उस ग्रीष्म की धरती पर चलते,
जब मेरे पाँव जल उठे,
तब उस बहारों वाली नदी के धारे पर.
मैंने अपने आप रखे।
पूछा उस नदी से मैंने कि,
" यों इठलाकर चली कहाँ तुम ? "
कहा तब उसने मुझे कि
"चली मैं अपने संसार में होने गुम। "
पूछा मैंने कि क्या मतलब हुआ इसका,
कहा उसने कि,
"जिसकी थी मुझे सदियों से आस,
चली मैं अपने उस प्रियतम के पास।"
पूछा मैंने कि -
कौन हैं तुम्हारे वह प्रियतम ?
कहा उसने कि,
"हैं वह मेरे पति परमेश्वर
न है कोई उन जैसा,
इस संसार में उत्तम।"
सोचा मैंने कि नदी को,
नहीं आती होगी अपने पिता,
हिमालय की याद,
दूर अटल खड़ा है वह,
बनकर भारत का ताज।
फिर पूछा मैंने कि,
"याद नहीं आती होगी तुम्हें,
अपनी अल्हड़पन की बातें ?"
कहा उसने मुझे कि,
"कैद हैं वह सब अब भी
मेरी स्मृतियों में,
जो आज भी हैं ताजे।"
यों पूछते-पूछते न जाने कब,
नदी पहुँच गई अपने प्रियतम के समक्ष,
जहाँ कर रहा था समुद्र,
अपनी बाहें फैलाएं उसका स्वागत।
न था सिर्फ वह एक मिलन,
था एक वह महामिलन,
हुई प्रेम-तृष्णा उसकी पूरी,
मिट गई दोनों के दरम्यान वो अज्ञान दूरी।
जिसे देख मेरी आँखे नम हो उठीं,
सोचा मैंने कि इस वक्त,
"हिमालय को क्या हुआ होगा ?"
जब देखा मैंने
नजरें उठा हिमालय को,
देखा कि पिता हिमालय,
खड़ा है शिथिल व शांत हो,
दूर से ही वह दे रहा था,
आशीर्वाद अपनी बेटी व दामाद को।
- शिवांगी महाराणा (उड़ीसा)