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गुलेरी की कहानियाँ
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सुखमय जीवन (भाग-2)
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"बाबूजी क्या बाइसिकिल में पंक्चर हो गया ?"

एक तो चश्मा, उस पर रेत की तह जमी हुई, उस पर ललाट से टपकते हुए पसीने की बूँदें, गर्मी की चिढ़ और काली रात-सी लंबी सड़क - मैंने देखा ही नहीं था कि दोनों ओर क्या है। यह शब्द सुनते ही सिर उठाया, तो देखा की एक सोलह-सत्रह वर्ष की कन्या सड़क के किनारे खड़ी है।

हाँ, हवा निकल गई है और पंक्चर भी हो गया है। पंप मेरे पास है नहीं। कालानगर बहुत दूर तो है नहीं - अभी जा पहुँचता हूँ।

अंत का वाक्य मैंने केवल ऐंठ दिखाने के लिए कहा था। मेरा जी जानता था की पाँच मील पाँच सौ मील के-से दिख रहे थे।

इस सूरत से तो आप कालानगर क्या कलकत्ते पहुँच जाएँगे। जरा भीतर चलिए, कुछ जल पीजिए। आपकी जीभ सूख कर तालू से चिपक गई होगी। चाचाजी की बाइसिकिल में पंप है और हमारा नौकर गोबिंद पंक्चर सुधारना भी जानता है।

नहीं, नहीं -

नहीं, नहीं, क्या, हाँ, हाँ!

यों कह कर बालिका ने मेरे हाथ से बाइसिकिल छीन ली और सड़क के एक तरफ हो ली। मैं भी उसके पीछे चला। देखा कि एक कँटीली बाड़ से घिरा बगीचा है जिसमें एक बँगला है। यहीं पर कोई चाचाजीरहते होगें, परंतु यह बालिका कैसी -

मैंने चश्मा रूमाल से पोंछा और उसका मुँह देखा। पारसी चाल की एक गुलाबी साड़ी के नीचे चिकने काले बालों से घिरा हुआ उसका मुखमंडल दमकता था और उसकी आँखें मेरी ओर कुछ दया, कुछ हँसी और विस्मय से देख रही थीं। बस, पाठक! ऐसी आँखें मैंने कभी नहीं देखी थीं। मानो वो मेरे कलेजे को घोल कर पी गईं। एक अद्‌भुत कोमल, शांत ज्योति उनमें से निकल रही थी। कभी एक तीर में मारा जाना सुना है ? कभी एक निगाह में हृदय बेचना पड़ा है ? कभी तारामैत्रक और चक्षुमैत्र नाम आए हैं ? मैंने एक सेकंड में सोचा और निश्‍चय कर लिया कि ऐसी सुंदर आँखें त्रिलोकी में न होगीं और यदि किसी स्त्री की आँखों को प्रेम-बुद्धि से कभी देखूँगा तो इन्हीं को।

आप सितारपुर से आए हैं। आपका नाम क्या है ?”

मैं जयदेवशरण वर्मा हूँ। आपके चाचाजी -

ओ-हो, बाबू जयदेवशरण वर्मा, बी.ए. जिन्होंने सुखमय जीवनलिखा है! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए! मैंने आपकी पुस्तक पढ़ी है और चाचाजी तो उसकी प्रशंसा बिना किए एक दिन भी नहीं जाने देते। वे आपसे मिल कर बहुत प्रसन्न होंगे, बिना भोजन किए आपको न जाने देगें और आपके ग्रंथ को पढ़ने से हमारा परिवार-सुख कितना बढ़ा है, इस पर कम-से-कम दो घंटे तक व्याख्यान देंगे।

स्त्री के सामने उसके नैहर की बड़ाई कर दे और लेखक के सामने उसके ग्रंथ की। यह प्रिय बनने का अमोघ मंत्र है। जिस साल मैंने बी.ए. पास किया था उस साल कुछ दिन लिखने की धुन उठी थी। लॉ कॉलेज के फर्स्ट इयर में सेक्शन और कोड की परवाह न करके एक सुखमय जीवननामक पोथी लिख चुका था। समालोचकों ने आड़े हाथों लिया था और वर्ष-भर में सत्रह प्रतियाँ बिकी थीं। आज मेरी कदर हुई कि कोई उसका सराहनेवाला तो मिला।

इतने में हम लोग बरामदे में पहुँचे, जहाँ पर कनटोप पहने, पंजाबी ढंग की दाढ़ी रखे एक अधेड़ महाशय कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रहे थे। बालिका बोली -

चाचाजी, आज आपके बाबू जयदेवशरण वर्मा बी.ए. को साथ लाई हूँ। इनकी बाइसिकिल बेकाम हो गई है। अपने प्रिय ग्रंथकार से मिलाने के लिए कमला को धन्यवाद मत दीजिए, दीजिए उनके पंप भूल आने को!"

वृद्ध ने जल्दी ही चश्मा उतारा और दोनों हाथ बढ़ा कर मुझसे मिलने के लिए पैर बढ़ाए।

कमला, जरा अपनी माता को बुला ला। आइए बाबू साहब, आइए। मुझे आपसे मिलने की बड़ी उत्कंठा थी। मैं गुलाबराय वर्मा हूँ। पहले कमसेरियट में हेड क्लर्क था। अब पेंशन ले कर इस एकाक स्थान में रहता हूँ। दो गौ रखता हूँ और कमला तथा उसके भाई प्रबोध को पढ़ाता हूँ। मैं ब्रह्मसमाजी हूँ  मेरे यहा परदा नहीं है। कमला ने हिंदी मिडिल पास कर लिया है। हमारा समय शास्त्रों के पढ़ने में बीतता है। मेरी धर्म-पत्‍नी भोजन बनाती और कपड़े सी लेती है, मैं उपनिषद और योग वासिष्‍ठ का तर्जुमा पढ़ा करता हूँ। स्कूल में लड़के बिगड़ जाते हैं, प्रबोध को इसिलिए घर पर पढ़ाता हूँ।

इतना परिचय दे चुकने पर वृद्ध ने श्‍वास लिया। मुझे इतना ज्ञान हुआ कि कमला के पिता मेरी जाति के ही हैं। जो कुछ उन्होंने कहा था, उसकी ओर मेरे कान नहीं थे - मेरे कान उधर थे, जिधर से माता को ले कर कमला आ रही थी।

आपका ग्रंथ बड़ा ही अपूर्व है। दांपत्य सुख चाहनेवालों के लिए लाख रुपए से भी अनमोल है। धन्य है आपको! स्त्री को कैसे प्रसन्न रखना, घर में कलह कैसे नहीं होने देना, बाल-बच्चों को क्योंकर सच्चरित्र बनाना, इन सब बातों में आपके उपदेश पर चलने वाला पृथ्वी पर ही स्वर्ग-सुख भोग सकता है। पहले कमला की माँ और मेरी कभी-कभी खट-पट हो जाया करती थी। उसके ख्याल अभी पुराने ढंग के हैं। पर जब से मैं रोज भोजन पीछे उसे आध घंटे तक आपकी पुस्तक का पाठ सुनाने लगा हूँ, तब से हमारा जीवन हिंडोले की तरह झूलते-झूलते बीतता हैं।

मुझे कमला की माँ पर दया आई, जिसको वह कूड़ा-करकट रोज सुनना पड़ता होगा। मैंने सोचा कि हिंदी के पत्र-संपादकों में यह बूढ़ा क्यों न हुआ ? यदि होता तो आज मेरी तूती बोलने लगती।

आपको गृहस्थ-जीवन का कितना अनुभव है! आप सब कुछ जानते है! भला, इतना ज्ञान कभी पुस्तकों में मिलता है ? कमला की माँ कहा करती थी कि आप केवल किताबों के कीड़े हैं, सुनी-सुनाई बातें लिख रहे हैं। मैं बार-बार यह कहता था कि इस पुस्तक के लिखने वाले को परिवार का खूब अनुभव है। धन्य है आपकी सहधर्मिणी! आपका और उसका जीवन कितना सुख से बीतता होगा! और जिन बालकों के आप पिता हैं, वे कैसे बड़भागी हैं कि सदा आपकी शिक्षा में रहते हैं, आप जैसे पिता का उदाहरण देखते हैं।

कहावत है कि वेश्या अपनी अवस्था कम दिखाना चाहती है और साधु अपनी अवस्था अधिक दिखाना चाहता है। भला, ग्रंथकार का पद इन दोनों में किसके समान है? मेरे मन में आई कि कह दूँ कि अभी मेरी पचीसवाँ वर्ष चल रहा है, कहाँ का अनुभव और कहाँ का परिवार ? फिर सोचा के ऐसा कहने से ही मैं वृद्ध महाशय की निगाहों से उतर जाऊँगा और कमला की माँ सच्ची हो जायगी कि बिना अनुभव के छोकरे ने गृहस्थ के कर्तव्य-धर्मों पर पुस्तक लिख मारी है। यह सोचकर मैं मुस्करा दिया और ऐसी तरह मुँह बनाने लगा कि वृद्ध समझा कि अवश्य मैं संसार-समुद्र में गोते मार कर नहाया हुआ हूँ।

 

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