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नई सुबह
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नई सुबह (बीस)
ISBN: 81-901611-13

 

 
 
प्रिया ने देखा माँ गुमसुम है| रह-रह कर पञ पढ़ती है| बरबस आँखों से आँसू बह निकलते हैं| प्यार से माँ के पास चली आई| माँ के आँसू पोंछते हुए पूछा उसने - "मम्मी क्या हुआ? किसका पञ है?"
 
तब माँ ने कहा - "तुम्हारी दीदी का!"
- वीणा दीदी का, क्या लिखा है, देव जीजा जी तो ठीक हैं?"
- प्रिया व्याकुल हो उठी|
"क्या ठीक हैं - वैसे ही है, वही दर्द, वही बिस्तर| कैसा नसीब है बेटी का मेरी!"
- वह रोने लगी|
"चुप हो जाओ मम्मी| सब ठीक हो जाएगा|"
-प्रिया माँ की आँखें पोंछने लगी लेकिन स्वयं उसकी आँखों से आँसू टप-टप बहने लगे|
"मै क्या करुँ प्रिया| तुम बहनों ने मुझे दुविधा में डाल दिया है|" - निर्मला ने कहा|
"दुविधा| कैसी दुविधा, मम्मी? क्या किया मैंने?" -प्रिया की आँखें बह रही थीं| माँ के आँसू नहीं देख सकती थी वह|
"एक ही बात है, बेटी, अमित का तुमसे रिश्ता| क्यों मुझे ऐसा करने को कहती हो, जो मेरे मन को मन्जूर नहीं हो रहा|"
"मम्मी| यदि कोई अच्छा लगे तो क्या करुँ? तुमसे छिपा लूँ?" -प्रिया ने कही मन की बात|
"अच्छा तो मुझे भी लगता है, बेटी| लेकिन फिर भी मन नहीं मानता...|" - निर्मला की दुविधा समझ गई प्रिया|
"ठीक है, मम्मी, तुम्हारा मन नहीं मानता, तो मना कर दो| दीदी को शादी के बाद सुख नहीं मिला, शायद किसी को नही मिलेगा, इसी डर को पाल कर मैं कभी भी शादी नहीं करुँगी| तुम चिन्ता न करो, मम्मी, मैं कभी तुम्हारी मर्जी से नही हटूँगी| कभी नही कहूँगी कि मुझे अमित से शादी करनी है| अमित से क्या, कभी किसी से शादी का ख्याल भी मन में नही लाउँगी|" - बिल्कुल सहज होकर कहा प्रिया ने, लेकिन अपने मनोभावों को नियन्ञित नही रख सकी, फफक-फफक कर रोने लगी| तब निर्मला संभल गई| प्यार से प्रिया का सिर अपनी गोदी में रख लिया और उसे सहलाने लगी|
 
- "तुम सब बहनें पगली हो| इतना भावुक होना भी ठीक नहीं| मैं दुविधा में हूँ| मेरी दुविधा दूर करोगी या मुझे और अधिक परेशान करोगी| मैंने तुम सबको पढ़ाया-लिखाया है, इसलिए कि बड़ी होकर मेरी मिञ बनकर मुझे परेशानियो से दूर करने का रास्ता बताओ न कि मेरे जीवन को और उलझा दो|" - निर्मला प्रिया के बालो को सहलाते हुए बोले जा रही थी. - "अमित और तुम्हारी जोड़ी की कल्पना करती हूँ तो बहुत अच्छा लगता है| लेकिन तभी वीणा और देव का ध्यान हो आता है| उसके दुखों को देखकर सब बुरा लगने लगता है| और अब उस पगली को देखो, अपनी कोई चिन्ता नहीं उसे, तुम्हारा रिश्ता माँग रही है अमित के लिए| न जाने किस मिट्टी की बनी है वह| अपना दुःख भी उसे सुख लगता है|"
 
प्रिया ने सुनी माँ की बात तो उसके आँसुओं की रफ्तार और बढ़ गई| निर्मला उसके आँसू पोंछती रही| प्यार करती रही और मन-ही-मन कुछ सोचती रही|
 
गीता को भी प्रिया का फफकना सुनाई दिया वह अपनी पढ़ाई छोड़कर भागी चली आई|
 
"क्या हुआ? क्या हुआ, मम्मी, प्रिया को? क्यों रो रही है?" - उसने प्रिया के पास बैठते हुए पूछा|
 
"खुशी से रो रही है, मैंने अमित के लिए 'हाँ' जो कह दी है|"
 
"सच मम्मी| मुँह मीठा कराओ|" - गीता ने माँ को प्यार से चूम लिया और प्रिया को गुदगुदाते हुए बोली - "बड़ी पागल है तू, एक्टिंग कर रही है रोने की| चल हठ, मिठाई खिला|"
 
- तब प्रिया एकाएक उठी और माँ से लिपट गई| निर्मला भी उसे प्यार करते-करते अपने आँसू पोंछ रही थी|
 
वीणा खुश थी| अमित-प्रिया के रिश्ते की माँ के मुख से हाँ सुनकर| माँ निर्मला व पन्नालाल दोनों दिल्ली आए थे| अमित को टीका करने| उसका और उसके परिवार वालों का मुँह मीठा करने| माँ निर्मला ने तब अमित को यही कहा था, "बेटा, मन को समझाया है मैंने तुम्हे देखकर| यही तमन्ना है कि मेरे जिगर के टुकड़े को तुम खुश रखोगे| प्रिया के साथ-साथ मेरी वीणा का ध्यान तुम्हें रखना है| जानती हूँ वीणा तुम्हें प्रेम जैसे अपना भाई मानती है| उसको कोई कष्ट न हो यह ध्यान रखना तुम| तुमसे मिलकर, तुमसे बात करके जाने कौन-सी अद्रश्य-शक्ति ने तुमसे मेरा बंधन जोड़ दिया है| इतना कुछ हो जाने के बाद भी तुमसे ऐसा लगता है हमारा पिछले जन्म का कोई सम्बन्ध है| ऐसे में मुझे लगता है मेरा प्रेम एक नहीं दो हैं|"
 
माँ निर्मला की बात सुनकर अमित की आँखें छलक उठी थीं| उसे अपनी माँ का दूसरा रुप ही लगी निर्मला| यह बन्धन बाँधा था प्रिया के प्रति उसके मन में आ बसे प्यार ने या फिर यह बन्धन वास्तव में कोई पिछले जन्म के सम्बन्ध की ओर इशारा करता था| प्रिया के परिवार ने एक भंवर में स्वयं को पाकर भी अमित के अस्तित्व को उस भंवर से अलग मान लिया था| आज देव का सम्बन्ध उस परिवार से जैसे सिर्फ दामाद का था और अमित का एक बेटे से बढ़कर| वह माँ निर्मला के पाँव छूकर इतना ही कहसका, "मुझे भी ऐसा लगता है, मम्मी, कि जैसे देव-वीणा का मिलन मेरे और प्रिया के मिलन के कारण ही हुआ| यह वास्तव में किसी और रिश्ते की, किसी और कर्तव्य की ओर इशारा करता है| आप निश्चिन्त रहें| भाभी के चहरे पर मैं कभी शिकन न आने दूँगा| शेष सब ईश्वर पर निर्भर करता है|"
 
यह भावनाओ की बातें कितनी सत्यता लिए होती है, इसका पता तो सब सच सामने आने पर ही पता चलता है| तब तक हम केवल अच्छे की कामना ही कर सकते है| कल जो भी होगा, अच्छा ही होगा|
 
उधर देव को मना लिया वीणा ने रेडियोथरैपी के लिए| देव ने भी तर्क करना छोड़ दिया था| जो करेगी, वीणा करेगी| वह उसकी हर बात का पालन करेगा| दाँयी टाँग अपनी देव को कभी-कभी पत्थर की बनी लगने लगी थी| ऐसे में डाक्टर कुमार के पास जाने को वह मान गया| डाक्टर भी समझ रहा था उसकी मानसिक स्थिति को| इसीलिए टैस्ट के तीन-महीने बाद भी देव को उसी गर्मजोशी से मिला| अच्छी तरह मुआयना करके उसने उसका केस कैंसर विभाग में स्थानान्तरित कर दिया| वही आगे इलाज की सोचेंगे| अगले ही दिन का समय लेकर वह घर लौट आए|
 
वीणा का मन वैसे भी देव की देखभाल के अतिरिक्त और कहीं नहीं लगता था| उसकी एक ही तमन्ना थी कि देव ठीक हो जाए| इसी की कामना में वह हर दम लगी रहती थी| अगले दिन वह देव के साथ ऐम्स जाने को हुई तो उससे बोली, "हम दोनों अकेले ही जाएँगे| अमित को नहीं ले जाना|"
 
"क्यो? ऐसी क्या बात है?" देव को आश्चर्य हुआ उसकी बात सुनकर|
 
"आप जरा सोचिए, वह अपना काम-धन्धा भूलकर हमारे साथ लगा रहता है| इससे उसके काम को कितना असर पड़ रहा है| वैसे भी उसका कोई काम तो होता नहीं, सिवा अपनी कार में हमें ढ़ोने के या फिर आपकी दवाई लाने के| वह मना नहीं करता लेकिन हमें तो सोचना चाहिए| उसके भविष्य के बारे में|" वीणा कहे जा रही थी - "मेरी तो यही राय है हम दोनों ही जाएँ| मुझे खुशी भी होगी और लगेगा कि मैं किसी को व्यर्थ में परेशान नहीं कर रही|" - वीणा ने मन की बात कही देव से| वह अमित के विषय में भी चिन्तित रहने लगी थी|
 
"ऐसा क्यों कह रही हो? तुम ही तो मेरा ख्याल रखती हो| मैंने तो तुम्हे कोई सुख नही दिया, लेकिन तुमने तो मुझे हर खुशी दी है| मेरा साथ शायद कोई इतना न निभाता, जो पिछले डेढ़ साल से तुमने निभाया है|"
 
"फिर हम दोनों ही जाएँगे, अकेले| यदि कभी जरुरत हुई तभी अमित को कहेंगे साथ चलने के लिए|" - वीणा ने कहा उसे| यही इच्छा है उसकी यह सोचकर देव ने कहा "अच्छा, जैसा तुम ठीक समझो|" - यह कह कर देव तैयार होने लगा|
 
डाक्टर सिन्हा से देव अपना चैक-अप करवाने गया| डाक्टर सिन्हा ने देव की सारी रिपोर्ट पढ़ी| पढ़कर गम्भीरता से कुछ सोचते रहे| उन्होंने देव का अच्छी तरह से निरीक्षण किया| फिर देव को देखते हुए बोले - अब क्या फायदा रेडियोथरैपी का, सारी दवाएँ बेकार हैं| मुश्किल से शेष बचे दिन भी तकलीफ में गुजरेंगे रेडियोथरैपी के बाद| आप सोच लीजिए| कोई लाभ नहीं होगा| वैसे भी गुजरा वक्त तो हाथ आता नहीं| जो दिन हैं उन्हें हँसी-खुशी से बिताइए|"
 
वीणा का जी चाहा, रोने लगे और डाक्टर को खूब गालियाँ निकाले| क्या यही तरीका रह गया है मरीज को दिलासा देने का| इतनी सीधी बात| लेकिन देव था समझदार, वीणा के भावों को समझ चुका था इससे पहले कि वीणा कुछ बोलती वही बोल पड़ा डाक्टर से - "लेकिन हिम्मत हार कर बैठ जाने से कुछ होगा क्या, डाक्टर?"
 
"हिम्मत हारने को कौन कहता है? मैं तो कह रहा हूँ कि पीड़ादायक उपचार से कुछ फायदा नहीं होगा| हाँ नुकसान इतना जरुर होगा कि तुम जो अभी उपर से भले-चंगे दिखते हो, वह नहीं दिखोगे| अभी चलते हो, शायद नही चल सकोगे| दिल मत हरो| लेकिन ऐसा इलाज भी न करवाओ कि खड़े रहने के काबिल आज हो, साल-छः महीने और रहोगे उससे भी जाओगे। तुम पढ़े लिखे हो| सब समझते हो, इसीलिए मैंने तुमसे कुछ नही छिपाया| वरना तो मैं लिख देता, कल से तुम्हारा उपचार शुरु हो जाएगा|" - यह कहकर डाक्टर ने अपनी बात समाप्त कर दी|
 
"नही, शायद आप ठीक कहते है|" - देव आगे कुछ न बोल सका, मुझे फिर आना है क्या डाक्टर?"
 
"ऐसे तो आने की जरुरत नहीं। रेडियोथरैपी करवाना चाहो, तो बेशक चले आना| हाँ तब हम तुम्हें भर्ती कर लेंगे ताकि शरीरिक कष्ट कम से कम हो....|" "ऐसा कब होगा....?" "देखो| तुम जैसे कई केस आए हैं मेरे पास| देखा है मैंने इसी तरह कई रोगी कई वर्ष गुजार देते है| दर्द होगा कभी-कभी| लेकिन चलता रहेगा| हो सकता है एक वर्ष, हो सकता है एक महीना और हो सकता है दस वर्ष|"
 
"इसका मतलब है कि मेरे सिर पर लटकी यह तलवार अब कब गिरेगी पता नहीं|" - देव न कहा|
 
"हाँ, तुम्हें कब से दुबारा यह हुआ इसका पता नहीं| हो सकता है तुम्हारा आप्रेशन होने के समय ही कोई कीटाणु शेष रह गया हो तुम्हारे शरीर के किसी हिस्से में| जो अब पनपने लगा हो| हो सकता है परसों से ही शुरुआत हुई हो|"
 
- डाक्टर बहुत ही स्पष्टवादी था|
 
"ठीक है, डाक्टर, चलता हूँ...|" - देव उठ खड़ा हुआ| डाक्टर सिन्हा ने उससे हाथ मिलाया| वीणा ने उससे नमस्कार की| चलते-चलते डाक्टर सिन्हा ने कहा - ईश्वर पर भरोसा रखो, बस और कोशिश जारी रखो|"
 
वीणा बाहर निकली तो अपने आँसू न रोक पाई| चुप थी लेकिन आँसू अविरल बहे जा रहे थे| किस मिट्टी की बनी थी कि फफकना भूल चुकी थी| डाक्टर ईश्वर पर भरोसा रखने को भी कह रहा था और स्वयं इलाज करने से भी कतरा रहा था|
 
देव न हिम्मत नही हारी| उसका उत्साह देखकर वीणा ने भी अपने को संभाल लिया| देव का कालेज जाना बहुत कम हो गया था| कालेज के सभी साथियों ने ऐसे में उसकी मदद की| उसके सभी लेक्चर सबने आपस में बाँट लिए थे| प्रिंसिपल भी सहयोगी थे| उन्होंने भी आपति नही की| देव जब कभी आता, एक आध घंटा स्टाफ रुम मे आराम करता| सहयोगियो का हाल-चाल पूछता और वापिस घर चला जाता| वीणा उसी के साथ रहती थी| ऐसी हालत में देव को कभी भी महसूस नही हुआ कि कहीं कुछ पनप रहा है भीतर और उसके जीवन पर एक तलवार लटक रही है| वीणा को अपनी नौकरी की अब चिन्ता नही थी| बदली हुई नहीं तो अब त्यागपञ भेज दिया था|
 
प्रमोद था कि रोज शाम को देव के पास आने लगा था| ऐसे में एक दिन उसने कहा "देव, घर बैठने से कुछ नहीं होगा| ऐम्स वालों ने जवाब दिया है तो इसका मतलब यह नहीं कि कुछ नहीं रहा शेष| तुम बम्बई जाओ और टाटा इंस्टीट्यूट में दिखाओ अपने को| हो सकता है वे कुछ और तरह से रास्ता सुझा कर इलाज करें|"
 
"मैं भी यही सोचता हूँ, फिर रुक जाता हूँ कुछ सोचकर| वहाँ गया तो सारे उपचार का खर्च इतना अधिक होगा कि अमित के लिए कठिनाई होगी| मेरे पास तो कुछ बचा नहीं और अमित ही है जो किसी तरह से मेरी हर जरुरत का ध्यान रखता है| दवाईयों का खर्च इतना है कि मेरी तनख्वाह उसी में निकल जाती है| कालेज से जो मेडिकल का खर्ज मिलता है वह भी यूँ ही निपट जाता है....|"
 
"लेकिन अब यह तुम्हारे सोचने का समय नहीं है| अमित मना नही करेगा| और फिर उसे तकलीफ हुई तो मैं यूनिवर्सिटी में तुम्हारे इलाज के लिए फंड इकट्ठा करूँगा...|" - प्रमोद ने कहा|
 
"देखो प्रमोद , मुझे मर जाना पसन्द है लेकिन मैं मदद की भीख किसी से नहीं माँगूगा| मैं मन ही मन कितना कुढ़ता हूँ जब अमित से कभी पैसे माँगने पड़ते हैं| उसकी तरक्की में बाधक बना हुआ हूँ. जो पैसे वह मेरी बीमारी में लगा रहा है, वही वह अपने बिजनेस में लगाता तो कितनी और तरक्की कर लेता...|" देव के आँसू बहने लगे थे|
 
तभी अमित घर आ गया| प्रमोद को आया देखकर वह सीधा देव के कमरे में चला आया। आते ही उसने देव की आँखों से आँसू निकलते देखे|
 
"क्या हुआ देव?" उसने पूछा| देव ने कुछ उतर नही दिया. तब उसने वीणा से पूछा| वह भी चुप रही| आँसू आँखों से टपकने लगे थे उसकी| तब प्रमोद ने कहा - "कुछ विशेष नहीं, मैं उसे समझा रहा था बम्बई जाने के लिए...|"
 
अभी प्रमोद कुछ और कहता कि अमित बोल उठा - "हाँ, यह तो अच्छी बात है| मैं चलने की तैयारी करता हूँ लेकिन वहाँ अस्पताल जाकर सीधा इलाज हो जल्दी से इसके लिए कोई जानकर ढूँढ़ना होगा|"
 
"लेकिन खर्चा बहुत आएगा...|" तब देव ने कहा| तब अमित समझ गया देव के आँसूओं का अर्थ| बोला, "अरे अब समझा|... लेकिन इसमें रोने की बात क्या है? खर्चा आएगा, तो सह लेंगे| कितना आएगा दस, बीस, पचास हजार, एक लाख! मैं सब जुटा लूँगा| आप कोई जानकार ढूँढ़िये जो हमारी मदद कर सके, और तय कीजिए कब चलना है?"
 
तब देव ने कहा "उसके लिए तुम्हें मिस्टर गर्ग से मिलना होगा| वह हमारी संस्था की बम्बई शाखा के किसी वरिष्ठ सदस्य के नाम पञ लिख देंगे|"
 
"मैं आज ही उनसे मिल लेता हूँ और कल सुबह टिकट भी ले आउँगा...|" - अमित एकदम उत्साहित था तभी जैसे उसे कुछ ध्यान आया बोला - "ट्रेन में जाने से परेशानी होगी, हम बाई एयर जाएँगे|"
 
अमित कुछ देर और बैठा रहा| इधर-उधर की बातें होने लगीं| वीणा उसके लिए चाय बना लाई और चाय पीकर वह मिस्टर गर्ग से मिलने चला गया|
 
तीन दिन बाद के टिकट मिले और यह संयोग ही था कि जाने से एक दिन पहले रमेश कुमार का फोन आया कि उसकी बदली गोवा से बम्बई हो गई है| अमित ने तब उसे विस्तार से देव की स्थिति से अवगत करवाया और अपने बम्बई आने के प्रोग्राम के विषय में बता दिया| तब रमेश ने कहा कि वह उनके लिए रहने का कोई न कोई प्रबन्ध कर लेगा| वे सीधे एयरपोर्ट से कोलाबा स्थित नेवी मेस में आ जाएँ|
 
रमेश कुमार की बम्बई में उपस्थिति सुनकर देव भी खुश हो गया|