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नई सुबह
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नई सुबह ( सत्रह)
ISBN: 81-901611-13

 

 
 
देव दो नावों पर सवार हुआ स्वयं को पाता था| हरदम उसे लगता था कि वीणा है उसके साथ तो उसका दर्द कोई मायने नही रखता| दूसरा वह कभी सोचता वीणा की निजी जिन्दगी के बारे में तो लगता उसने अन्याय किया है उसके साथ शादी करके| दर्द जब भी बड़ जाता तो उसे डर लगने लगता कि यह दर्द सदा रहने लगा तो न जाने इसका परिणाम क्या हो! ढ़ेर-सी किताबें पड़ने लगा था| ढूँढने लगा था दर्द का कारण| लेकिन किताबों की बात क्या, एक सच जो उसे सामने दिखने लगा था, उससे मुँह छिपाने के लिए वह वीणा की बाँहों का सहारा लिए रहता था| एक क्षण भी उसे अपनी आँखों से दूर न कर पाने की उसकी चाह वीणा को अपने प्रति प्रेम ही लगती थी|
 
वह प्रेम की दिवानी यही भाव हरदम मन में लिए रहती थी कि देव कितना चाहता है उसे! ऐसी चाहत उसकी देखकर देव अपना दर्द भीतर ही भीतर छिपाए रखने लगा था| अब उसने अपनी दिनचर्या में वीणा का साथ चौबीस घंटे का बना लिया था| कालेज भी वह वीणा को साथ ले जाने लगा था| सुबह नौ बजे से दो बजे के बीच सप्ताह में पाँच दिन दो-या-तीन लेक्चर देने होते थे| इतना समय वीणा स्टाफ-रुम में बैठी रहती| उसका समय बड़ी सरलता से कट जाता था| देव का कोई न कोई साथी उससे बातें करता रहता या फिर वह किसी न किसी पञिका के पन्ने पलटती रहती|
 
कुछ और नहीं होता तो स्टाफ रुम की खिड़की से बाहर मस्ती में घूम रहे छाञ-छाञाओं को देखती रहती| स्कूल में जिस अनुशासन में उसने पढ़ाया था, वह अनुशासन उसे यहाँ कालेज में नही दिखता था| स्वच्छन्द भाव से विचरते, मस्ती करते हुए छाञों को देखना उसे बहुत अच्छा लगता था| ऐसे समय वह कल्पना भी करती कि काश! वह भी यहाँ पढ़ा रही होती| देव से अपनी इच्छा जाहिर कर दी थी उसने| तब देव ने यही कहा था उससे कि सिर्फ पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री के होने से अब कालेज में नौकरी नही लग सकती| साथ में पी. एच. डी. होना जरुरी हो गया है| वीणा क्या रिसर्च करना चाहेगी| पढ़ाई एक बार छूट जाए तो दुबारा शुरु करना कठिन होता है| लेकिन वीणा स्वयं को और पढ़ाई के लिए तैयार भी नही पाती थी| जो पढ़ लिया, वही काफी है| बस बदली हो जाए और वह स्कूल जाना शुरु कर दे|
 
हम जो सोचते है, जरुरी नही कि वह सच में बदल जाए| सपने सभी साकार नही होते| सोचते कुछ है, होता वही है जो भाग्य में लिखा हो| हां , भाग्य में लिखे को सहज होकर लें तो दुःख, दुःख नहीं लगता| समय-चक्र अपनी गति से चलता है| वीणा समय-चक्र के साथ चलती अच्छे की ही कल्पना करती थी| लेकिन जो परेशानी का दौर शुरु हो चुका था, वह अब रुकने का नाम नही ले रहा था|
 
देव का दर्द अब एक नियमित दिनचर्या का रुप धारण कर चुका था| घर-भर में सबको खबर लग गई थी| माँ क्रष्णा को पता लगा तो वह भी यही बोली - "दुबारा जाओ, बेटा, डाक्टर के पास|"
 
देव तब उन्हें क्या कहता, चुपचाप 'हाँ' कह कर वीणा के साथ अपने कमरे में आ गया| बिस्तर पर लेटते हुए उसने वीणा से यही कहा, "मुझे उस दिन डाक्टर गुप्ता की बात अच्छी नही लगी| लगा कि वह जैसे अपनी गल्ती पर पर्दा डाल रहे हों| ऐसे में मै सोच रहा हूँ कि क्यों न मै अपनी संस्था के माध्यम से ऐम्स में अपना पूरा चैकाप करवाउँ| अगर वे कहेंगे तो रेडियोथरैपी करवा लेंगे|"
 
देव ने वीणा को पहले से ही अपनी क्लोस्टमी पेशेंट सोसाइटी के विषय में बता रखा था| इस संस्था की स्थापना 1970 में हुई थी, जब इसके रोगी श्री राजेन्द्र गर्ग के सम्बन्धियों को क्लोस्टमी बैग के लिए दर-दर भटकना पड़ा था| उहोने ही स्वस्थ होने के उपरान्त अपना सारा समय इस संस्था को चलाने में व्यतीत करना शुरु कर दिया था| वे जब भी पता चलता, जहाँ भी रोगी होता पहुँच जाते और इस रोग से सम्बन्धित सभी जानकारी मरीज व उसके परिवार वालों को दे देते थे| ऐसे में देश के हर बड़े अस्पताल में सभी डाक्टरों से उनका सम्पर्क स्थापितरहता था| हाँ, देव को इस संस्था के बारे में आपरेशन के समय इसलिए नही पता चला था, क्योंकि उसे एक प्राईवेट नर्सिंग होम में भर्ती करवाया गया था और वही डाक्टर गुप्ता ने उसका आपरेशन कर दिया था| इस संस्था के विषय में जानकारी तो उसे आपरेशन के छः महीने बाद लगी, जब उसे बार-बार अपने बैग मँगवाने के लिए विदेश रह रहे किसी न किसी जानकार को कहने में शर्म आने लगी थी| सभी उसकी मदद करते थे| अपने खर्चे पर बैग भेज देते थे, लेकिन पैसे कोई नही लेता था| ऐसे में उसने बैग बनाने वाली कम्पनी को जब लिखा तो उसे वापसी डाक से जवाब आ गया| देव को तब यह जानकर आश्चर्य हुआ था कि एक संस्था है यहाँ दिल्ली में जो सब साधन जुटाती है| गर्ग साहब से मिला तो जानकर आश्चर्य हुआ कि केवल दिल्ली में ही इसके लगभग सौ रोगी है| सबसे मिलकर उसे अपने जीवन के प्रति और अधिक आशा बंध गई| सभी हँसी-खुशी जीवन बिता रहे थे| ऐसे में ही घर वालों के मुँह से अपनी शादी की बात सुनना उसे अच्छा लगने लगा था| वीणा ने उसके जीवन में आना था तो आशा की हर किरण उसे सुन्हरी ही लगती थी!
 
वीणा को साथ लेकर वह गर्ग साहब से मिला| उन्होंने अगले ही दिन देव के लिए डाक्टर से मिलने का समय तय करवा लिया| गर्ग साहब की उम्र पैंसठ के लगभग थी| पचास के थे जब आपरेशन हुआ था| अपना जीवन उन्होंने संस्था को समर्पित कर रखा था| ऐसे में देव-वीणा के साथ चलने को वह भी उत्सुक थे और अगले दिन अस्पताल में मिलने की जगह तय कर देव-वीणा ने उनसे विदा ली|
 
डाक्टर साहब ने अच्छी तरह से देव का निरीक्षण किया| सारी रिपोर्ट्स को ध्यान से देखा| अन्त में फाईल के पन्ने पलटते हुए बोले, "आपरेशन के बाद के कागज कहाँ है?"
 
"सब कागज इसी में लगे है." - देव ने कहा|
 
"वह तो मै देख रहा हूँ| लेकिन आपरेशन के बाद तुम्हारी रैडियोथरैपी हुई होगी, उसकी जानकारी इसमें दर्ज नही है|" - डाक्टर कुमार ने फाईल के पन्ने पलटते हुए कहा|
 
यह सुनकर देव चौंक गया| रेडियोथरैपी की बात एकाएक पहले डाक्टर गुप्ता ने की थी| उसने इसे गम्भीरता से नही लिया था, क्योंकि डाक्टर गुप्ता ने चिन्तित न होने कह दिया था. अब वही बात डाक्टर कुमार के मुँह से सुनकर वह एकाएक बेचैन हो उठा था| उसी बेचैनी भरे भावों से बोला, "मेरी रेडियोथरैपी तो हुई नही|"
 
यह सुनकर डाक्टर कुमार चौंक उठे| बोले, "क्या डाक्टर गुप्ता ने जिक्र नहीं किया था आपरेशन के बाद इसका?"
 
"नहीं डाक्टर, कभी नहीं| आपरेशन के दो साल तक मै नियमित रुप से उनसे अपना चैक-अप करवाता रहा| उन्होंने कभी नहीं कहा था और न ही मुझे कभी परेशानी हुई थी| हाँ, अब दर्द होने के बाद जब मैं गया तो पहली बार उन्होंने मुझसे कहा| तब भी वह बात को टाल गए|" - देव ने विस्तार से बताया|
 
डाक्टर कुमार को आश्चर्य हुआ, देव की बात सुनकर| उन्हें देव की बात सच लग रही थी| लेकिन आश्चर्य था कि डाक्टर गुप्ता जैसे अनुभवी डाक्टर ने यह रिस्क कैसे ले लिया, बोले, ऐसा कैसे हो सकता है? डाक्टर गुप्ता तो समझदार है|"
 
देव और चिन्तित हो उठा| साथ बैठी वीणा और गर्ग साहब भी परेशानी महसूस कर रहे थे| "इससे कोई परेशानी हो सकती है क्या?" - देव ने चिन्तित स्वर में पूछा|
 
डाक्टर कुमार ने देव के चेहरे पर परेशानी के लक्षण पढ़ लिए थे, बोले, "परेशानी हो भी सकती है और नही भी| अभी घबराने की बात नही है|" - फिर कुछ सोचकर बोले, "ऐसा करते है, एक बार फिर से तुम्हारी बायोप्सी करवा लेते है| रिपोर्ट आने पर ही विचार करेंगे|"
 
बायोप्सी का नाम सुनकर देव को अपने सामने सब कुछ घूमता नजर आया| लेकिन हिम्मत वाला था, पलभर में संभल गया और बोला, "बायोप्सी...! यानि आपको लग रहा है दुबारा से कैंसर का खतरा.........?"
 
"मै अभी निश्चित रुप से कुछ नही कह सकता| आप पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं इसीलिए आपसे कुछ पर्दा नहीं रख रहा| रैडियोथरैपी से हमारी कोशिश रहती है कि आपरेशन के बाद यदि कहीं कोई कैंसर का कीटणु रह जाए तो आसपास के हिस्से को इसकी मदद से हम आगे आने वाले खतरे को रोक सकते है| लेकिन जरुरी नहीं है कि यह फिर से हो| इसीलिए मैं कोई भी रिस्क नही लेना चाहता|" - फिर आश्वासन भरे शब्द कहे उन्होंने "लेकिन अभी से चिन्तित न हों आप! मै कोई भी चाँस नहीं लेना चाहता| जो है वह सामने आना चाहिए! और जो कुछ होना है हम उसे टाल नहीं सकते| हाँ, कोशिश कर सकते है. उसका फैलना रोके रहें!"
 
वीणा आगे नहीं सुन पाई| उसका मन कहीं और खो गया| सोचने लगी कहीं शून्य में जाकर| आँसू आँखों से टप-टप कर बहने लगे| डाक्टर कुमार ने देखा उसे तो धैर्य बंधाते हुए बोले वीणा से, "धैर्य से काम लीजिए, मैने कुछ नतीजा तो नहीं निकाला है| डाक्टर हूँ, शक तो जाता ही है| सिर्फ अच्छे की सोचूँगा तो बीमारी को पकड़ कैसे पाउँगा? आप इतनी बड़ी परेशानी तो पहले देख चुकी है| मौत के मुँह से आपके पति पहले ही बाहर आ चुके है| अब घबराने से कुछ नहीं होगा| सच्चाई को सामने रखना मेरा कर्तव्य है, लेकिन इसमें घबराने से काम नहीं चलेगा| परेशानी आई है तो उसका सामना आपको करना है|"
 
वीणा क्या कहती| बस आँसू पोंछ लिए उसने| सच का सामना तो शादी के पहले दिन से ही कर रही थी| अब तो उसे देव का दर्द अपने दर्द-सा लगने लगा था| यही लग रहा था कि सामने आई जिस परेशानी की बात डाक्टर कर रहा है, उससे वह बहुत पहले से ही परिचित है| जैसे वह देव के साथ शुरु से ही बंधी है और अब देव की नियति उसकी अपनी नियति है| अपने अच्छे की कामना उसे करनी चाहिए, इसीलिए वह अपनी नियति से लडने को तैयार थी। इसीलिए डाक्टर कुमार की बात सुनकर वह चुप रही|
 
"अब मुझे क्या करना होगा?" - देव ने स्वयं को संयमित रखते हुए पूछा| इस पर डाक्टर कुमार ने कहा, "आप अभी लैब में चले जाईए| मै स्लिप बना देता हुँ| एक-दो दिन बाद आपका टैस्ट हो जाएगा और उसके एक सप्ताह तक रिपोर्ट आ जाएगी| तब तक आप अपनी दर्द की दवाई लेते रहिए|"
 
यह कहकर डाक्टर कुमार ने देव की फाईल में अपनी राय लिख दी और उसे देव को थमा दिया|
 
"शुक्रिया डाक्टर साहब आपका!" - देव उठ खड़ा हुआ| सबने प्रणाम करके डाक्टर कुमार से विदा ली| अमित बाहर बैठा पञिका के पन्ने पलट रहा था| उन्हें बाहर आया देखकर खडा हो गया| उसने देव-वीणा के चेहरे पर परेशानी के लक्षण झट से पढ़ लिए, बोला, "क्या बोला डाक्टर ने? आप लोग कुछ चिन्तित है?"
 
वीणा ने तब मुस्कुराने की चेष्टा की और बोली, "कुछ भी बात नहीं, अभी बस कुछ टैस्ट बताए है|"
 
"टैस्ट.... कैसे टैस्ट?" - पूछा उसने|
 
"बायोप्सी....!" - देव ने कह दिया| सुनकर चौंका वह| बोला, "बायोप्सी....! फिर से, क्यों?" - बायोप्सी का नाम सुनते ही उसे पसीना आ गया| इस टैस्ट की दहशत वह पहले झेल चुका था|
 
"अभी कुछ नहीं पता|" - वीणा ने कहा और आँसू स्वयं बह निकले उसकी आँखों से|
 
तब गर्ग साहब बोले, "वीणा जी, जब देव से शादी के बाद आप मुझे मिली थी तब मैने आपको मन ही मन प्रणाम किया था| आपने देव के साथ शादी रचाकर जो हिम्मत दिखाई, उसी हिम्मत को कायम रखिए| देखना कुछ नही होगा| मुझे देखिए मै कितना भला-चंगा हूँ| पन्द्रह साल हो चले है मुझे आपरेशन करवाए|" - तभी उन्हें कुछ याद आया वह देव की और देखते हुए बोले, "मुझे भी अपनी गल्ती का एहसास हो रहा है| मैने भी आपसे आपरेशन के विषय में हमेशा पूछा लेकिन कभी भी रेडियोथरैपी की बात नहीं की| यही सोचा था कि वह तो जरुर हुई होगी|"
 
इस पर देव ने कहा, मैने भी तो कभी जानने की कोशिश नही की| ठीक हो गया| सब अच्छा लगने लगा था, जानने की कोशिश भी नही की कि रैडियोथरैपी की जरुरत क्यों पड़ती है| आपरेशन के बाद मुझे कभी कोई परेशानी नही हुई| डाक्टर ने भी तो कभी इस बात का जिक्र नही किया| अब डाक्टर इतनी लापरवाही करेगा , ऐसा तो मै कभी सोच भी नही सकता था|"
 
"देखो, देव, मैं इस तरह के केस बहुत समय से देखता आ रहा हूँ| आपरेशन से पहले मिले होते तो कभी भी सलाह न देता कि इस आपरेशन को किसी प्राईवेट नर्सिंग होम में करवाओ| यहीं ऐम्स में आ जाते तो कुछ भी नहीं होता| डाक्टर गुप्ता यूँ तो बहुत बड़े सर्जन हैं लेकिन मेरी जानकारी में उन्होंने आज तक इस तरह के केवल दो ही आपरेशन किए है| एक तुम्हारा और उससे पाँच-छः साल पहले किसी वर्गीस का| वह तो आपरेशन टेबल पर ही दम तोड़ गया था| यदि वे पैसे के लालच में या फिर अपने क्षेत्र में और अधिक नाम करने के चक्कर में न होते तो तुम्हारा आपरेशन ही न करते| तुम्हें यही भेज देते|" - कुछ रुक कर फिर बोले, "स्वयं सोचिए, उन्हें हमारी संस्था तक के विषय में नहीं पता था| यदि जानकारी होती तो क्या अपने बैग्स के लिए तुम्हें और तुम्हारे भाई को इतना भटकना पड़ता? लेकिन अब बीती बातों पर क्या ध्यान देना| जो हो चुका है, उसे हम अब बदल नहीं सकते!" - गर्ग साहब ने अपनी बात वहीं खत्म कर दी|
 
"लेकिन यह तो लापरवाही है डाक्टर की!" - वीणा ने यह सब सुनकर कहा|
 
"यह लापरवाही है या पैसे की या नाम कमाने की ललक अब क्या सोचना| अब बस हमें टैस्ट करवाना चाहिए और आगे की योजना बनानी चाहिए!" - गर्ग सहब की बात सभी को उचित लगी| लेकिन अमित बेचैन हो उठा था| डाक्टर गुप्ता पर उसे गुस्सा आ रहा था| लेकिन अब ईश्वरीय सहायता की सभी दुआ कर रहे थे|
 
देव बायोप्सी करवाने को घबरा रहा था| डर बैठ गया था उसके मन में| किसी ने कहा, यदि बायोप्सी होगी तो रुके हुए कैंसर के कीटाणु जल्दी-जल्दी फैलना शुरु कर देंगे| देव की सोच संकुचित हुए जा रही थी| मन में सोचता कि यदि कैंसर के कीटाणु दुबारा शरीर में प्रविष्ट कर गए तो वह बच न पाएगा| ऐसे में सब कुछ समाप्त हो जाएगा | वह नही रहेगा और ऐसे में वीणा का क्या होगा? वीणा की चिन्ता उसे मन ही मन खाए जा रही थी| मन के हर कोने में उसके बंध गई थी वीणा| ऐसा लगने लगा था कि वह उसके साथ कई जन्मों से बंधी है| वही उसके जीवन का अभिन्न अंग है और इसी अंग से उसे सबसे अधिक प्रेम है| अपने को उस अंग से अलग पड़ा देखना जैसे अब उसके बस की बात नहीं| उसकी आँखें अब अपने कष्ट को लेकर बेचैन नही, उसकी आँखें अब बचैन है वीणा से बिछुड़ जाने के डर से| मोह में व्यक्ति का मन ऐसे जकड़ जाता है कि जो है उससे बिछुड़ जाने का गम उसे खाने लगता है| आज बीमारी की चिन्ता उसे इसलिए है कि उसके फलस्वरुप वह वीणा से बिछुड़ सकता है| कुछ भी हो जाए उसे, पर कोई ऐसा साधन बन जाए कि विछोह न हो अपने प्रियजन से| ऐसे में उसने वीणा से पूछ लिया, "वीणा! कहीं फिर से कुछ हो गया मुझे, तो तुम्हारा क्या होगा?"
 
"ऐसा क्यों कहते हो, देव! तुम्हें कुछ नहीं होगा| अभी दर्द है उसकी चिन्ता है| वह ठीक हो जाएगा| तुम्हें और कुछ नहीं होगा|"
 
- वीणा के शब्दों ने उसे ढाढ़स बंधाया| लेकिन वह स्वयं को विचारों के भंवर में फंसा पा रही थी| सामने कष्ट देखकर, कष्ट के फलस्वरुप स्वयं को भयग्रस्त देखकर, अच्छे की कल्पना नहीं हो सकती|
 
"मै बहुत डर गया हूँ!" - देव ने अपने मन की बात प्रकट की|
 
"लेकिन इस डर से दूर भी तो नही भाग सकते!" - वीणा ने फिर उसे सहारा दिया|
 
"हाँ मैं जानता हूँ दूर नहीं भाग सकते, लेकिन क्या करुँ इसका सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा|" - देव ने फिर कहा|
 
"लेकिन इस शक को तो दूर करना है न? जरुरी तो नहीं कि टैस्ट पोजिटव ही हो|" - वीणा शायद इस शक के भंवर से जल्द बाहर निकलना चाहती थी| जो सच है उसी का सामना करना चाहती थी, न कि सच और झूट के भंवर में फँसे रहना चाहती थी|
 
"और यदि हुआ तो.....? इसी बात का डर तो मुझे खाए जा रहा है|" - देव के मस्तिष्क ने जैसे उसका साथ छोड़ दिया था|
 
"इस डर के साथ जीना भी तो ठीक नहीं| सच जो भी है सामने आएगा और उस सच के अनुसार ही तो आगे जीने की योजना बनाई जा सकती है| आज तो हम कुछ भी सोचने की स्थिति में नहीं|" - बात कितनी उचित कही थी वीणा ने, देव समझ गया उसकी बात|
 
"ठीक है तुम जैसा कहोगी, वही होगा आज के बाद|"
 
_ देव ने सारी जिम्मेदारी वीणा पर डाल दी और स्वयं को निरीह मान लिया| व्यक्ति जब सच का सामना नहीं करना चाहता तब वह सच हो जाने के बाद ही किसी के मुख से सुनना चाहता है| सच को देखने की, सहने की शक्ति चली जाती है, तब केवल निराशा ही निराशा नजर आती है|