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नई सुबह
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नई सुबह (तेईस)
ISBN: 81-901611-13

 प्रिया के नाम अमित के पञ से माँ निर्मला को जब देव की दशा की खबर लगी तो वह स्वयं को नही रोक पाई| पन्नालाल को उसने दिल्ली चलने को कहा| वह अब वीणा की मानसिक दशा के अतिरिक्त कुछ और नही सोच पा रही थी| उसका मन वीणा के दर्द में टिका था| वीणा के दर्द का कारण देव का दर्द था और ऐसे में देव के लिए दुँआए माँगने में हर क्षण बीत रहा था| वे दोनों बच्चों को समझा कर अगली बस से दिल्ली पहुँच गए| देव की दशा देखकर दोनों स्तब्ध हो गए थे| पन्नालाल तो अगले ही दिन वापिस देहरादून लौट गए, लेकिन निर्मला वीणा-देव के कहने पर वहीं रुक गई| देव की दशा ही कुछ ऐसी थी कि निर्मला का मन भी वीणा के पास से हटने को नहीं कर रहा था|

 
शादी के समय जो तेज देव के चेहरे से टपकता था, अब उसकी जगह आँखों के नीचे काले-स्याह धब्बो ने ले ली थी| देव का चलना दुर्भर था ही, अब तो सिर पर हुए फोड़े से रह-रह कर मवाद निकलना शुरु हो गया था| बाबा जी के दिए लेप से ही कुछ समय आराम मिलता था| सब जानते थे कि अब देव-वीणा की नियति को कोई नहीं बदल सकता| सब जानते थे कि कभी किसी भी दिन देव चला जाएगा सबसे दूर| उसका और वीणा का जुदा होना अब लगभग निश्चित था|
 
अमित को भी अपनी सुध नहीं थी| सुबह से शाम और सारी रात वह देव के कमरे में रहता था| काम की बात करना भूल चुका था| हर किसी से किसी डाक्टर, ह्कीम, ज्योतिषी की ही पूछता था| डाक्टरों का 'न' सुनकर उसका ध्यान अब ईश्वरीय शक्ति में लगा था| न जाने कब कोई ईश्वरीय-चमत्कार हो जाए, न जाने कहीं से कोई खुदा का बन्दा आ जाए और देव को पहले जैसा भला-चंगा बना जाए!
 
"...और ऐसा हो सकता है," - उससे कहा किसी ने|
 
"कौन है जो उसे ठीक कर सकता है, कौन?"
 
-भाव-विह्वल होकर पूछा उसने घर आए एक मेहमान से|
 
"बाबा भूतनाथ जी....|" - - आने वाले मेहमान, जिसका नाम रतन था, ने बताया|
 
"वे कौन हैं...?" - अमित की जिग्यासा बढ़ी|
 
"बाबा जी बहुत पहुँचे हुए तान्ञिक हैं| उनके पास सिद्दियों का अपार भण्डार है.... देव जैसे कितने लोगों का उन्होंने बेड़ा पार लगाया है| मेरे एक चचेरे भाई को मौत के मुँह से निकाल कर ले आए वे चन्द ही दिनों में....|" - वह मेहमान बाबा जी का अनन्य भक्त जान पड़ता था|
 
"क्या हुआ था उसे...?" - अमित को जैसे अपने दिल की धड़कन बढ़ती मह्सूस हुई|
 
"उसकी दोनों किडनी काम करना बन्द कर चुकी थीं| डाक्टरों ने आपरेशन का सुझाव दिया था और वह केवल बम्बई में सम्भव था| लाखों का खर्चा बताया| साथ ही घर के किसी एक व्यक्ति को अपनी एक किढनी देनी पड़ रही थी| सभी अनाकानी कर रहे थे| ऐसे में बाबा जी भगवान का रुप बनकर पधारे| उन्होंने ना जाने क्या दवा खिलाई और कुछ मन्ञ पढ़े फिर अपनी लाठी को उसके दाँए पैर के अंगूठे के नाखून पर जोर से दबाना शुरु कर दिया| देखते-ही-देखते बिल्कुल काले-स्याह खून की एक धारा वहाँ से बहनी शुरु हो गई|" रतन निरन्तर बोले जा रहा था - "लगभग दो-तीन घंटे तक खून बहता रहा और फिर वह बेहोश हो गया| बाबा जी अपने हाथों से उसके शरीर की मालिश करते रहे| लगभग दो घंटे के बाद उसे होश आया." कुछ देर वह सांस लेने को रुका फिर बोला - "ऐसा चक्र तीन दिन तक चलता रहा| मेरा भाई बिल्कुल हिलने-डुलने लायक नही रहा था| बाबा जी उसके लिए कोई दवाई छोड़ कर चले गए| लगभग एक महीने तक वह बिस्तर पर रहा| आज तीन साल हो गए इस बात को| वह बिल्कुल तन्दुरुस्त है| खूब मेहनत करता है| उसे कोई रोग नही| और तो और जिस डाक्टर को हमने उसे बीमारी के दौरान दिखाया था, वह यह मानने को तैयार ही नही कि जो रिपोर्ट अब की है वह उसी व्यक्ति की है जिसे उन्होंने तीन वर्ष पहले देखा था| यह सुनी-सुनाई बात होती तो मैं विश्वास न करता, लेकिन जो कुछ भी हुआ वह सब मेरी उपस्थिति में ही हुआ था| बाबा जी और उनके एक शिष्य के अतिरिक्त केवल मैं ही था अपने भाई के कमरे में....|"
 
उसकी बातों से अमित के चेहरे पर आशा की किरण चमकने लगी| उसे लगा देव बच जाएगा| वह भागा-भागा देव के कमरे में आया| देव-वीणा व निर्मला ही थे वहाँ| एक सांस में उसने सारा व्रतान्त कह सुनाया|
 
सब बात सुनकर देव का चेहरा चमकने लगा था| वह जीना चाहता था| अपने लिए, वीणा के लिए, वीणा को खुश देखने के लिए वह जीने की ललक को पल-प्रतिपल अपने भीतर बढ़ता पा रहा था| और किसी के कुछ कहने से पहले उसी ने कहा अमित से - "मुझे बाबा जी के पास ले चलो, अमित, अभी....|"
 
तब वीणा भी बावली-सी बनी, उठी, और तैयार होने लगी|
 
करोलबाग के एक घर में ठहरे थे बाबा जी| उनके किसी भक्त का घर था| करीब पचास स्ञी-पुरुष बैठे थे उनके दर्शन करने को| देव, वीणा, निर्मला, क्रष्णा व अमित आए थे| रतन उनका मार्गदर्शन कर रहा था| वहाँ बैठे सभी लोग बाबा जी के चमत्कारों की ही बातें कर रहे थे| उनकी बातें सुनकर सभी की आशा और अधिक प्रबल हो चुकी थी| रतन अमित को लेकर बाबा जी के कमरे के द्वार पर खड़े एक युवक के पास ले गया| अमित का परिचय देते हुए रतन ने उससे कहा - "प्रदीप जी| ये हमारे परम मिञ हैं| ठेकेदारी करते हैं| अपने भाई को साथ लाए हैं| वह यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है| किस्मत की मार से उन्हें कैंसर हो गया है| गुदा में| बाबा जी के दर्शन चाहते है|"
 
सारा व्रतांत सुनकर प्रदीप जी भीतर बाबा जी के कमरे में चले गए|
 
उन्हें थोड़ी देर ही प्रतीक्षा करनी पड़ी| बाबा जी का बुलावा आ गया था उनके लिए| वे सभी रतन के साथ भीतर चले गए|
 
कमरे के सभी परदे बन्द थे और रोशनी के लिए केवल एक लाल बती जल रही थी| बाबा जी एक आसन पर विराजमान थे| उनके साथ एक मूर्ति रखी थी, जिसके आगे एक ज्योति प्रज्जवलित थी| ढ़ेर-सी सुगन्ध फैली थी कमरे में और अगरबती का धुँआ भी फैला हुआ था| सबसे पहले रतन ने आगे बढ़कर बाबा जी के चरण-स्पर्श किए| सभी ने उनका अनुकरण किया| अमित ने देखा बाबा जी चरण-स्पर्श करवाने के लिए अपना दाँया पैर आगे की ओर करते थे| देव को चूँकि झुकने में कष्ट का अनुभव हो रहा था, बाबा जी ने अपना पैर स्वतः ही उसके हाथ के पास रख दिया, ताकि वह आसानी से उनका आश्रीवाद ले सके| अमित को यह बात बड़ी अटपटी लगी| लेकिन उसने अपने चेहरे के भावों को छिपा लिया|
 
"हाँ तो देव! तुम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो|"
 
- बाबा जी ने कहा| देव की प्रतिक्रिया क्या हुई सुनकर अमित नही जान सका क्योंकि वह उसके पीछे बैठा था| क्रष्णा के मुख से निकला, "बाबा जी आप तो अन्तर्यामी हो|"
 
देव के हाथ जुड़े हुए थे| स्वीक्रति में यह केवल 'जी' कह सका|
 
- "यह तुम्हारी पत्नी वीणा है| बहुत सेवा करती है तुम्हारी| सब कुछ भूल गई है, बस, तुम्हारी सेवा ही इसका धर्म बना हुआ है|" - बाबा भूतनाथ ने फिर कहा|
 
"जी बाबा जी|" - देव ने कहा|
 
तीन वर्ष पहले गुदा को चीर कर निकाल दिया तुम्हारा| अब क्रञिम तरीके से मल-निकास होता है|" - बाबा जी के शब्द सबको चमत्कार से कम नही लग रहे थे|
 
"जी बाबा जी|" - अब देव गदगद् होकर झुकने की चेष्टा कर रहा था|
 
बाबा जी ने उसके सिर पर अपना हाथ टिका दिया और पुनः बोले - "कैंसर के जड़ उपर की ओर बढ़ गई है तुम्हारे| सिर से बहुत मवाद निकलता है?" - स्वीक्रति में देव ने गर्दन हिला दी थी|
 
"दशा बहुत बिगड़ गई है| अब समय बहुत कम है, लेकिन मेरी शरण में आए हो, मैं तुम्हारा कष्ट निवारण कर दूँगा| जल्द ही तुम्हें कष्ट से मुक्ति मिलेगी|" - बाबा जी की बात द्विअर्थी लगी अमित को| लेकिन शेष सब ने सोची एक ही बात, कि देव को बाबा जी ठीक कर देंगे|
 
बाबा जी ने हवा में हाथ हिलाया और पलक झपकते ही देव को मुट्ठी भर भभूति दी और कहा, - "उसे कड़वे तेल में अच्छी तरह मिलाकर दिन में दो-तीन बार पिछले हिस्से में मालिश करवाया|"
 
"जी बाबा जी|" - देव तो नतमस्तक हो गया था| एकाएक सब सुनकर बाबा जी के प्रति उसकी आस्था बढ़ गई थी|
 
"कल अपने छोटे भाई को भेज देना, मैं उसे खाने की दवा बना कर दूँगा| कुछ ही दिन में सब कष्ट दूर हो जाएँगे." - बाबा ने कहा| तब वीणा ने बाबा जी के चरण पकड़ लिए और फफक-फफक कर रोने लगी - "बाबा जी, मेरा सुहाग बचा लो, आपकी शरण में आई हूँ| जीवन भर आपकी सेवा में रहेंगे, बस इन्हें ठीक कर दो|" - वीणा को यूँ फफकता देखकर सबकी आँखें भर आई| आस्था में कितनी शक्ति है! मन जिस पर विश्वास करता है, उस पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है| ऐसा ही यहाँ हो रहा था|
 
- "रोने से कुछ नही होगा पुञी! सब कष्ट कट जाएँगे, तू अपनी पति की सेवा में जुटी रह|" - और तब बाबा जी के इशारे पर रतन ने देव को उठने के लिए सहारा दे दिया| क्रष्णा व निर्मला भी बाबा जी के चरण-स्पर्श करके उठ खड़ी हुई| तब एक-एक करके बाबा ने हाथ उपर करके हवा से जैसे कुछ पकड़ा और सभी को इलायची का प्रसाद दिया| सभी गदगद् हुए बाहर की ओर बढ़ गए!
 
अमित के नाम पञ आया था प्रिया का| प्रिया की लिखावट देख कर ही अमित के मन में चिन्ताओं का बोझ उलट जाता था| पञ खोलकर अमित ने जैसे ही पहली पंक्ति पढ़ी, समझ गया की प्रिया काफी गम्भीर है| प्यार की बातों से उपर उठकर आज वह अपना - अपने परिवार का दुःख जाहिर कर रही है| प्रिया ने लिखा थाः-
 
"मेरे प्रिय अमित,
कैसे हो? देव जीजा जी का हाल जानकर मन बहुत ही दुःखीहै| जो हाल उनका डैडी ने बताया है, वह तो मुझसे सुना ही नही गया| जीजा जी ये सब कैसे सहते होंगे? अमित मैं सोचती थी जीजा जी बहुत बीमार है, पर उनकी बीमारी की इतनी भयानक और दुःखद कल्पना मैंने कभी नही की थी| जिस दिन से डैडी लौट कर आये है और मेरी कल्पना ने उनकी बातें सुनकर उनकी बीमारी के विषय में जो उनकी तस्वीर खींची है उसे याद करते ही रोना आ जाता है| सच अमित उस दिन डैडी रात डेढ़ बजे के लगभग घर पहुँचे थे| हम सभी उनके आने पर जाग गए थे और देव जीजा जी के विषय में सब जानकर मैं रात भर नही सो सकी| सुबह तक रोना आता रहा| ऐसा भी क्या जीवन कि वे आराम से सो भी नही सकते| इतना कष्ट मैनें आज तक किसी को सहते नही देखा और न ही किसी बीमारी का इतना विक्रत रुप मैंने कभी पहले सुना| अमित, मेरा मन जीजा जी से मिलने को बहुत बेचैन है, परन्तु कोई राह नजर नही आती| मैं बहुत कोशिश करती हूँ उन्हें पञ लिखने की लेकिन कुछ नही लिख पाती| आखिर क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? न तो उन्हें लिख पाती हूँ कि वे कैसे है, उनकी तबीयत कैसी है? न उन्हें सांत्वना दे पाती हूँ और उनकी स्थिति ऐसी है कि न कुछ अपनी ही बात लिखने को मन होता है|
मुझे कल मिले तुम्हारे पञ से, जिसमें तुमने उनकी बीमारी के विषय में इतना ही लिखा था कि शायद मैं अन्दाज भी न लगा सकूँ कि देव कितने बीमार है| सच, तुमने ठीक ही लिखा था| डैडी विस्तार से न बताते तो शायद इतनी परेशान न होती मैं| जानती हूँ यही सोचकर तुमने बताना ठीक नही समझा होगा कि मुझे दुःख होगा| डैडी को भी तुमने रोका था सब विस्तार से न बताने को, लेकिन उनसे न रहा गया| देव जीजा जी की दशा उनसे भी नही देखी जा रही| सच, वीणा दीदी ये सब कैसे सहती होगी| कितना प्यार है दीदी को देव जीजा जी से| और जिस इन्सान से इतना प्यार हो, उसकी ऐसी दिन-पर-दिनबिगड़ती दशा देख पाना और उसे सह पाना कितना कठिन हैं! वीणा दीदी के लिए यह सरल होगा परन्तु मेरे जैसी लड़की के लिए तो सुनना भी असम्भव हो गया है| लगता है वीणा दीदी पत्थर की बनी है| बेचारी! मेरी द्रष्टि में तो वीणा दीदी एक नर्स है देव जीजा जी के लिए| मैं उन्हें पति-पत्नी नही मानती| जिस दिन से दीदी की शादी हुई है उस दिन से आज तक वह कभी चैन से रात को सो भी नही पाई होंगी| मैंने तो यही समझा है| रात भर कभी चाय बनाओ, कभी पानी गर्म करो, कभी मालिश करो, कभी सेक करो| एक मशीन भी थोड़ा आराम चाहती है| उसको भी ठीक प्रकार से चलाने और अधिक समय तक सुचारु रुप से रखने के लिए मरम्मत की जरुरत पड़ती है| फिर वीणा दीदी तो एक इन्सान है परन्तु लगता है लोहे की मशीन से भी मजबूत बना दिया है उसे उसकी परिस्थितियों ने| अमित इन सब बातों से कोई तात्पर्य नहीं निकलता, लेकिन दुःखी मन तुमसे ही तो कह सकता है अब अपने मन में आई हर बात| मेरा मन बोझिल है और मैं तुम्हें जिसे मैं अपना सब कुछ मानती हूँ, लिखकर ही अपने मन की बोझिलता को दूर कर सकती हूँ| लेकिन लगता है मेरे मन की बोझिलता को दूर करते-करते तुम्हारा मन बोझिल हो जाएगा| जो कुछ भी हुआ है और हो रहा है उसमें तुम्हारा कोई दोष नही है| अमित मेरी तुमसे यही प्रार्थना है कि तुम वीणा दीदी का अधिक से अधिक ध्यान रखा करो| मैं तुम्हें ही तो कह सकती हूँ| वीणा दीदी ने कुछ दिन पहले घर में एक चिट्ठी में लिखा था कि यदि देव को कुछ हो गया तो मैं भी स्वयं को समाप्त कर दूँगी| यह पढ़कर बहुत ही डर लग रहा है क्योंकि अब, ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति कुछ भी कर सकता है| जब दिमाग बावला हो गया हो, तन की भी होश न हो, जीने की इच्छा मर जाए और सबसे बड़ा सहारा भी न रहे तो ऐसी हालत में कुछ भी किया जा सकता है| इसलिए अमित वीणा दीदी को कभी अकेले न छोड़ा करो| किसी न किसी का उनके साथ हर समय रहना बहुत जरुरीहै| जब तुम घर में होते हो तो अधिक से अधिक समय उन्ही के कमरे में बिताया करो| यदि उनकी कोई बात बुरी लगे तो बुरा मत मनाया करो| अब उन्हें प्रसन्न ही रखने का प्रयत्न किया करो| बीती बातों के विषय में मत सोचने दिया करो और न ही कल क्या होगा इसकी चिन्ता करने दिया करो| उनका खुश रहना हि उनके लिए दवा क काम कर सकता है|
अमित मैं समझती हूँ तुम्हारी परेशानी को| तुम खुश रहो इसके लिए मै तुम्हें रोज पञ लिखूँगी| तुम्हें लगेगा हमारे बीच की दूरी बहुत कम हो गई है| अमित सच में मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ| तुम्हारे बिना मैं जी नही सकती| हर समय तुम याद आते हो| तुम मेरे सब कुछ बन गए हो - सब कुछ| इसलिए तुम पर जितना प्यार आता है, कभी-कभी उतना गुस्सा भी आ जाता है| कहते है न कि जिससे जितना अधिक प्यार होता है उससे लड़ाई भी उतनी अधिक होती है| क्योंकि उसकी छोटी सी बुरी बात मन को छू लेती है और कोई अन्जान यदि गाली भी दे दे तो मन गौर नही करता| सह लेता है| इसलिए अमित मुझसे कभी रुठना नहीं|
इसी के साथ,
असीम प्यार के साथ
सिर्फ तुम्हारी
प्रिया"
 
अमित देव की दशा से पहले से परेशान था| प्रिया का पञ पढ़कर और अधिक देव-वीणा के विषय में सोचने लगा| प्रिया का दो दिन पहले का लिखा पञ था यह| देव की दशा तो और अधिक बिगड़ चुकी थी| और आज ही सुबह उसने स्वयं देहरादून फोन से किसी जानकर को कहा था कि वह जाकर स्वयं पन्नालाल को देव के रह-रहकर तड़पने की खबर कर दें| जैसे अन्त आ गया है उसका|
 
शाम तक पन्नालाल फिर दिल्ली पहुँच गए थे| देव की दशा से वह कुछ बोलने की स्थिति में नही थे| माँ निर्मला की दशा तो देव को देखकर बहुत खराब हो रही थी| उसके सिर से रह-रह कर मवाद युक्त खून निकल रहा था| दूसरी ओर एक हाथ से निरन्तर ग्लुकोज और दूसरे से खून चढ़ाया जा रहा था| वीणा थी कि रह-रह कर देव के सिर से खून पोंछती जा रही थी| डैडी को देखकर भी रो न सकी| जैसे रोबोट में प्रोग्राम फिट कर दिया हो कि बस एक यही काम करना है - किसी रोगी के सिरहाने बैठ कर उसकी मरहम-पट्टी, - बस आने वालों को एक नज़र देखना, उसे चुप रहने का इशारा भर करके एक ओर बैठ जाने को कह देना| कोई भावनात्मक क्रिया नही थी| बस, चुप|
 
लेकिन निर्मला तो ऐसी नहीं थी| रुलाई रोक न सकी पन्नालाल को आया देखकर| कमरे से बाहर आकर रोती रही जब तक कि अमित ने उसके आँसू नहीं पोंछे|
 
"अब कुछ नहीं हो सकता मम्मी! देव ने जाना है और वह चला जाएगा|"
 
तब निर्मला ने रोते हुए कहा - "क्या होगा मेरी बच्ची का? उसकी तो दुनियाँ ही उजड़ गई|" - वह फिर रोने लगी|
 
अमित उसे देव के कमरे से दूर ले आया| बोला - "आप धैर्य रखिए| अब आँसू न बहाएँ| अब कुछ और नही हो सकता|"
 
घर भर में इतनी चहल-पहल थी कि किसी भी कोने में अकेले बैठ कर बात नहीं कर सकते थे| कितने ही रिश्तेदार आ रहे थे, कितने ही मिञगण आ रहे थे| सब कोई चुप से आता, देव को देखता| कुछ देर बाहर बरामदे में बैठता, किसी से बतियाता और चला जाता| कोई कुछ नहीं कर सकता था|
 
डाक्टर शर्मा रात ग्यारह बजे फिर आए और लगभग एक घंटा देव के पास बैठे रहे| उस समय कमरे में देव-वीणा-निर्मला और अमित के अतिरिक्त कोई नहीं था| रह रहकर देव की तन्द्रा टूटती| सामने दीवार की ओर देखता, जहाँ उसने बाबा भूतनाथ से मिलने के बाद उनकी तस्वीर लगवा ली थी, उसे प्रणाम करने के लिए हाथ उठाने को प्रयत्न करता, जिसे हर बार वीणा रोकती और तब मुँह से यही बुदबुदाता - "मुझे ठीक करेंगे बाबा जी| मुझे ठीक करेंगे| ठीक नही होउँगा तो वीणा का क्या होगा? वह तो दूसरी शादी नही करेगी| यही कहती है| वह क्या करेगी? वह कैसे जीएगी मेरे बिना? कैसे जीएगी मेरे बिना.........?"
 
तब वीणा ही बोली - "तुम ठीक हो जाओगे, देव! तुम ठीक हो जाओगे| तुम्हें कुछ नही होगा| तुम्हें कुछ नही होगा| बाबा ने कहा है वह आ रहे हैं तुमसे मिलने|"
 
और देव निढाल होकर फिर चुप हो जाता| निर्मला के आँसू भी वीणा की कठोर दशा को देखकर रुक से गए थे| अमित ने देव की दशा का बताकर अपने भाईयों को दिल्ली पहुँचने की खबर दे दी थी|