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नवीन कवि
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अपनापन
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इन लहराती हवाओं की शोखियों में,

जो मेरी जुल्फों को मचलाती हैं,

तेरी यह मुस्कान क्यों है,

जो मेरे आँचल को शर्माती है।

 

तेरे उस एहसास में,

वो अपनापन-सा क्यों है ?

जो किसी के स्पर्श का ही

दस्तूर तो नहीं है।

 

ये तेज हवाएं तो इतनी

ह्दय-स्पर्शी तो न थी,

पागल तो इन्हें तुमने ही बनाया है,

इन घटाओं में इतनी

रूहानियत तो न थी, 

इनको तो रूहानी

तुमने ही बनाया है।

 

ये नदियाँ तो इतनी न शर्माती थी,

क्यों इन्होंने लाज का

घूृँघट ओढ़ लिया है,

ये नदियाँ तो

इतनी चँचल पहले न थी,

आज क्यों छनछनाती हुई

दौड़ी जा रही हैं?

 

ये बरसातें तो पहले ही बहकाती थी,

आज खुद जो यूँ क्यों बहक रही हैं ?

पहले तो इनकी

मुझ से इतनी न बनती थी,

तो आज मुझे

इतना क्यों सजा रही हैं?

 

पहले तो मैं यूँ  न शर्माती थी,

अब तो तुमसे इतना क्यों शर्माती हूँ,

स्तंभित-सी क्यों हो जाती हूँ ? 

 

- शिवांगी महाराणा (उड़ीसा)