हिंदू घरों में, कुछ दिनों तक, दंपती चोरों की तरह मिलते हैं। यह संयुक्त कुटुंब-प्रणाली का वर या शाप है। रघुनाथ ने ऐसे चोरों के अवसर आगरे आ कर ढूँढ़ने आरंभ किए, पर भागवंती टल जाती थी ? उसने रघुनाथ को एक भी बात कहने का, या सुनने का मौका न दिया।
जुलाई में रघुनाथ इलाहाबाद जा कर थर्ड इयर में भर्ती हो गया। दशहरे और बड़े दिन की छुट्टियों में आ कर उसने बहुतेरा चाहा कि दो बातें कर सके, पर भागवंती उसके सामने ही नहीं होती थी। हाँ, कई बार उसे यह संदेह हुआ कि वह मेरी आहट पर ध्यान रखती और छिप-छिप कर मुझे देखती है, पर ज्योंही वह इस सूत भर आगे बढ़ता कि भागवंती लोप हो जाती।
पढ़ने की चिंता में विघ्न डालनेवाली अब उसको यह नई चिंता लगी। यह बात उसके जी में जम गई कि मैंने अमानुष निर्दयता से और बोली-ठोली में उसके सीधे हृदय को दुखा दिया है। परंतु कभी-कभी यह सोचता कि क्या दोष मेरा ही है ? उसने क्या कम ज्यादती की थी ? जो ताने-तिश्ने उस समय उसके हृदय को बहुत ही चीरते हुए जान पड़े थे, वे अब उसकी स्मृति में बहुत प्यारे लगने लगे। सोचता था कि मैं ही आ कर क्षमा माँगूँगा। जिन जाँघों ने उसका पीछा किया था उन्हें बाँध कर उसके सामने पड़ कर कहूँगा कि उस दिन वाली चाल से मुझे कुचलती हुई चली जा। अथवा यह कहूँगा कि उसी नदी में मुझे ढकेल दे। यों तरह-तरह के तर्क-वितर्कों में उसका समय कटने लगा। न “हॉकी” में अब उसकी कदर रही और न प्रोफेसर की आँखें वैसी रहीं। उसी कीचड़ लगे हुए पतलून को मेज पर रख कर सोचता, सोचता, सोचता रहता।
होली की छुट्टियाँ आईं। पहले सलाह हुई कि घर न जाऊँ, काशी में एक मित्र के पास ही छुट्टियाँ बिताऊँ। उस मित्र ने प्रसंग चलने पर कहा, “हाँ भाई, ब्याह के पीछे पहली होली है, तुम काहे को चलते हो!” वह रघुनाथ के हृदय के भार को क्या समझ सकता था ? रघुनाथ ने हँस कर बात टाल दी। रात को सोचा कि चलो छुट्टियों में बोर्डिंग में ही रहूँ, पास ही पब्लिक-लायब्रेरी है, दिन कट जाएँगे। रात को जब सोया तो पिघलती हुई आँखें, वही नाक से बहता हुआ खून और वह आँसुओं से न ढकनेवाली हँसी!नींद न आ सकी। जैसे कोई सपने में चलता है, वेसे बेहोशी में ही सवेरे टिकट ले कर गाड़ी में बैठ गया। पता नहीं कि मैं किधर जा रहा हूँ। चेत तब हुआ जब कुली “टुंडला”, “टुंडला” चिल्लाए। रघुनाथ चौंका। अच्छा, जो हो, अब की दफा फिर उद्योग करूँगा। यों कह कर हृदय को दृढ़ करके घर पहुँचा।
होली का दिन था! जैसे कोजागर पूर्णिमा को चोरों के लिए घर के दरवाले खुले छोड़ कर हिंदू सोते हैं, वेसे माता-पिता टल गए थे। माँ पकवान पका रही थी और बाप-खैर, बाप भी कहीं थे। रघुनाथ भीतर पहुँचा। भागवंती सिर पर हाथ धरे हुए कोने में बैठी थी। उसे देखते ही खड़ी हो गई। वह दरवाजे की तरफ चढ़ने न पाई थी कि रघुनाथ बोला, “ठहरो, बाहर मत जाना।”
वह ठहर गई। घूँघट खींच कर कोने की पीढ़ी के बान को देखने लगी।
“कहो, कैसी हो ? आज तुमसे बातें करनी हैं।”
चुप।
“प्रसन्न रहती हो ? कभी मेरी भी याद करती हो ?”
चुप।
“मेरी छुट्टियाँ तीन ही दिन की हैं।”
चुप।
“तुम्हें मेरी कसम है, चुप मत रहो, कुछ बोलो तो, जवाब दो - पहले की तरह ताने ही से बोलो, मेरी शपथ है - सुनती हो ?”
“मेरे कानों में पानी थोड़े ही भर गया है।”
“हाँ, बस, यों ठीक है, कुछ ही कहो, पर कहती जाओ। अच्छा होता यदि तुम मुझे उस दिन न निकालतीं और डूब जाने देतीं।”
“अच्छा होता यदि मेरा काँटा न निकालते और पैर गल कर मैं मर जाती।”
“ तुमने कहा था कि कोई एहसान थोड़ा है, काँटा गड़ जाए, तो मैं भी निकाल दूँगी।”
“हाँ, निकाल दूँगी।”
“कैसे !”
“उसी काँटे से।”
“उसी काँटे से! वह है कहाँ ?”
“ मेरे पास।”
“ क्यों? - कब से।”
“ जब से पतलून ट्रंक में बंद हो कर आगरे गई तब से।”
न मालूम पीढ़ी का बान कैसा अच्छा था, निगाहें उस पर से नहीं हटी। शायद ताँत गिनी जा रही थी।
“अनाड़ी की बात की नकल करती हो ?”
गिनती पूरी हो गई। अब अपने नखों की बारी आई।
“ क्यों, फिर चुप ?”
“हाँ!” - नखों पर से ध्यान नहीं हटा।
रघुनाथ ने छत की ओर देख कर कहा – “अनाड़ियों की पीठ नख आजमाने के लिए अच्छी होती है।”
नख छिपा लिए गए।
“काँटा निकालोगी ?”
“ हाँ!”
“ काँटा छत में थोड़ा ही है।”
“ तो कहाँ है ?”
“ मैं तो अनाड़ी हूँ, मुझे लल्लो-पत्तो करना नहीं आता, साफ कहना जानता हूँ, सुनो!” यह कह कर रघुनाथ बढ़ा और उसने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।
उसने हाथ न हटाए।
“उस समय मैं जंगली था, वहशी था, अधूरा था, मनुष्य जब तक स्त्री की परछाईं नहीं पा लेता तब तक पूरा नहीं होता। मेरे बुद्धूपन को क्षमा करो। मेरे हृदय में तुम्हारे प्रेम का एक भयंकर काँटा गड़ गया है। जिस दिन तुम्हें पहले-पहल देखा उस दिन से वह गड़ रहा है और अब तक गड़ा जा रहा है। तुम्हारी प्रेम की दृष्टि से मेरा यह शूल हटेगा।”
घूँघट के भीतर, जहाँ आँखें होनी चाहिए, वहा कुछ गीलापन दिखा।
“ देखो, मैं तुम्हारे प्रेम के बिना जी नहीं सकता। मेरा उस दिन का रूखापन और जंगलीपन भूल जाओ। तुम मेरी प्राण हो, मेरा काँटा निकाल दो।”
रघुनाथ ने एक हाथ उसकी कमर पर डाल कर उसे अपनी ओर खींचना चाहा। मालूम पड़ा कि नदी के किनारे का किला, नींव के गल जाने से, धीरे-धीरे धँस रहा है। भागवंती का बलवान शरीर, निस्सार हो कर, रघुनाथ के कंधे पर झूल गया। कंधा आँसुओं से गीला हो गया।
मेरा कसूर - मेरा गँवारपन - मैं उजड्ड - मेरा अपराध - मेरा पाप - मैंने क्या कह डा...डा...डा...आ... घिग्घी बँध चली।
उसका मुँह बंद करने का एक ही उपाय था। रघुनाथ ने वही किया।
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