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नई सुबह
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नई सुबह (बत्तीस)
ISBN: 81-901611-13

 अरुण दिल्ली शहर के पहले दस रईसों में गिने जाने वाले सेठ उतम प्रकाश का सबसे छोटा बेटा था| चाँदी के पालने में पला| चाँदी की चम्मच से ही पहला-पहला अन्न का दाना उसके मुँह में डाला गया| दादी का दुलारा था| माँ की आँख का तारा था| माँ थी सब ओर से घिरी हुई| नौकर-चाकरों की भीड़ का नियन्ञण, घर में आने वाले हर मेहमान की सेवा का ध्यान और उस पर पाँच बेटे और एक बेटी का शोर-शाराबा| सबकी उम्र में डेढ़ साल, दो साल का अन्तर था| अरुण यदि छः महीने का था तो सबसे बड़ा बेटा अशोक था बारह वर्ष का| ऐसी फौज जिसके जनरल हो बाहर वर्ष के और जिसका छोटा सिपाही हो छः महीने का, जब कही किसी जगह धावा बोलती हो तो सोच सकते है कि कितना कुछ बचा रह सकता है वहाँ! लेकिन इस फौज को कोई भी अनुशासन नही सिखा पाया, क्योंकि उनके सिर पर वरद हस्त था दादी माँ का| और दादी माँ की कड़क आवाज सुनकर घर में एकदम सन्नाटा छा जाता था| पर बच्चों की आवाजें दादी माँ के कानों में शहद घोलती थीं|

 
लेकिन जिम्मेदारी तो किसी न किसी को बाँटनी थी बच्चो की देखभाल की| निश्चय हुआ कि किसी पड़ी-लिखी औरत को रखा जाए| लेकिन शर्त थी कि वह अच्छे घराने की हो| पड़ी-लिखी हो| तलाश शुरु हुई और जल्दी ही किसी ने सुझा दिया नाम चाँदनी चौक में रह रही रामप्यारी का| रामप्यारी विधवा हो गई थी| साथ रहती थी उसकी सोलह वर्ष की बेटी| एक कमरे का घर| पति जायदाद के नाम पर फूटी कौड़ी भी छोड़ कर नही गया था| कौड़ियाँ खेलते-खेलते उसने सब कुछ कौड़ी के दाम बेच दिया था मरने से पहले!
 
माँ-बेटी को खाने के लाने पड़े थे| ऐसे में एक खानदानी रईस परिवार के बीच रहने का अवसर मिला| रामप्यारी को नौकरी जँच गई| वहीं रहने की जगह मिल जाएगी| बेटी के लिए भी सुरक्षित जगह लगी|
 
माँ-बेटी पहुँच गई सेठ उतम प्रकाश की हवेली में| सेठ जी को तो पता भी नही था कि नौकरों की गिनती में एक नहीं, दो की बढ़ोतरी हो गई है| क्योंकि दादी माँ ने जब रामप्यारी के साथ उसकी बेटी चाँदनी को देखा तो उसे उसी समय बच्चों की बड़ी दीदी का रुतबा दे दिया| चाँदनी तो उन बच्चों के सामने परी-सी दिखती थी| उतम प्रकाश के बच्चो ने रंग और रुप अपनी माँ से पाया था, जो कि घूंघट में रहने के काबिल ही था| लेकिन खानदानी परम्परा, खानदान का रुतबा ही देखा जाता था उसे समय और ऐसे में रुप रंग के आगे दूल्हे की नहीं चलती थी|
 
चाँदनी की खूबसूरती के चर्चे पूरी हवेली में थे| उतम प्रकाश, जो हर शाम कहीं किसी रंगीन महफिल में बिता कर रात लौटते थे, इस खबर से अछूते न रह सके| बच्चे छः हो गए तो क्या, उम्र तो अभी तीस पार हुई थी! असली जवानी तो इसी इम्र में चढ़ती है!
 
इतनी कहानी सुनाई अरुण ने| चेहरे पर उसके नफरत के भाव आ चुके थे| पिता से बहुत नफरत करता था वह| इतना कह चुकने के बाद अरुण ने अपने पिता उतम प्रकाश को 'कुतम प्रकाश, कहना शुरु कर दिया| अमित को यह सम्बोधन अच्छा नही लगा| टोक दिया उसने अरुण को, "ऐसा न कहिए! आखिर वह आपके पिता है|"
 
लेकिन अरुण के मन में तो मन भर जहर भरा था| बोला, "क्या कहते हो तुम न कहूँ? 'कुतम' को उतम कहूँ? उतम शब्द का अपमान होगा, भाई! उतम तो रखा था दादी ने अपने लाडले का नाम| उतम ही था पहले| लेकिन जब तक रामप्यारी और चाँदनी, ये दोनों रण्डियाँ हमारे घर नही आई थी| इन दोनों के आने पर उतम तो कुतम बन गया|"
 
"दोनों की दोनों.......? - अमित के मुँह से निकला|
 
"अरे! उतम फिर भी उतम रह जाता, यदि वह सिर्फ रामप्यारी को अपनी एयाशी में एक और मोहरे की तरह इस्तेमाल करता और मसल कर फेंक देता! ऐसा तो वह रोज करता था| उसने राम्प्यारी को पहले तो भ्रष्ट किया फिर उसको जायदाद का लालच देकर उसकी बेटी को, उसी के इशारे से अपना हम-बिस्तर बनाया! मेरी माँ से रानी का खिताब छीन लिया| घर की तिजोरी की चाबियाँ कब दादी माँ से छीनकर चाँदनी की साड़ी में लटक गई, कानों ही कानों किसी को खबर न लगी! मेरी माँ के कमरे में जबरदस्ती अपने एक वफादार कुते को भेज दिया, जब वह कपड़े बदल रही थी| उसने माँ के साथ बदतमीजी करने की कोशिश की तो माँ ने शोर मचाया| पर परिणाम उलटा हुआ| माँ को ही कुल्टा कहा कुतम ने| पूरे शहर में बदनाम कर दिया| दादी इसी गम में चली गई और माँ को घर छोड़ना पड़ा| कुछ दिन तो उसके भाईयों ने सहारा दिया और फिर अकेली छोड़ दिया कानून की लड़ाई लड़ने को| ऐसे में वह क्या करती? छोटी-सी बस्ती में किराये का कमरा लेकर रहती रही|" - अरुण के चहरे पर तनाव था| दर्द था| लेकिन दर्द इतना अधिक था कि आँसू भी घबराते थेआँखों से उतर आने को|
 
"पर आप लोग तो अपने पिता के पास रहे?" अमित ने कहा|
 
"हाँ, हमें तो यही कहा गया था कि तुम्हारी माँ कुल्टा थी| भाग गई किसी के साथ| बड़े भाई को तो फिर भी कुछ-कुछ मालूम था| लेकिन इतना बड़ा तो वह भी नहीं था कि सारी बात समझ सकता| माँ से तो हम लगभग चौदह वर्ष बाद मिल पाए थे| वह घर छोड़कर जब गई थी तब मैं तीन वर्ष का था| जब दुबारा मिली तो मैं सतरह वर्ष का| मैं तो चाँदनी को ही अपनी माँ समझता था| मेरे मन में तो माँ से, पुञ जैसी भावनाएँ नहीं थी| वह तो मुझे थोड़ा-बहुत तब पता लगा, जब कालेज में एक दिन मेरे ही एक साथी ने मुझे यूँ ही बात में बात निकलते हुए सरसरी तौर पर जिक्र कर दिया मेरे पिता और माँ से सम्बधित केस का| उसके पिता मेरी माँ के वकील थे| सारी कहानी वह मुझे बताता चला गया जो उसे अपने माता-पिता के बीच हुई बातचीत से मालूम हुई थी| हाँ, उसे यह मालूम नही था कि जिसकी कहानी वह सुना रहा है, उनसे मेरा क्या सम्बन्ध है|"
 
"माँ का थोड़ा-बहुत पक्ष सुनकर मैं सकते में आ गया| रात भर सो न सका| घर में तब मेरा कोई भी भाई नही था| सभी के सभी दिल्ली के बाहर नौकरी करते थे| सबसे बड़े तो फौज में थे| दो यहाँ अमेरीका में आ गए थे और बहन की भी शादी हो गई थी| और जिन्हें मैं अपना छोटा भाई समझता था, वे दो थे और दोनों के दोनों दून स्कूल के होस्टल में रहते थे|" सब मन्ञमुग्ध होकर अरुण की कहानी सुन रहे थे| बिल्कुल फिल्मी कहानी थी यह| केवल वीणा अन्दर-बाहर आ जा रही थी| उसने तो न जाने कितनी बार यह कहानी सुनी होगी| अब तक तो उसे रट गई थी यह| इसीलिए इस कहानी को सुनने के लिए वह आतुर नहीं दिखती थी|
 
अरुण था कि जैसे चालीस वर्ष पीछे लौट गया हो| चाय पर चाय पीए जा रहा था और बोलता जा रहा था "रात को मै ही घा पर अकेला था| कुतम और चाँदनी कहीं पार्टी में गए थे और राम्प्यारी दारु के तीन-चार पैग लगाकर अपने कमरे में पड़ी थी| कोई न कोई नौकर जरुर होता था उसके साथ| कुतम की अलमारी में जा कर मैंने कुछ फाइलों को टटोला| मुझे दो-तीन फाईलें बड़े काम की लगी| उन्हें उठाकर मैं अपने कमरे में ले आया| रात भर पढ़ता रहा| एक फाईल थी मेरी माँ और कुतम के केस की| एक फाईल थी मेरी दादी के वसीयतनामें की जिसमें वह अपनी सारी जायदाद व बैंक बैलेंस हम सब भाईयों के नाम कर गई थी और एक फाइल में मेरी माँ के लिखे कुछ पञ थे जिन्हें कुतम ने सहेज रख छोड़ा था| शायद अपने पर्ति मेरे विश्वास को तोड़ने के लिए! रात भर मै सो न सका|" कुछ पल रुक कर वह बोला "डर नाम की चीज मुझे जन्म से नही मिली थी| लेकिन यह निडरता इसीलिए थी क्योंकि मैं स्वयं को एक कवचधारी मानता था| अमीर बाप का बेटा, जो हर दम नौकरों के साये में हो, एक चौकीदार जिसके साथ हो और पैसों की एक मोटी गड्डी जिसके पास रहती हो| मैं यहाँ एक बात बता दूँ चाँदनी मुझे प्यार करती थी, मुझे लाड करती थी, मैं जो माँगता था देती थी| अब लगता है मुझे कमजोर बनाकर, अपना गुलाम बनाकर रख छोड़ना चाहती थी ताकि मैं स्वयं कुछ न कर सकूँ| मै उसके हुक्म का गुलाम रहूँ और उसके इशारे पर नाचता रहूँ" - चाय का एक लम्बा घूँट भरकर वह फिर बोलने लगा, "उसी निडरता में मैं सुबह नाश्ते की टेबल पर वह तीनों फाइलें लेकर पहुँच गया| आज तक कुतम ने मेरा ऐसा रुप नही देखा था|"
 
"यह कैसी फाइलें हैं, बाबूजी?" मैं कुतम को बाबूजी कहता था|
 
मेरे हाथ में फाइलें देखकर कुतम ने सहजता से कहा "यह तुमें कहाँ मिलीं? काम की चीजें हैं बेटा, किसी केस से सम्बन्धित होंगी| जहाँ पड़ी थी, वहीं रख दो|"
 
"लेकिन ये तो हमारे घर की फाइलें हैं|" चौक पड़ा एकदम कुतम उठकर आगे बढ़कर एकदम मेरे हाथ से लेकर जल्दी-जल्दी पन्ने पलटने लगा|
 
"यह तो मेरी अलमारी में पड़ी थीं! किसने निकाली." रोष था उसकी आवाज में|
 
"मैंने निकाली और सारी पढ लीं। मैं रात भर नहीं सो सका। मुझे तो पता नहीं था, जिसे मैं मां समझता हूं, वह रण्डी है, उसकी मां रण्डी है और मेरी मां कहीं भीख मांग रही होगी। न्याय की भीख!" - शायद उसके आगे मैं कुछ न बोल पाया। कुतम ने दोनों हाथों से मेरे चेहरे पर तडातड थप्पड मारने शुरु कर दिये।
 
"बस फिर क्या था, मेरी आंखों से पर्दा उठ गया। वह चादंनी मेरे लिए डायन बन गई। वही जो मुझे दुलार करती थी। मुझे गन्दी नाली का कीडा कहने लगी। कुतम का खून था मैं, लेकिन उसने कभी रोका नहीं उसे और आखिर एक दिन मैं अस्पताल जा पहुंचा। मेरे दूध में शायद कुछ मिला दिया था किसी नौकर ने। लेकिन मुझे बचना था, मैं बच गया। मेरी मां को मालूम पडा वह अस्पताल आई। मेरे पास घंटों बैठी रहती और मेरी सेवा करती रहती। सारी कहानी स्पष्ट हो गई मुझे। मैं उसके बाद कभी भी कुतम से नही मिला। हां उसके हर जन्मदिन पर उसे एक पत्र जरुर लिखता हूं। खूब गालिया लिखता हूं। मन की हर भडास निकालता हूं और कुतम मुझे कभी जवाब नही देता। मां ने मुझे कनाडा भिजवाया ताकि फिर कोई मुझे ना मार सके। मेरे सब भाईयों को मैंने सारी सच्चाई से अवगत कराया। लेकिन कोई भी अपने बाप के खिलाफ जाने को तैयार नही था। हां, अब सभी रोते है, क्योंकि कुतम ने दादी की सारी जायदाद भी अपने नाम करवा कर बेच दी। दादी का वसीयतनामा कैसे नया बन गया जिसमें हमें और हमारी मां को ही हरामी करार कर दिया गया? ऐसे में बोलो, मैं कैसे 'कुतम' को उतम कहूं? कैसे मैं उससे युद्ध न करुं?" अरुण ने अपनी कहानी पूरी की।
 
"कमाल है जीजाजी। आप उतम को कुतम कहें या और भी कुछ! लेकिन यहां बैठकर उसे गाली निकाल कर, उससे युद्ध के लिए आतुर आप कुछ भी नहीं कर सकते। युद्ध करना है तो चलिए इण्डिया।" - अमित ने सहानुभूति भरे शब्दों से कहा।
 
"इण्डिया मैं आउँगा, जरुर आउँगा! हर बार तुम लोगों से कहता हूँ किसी वकील से बात करो, उसे मेरा केस बताओ| जो मेरी माँ का वकील था उससे मिलो| न जाने कितनी बार प्रेम से बोला मै| हर बार यही कहा, अगली छुट्टी पर जरुर पता लगाउँगा| अब तुम्हें फिर बता रहा हूँ| पता लगाकर बताना| मैं तुरन्त आ जाउँगा|" अरुण ने अपनी बात अमित पर डाल दी|
 
उसे मालूम था कि वह नही आएगा कभी| हमेशा से वह कभी उसे, कभी प्रेम से कानून की लडाई की बात करता है, लेकिन उस लडाई को लडने का दम नही उसमें| बोला अमित - "पता लगा कर क्या होगा? आप का केस बहुत सरल है दिखने में| लेकिन है बहुत पेचीदा| पैत्रक सम्पति का केस है, जिसे आपका बाप अपनी दूसरी पत्नी की औलाद को दिये जा रहा है| उसके लिए आपको सारे सबूत जुटाने होगें| सबसे मिलना होगा और उस पर इन्तजार करना होगा आपको| तीस-चालीस साल से आप छटपटा रहे हैं| और अब आपको सुध आई है जब आप साठ वर्ष के हो चले हैं| कभी सोचा है आपने कि आपके पिता की उम्र अब कितनी होगी? नब्बे साल से उपर! वह है भी या नही इतना भी आपको नही मालूम| और होगें भी तो पूरे निष्क्रिय| अब तक क्या बचा होगा आपके पूर्वजों का उनके पास? सोचिए जरा! जो चाँदनी के बच्चे है उनकी उम्र भी पैंतालीस-पचास के लगभग होगी| इतनी चालाक औरत ने क्या छोडा होगा आपका पुराना कुछ? सब बदल लिया होगा| आप यहाँ परदेश में बीन बजा रहे है अपने खानदान की, अपनी रियासत की और वहाँ उस पेड की एक भी टहनी बची नहीं होगी|" अमित की आवाज में रोष था, "अब किस का रोना हैं। मैं वकील नही हूँ| पर फिर भी कह सकता हूँ कि यह गुत्थी नहीं रही| उस गुत्थी की कब्र मात्र है, जिसका आप रोना रोते है| अब काहे का रोना? अब काहे का तरसना? यह आपके जन्म में तो नही हो सकता, यदि कुछ सबूत हों भी तो आपके पास|"
 
बस फिर क्या था, अरुण यह सुनकर सन्न हो गया| प्रिया भी चुप हो गई और वीणा की आँखों में आँसू भर आए| अमित ने आज, आज पहली बार किसी ने, अरुण के बीते कल को झकझोर दिया है| अरुण को किसी ने नींद से जगाया है| अरुण जो कल में, बीते कल में जीता था, एकाएक उठा और भीतर चल गया| अमित से क्या, वीणा से क्या, शाम घर लौटे बच्चों से भी नहीं बोला|
 
तीसरा दिन सभी का बहुत भारी था|
 
जो कल हुआ उसे अगले सुबह किसी ने भी नही दोहराया| अरुण के चेहरे पर चुप्पी थी| वीणा बिल्कुल नार्मल थी| अमित व प्रिया भी अरुण को चुप देखकर चुपचाप चोर नजरों से अरुण के चेहरे के भावों को पढने की चेष्टा कर रहे थे| नाश्ते की मेज पर भी कोई बात नही हुई| ऐसे शान्त वातावरण का अमित आदी नही था| चुप्पी उसी ने तोडी|
 
"लगता है, जीजाजी! मेरी बातें आपको बहुत बुरी लगी?"
 
"बुरी लगी? ऐसी धारणा क्यों बना ली तुमने? हो सकता है तुम्हारी बात ने मुझे कुछ सोचने पर विवश कर दिया हो! तुम्हारे आखिर के शब्द मेरे कानों में अभी तक गँजू रहे है| वास्तव में बहुत समय बीत गया है| लेकिन कहते है, हिम्मत नहीं हारनी चाहिए| और क्या कहते हैं, 'देर आए, दुरुस्त आए|' आज भी मुझे यह मुहावरा याद है| क्या एक कोशिश भी नहीं की जा सकती?"
 
अरुण दिल पर से बोझ उतरता महसूस हुआ अमित को| शब्दों को सावधानी से चुन-चुन कर वह बोला, "क्यों नहीं की जा सकती कोशिश? आप एक काम कीजिए, अपने केस से सम्बधित जो कुछ भी कागज आपके पास है, वह मुझे दे दीजिए| अभी हम दो दिन और है यहाँ| आराम से बैठ कर अपने केस के लिए जो भी जरुरी तथ्य है, उन्हें सिलसिलेवार लिख दीजिए| मै दिल्ली जाकर अपने किसी वकील मित्र से सलाह करुँगा|"
 
"इतनी जल्दी तो कुछ नहीं लिखकर दे सकता| हाँ, ऐसा करते है मैं जितनी जल्दी हो सकेगा तुम्हें सब लिखकर भेज दूँगा| ई-मेल कर दूँगा| और जो कुछ कागजात मेरे पास है या कुछ चिट्ठियाँ अमेरिका में मेरे दो भाईयों के पास है, वे भी मैं उनसे मँगवाकर तुम्हें भिजवा दूँगा| हाँ, इण्डिया में तुम्हे मेरे शेष दो भाईयों से मिलकर बात करनी होगी|" - अमित की बात सुनकर अरुण फिर से उत्साहित हो चला था|
 
अमित ने सावधानी से उतर दिया "देखिए, जीजाजी! अभी पहला कदम तो उठाईए| जब वकील से बात होगी, तब पहले आपको आना होगा और उसके बाद अगर जरुरत होगी तो आपके भाईयों से मिल लेंगे| अभी आप केस सम्बन्धित सभी कागजात तैयार कीजिए|"
 
अमित की बात सुनकर अरुण एकाएक खुश हो गया| उम्र साठ हो चली थी, बल्कि उससे भी एक-आध वर्ष ज्यादा और भावनाएँ बिल्कुल बच्चों की तरह थीं| सपनों की दुनियाँ में रहा है न वह सदैव! सपने लेने ही उसे अच्छे लगते रहे है| तभी तो हमेशा उँची-उँची आगे की बातें करता है| केस जीत गया तो जायदाद बेच कर देहरादून में एक एस्टेट लूँगा| चाय का बाग लूँगा| वह तो अमित ने वहीं उसे रोक दिया था कि चाय के बाग अब देहरादून में नहीं रहे! वरना तो वह अमित को चाय के बाग को संभालने के लिए मैनेजर भी ढूँढने को कह देता!
 
इस छोटी-सी बात से एक फायदा हो गया| घर का वातावरण नार्मल हो गया| और अरुण स्वयं ही अमित का अगले दो दिनों का प्रोग्राम बनाने में व्यस्त हो गया|
 
"चलो ऐसा करते हैं| तुम्हें भी अच्छा लगेगा| हम बडी वैन किराये पर लेते है| तुम्हें वापिसी में टोरोंटो होते हुए नियाग्रा फाल्स तक जाना है और वहाँ से तुम यु. एस. बार्डर पार करके बस लेकर न्यूयार्क जाओगे| हम सभी नियाग्रा फाल्स तक तुम्हारे साथ चलेंगे| इसी बहाने हमारे बच्चों की भी आउटिंग हो जाएगी| अभी तक उन्होंने भी नियाग्रा फाल्स नहीं देखा| एक रात हम सभी टोरोंटो रुककर सारा शहर भी घूम सकते हैं|"
 
यह क्या! अरुण ने तो एकदम बढिया प्रोग्राम बना दिया| कहाँ तो वह नौ लोगों को डिनर करवाने में कतरा रहा था और कहाँ वह आठ सौ मील का सफर तय कर सबके साथ पूरी मस्ती लेना चाहता था!
 
"आज मन से बहुत प्रसन्न हैं, आप लगता है?" वीणा ने कहा| वह तो खुश हो गई थी| प्रिया के दो दिन अधिक साथ का सुनकर|
 
"हाँ, मुझे लगा, कोई अपना है अब इण्डिया में!" और आगे बढकर उसने अमित को गले लगा लिया| वातावरण भावुक हो गया| सबकी आँखों मे आँसू आ गए|
 
अगला दिन बहुत खुशी से बीता| और उससे आगे के दो दिन तो पूरी मस्ती में बीते| पहले सभी टोरोंटो घूमे| फिर वहाँ से नियाग्रा फाल्स| खूबसूरती ही थी चारों ओर| इतना खूबसूरत शहर, इतना खूबसूरत सफर कभी नही करने को मिला था| लुभावने द्रश्य, सुन्दर मीलों लम्बी सडकें, नीले पानी की झीले, शहर में गगनचुबी इमारते और नियाग्रा फाल्स का द्रश्य जैसे स्वर्ग लोक की कल्पना-सा प्रतीत हो रहा था| और उस पर अरुण व वीणा का साथ| बच्चों को बच्चो का साथ|
 
दो रातें साथ बीतीं और आखिर बिछुडने का समय आ गया| सुबह नौ बजे बस ने चलना था, न्यूयार्क के लिए| एक घंटा पहले सभी होटल छोड कर आ गए थे, बस-स्टैंड पर| आँसू थे कि थम नही रहे थे| बहनें बार-बार गले लगतीं| बच्चे बार-बार रोने लगते| अमित व अरुण चाह कर भी अपने आँसू नहीं रोक पा रहे थे| आखिर नौ बज गए|
 
विदा होने के लिए बस की ओर पहले बच्चे बढे| कनाडा मूल के लोग वहाँ ऐसा द्रश्य देखकर भाव विहवल थे| दो बहनों की जुदाई! दोनों रोए जा रही थी| बच्चे भी रो रहे थे| और एक-दो बूढी औरते भी, जो साथ सफर करने वाली थी अपने आँसू न रोक पाईं| प्यार से वीणा व प्रिया को चुप कराने लगी थी वह|
 
बस चल पडी| आँसुओं का प्रवाह न थम पाया| वीणा व अरुण अपने बच्चों के साथ वहीं रह गए और प्रिया व अमित अपने बच्चों के साथ बस में बैठकर आगे की ओर बढ गए|
 
ना जाने कब मिलन हो इनका फिर!