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नई सुबह
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नई सुबह ( उन्नीस)
ISBN: 81-901611-13

 रजनी की शादी थी आज| देव-वीणा नहीं आए| हाँ, देव ने जिदद् करके अमित को माँ के साथ भेज दिया था| अमित और माँ को अकेले आए देखकर निर्मला के आँखों की चमक दूर हो गई| लेकिन शादी के वातावरण को बोझिल न होने देने की सोचकर वह क्रष्णा से गले मिली| प्यार से उसे बिठाया और धीमे से बोली - "बहन जी, वीणा को भी साथ ले आते तो कितना अच्छा होता....|"

 
क्रष्णा जैसे तैयार थी, बोली, "मैने तो बहुत कहा| देव ने भी जोर दिया, लेकिन वह तो न जाने किस मिट्टी की बनी है, अपने निर्णय से टलती नहीं| 'यही बोली, देव के बिना कहीं नहीं जाउँगी| रजनी शादी के बाद मुझे दिल्ली मिलकर ही जाएगी|"
 
इतना ही सुनकर निर्मला की आँखें भर आई, रुक न सकी अविरल धारा और बोली, "कितने अरमानों से ब्याह किया था, बहन जी, हमने| क्या मुसीबत लिखी थी हमारी बेटी के भाग्य में...|"
 
तब क्रष्णा ने अपनी कही, "हमने भी नहीं सोचा था, बहन जी, कि ऐसा भी हो सकता है| मेरा जवान बेटा शादी के बाद कुछ दिन ही खुशी मना सका|"
 
क्रष्णा की बात सुनकर ठेस लगी निर्मला के मन को| समझदार थी, काबू पा लिया अपने भावों पर| लेकिन सुनीता जो वहीं आ चुकी थी रोक नहीं पाई क्रष्णा के शब्द सुनकर अपने आवेश को, बोली, "ऐसा क्यों कहती हैं, आँटी कि शादी के बाद कुछ हुआ? शादी से पहले क्या था देव को? आप लोगों ने हमें कुछ नहीं बताया| सब छिपा लिया| आज आप कह रहे हैं कि शादी के बाद देव बिस्तर पर पड़ गए| जैसे दोष उनका नहीं, उनकी गन्दी बीमारी का नहीं सिर्फ वीणा का है|" - आवेश में रोने लगी सुनीता, लेकिन चुप नहीं हुई - "मेरी प्यारी-सी बहन की तो जिन्दगी बरबाद हो गई| क्या सुख पाया उसने? क्या सुख दिया उसे देव ने? नर्स बनकर रह गई, नर्स| पैसे वाले थे आप लोग तो किसी नर्स को ही रख लेते, क्या पड़ी थी देव को ब्याहने की?" - सुनीता की बात सुनकर सब स्तब्ध रह गए| क्रष्णा व निर्मला, दोनों की आँखें नम हो आई|
 
सुनीता कुछ और भी बोलती कि प्रेम तेजी से भीतर आ गया| छोटा था, लेकिन रौब था पूरा सब पर| सुनीता के मुँह पर हाथ रखकर उसे चुप कराते हुए बोला, क्या बोले जा रही हो, दीदी! कुछ तो सोचो| घर मेहमानों से भरा है| सब क्या कहेंगे? और आँटी को कुछ कहने का तुम्हारा मतलब भी नही, मैं जानता हूँ उनका कोई दोष नहीं है|" - तब वह क्रष्णा के आमुख होकर, हाथ जोड़ता हुआ बोला "आँटी! मैं दीदी की तरफ से माफी माँगता हूँ| आप उनकी बातों को दिल से निकाल दें| वे आवेश में न जाने क्या-क्या बोल गईं|" - और यह कहकर वह क्रष्णा के पैरों पर झुक गया|
 
तब क्रष्णा प्रेम को गले लगाते हुए बोली, "मेरे मन में कुछ होता तो मैं यहाँ आती भला? दोष मेरा है या मेरे किसी और का, यह सोचने की शक्ति नहीं है मेरे पास| मेरी आँखों के सामने मेरा जवान बेटा तिल-तिल कर साँस ले रहा है, मैं कैसे सह रही हूँ इस गम को, यह मेरे मन से पूछो|" - वह रोने लगी थी - "मेरी बहू मेरे बेटे की सेवा कर रही है इसमें मेरी कोई जबरदस्ती तो नहीं| मैं उनके मंगल की तो कामना करती हूँ हर दम|"
 
तब तक निर्मला भी संभल चुकी थी, बोली "हमसे गलती हो गई बहनजी, जो यह बात चल निकली| अब आप सब भूल कर आराम कीजिए| शाम को शादी है| मेरी आपसे प्रार्थना है आप प्रसन्न मन से रजनी को आशीर्वाद दीजिए|"
 
वातावरण बोझिल हुआ देकर अमित जड़ हो गया था| कुछ बोलते नही बन रहा था उससे| प्रेम ने भी महसूस किया और अमित से बोला, "और अमित! कैसे हो?"
 
"मैं ठीक हूँ बिल्कुल|" - मुस्कुराने की चेष्टा करते हुए बोला- "मेरे योग्य कुछ काम हो तो बताओ?"
 
"काम सब हो गया, आओ, तुम्हें अपने मिञों से मिलवाउँ|" - और उसकी बाँह थामे प्रेम कमरे से बाहर निकलते हुए निर्मला से बोला - "अम्मा जी, अब आप आँटी को रजनी के पास ले जाओ और इनके जलपान का प्रबन्ध करो|" - उसके शब्दों में मूक आदेश था प्यार भरा|
 
अमित की आँखें शादी की रौनक में प्रिया को खोज रही थी| प्रतीक्षा अधिक न करनी पड़ी उसे| प्रिया दिख गई उसे| अपनी एक सखी के साथ खड़ी थी| अमित की ओर देखकर वह मुस्कुराई| अमित के कदम स्वतः उसकी ओर बढ़ गए|
 
"हैलो प्रिया कैसी हो?" - अमित ने मुस्कुराते हुए कहा|
 
वह भी मुस्कुराती हुई देखने लगी उसकी ओर|
 
"मै अच्छी हूँ| आप कैसे हैं?"
 
तब प्रिया ने उसका परिचय अपनी सखी से करवाया| सुलोचना था नाम उसका| फिर अमित से पूछा उसने - "वीणा दीदी कैसी हैं? आप उन्हें भी ले आते?"
 
अमित का स्वर दब गया - "मैने तो कहा था उनसे, लेकिन...|" बात अधूरी ही छोड़ दी उसने|
 
"और देव जीजा जी...|" - तब प्रिया ने बात समझकर आगे बढ़ाई|
 
"बस, उन्ही की चिन्ता है...|"
 
"बहुत मन है, उन्हें देखने का...|"
 
"अगर कालेज से छुट्टी हो तो मेरे साथ चलना... मिल लेना उनसे, दीदी से...|" - अमित ने उसे निमन्ञण दिया|
 
तभी किसी ने सुलोचना को पुकारा| वह उनके निकट से हट गई. दोनों अकेले रह गए|
 
"मम्मी नहीं जाने देंगी अभी|" - प्रिया उदास-सी होती दिखाई दी अमित को|
 
अमित समझा, बात का रुख बदला उसने - "भाभी बहुत तारीफ करती है आपकी|"
 
"अच्छा| मुझे प्यार भी सबसे अधिक करती हैं|" - प्रिया भी मुस्कुराई, साथ ही बोली - "वैसे आपकी बातें हर पञ में जरुर लिखती हैं| बहुत प्रभावित हैं आपसे|"
 
"अच्छा, मुझे तो कभी नहीं बताया!" अपनी प्रशंसा से प्रसन्न हुआ अमित|
 
कुछ और बातें की उन्होंने और अवसर पाकर अमित ने कहा प्रिया से, "मैं आपके लिए एक चीज लाया हूँ पर्सनल|"
 
"मेरे लिए - मेरे लिए क्यों?" - आश्चर्य चकित हुई प्रिया। लेकिन मन ही मन प्रसन्न हो उठी|
 
"क्योंकि वह और किसी को नहीं दे सकता...|" इतना कह कर अमित के कान लाल हो गए थे|
 
"ऐसा भी क्या है, देखूँ जरा!" - कौतूहलवश पूछा प्रिया ने|
 
कोई चीज नही है, कुछ और है| चन्द कागज के टुकडें।" - पहेली बुझाई अमित ने| पहली मुलाकात में इतनी जल्दी खुलने से डर भी रहा था वह|
 
"कागज के टुकड़े? उन पर कुछ तो होगा!" - प्रिया बिल्कुल भोलेपन से पूछ रही थी|
 
"कल सुबह दे दूँगा| आराम से देख लेना| काफी समय लगेगा समझने में|" - अमित मुस्कुरा रहा था|
 
"ऐसा भी क्या है? अभी दिखाईए|" - प्रिया की जिग्यासा भी बढ़ गई थी| कुछ समझ रही थी| कुछ समझने की चेष्टा कर रही थी| मन ही मन खुश भी हो रही थी|
 
"जरुर दूँगा| हाँ, एक वायदा करना होगा - अच्छा न लगे तो चुपचाप फेंक देना| किसी को बताना नही|"
 
"वायदा तो मैकरुँगी नहीं क्योंकि मैं कोई बात किसी से छिपाती नहीं" - प्रिया तो मुस्कुरा रही थी - "आपने मेरे जन्म दिन पर बधाई सन्देश भेजा था, मैने तो सब को पढ़ाया - और हाँ - "जैसे उसे याद आया - "उसका शुक्रिया| वह मैने संभाल कर रखा है अभी तक|"
 
"अच्छा...|" अमित यही सुनना चाहता था - "बस फिर आशा है आप उसे भी संभाल कर रखेंगी।" - फिर स्वयं ही आश्वस्त होकर बोला - "चाहो बता देना सबको|" - बात इतनी ही कर पाये वह| प्रिया रजनी के पास चली गई और अमित एक कुर्सी पर बैठकर मुस्कुराता हुआ कुछ सोचने लगा|
 
अभी थोड़ी ही देर बीती थी कि सुलोचना आ गई अमित के पास| एकाएक अमित को विश्वास नहीं हुआ उसकी बात सुनकर, बोली वह - "सुना है आप प्रिया के लिए कोई उपहार लाए हैं?"
 
अमित सकपका गया एकाएक| बोला - "मैं...| आपको... किसने कह दिया ऐसा?"
 
समझा अमित की खिंचाई शुरु हो गई| बोला - "मैं तो मजाक कर रहा था|"
 
"अच्छा... आप मजाक बहुत बढ़िया तरीके से करते हैं|" - सुलोचना भी तैयार थी| अमित ने देखा इधर-उधर, कोई नही सुन रहा था उनकी बातें|
 
"मजाक ही तो कर रहा था - देख रहा था कि प्रिया कितना संजीदा होकर लेती है मजाक को|" - अमित ने मुस्कुराते हुए कहा|
 
"अच्छा| - आपने मजाक में ही उसे जन्मदिन पर कार्ड भेजा था और अब मजाक में ही उपहार दे रहे है|" - सुलोचना ने कहा|
 
तब अमित ने बात बदलने की चेष्टा की - "लेकिन कमाल की है प्रिया| एक मिनट में पूरी रिपोर्ट दे दी आपको|"
 
"अरे! आप क्या समझते हैं. - हम सुबह से शाम तक साथ-साथ रहते हैं|"
 
तब अमित ने हथियार डाल दिये| बोला, "दर-असल मैं देखना चाह रहा था| आपके हाव-भाव को समझना चाह रहा था. आप तो बड़ी खुशदिल हैं..."
 
"अब आप मुझ पर डोरे न डालिए... एक बहुत है|"
 
- एक कौन...?" - वह फिर अन्जान बना|
 
"लो अब मुझे खींचने लगे...| एक बात ध्यान रखिए, मेरी इजाजत के बिना आपकी दाल नही गल सकती|" - सुलोचना ने कहा|
 
अमित समझ गया, वह अच्छी लड़की है - मन की साफ| जैसी प्रिया की कल्पना की थी उसने, बिल्कुल वैसी ही| तब बोला वह उसे धीरे से - "उपहार कुछ नही, बस मै अपनी भावनाएँ समेट कर लाया हूँ|"
 
सुलोचना भी उसी टोन में बोली - "कैसी भावनाएँ?"
 
"तुम्हें दे दूँगा - पहुँचा देना उस तक" - अमित ने उतर दिया| बात इतनी ही हो पाई उनके बीच| मेहमान आने शुरु हो चुके थे| और तब सुलोचना उठकर भीतर चली गई|
 
 
 
अमित की डायरी के हर पन्ने पर नाम था प्रिया का|
 
प्रिया के नाम ढ़ेर-सी मीठी-मीठी, प्यारी कल्पनाओं का चिञण था| डायरी का हर शब्द प्रिया के लिए एक सुखद अनुभूति लिए था| ऐसा लग रहा था प्रिया को कि अमित खड़ा हो जैसे उसके आस-पास कहीं और पुकार रहा हो उसे| हर अक्षर प्रिया के लिए था| अब प्रिया को और कुछ याद नही था - बस, अमित-अमित! उसी का नाम, उसी की बातें उसी की कल्पना| माँ ने सुना, पहले सुनती तब अच्छा लगता| लेकिन अब वह डर गई|
 
. "नहीं-नहीं| पगली न बनो उसके लिए| एक बहन गई उस घर में, सब कुछ उलट गया| कितना बड़ा धोखा हुआ है। भूल सकती हो क्या वह सब?" - माँ के स्वर में आदेश था अमित को भूल जाने का|
 
"नहीं, मम्मी नही, उसमें अमित का क्या दोष?" - तब गीता ने प्रिया का साथ देते हुए कहा|
 
"उसका दोष कुछ नहीं बस, केवल इतना है कि वह देव का भाई है, उसी परिवार का है जहाँ हमारी बेटी दुःख भोग रही है|"
 
- माँ ने कहा|
 
"लेकिन अमित अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा| देव जीजा जी का दोष, उसके परिवार वालों का दोष उस पर मढ़ना अच्छा नहीं|" - गीता को प्रिया के लिए अमित मन से भा गया था| वह अपनी बहन की तरफदारी कर रही थी|
 
निर्मला ने तब आदेशात्मक स्वर में बात समाप्त करते हुए कहा - "मैं कुछ नही जानती, बस जो कह दिया उस पर अमल करो| उसे अपने मन से निकाल दो और अपनी पढ़ाई में ध्यान दो|"
 
प्रिया कुछ कहना चहती थी, लेकिन गीता ने इशारे से उसे चुप रहने को कहा|
 
निर्मला चली गई तब गीता बोली - "तुम चिन्ता न करो| माँ मान जाएगी क्योकि अमित अच्छा लड़का है|"
 
नहीं मानेगी माँ, देखती नहीं कितनी कडुवाहट है उनके मन में उसके परिवार वालों के प्रति|" - प्रिया भावुक हो चुकी थी|
 
वह अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन समय रहते सब ठीक हो जाएगा| तुम अमित को दो शब्द लिख तो दो|" प्रिया की भावनाओं की पूरी पकड़ थी गीता को| छोटी होते हुए भी उसकी परम-मिञ थी| जानती थी प्रिया बहुत भावुक है, भावनाओं के आवेश में कुछ भी कर सकती है| अमित जो कभी अजनबी था प्रिया के लिए, आज उसे अपना सबसे प्रिय लग रहा था| उसी को अपने मन की बात लिख सकती थी, ऐसा लग रहा था और लिखने बैठ गई|
 
अमित के नाम आये प्रिया के पञ को देखकर वीणा पलभर में सब समझ गई| एक नहीं, दो नहीं रोज-रोज पञ आने लगे| अमित भी लिखता होगा| मन में वह खुश हो गई| उसका मन कितना कोमल था! वीणा का ह्रदय कितना सरल था! मन में कोई गाँठ नहीं थी। जानती थी उसके परिवार वाले बहुत दुःखी थे, लेकिन उसे लगा था कितना व्यर्थ दुःख है उनका। उसे देव अच्छा लगता था, उसे अमित अपने भाई-सा प्रिय था, उसे अपने सभी ससुराल वाले अपने लगते थे| तभी जब उसने देखा अमित व प्रिया एक-दूसरे को चाहने लगे हैं तो वह बहुत खुश हुई| देव से बोली - "अमित-प्रिया की जोड़ी अच्छी रहेगी| मुझे बहुत सहारा रहेगा प्रिया का|"
 
देव तो चाहता था, पहले ही दिन से| लेकिन अब स्थिति बदली हुई महसूस हो रही थी| मन से जानता था वीणा के घरवाले रिश्ते को नहीं मानेंगे| इसीलिए अपनी राय देने से कतरा रहा था| चुप रहा वीणा की बात सुनकर, बस, मुस्कुरा भर दिया| तब वीणा ही बोली - "क्या मैं लिखूँ मम्मी को?"
 
"मम्मी नहीं मानेंगी, ऐसा मुझे लगता है|" - देव ने कहा| तब अपने दिल की बात|
 
"क्यों नहीं मानेंगी? अमित जैसा लड़का कहाँ मिलेगा? और फिर दोनों एक-दूसरे को अब चाहने भी लगे हैं| प्रिया के पञ अब लगभग रोज आते हैं अमित के नाम और अमित भी दिन-रात उसी को लिखता रहता है|" - वीणा ने इस रिश्ते को स्वीक्रति दे दी थी| सबसे उपर उसे अब अमित-प्रिया का साथ लग रहा था| इतना सब एक साथ वह कैसे कर लेती है, देव सोचकर आश्चर्यचकित था| एक ही घर में एक बहन उसके साथ दुःख भोग रही है और वही बहन अपनी छोटी बहन के लिए उसी घर में सुख देख रही थी|
 
"तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन जब रिश्ते की बात आएगी, सभी ना कर देंगे| सुना नहीं, सुनीता किस कदर नाराज है हम सबसे|" - देव ने कहा|
 
"सुनीता को समझाया जा सकता है| लेकिन मुझे अपने मम्मी-डैडी पर भरोसा है, वे मन में कोई वैर नहीं पाल सकते कभी किसी के लिए| यह ठीक है उन्हें मेरे प्रति बहुत दुःख है| तुम्हारी बीमारी की उन्हें चिन्ता है| लेकिन प्रिया और अमित के रिश्ते के लिए मेरी-तुम्हारी स्थिति को साथ नहीं मिलाएंगे। फिर अमित को मैंने देखा है, समझा है उसे| वे भी उसे अच्छी तरह जानते हैं| उसमें कोई कमी नहीं| प्रिया उसके साथ बहुत सुखी रहेगी|" - वीणा ने अपनी बात पर द्रढ़ रहते हुए कहा|
 
"ठीक है, तुम मम्मी को पञ लिख कर देख लो| मुझे तो वास्तव में बहुत अच्छा लगेगा|" - देव ने अपने मन की बात कह दी| मन में एक बात थी उसके कि वीणा को प्रिया का साथ मिल गया तो वह भी खुश रह पाएगी|
 
तब वीणा माँ को पञ लिखने बैठ गई|
 
निर्मला ने पढ़ा वीणा का पञ| अमित के प्रति वीणा की लिखी बातें पढ़कर उसे अमित पर प्यार आ रहा था, लेकिन कुछ निर्णय करते उसके मन में झिझक हो रही थी| जिस लड़की के लिए उसके मन में उसके ससुराल वालों के प्रति रोष था, वही उन्ही की प्रंशसा कर रही थी| पन्नालाल घर आए तो उनके सामने उसने वीणा का पञ रख दिया| पञ पढ़कर पन्नालाल ने निर्मला से पूछा - तुम्हारी क्या राय है?"
 
"मैं क्या कहूँ? मुझे ते यह लड़की पगला गई लगती है| अपने दुःख में न जाने क्या सुख खोज लिया है उसने कि...." - बात अधूरी रह गई| निर्मला को पन्नालाल ने रोक दिया - "उसके दुःख में सुख हमें नहीं - उसे भी नहीं, हाँ अपना दुःख वह किसी से बाँटना नही चाहती| अपने दुःख का दोष वह किसी को नहीं देती| और दुःख सुख में भेद भी जानती है, तभी तो अमित के लिए प्रंशसा करती है....|" - पन्नालाल के विचार शायद वीणा से मेल खाते थे| सहज भाव से अपनी बात कह गया वह|
 
"अमित मुझे भी अच्छा लगता है - प्रिया का मन भी उसी में है| लेकिन दुनियावाले हंसेंगे हम पर| सच को कौन जानेगा? सब यही कहेंगे न जाने किस लालच में एक को पहले ही आग में झोंक दिया, अब दूसरी को भी वहीं डाल रहे है|" - निर्मला ने अपनी बात कही|
 
"दुनियाँ वालो का क्या? दुनियाँ वाले खड़े तमाशा देखते है| कौन किसका कितना साथ देता है, सारी उम्र बीत गई यही देखते हुए|" - पन्नालाल ने अपनी बात कहीं| यानि उसे वीणा का प्रस्ताव मन्जूर था| बोले जा रहे थे, "पहले जो हुआ, देखे बिना जल्दी में कर दिया| हम नहीं जानते थे उनको| अब ये लड़का तो देखा-भाला है| इसे तो कोई बीमारे नही| पढ़ा-लिखा अपने पैरों पर खड़ा है| सच, कहो तो उसी के बूते पर वीणा की मुझे चिन्ता नहीं|... ऐसा लड़का तो नहीं मिलेगा| - फिर कहीं अखबार में छापेगे - कौन आएगा| नहीं पता| - बाकी तुम देख लो| पूछ लो सुनीता से पञ लिखकर|" - पन्नालाल ने सारी बात एक साथ कह दी|
 
"सुनीता की बात तो मुझसे हुई थी| उसे अमित से गिला नहीं, लेकिन उसके परिवार वालों के नाम से चिढ़ है...|" - निर्मला ने कहा|
 
"तब मेरी मानो तो हाँ कह दो| मुझे मन से अमित बहुत अच्छा लगता है|"
 
- पन्नालाल ने अमित के स्वभाव को कब परखा था, निर्मला नही जान सकी|
 
निर्मला की आँखें एकाएक नम हो आईं| बोली - "समझ नहीं आ रहा क्या करूँ? तुम बहुत निडर हो| कल कैसा होगा, कुछ नहीं पता...|" - वह आँसू बहाती रही| एक बार पन्नालाल ने उसकी ओर देखा और कहा - "मुझे इतना मालूम है कि मैंने जीवन में किसी का बुरा नही किया| ईश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है, वीणा को दुःख देकर| मेरा दिल पत्थर का नहीं| लेकिन मेरी बेटी के साथ जो हो रहा है, उसमें शायद मेरे कर्मो का कोई दोष हो या फिर उसके भाग्य में यही लिखा हो|... अब यदि दूसरी के लिए यही डर मन में पाल लेंगे तो शायद कही भी रिश्ता नही कर पाएगे| अब आगे तुम्हारी मर्जी|" पन्नालाल यह कहकर दूसरे कमरे में चले गये|