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बचपन (कविता संग्रह)
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बिन बुलाए मेहमान
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आए मेहमान तो समझो आए भगवान

हमारे घर भी आए कुछ ऐसे ही श्रीमान

थे वो बिन बुलाए इसलिए

आगे का दरवाजा छोड़, पीछे से आए

हम घबराए, आवभगत भी न कर पाए

आते हैं जब मेहमान

तो कितने पकते हैं पकवान

ये मेहमान कुछ ऐसे थे

न लगा पाए उनका

ठीक तरह से अनुमान

श्री और श्रीमती वानर 

थे ये ऐसे ही मेहमान हमारे

इधर देखा न उधर देखा

सीधा मेज पर आकर वो पधारे

हमने विनती की, हाथ जोड़े

जाइए महाराज अभी 

हम आपके लिए तैयार नहीं

वे थे कि माने ही नहीं

मेेज पर से उतरने का नाम ही नहीं

श्रीमान ने लिया हमारी घबराहट को पहचान

सीधा खोला फ्रिज और लिया निकाल सामान

अंगूर का गुच्छा ठंडा-ठंडा

हम उछल रहे थे लेकर डंडा

वो थे कि खाये जा रहे थे अंडे-पे-अंडा

श्रीमती थीं उनकी पतिव्रता

नीचे बैठी खा लेतीं

जो मिलता बचा-खुचा

पेट-भर खाने के बाद

न किया उन्होंने हमारा धन्यवाद

जिस रास्ते आए थे

उसी रास्ते वापिस हो लिए

हमे लगा वो कह रहे हों

होशियार रहिए, हम फिर आएंगे !

 

- स्वर्ण सहगल