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नवीन कवि
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पुकार
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शांत नहीं हूँ मैं,
अरे सुनते क्यों नहीं तुम ?
ध्यान से तो सुनो,
पक्षियों का चहचहाना,
हवाओं का सरसराना भी तो है ?

अरे, दूर देखो भी कोई वहाँ,
वे बुजुर्ग आपस में कुछ 
बतिया भी तो रहे हैं,
अँगना को बुहारती उस,
धरा-लक्ष्मी की सरसराहट भी तो है ?

मानती हूँ प्रकाश-तरंगों की,
आवाजें नहीं होतीं,
पर सुनो, जरा कानों से नहीं,
जरा अपने दिल से ही,
क्या ये सूर्य की किरणें कुछ
कहती-सी प्रतीत नहीं होतीं ?

कहने तो सभी बहुत ही कुछ हैं, 
पर क्या मेरी आवाजें भी तुम्हें,
सुनाई तक नहीं देती,
भ्रम में थी कि शायद ही
किसी के श्रुतिपट के अंत:स्थल तक,
इन चीत्कारों का भेदन हो ?

निमेष नेत्रों से खुद को, 
महसूस करने पर, 
इन हवाओं के आँचल में छिपने से बढ़कर,
दूसरा कोई भी एहसास क्यों
इतना नहीं है सुखकर ?

- शिवांगी महाराणा (उड़ीसा)