कन्यादान के पहले और पीछे वर-कन्या को, ऊपर एक दुशाला डाल कर एक-दूसरे का मुँह दिखाया जाता है। उस समय दुल्हा-दुल्हिन जैसे व्यवहार करते हैं उससे ही उनके भविष्य दांपत्य-सुख का थर्मामीटर माननेवाली स्त्रियाँ बहुत ध्यान से उस समय के दोनों के आकार-विकार को याद रखती हैं। जो हो, झंडीपुर की स्त्रियों में यह प्रसिद्ध हे कि मुँह-दिखौनी के पीछे लड़के का मुँह सफेद फक हो गया और विवाह में जो कुछ होम वगैरह उसने किए वे पागल की तरह। मानो उसने कोई भूत देखा था। और लड़की ऐसी गुम हुई कि उसे काटो तो खून नहीं। दिन-भर वह चुप रही और बिड़राई आँखों से जमीन देखती रही, मानो उसे भी भूत दिख रहे हों। स्त्रियों ने इन लक्षणों को बहुत अशुभ माना था।
दुल्हिन डोले में विदा हो कर ससुराल आ रही थी। रघुनाथ घोड़े पर था। दोपहर चढ़ने से कहारों और बरातियों ने एक बड़ की छाया के नीचे बावड़ी के किनारे डेरा लगाया कि रोटी-पानी करके और धूप काट के चलेंगे। कोई नहाने लगा, कोई चूल्हा सुलगाने लगा। दुल्हिन पालकी का पर्दा हटा कर हवा ले रही थी और अपने जीवन की स्वतंत्रता के बदले में पाई हुई हथकड़ियों और चाँदी की बेड़ियों को निरख रही थी। मनुष्य पहले पशु है, फिर मनुष्य। सभ्यता या शांति का भाव पीछे आता है, पहले पाशविक बल और विजय का। रघुनाथ ने पास आ कर कहा – “क्या कहा था, ऐसे मर्द के आगे कौन लहँगा पसारेगी ?”
सिर पालकी के भीतर करके बालिका ने परदा डाल लिया।
रघुनाथ ने यह नहीं सोचा कि उसके जी पर क्या बीतती होगी। उसने अपनी विजय मानी और उसी की अकड़ में बदला लेना ठीक समझा।
“हाँ, फिर तो कहना, इस बुद्धू के आगे कौन लहँगा पसारेगी ?”
चुप।
“क्यों, अब वह कैंची-सी जीभ कहाँ गई ?”
चुप।
कहाँ तो रघुनाथ छेड़ से चिढ़ता था, अब कहाँ वह स्वयं छेड़ने लगा। उसकी इच्छा पहले तो यह थी कि यह बोली कभी न सुनूँ, परंतु अब वह चाहता था कि मुझे फिर वैसे ही उत्तर मिलें। विवाह के पहले अचंभे के पीछे उसने दु:ख की आह के साथ-ही-साथ एक संतोष की आह भरी थी, क्योंकि पहले दिन की घटनाओं ने उसके हृदय पर एक बड़ा अद्भुत परिवर्तन कर दिया था।
“कहो जी, अब प्रयागवालों को अकल सिखाने आई हो ? अब इतनी बात कैसे सुनी जाती हैं ?”
“मैं हाथ जोड़ती हूँ, मुझसे मत बोलो। मैं मर जाऊँगी।”
“तो नदी में डूबते बुद्धुओं को कौन निकालेगा ?”
“अब रहने दो। यहाँ से हट जाओ।”
“क्यों ?”
“क्यों क्या, अब इस चक्की में ऐसा ही पिसना है। जनम-भर का रोग है, जनम-भर का रोना है।”
“नहीं, मुझे अकल सिखाने का” – रघुनाथ ने व्यंग्य से आरंभ किया था, पर इतने में एक कहार चिलम में तमाखू डालने आ गया। भूमिका की सफाई बिना कहे और बिना हुए ही रह गई।
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