वीणा एक नये परिवेश में पहुँच चुकी थी| सब कुछ उसके लिए बदला-सा लग रहा था| उसे लगा था हर एक चेहरा अजनबी, लेकिन मन में मीठी-सी तरंगे रह-रहकर उठ रही थीं - इस नएपन का एहसास उसे भीतर ही भीतर उकसा रहा था खुश-खुश रहने को| अजनबी चेहरो की छेड़छाड़ उसे गुदगुदा रही थी| इसलिए पीछे छोड़ आई माँ-बहनो की याद उसे दुःखी नहीं कर रही थी| मन ही मन उसे देव की माँ अपनी माँ जैसी लग रही थी, उसके भाई-बहन अपनों से अधिक अपने लग रहे थे| आज एक नये पदवी मिली थी उसे - किसी की पत्नी, किसी की बहू, किसी की भाभी कहलाने का स्वप्न साकार हुआ था उसका|