें कुछ तो बदलाव आ ही गया था| वीणा के शब्दों में 'हाँ' थी, यही भाव समेटे वे घर लौट आए|
 
अमित तो माँ निर्मला का दुलारा बन गया| कैसे होगा, कौन ढूँढेगा सब अमित पर छोड दिया माँ ने| लेकिन अमित को अपने माँ-बाप का भी डर था| भाईयों का भी| वे सब तो बातें बनाएँगे| इसी दुविधा में पड़ा अमित अगले छः महीने कुछ न कर सका| अपनी प्रिया की शादी की चिन्ता भी उसे सताए जा रही थी| जो माध्यम था उसका वह स्वयं दुःखों के पहाड़ को उठाये जी रहा था| किससे कहता| कौन उसकी सहायता कर सकता था| एक चिराग था उसके पास - प्रेम!
 
हाँ, वही - वह स्पष्टवादी था| परिस्थितियों को बेवजह मिला-जुला कर, नए आयाम नहीं स्थापित करने वाला| किसी की जिन्दगी में जो कुछ घटित हुआ है, उसका दोषी समाज को या किसी परिवार के दूसरे सदस्य को न मानने वाला| लेकिन जो कहना है बेझिझक कहने को तत्पर|
 
प्रेम यूनिट से लौट रहा था| घर जाते हुए उसकी ट्रेन जब दिल्ली पहुँची तो अमित स्टेशन पर उससे मिलने पहुँच गया| प्रेम को उसे देखकर आश्चर्य हुआ| सामने खड़े अमित को, उसके मन को समझता भी था| एक-दूसरे से वे गले मिले|
 
"बहुत अच्छा लगा किसी अपने को छः महीने बाद मिलकर|" - प्रेम ने उसके हाथ को पकड़े हुए कहा, "तुम्हें किसने बताया था?"
 
"प्रिया की चिट्ठी आती है|" उसी ने लिखा था|" - अमित ने कहा| जैसे संकेत दिया कि प्रिया और उसक सम्बध कायम है| अभी प्रेम अपनी कोई प्रतिक्रिया देता, अमित ने पुनः कहा, "पिछले महीने मैं देहरादून गया था| मम्मी ने भी कहा था कि तुम आ रहे हो|"
 
"बहुत अच्छा लगा, अमित, तुमसे मिलकर|" - प्रेम को अमित अच्छा लगता था पहले से| "और क्या चल रहा है, काम कैसा हैं? घर में सब कैसे हैं?" - प्रेम के शब्द एक साथ बने और निकलने लगे|
 
"सभी अच्छे हैं| काम भी अच्छा है और जो दुःख है उससे हम-तुम सभी वाकिफ हैं|" - अमित कुछ कहने से पहले स्वयं को तैयार कर रहा था|
 
"समय सब ठीक कर देगा|"
 
"हाँ, समय सब ठीक ही करेगा| मैं वीणा भाभी से मिला था| मम्मी ने लिखा होगा तुम्हें?" - पूछा अमित ने|
 
"लिखा था सब| मुझे तो अच्छा ही लगा सुनकर के दीदी मान गई हैं| लेकिन कोई उसके योग्य मिलेगा, तभी यह हो पाएगा| हर किसी को तो यह रिश्ता रास नहीं आएगा|" - प्रेम के शब्द स्पष्ट थे, दर्द भी था उनमें|
 
"हाँ हर किसी को नहीं रास आएगा| मैने अखबार में विग्यापन देने की सोची है|" - अपने मन की बात कही अमित ने, लेकिन मैं घर में चिट्ठी नही मंगवा पा रहा था| अब तुम आ गए हो, देहरादून के पते से दे दूँगा| तुम इसे संभाल लेना!"
 
"शुक्रिया अमित| मैं तुम्हारी भावनाओं की कद्र करता हूँ| मुझे पता है कि दिल से तुम चाहते हो कि दीदी का घर बस जाए|"
 
- वह भावुक हो चला था, लेकिन शब्द स्पष्ट थे, "हाँ, एक बात है तुम्हारे लिए तुम्हारे घर में तूफान खड़ा न हो जाए|"
 
"नही ऐसी बात नही है| सिर्फ माँ रुढ़िवादी हैं| वही कभी-कभी दबे मुँह पुरातन बातें कह जाती हैं| लेकिन फिर भी जानता हूँ, एक ही बात, जीवन वीणा भाभी का है जीना उन्होंने उसे अपने लिए है| उसमें माँ की बात यदि दकियानूसी हैं तो मुझे उसे नहीं सुनना| समय सभी बातें, सभी रुप बदल देता है|" - अमित भी मन में आई हर बात उससे कह रहा था|
 
"हाँ, ठीक है| लेकिन तुम्हारी मम्मी को भी समझना चहिए| अभी प्रिया आएगी तुम्हारे घर| ऐसा नही कि तुम उसे कुछ कष्ट होने दोगे| लेकिन एक बात तो सिद्ध है कि कहीं न कहीं उसे वीणा के पुनः विवाह पर कुछ न कुछ तो सुनना होगा|" अमित को प्रेम के शब्द सुनकर जैसे मन माँगी मुराद मिल गई| उसने तो सोचा भी न था कि प्रेम के शब्द उसके व प्रिया के सम्बन्धों के प्रति इतनी जल्दी वाक्य गढ़ लेंगे|
 
"देखो प्रेम , मै सभी के प्रति अपने कर्तव्य को निभाता आया हूँ| घर में सबसे छोटा हूँ, लेकिन जीवन में अभी तक इतना देख चुका हूँ कि किसी की व्यर्थ की बात, किसी का व्यर्थ का हठ मुझे नहीं झुका सकता और मै प्यार से सब कुछ देता हूँ तो मुझे अपने अधिकार भी मालूम हैं| अपने अधिकार क्षेञ में मेरा जीवन है| मेरी अपनी धारणाएँ हैं| मैं अपने रास्ते से, अपनी राय से इतनी जल्दी मुँह नहीं मोड़ पाता|" - अमित के शब्द प्रेम के बहुत गहरे मन को छू गए|
 
"अच्छा लगता है तभी बात करके तुमसे मेरे छोटे जीजा जी|" और प्रेम ने उसे गले लगा लिया|
 
"मैं छुट्टी आया हूँ इसीलिए कि मम्मी ने मुझसे कहा है कि अमित भीतर से बहुत परेशान है| उसे अब प्रिया से विवाह करना है| प्रिया से विवाह की सोचो और फिर तुम दोनों मिल कर वीणा दीदी के लिए एक लड़का ढूँढ लेना|"
 
एकाएक बात का प्रवाह इतना मीठा मोड़ लेगा, अमित को इसकी आशा नहीं थी|
 
भावुक होकर वह बोला प्रेम से, "मम्मी तो मेरे मन की बात समझती हैं| लेकिन मैं ही दुविधा में पड़ा था|"
 
तब प्रेम एकाएक विचारमग्न हो गया| कुछ ठहर कर बोला, "अमित! कुछ बातें मैं स्पष्ट होकर कहना चाहता हूँ तुम्हें| इन्हें अन्यथा न लेना| कारण तुम समझते हो| ब्लकि तुम उसका हिस्सा भी हो| प्रिया से शादी करके हो सकता है तुम्हें किसी न किसी से अन्यथ बात सुनने को मिले या तुम्हें कहीं अपमान भी महसूस हो| मैं समझता हूँ, माँ समझती है, मेरे सभी परिवार वाले समझते है| पर परिवार के हर सदस्य का अपना भी परिवार है, उन्हें कुछ कहना होगा तो वे अवश्य कहेंगे| सामने न सही पीछे से| ऐसे में तुम्हें सबकी मनःस्थिति को सहना होगा|
 
"दूसरे शादी जल्दी हो, इसका मुझे एतराज नहीं है| हाँ, एक बात है, शादी बिल्कुल सादगी से होगी| न बैंड, न बाजा, न बराती| बस तुम और तुम्हारे परिवार वाले| और कोई धूम-धड़ाका नहीं| हम सभी रस्में अदा न कर पाएँ, इस पर तुम्हारे परिवार वाले कोई बात नहीं बनाएँगे| प्रिया खुश रहेगी, यह मैं जानता हूँ| उसका मान-अपमान भी मेरे दायरे में नहीं, तुम्हारे दायरे में आता है| बस, यही चाहता हूँ कि तुम मेरे परिवार के साथ हो और हम भी तुम्हारे साथ हैं|"
 
प्रेम अपनी बात कह चुका तो अमित ने गम्भीरता से कहा 'देखो, प्रेम! मैं स्वयं सभी परिस्थितियों को समझता हूँ| मुझे वैसे भी शोर-शराबा तभी अच्छा लगता है, जब मन से उसकी आवाज आ रही हो| जहाँ तक लेन-देन या रस्मों-रिवाज की बात है उसका न लोभ मुझमें है और न ही कोई लोभ मेरे समक्ष दिखा सकता है| प्रिया मेरे लिए ही आ रही है मेरे घर में और उसे पूरा मान-सम्मान मिले, इसकी मुझे भी चिन्ता है| अपनी जिन्दगी को मुझे अपनी तरह जीने का अधिकार है और उसके लिए मै अपने को तैयार कर चुका हूँ| हाँ, कुछ कष्ट आएँगे मैं भी जानता हूँ और इसके लिए मैं क्या करुँगा, प्रिया क्या करेगी यह तुम हम दोनों पर ही छोड़ दो| यदि तुम्हें अपने मनोभावों पर विश्वास है तो मानो मैं भी वैसा ही हूँ जैसा तुम्हारा मन मानता है|"
 
- अमित के शब्द प्रेम के मन को छू गए| उसकी देहरादून जाने वाले ट्रेन का समय हो गया था| अमित को गले लगता तब वह बोला, "सब ठीक हो जाएगा, अमित| तुम मम्मी-डैडी से मिलकर तारीख तय कर लो| मैं भी वहीं होउँगा| अगले एक महीने में सब कुछ हो जाएगा|"
 
ठीक है, मैं किसी भी दिन आ जाउँगा| यहाँ सबको बता कर|" और वीणा भाभी की चिन्ता को तुम न अकेले थे, न अकेला स्वयं को पाओगे| अब वह मेरी भाभी नहीं दीदी हैं|"
यह कहकर अमित ने प्रेम से विदा ली| प्रिया के प्रति नए सपने उसे संजोने थे और अपने घर में सब कुछ ठीक करना था|
 
माँ क्रष्णा के मन में झिझक थी| खुलकर वह कुछ ना बोल पायी| अमित अब जल्दी शादी करना चाह रहा है प्रिया से, यह सुनकर वह तटस्थ भाव से इतना ही बोली, "मैं क्या कहूँ!" - यह माँ का एक रटा-हुआ वाक्य था|
 
"क्यों कुछ गलत होगा क्या?" - अमित को माँ की बात अटपटी लगी| माँ तो बहुत खुश होगी ऐसा सोचा था उसने| अपने भाईयों की शादी में वह बढ़-चढ़ कर खुशी मनाता रहा| माँ हमेशा खुशी से देखती थी उसे| यही कहती थी तब, "देखना अपनी शादी में भी बहुत नाचेगा अमित|"
 
"मैं क्यों, सभी नाचेंगे| भाई-भाभी-तुम भी, बाबूजी भी| सबसे छोटा हूँ, लेकिन खुशी तो सबसे बड़ी होगी घर भर की|" - अमित की बात सुनकर सभी हँसते थे| और आज, जिसे सुनकर सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए था, वही, "मैं क्या कहूँ|" कहकर तटस्थ सी हो गई! मन बुझ गया उसका| सोचने लगा मन ही मन, क्यों क्या कोई गुनाह है यह? एक घर से दूसरी लड़की लाना? हाँ, गुनाह यदि हुआ है, तो जाने-अनजाने हमसे हुआ है| हम जिम्मेदार है| हम गुनाहगार है वीणा के! हम कर्जदार है वीणा के, उसके परिवार वालों के| 'ना' तो वे लोग करते| ठुकरा देते मेरी चाहत के रिश्ते को| लेकिन उनका बड़प्पन देखो, मेरे प्यार को, मेरी चाहत को - वीणा के दुर्भाग्य से नही तोल रहे। वे उसी की किस्मत का खेल मानकर, मेरी और प्रिया की राह में रोड़ा नहीं अटका रहे|'
 
अमित जब-जब ऐसा सोचता था, भावनाओं में बहकर बाल की खाल नौंचने लगता था, चुप रह ना पाता था|
 
"लगता है, तुम खुश नहीं हुई सुनकर मेरी शादी की बात|" - अमित ने दुबारा प्रश्न कर डाला माँ से|
 
"मै तो हर हाल में खुश हूँ|" - माँ के मुँह से फिर वही तटस्थ जवाब निकला|
 
"मेरा भाग्य देखो अपनी शादी की बात स्वयं चलानी पड़ रही है| उस पर तुम दो शब्द घुमा-फिरा कर दोहरा रही हो|" - अमित शायद माँ के मन से कुछ कहलवाना चाह रहा था अपनी खुशी के शब्द| लेकिन माँ थी कि सोच का दायरा बहुत संकुचित था उसका| दुःख की ज्यादा चिन्ता थी| कौन कहाँ दुःखी है इसकी थाह नहीं रखती वह| बस वह स्वयं दुःखी है, उसका जवान बेटा चला गया| अभी वर्ष भी नहीं बीता! बहू घर से निकल कर मायके चली गई है, मेरा दुःख बाँटने की बजाय मायके चली गई है| मेरे बेटे की याद भी ठुकरा गई| माँ की यही बातें कचोटती हैं| माँ के मुँह से निकल ही गया आखिर - "तुम्हें शादी की पड़ी है| मेरा दुःख अभी खत्म भी नहीं हुआ! वर्ष अभी बीता नहीं और घर में शादी की बात शुरु हो गई| मेरा जवान बेटा चला गया|" - और माँ रोने लगी|
 
"बहुत अच्छी बात कर रही हो, माँ| दुःख तुम्हें ही है क्या? हमें नही हुआ कुछ? और अपनी जिन्दगी की गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी कर दे क्या?" - आवेश में उसका चेहरा तमतमाने लगा था|
 
"मैं यह कब कहना चाह रही हूँ| उसे देखो, मेरे पास बैठकर मेरा दुःख बाँटने की बजाय मायके जा कर बैठ गई|" - मां के मुख से निकल ही गया आखिरकार|
 
अमित तब फूट पड़ा - "वाह, माँ वाह! तुम्हारा दुःख किसी से छिपा नहीं है| लेकिन वीणा का दुःख सबसे छिपा रहता है| सब समझते है, वीणा मायके चली गई| उसका दुःख समाप्त हो गया| जैसे फिल्म में, रोल अदा करने आई थी वह| रोल खत्म, दुःख खत्म| उसके दुःख की सीमा तुम क्या समझो माँ| और उसे जरा भी दोष मत देना| उसका किया मैं-तुम, हम सब सात जन्म भी नहीं उतार सकते|"
 
"बस-बस रहने दो| तुम तो उसकी ही बात करोगे| अब तो तुम्हें उसकी हर बात ही ठीक लगेगी|"
 
बस फिर क्या था! अमित आपे से बाहर हो गया| आवाज उँची हो गई उसकी| शायद अपनी बात कहने के लिए शब्द कम थे या कि मन ही मन इतना घुटा हुआ था कि शब्दों का आवेग थम ही न पाया| - हाँ, आज तुम यही कहोगी, माँ अपने मन के चोर को छिपाने का बड़ा आसान रास्ता है यह | हमने क्या किया उसके साथ, कभी सोचा है? देव से शादी हुई, वह विधवा हो गई देखते-देखते, उसके दुःख की कोई सीमा नहीं! वह विधवा बन कर तुम्हारे पास बैठी रोती रहे सारी जिन्दगी| कौन से जन्म का कर्ज है जो तुम्हारे प्रति चुकाए? शादी करके जिस दिन आई थी, उलटे पाँव लौट जाती तो शायद मैं भी कहता उसने अपनी भावनाओं को सही समझा| एक पतिव्रता बन गई थी वह| दिन-रात तुम्हारे बेटे की सेवा करती रही, उसका इनाम तुम यह दे रही हो? सात जन्म उसकी पूजा करो तो शायद उतर नईं पाएगा यह ॠण| देख लेना माँ, तुम, हम सभी कहीं न कहीं, कभी न कभी भुगतेंगे उसकी इस चोट को!"
 
अमित की आवाज इतनी उँची थी कि , बाबूजी भी वहाँ आ गए| बाबूजी को कुछ पता तो था नहीं बात का, अमित को उँचा बोलते देखकर उससे - "क्यों चिल्ला कर बोल रहे हो माँ से? धीमे बात नही होती क्या?"
 
"कैसे बोलूँ धीमे| यह सुनती नही है| समझती नहीं है| अपना रोना रोती है| एक ही बात को हर जगह फिट कर देती है| मुझे क्या पता! मेरा दुःख देखे कोई!" - अमित थोड़ा आवाज नीची कर चुका था| अमित को पिता से ढाढस की आशा थी| वह सब समझ गए| अमित की बात सुनकर|
 
बोले, "ये तो पागल है| वीणा का तो कर्ज है हम पर| अपनी भाभी से भी बात कर| मैं गुप्ता साहब को चिट्ठी लिख दूँगा| अब बरसी को चंद दिन ही रह गए है| शादी कर लो तुम यदि वह खुशी से मानते है| हमें तेरी खुशी की परवाह है बेटा| और उनकी बेटी तो हमारी बेटी है| तुमने उसके साथ जीवन जो बिताना है| जो करो सोच समझ कर करो|"
 
और यह सुनकर अमित का आवेश थम गया| तूफान जो "मैं क्या कहूँ" वाक्य से खड़ा हुआ था, एकाएक थम गया| और माँ क्रष्णा भी देखो, एकाएक चुप हो गई| आँसू पोंछते हुए बोली, "मुझे भी तो प्रिया अच्छी लगती है| मैंने ना तो नहीं की थी, बस अपने दुःख की बात की थी|"
 
"कभी सुख को चाहकर भी जीने की कोशिश करो| इसीलिए कहता हूँ सुबह-शाम भगवान का ध्यान करो| पूजा-पाठ करो| भजन-कीर्तन में जाया करो| सबके दुःख एक समान लगेंगे| दुःखों को देखोगी तो सभी दुःखी लगेंगे| सुख की चाह करोगी तो दुःख सभी बौने पड़ जाएँगे उसके सामने|" - पिता श्रीराम की बात अमित के अन्तःकरण को छू गई| वह उसके मन को पहचानते थे|
 
"आप मुझे गुप्ता जी के नाम चिट्ठी लिख दो मैं स्वयं देहरादून जाकर सब तय कर आउँगा|" - अमित ने तब कहा|
 
"ठीक है| शाम को ले लेना| अब जाओ मुँह-हाथ धो लो और गुस्सा शान्त करो| पिता श्रीराम समझते थे अमित के मन को, उसे शान्त करना बहुत आसान था|
 
अमित के जीवन में बहार आ गई| देव की बरसी के बाद दस ही दिन में सभी तैयारी हो गई| अमित की शादी हो गई प्रिया से| देहरादून से दिल्ली की दूरी जैसे खत्म हो गई थी अमित के लिए| दिन के समय फेरे हुए| बाराती के नाम पर घर के लोग और अमित के दो मिञ थे| वीणा वही से आकर परिवार के साथ मिल गई| न कोई बैण्ड, न बजा| सादगी से विवाह सम्पन्न हो गया| प्रिया को साथ लेकर सब देर रात गए दिल्ली लौट आए| जीवन का सबसे मधुर सपना अमित का पूरा हो गया| प्रिया, जिसके नाम की माला वह हर दम जपता था, आज उसके जीवन में नए-नए सपने जोड़ने को आकर मिल गई| आज अमित सिर्फ अमित नही रह गया| आज अमित के नाम के साथ प्रिया का नाम भी जुड़ गया| सपनों को साकार करने में जुट गया अमित| एक महीना तो घूमने में लग गया| वह कश्मीर भी गया, शिमला भी गया और न जाने कहाँ-कहाँ| प्रिया के मन में आई हर बात को पूरा करने में ही जुटा रहता| शादी को हुए छः महीने बीत गए और अमित-प्रिया को लगता था जैसे अभी कुछ समय ही नहीं हुआ है| नित्य नए प्रेम-प्रसंग होते तब एक ही बात प्रिया दोहराती, 'अमित! तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिले?' अमित सुनता और यही कहता, 'प्रिया! तुमने मेरे जीवन को नई दिशा दी हैं| यह जीवन तुम्हारा साथ पाकर सार्थक हो गया है| यह सुख तुम्हारे साथ का इतना शुन्दर होगा, ऐसा तो मैं ढेर-सी कल्पनाएँ करके भी नहीं जान पाया!'
 
सुख के सौ दिन और दुःख का एक दिन एक समान बीतने लगते हैं| देहरादून गए तो माँ निर्मला ने बातों ही बातों में कह दिया अमित से, बेटा! वीणा के लिए कुछ सोचो| पल-पल यह युग समान बीतता प्रतीत हो रहा है| अमित को तब अपनी भूल का एहसास हो गया था| वह सपनों की दुनियाँ से अपनी धरती पर लौट आया| उसने देखा, दूर वीणा अकेली बैठी आसपास के तारे गिन रही है| एक-दो-तीन अनगिनत तारे! उसकी गिनती न रुकती है, न खत्म आने को होती है| अंतहीन समय वीणा के लिए|
 
"मैं कल ही दिल्ली लौट कर विग्यापन दूँगा, मम्मी, आप चिन्ता न करो|"
 
- अमित ने उन्हें दिलासा दिया|
 
"जैसा ठीक लगे बेटा, वही करो| प्रेम तो बार-बार छुट्टी नहीं आ सकता| प्रेम का दायित्व तुम्हें ही निभाना है|" - और जैसे उन्हें कुछ याद आया, बोली "एक रिश्ता तो मेरे पास आया था| मैं न हाँ कर सकी, न ना|"
 
"कौन था, मम्मी?" - अमित उत्सुक हो उठा|
 
"जिनसे हमने यह मकान खरीदा था, उनका बेटा! मिसेज टंडन चल कर आई थी| उनका बेटा फौज में कर्नल है| वीणा से उम्र में दस वर्ष बड़ा| उम्र की बात तो फिर भी चल सकती है, लेकिन उसका अपना बेटा है एक-सोलह वर्ष का| यहाँ दून स्कूल में पड़ता है| तीन साल हो गए है उसकी पत्नी का देहान्त हुए| वीणा को इशारे से कहा था, वह चुप रही| बाद में डैडी जी ने बात आगे बड़ाने से स्पष्ट इंकार कर दिया था| 'इतना बड़ा बेटा हो जिसका उससे कैसे विवाह कर दें!" मैने तो लडका देखा था, क्या गबरु जवान, लगता ही नहीं कि इतने बडे बेटे का बाप है। पर मन नहीं मानता, बात आगे बढाने को!" - कुछ रुकी माँ फिर बोली, "मिसेज टंडन ने तो दो-तीन बार जिक्र किया है, लेकिन मैं ही चुप हूँ|"
 
अमित कुछ कहता उससे पहले प्रिया बोल पड़ी, "नहीं मम्मी! इस बात को यहीं समाप्त कर दें| शादी का मतलब यह नहीं कि जो भी आए उसे हां कर दें। एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से तो शादी नहीं कर सकते| और फिर इतना बड़ा बेटा| दीदी के लिए ऐसे वर मुझे नही जँचते| हम तो चाहते हैं| दीदी को ऐसा वर मिले जो उमर में चाहे थोड़ा-बड़ा हो, पर जिससे बंध कर वह अपने परिवार की सोचे|" - कुछ रुक कर फिर से बोली, "अब आएँ मिसेज टंडन तो साफ मना कर देना| ऐसे के लिए दुबारा दीदी से पूछना भी मत! कहीं फिर भड़क गई तो दुबारा नहीं मानेंगी|"
 
मां भी प्रिया की बात से सहमत होते हुए बोली "तुम ठीक कहती हो, प्रिया! मैं साफ मना कर दूँगी|"
 
बात वहीं समाप्त हो गई| अगले दिन प्रिया व अमित दिल्ली लौट गए और अमित ने जाते ही विग्यापन दे दिया, वीणा की पुनः शादी का|
 
दस दिन बाद ही डाक से ढेर से पञ आ गए| माँ क्रष्णा को पता चल गया| पञों का आशय समझ कर उसने आसमान एक कर दिया|
 
"मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा| जिस घर से मेरे बेटे की अर्थी उठी उस घर में उसकी बहू की डोली का सामान नहीं तैयार हो सकता!? - आवेश में बोल गई थी माँ|
 
अमित को इस बात का आभास पहले से ही था| माँ को समझाने के लिए वह पहले से ही तैयार था| उसके आवेश को शान्त करना जरुरी था| प्रिया से शादी नही हुई थी, तब बात और थी| अब उसे अपने साथ-साथ प्रिया के मनोभावों का भी ख्याल रखना था| माँ की बात प्रिया को अन्यथा न लगे, उसे इस बात की भी चिन्ता थी| उसके आवेश को देखकर वह बोला, "माँ, तुम ऐसी बात करने से पहले कुछ सोचो जरा| जो नही रहा उसका दुःख तुम्हें है, मुझे भी है और हम सभी को है| लेकिन जरा सोचो| जरा अपनी भावनाओं में वीणा को भी जगह दो| वह किसके सहारे जी रही है? अभी तो सब है| लेकिन कुछ समय बाद सब अपनी-अपनी जिन्दगी में व्यस्त हो जाएँगे| हमारे घर को देखो, किसे पड़ी है उसकी? मोहन भाई साहब अपने परिवार में मस्त हैं| रमेश भाई भी सब भूले अपने परिवार के साथ, कभी-कभार मुझे लिख देते है कि वीणा के लिए क्या सोचा? इसके अलावा उनके पास भी कोई शब्द नही है|" - वह कुछ पल के लिए ठहरा| माँ के पास शब्द नही थे उसकी बातों के| पिता श्रीराम अपना रामायण-पाठ छोड़ कर उसकी ही बात सुन रहे थे| वह बोलने लगा आगे, "क्या यह उम्र है भाभी की घर में यूँ बैठने की? क्या माला जप कर सारी जिन्दगी बिताई जा सकती है? हमारा फर्ज तो है कि वह चाहे या फिर उसे हमें मनाना पड़े, हमें उसका परिवार बसाने के लिए पूरा जोर लगाना चाहिए| सब कुछ तो उसने अपना न्यौछावर कर दिया था हमारे परिवार पर| कितनी खुश थी वह देव से विवाह करके! उसकी सेवा देखकर भी भगवान ने उसकी पुकार नही सुनी| वह तो हर पल देव की मंगलकामना करती रही| अब भी वह देव को नही भूली| न ही वह उसे कभी भूल पाएगी| लेकिन मैं तो यही मानता हूँ और मेरा यह कर्तव्य भी है कि मैं उसके लिए कुछ नया करने की सोचूँ| यही हमारा प्रायश्चित है उसके प्रति| और मेरी मानो तो तुम भी खुशी-खुशी उसके लिए कोई अच्छा लड़का ढूँढने की कोशिश करो|"
 
माँ चुप रही| आँसू बहने लगे उसकी आँखों से| बेटे का प्यार तो था ही मन में, बहू के लिए वह प्यार नही पा रही थी अपने मन में कि झट से 'हाँ' कर देती| लेकिन अमित के शब्दों का विरोध करने की क्षमता भी नही थी| जैसी जिसकी सोच होती है उससे अधिक तो सोचा नही जा सकता| एक सामाजिक परम्परा के विरुद्ध जाना इतना सरल तो नहीं| लेकिन शब्द कई बार सारा रास्ता रोक लेते हैं| हम चाहकर भी कुछ नही कर सकते| वीणा का सोचती माँ क्रष्णा तो अमित की बातों का कोई उतर नही था उसके पास| देव के प्रति अपने प्यार को अमित के शब्द कम तो नही कर रहे थे, लेकिन वीणा के प्रति उसे उसके कर्तव्य का एहसास तो करवा ही रहे थे| तब इतना ही कह पाई - "जो कुछ करना हो करो तुम| लेकिन मुझसे कुछ न पूछो| मुझे कुछ न बताओ| मैं तुम्हारा साथ नही दे पाउँगी|"
 
- अमित समझ गया उसकी भावना को| और यही ठान लिया उसने कि आगे से वह कभी भी वीणा के सम्बन्ध में उससे कोई बात नहीं करेगा|
 
कुछ देर बाद पिता श्रीराम उसके कमरे में चले आए थे| प्रिया व अमित को सम्बोधित करते हुए उन्होंने यही कहा था, "बेटा! अपनी माँ की बात का बुरा नही मानना| वह देव की याद से बाहर नहीं निकल पाएगी| तुम जो कर रहे हो, ईश्वर तुम्हारा साथ देगा| उसका परिवार बस जाए, मेरी यही प्रार्थना है| हाँ, वह जैसा चाहती है वैसा करने में कोई हर्ज नहीं| माँ के लिए अपनी सन्तान से उपर कोई नही होता और वह देव से आगे अभी कुछ नही सोच पाएगी| ऐसे में जो करो, उसे उसकी खबर न लगने दो| वक्त स्वयं उसको समझा देगा|"
 
और फिर यही हुआ| अमित पञ आते ही कमरा बन्द करके प्रिया के साथ उनकी छँटनी करता और एक-एक करके जवाब भेज देता| लेकिन यह काम इतना आसान नहीं लग रहा था| एक विधवा का नाम जुड़ गया था वीणा के नाम के आगे| ऐसे में उचित वर की तलाश टेढी खीर लग रही थी उसे|