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नवीन कवि
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बेरंग बचपन
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जब बैठती हूँ अकेले में तो एक मंजर याद आता है,

वह मंजर ही था या ...........

सच ये समझ नहीं आता है।

अगर ये सच है ... तो शर्मसार है मानवता ,

है एक मानव और जानवर में भी फर्क ...

तो ये फर्क समझ नहीं आता है|


देखा था मैंने दो बच्चों को 

आपस में लड़ते हुए ,

इस मायूस जिन्दगी में अपनी 

हंसी से रंग भरते हुए |

न तो थे बदन पे कपड़े और 

न ही था सर पर किसी का हाथ ,

फिर भी चल पड़े थे इस अंजान 

दुनिया में एक- दूजे के साथ |

बच्चे तो होते है खुदा का रूप ... 

न होती है उनमे कोई खोट ,

उन्हें न पता था की ये जालिम दुनिया 

देगी उन्हें हर कदम पर एक चोट |

"क्यों गरीबी होती है इतना बड़ा अभिशाप ,

तो ये अभिशाप समझ नहीं आता है |"

है एक मानव और जानवर में भी फर्क ...

तो ये फर्क समझ नहीं आता है |


जिस उम्र में होने चाहिए थे उनके हाथों में खिलौने ,

फिर किसने छीन लिए उनके ये सुंदर सपने सलौने | 

कोई छोड़ देता है इन्हें मंदिरों की सिढियों पर , 

तो कोई फेंक देता है अपनी बदनसीबी समझकर |

"क्यों कोई समझता ही नही ये है इश्वर का ही अंश ,

ये सच समझ नहीं आता है |"


है एक मानव और जानवर में भी फर्क ...

तो ये फर्क समझ नहीं आता है |


चाहते है वो हमसे बस कुछ  

प्यारी सी मीठी सी पुचकारिया, 

बदले में फिर क्यों देते है हम 

उन्हें सिर्फ गालिया ही गालिया।

हर भाषण में एक नेता 

एक वक्ता ये कहता है ........

बाल मजदूरी है अपराध इसे रोको |

"फिर क्यों उन्ही के घरों में मिल जाते है 

अक्सर ये बदनसीब ,ये सच समझ नहीं आता है "

है एक मानव और जानवर में भी फर्क ...

तो ये फर्क समझ नहीं आता है।

              

आखिर क्यों ?  हम इस जिन्दगी में दोहरे रूप रखते है

एक पल देवता तो दूजे पल हैवान क्यों बनते है ?


"ऐसा भी होता है परिवर्तन तो यह परिवर्तन समझ नहीं आता है |"

 

है एक मानव और जानवर में भी फर्क ...

तो ये फर्क समझ नहीं आता है |


"ये भी है किसी बगिया की कालिया 

                 इन्हें फूल बन्ने से पहले मत तोड़ो ,

यही है हमारे देश का भविष्य 

                 इन्हें अंधकार में तो मत धकेलो|"


- अर्चना चतुर्वेदी (दिल्ली)