इन लहराती हवाओं की शोखियों में,
जो मेरी जुल्फों को मचलाती हैं,
तेरी यह मुस्कान क्यों है,
जो मेरे आँचल को शर्माती है।
तेरे उस एहसास में,
वो अपनापन-सा क्यों है ?
जो किसी के स्पर्श का ही
दस्तूर तो नहीं है।
ये तेज हवाएं तो इतनी
ह्दय-स्पर्शी तो न थी,
पागल तो इन्हें तुमने ही बनाया है,
इन घटाओं में इतनी
रूहानियत तो न थी,
इनको तो रूहानी
तुमने ही बनाया है।
ये नदियाँ तो इतनी न शर्माती थी,
क्यों इन्होंने लाज का
घूृँघट ओढ़ लिया है,
ये नदियाँ तो
इतनी चँचल पहले न थी,
आज क्यों छनछनाती हुई
दौड़ी जा रही हैं?
ये बरसातें तो पहले ही बहकाती थी,
आज खुद जो यूँ क्यों बहक रही हैं ?
पहले तो इनकी
मुझ से इतनी न बनती थी,
तो आज मुझे
इतना क्यों सजा रही हैं?
पहले तो मैं यूँ न शर्माती थी,
अब तो तुमसे इतना क्यों शर्माती हूँ,
स्तंभित-सी क्यों हो जाती हूँ ?
- शिवांगी महाराणा (उड़ीसा)