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गुलेरी की कहानियाँ
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बुद्धू का काँटा (भाग-2)
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"बा"छा मेरे हाल में आपका क्‍या जी लगेगा गरीबों का क्‍या हाल रब रोटी देता हैदिन-भर मेहनत करता हूँरात पड़े रहता हूँ।"बा"छातुम जैसे साईं लोकों की बरकत से मैं हज कर आयाख्वाजा का उर्स देख आयातीन बेले नमाज पढ़ लेता हूँऔर मुझे क्‍या चाहिए ? "बा"छामेरा काम टट्टू चलाना नहीं है। अब तो इस मोती की कमाई खाता हूँकभी सवार ले जाता हूँकभी लादाढाई मण कणक पा लेता हूँतो दो पौली बच जाती है। रब की मरजीमेरा अपना घर थासिंहों के वक्‍त की माफी जमीन थीनाते पड़ोसियों में मेरा नाम था। मैं धामपुर के नवाब का खाना बनाता था और मेरे घर में से उसके जनाने में पकाती थी। एक रात को मैं खाना बना-खिला के अपनी मँजडी पर सोया था कि मेरे मौला ने मुझे आवाज दी – लाहीलाहीहज कर आ।” मैं आँखें मल कर खड़ा हो गयापर कुछ दिखा नहीं। फिर सोने लगा कि फिर वही आवाज आई कि लाहीतू मेरी पुकार नहीं सुनताजा हज कर आ। मैं समझामेरा मौला मुझे बुलाता है। फिर आवाज आई - लाहीचल पड़ मैं तेरे नाल हूँमैं तेरा बेड़ा पार करूँगा। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अपना कंबल उठाया और आधी रात को चल पड़ा। "बा" छामैं रातों चलादिनों चलाभीख माँग कर चलते-चलते बंबई पहूँचा। वहाँ मेरे पल्‍ले टका नहीं थापर एक हिंदू भाई ने मुझे टिकट ले लिया। काफले के साथ मैं जहाज पर चढ़ गया। वहीं मुझे छ: महीने लगे। पूरी हज की। जब लौटा तो रास्‍ते में जहाज भटक गया। एक चट्टान पानी के नीचे थीउससे टकरा गया। उसके पीछे की दोनों लालटेन ऊपर आ गईं और वे हमे शैतान की-सी आँख दिखाई देने लगीं। सबने समझा मर जाएँगेपानी में गोर बनेगी। कप्‍तान ने छोटी किश्तियाँ खोलीं और उनमें हाजियों को बिठा कर छोड़ दिया। मर्द का बच्‍चा आप अपनी जगह से नही टलाजहाज के नाल डूब गया। अँधेरे में कुछ सूझता नहीं था। सबेरा होते ही हमने देखा किदो कश्तियाँ बह रही हैं और जहाज हैन दूसरी कश्तियाँ। पता ही नहींहम कहाँ से किधर जा रहे थे। लहरें हमारी कश्तियों को उछालतीनचातीडुबातीझकझोरती थीं। जो लहमा बीतता थाहम खैर मनाते थे। पर मेरे मालिक ने करम किया। मेरे अल्‍लाह नेमेरे मौला ने जैसे उस रात को कहा थामेरा बेड़ा पर किया। तीन दिनतीन रात हम हम बेपते रहे - चौथे दिन माल के जहाज ने हमको उठा लिया और छठे दिन कराची में हमने दुआ की नमाज पढ़ी। पीछे सुना की तीन सौ हाजी मर गए।

वहाँ से मैं ख्वाजा की जियारत को चलाअजमेर शरीफ में दरगाह का दीदार पाया। इस तरह बा” छासाढ़े सात महीने पीछे मैं घर आया। आ कर घर देखता हूँ कि सब पटरा हो गया है। नवाब जब सबेरे उठा तो उसने नाश्‍ता माँगा। नौकरों ने कहा कि इलाही का पता नहीं। बसवह जल गया। उसने मेरा घर फुँकवा दियामेरी जमीन अपनी रखवाल के भाई को दे दी और मेरी बीबी को लौंडी बना कर कैद कर लिया। मैं उसका क्‍या ले गया थाअपना कंबल ले गया था। और पिछले तीन महीने की तलब अपनी पेटी में उसके बावर्चीखाने में रख गया था। भलामेरा मौला बुलावे और मैं न जाऊँपर उसको जो एक घंटा देर से खाना मिलाइससे बढ़ कर और गुनाह क्‍या होता ?

इसके पंद्रहवें दिन जनाने में एक सोने की अंगूठी खो गई। नवाब ने मेरी घरवाली पर शक किया। उसने पूछा तो वह बोली कि मेरा कौन-सा घर और घरवाला बैठा है कि उसके पास अँगूठी ले जाऊँगी। मैं तो यहीं र‍हती हूँ। सीधी बात थीपर उसने सुनी नहीं गई। जला-भुना तो था हीबेंत ले कर लगा मारने।बा” छामैं क्‍या कहूँमौला मेरा गुनाह बख्शेऔर पाँच बरस हो गए हैं। पर जब मैं घरवाली की पीठ पर पचासों दागों की गुच्छियाँ देखता हूँतो यही पछतावा रहता है कि रब ने उस सूर का (तोबा! तोबा!) गला घोंटने को यहाँ क्‍यों रखा। मारते-मारते जब मेरी घरवाली बेहोश हो गई तब डर कर उसे गाँव के बाहर फिकवा दिया। तीसरे दिन वह वहाँ से घिसटती-घिसटती चल कर अपने भाई के यहाँ पहुँची।

रघुनाथ ने रुँधे गले से कहा, “तुमने फरयाद नहीं की ?”

कचहरियाँ गरीबों के लिए नहीं हैं, “बा” छावे तो सेठों के लिए हैं। गरीबों की फरयाद सुननेवाला सुनता है। उसने पंद्रह दिन में सुन कर हुकुम भी दे दिया। मेरी औरत को मारते-मारते उस पाजी के हाथ की अँगुली में बेंत की एक सली चुभ गई थी। वही पक गई। लहू में जहर हो गया। पंद्रहवें दिन मर गया। हज से आ कर मैंने सारा हाल सुना। अपने जेल घर को देखा और अपने परदादे की सिंहों की माफी जमीन को भी देखा। चला आया। मसजिद में जा कर रोया। मेरे मौला ने मुझे हुकुम दिया, “लाहीमैं तेरे नाल हूँअपनी जोय को धीरज दे।” मैं साले के यहाँ पहुँचा। उसने पच्‍चीस रुपए दिएमैं टट्टू मोल ले कर पहाड़ चला आया और यहाँ रब का नाम लेता हूँ और आप जैसे साईं लोगों की बंदगी करता हूँ। रब का नाम बड़ा है।

रघुनाथ इम्‍तहान दे कर रेल से घराठनी तक आया। वहाँ तीस मील पहाड़ी रास्‍ता था। दूरी पर चूने के-से ढेर चमकते दिखने लगेजो कभी न पिघलनेवाली बर्फ के पहाड़ थे। रास्‍ता साँप की तरह चक्‍कर खाता था। मालूम होता की एक घाटी पूरी हो गई हैपर ज्‍योंही मोड़ पर आतेत्‍योंही उसकी जड़ में एक और आधी मील का चक्‍कर निकल पड़ता। एक ओर ऊँचा पहाड़दूसरी ओर ढाई फुट गहरी खड्ड। और किराये के टट्टुओं की लत की सड़क सड़क के छोर पर चलें जिससे सवार की एक टाँग तो खड्ड पर ही लटकी रहे। आगे वैसा ही रास्तावैसी ही खड्डसामने वैसे ही कोने पर चलनेवाले टट्टू। जब धूप बढ़ी और जी न लगा तो मोती के स्‍वामी इलाही से रघुनाथ ने उसका इम्‍तहान पूछा। उसने जो सीधी और विश्‍वास से भरीदु:ख की धाराओं से भीगी हुई कथा कहीउससे कुछ मार्ग कट गया। कितने गरीबों का इतिहास ऐसी चित्र-घटनाओं की धूपछाया से भरा हुआ है। पर हम लोग प्रकृति के इन सच्‍चे चित्रों को न देख कर उपन्‍यासों की मृगतृष्‍णा में चमत्‍कार ढूँढ़ते हैं।

धूप चढ़ गई थी कि वे एक ग्राम में पहुँचे। गाँव के बाहर सड़क के सहारे एक कुआँ था और उसी के पास एक पेड़ के नीचे इलाही ने स्‍वयं और अपने मोती के लिए विश्राम करने का प्रस्ताव किया। घोड़े को न्‍हारी दे कर और पानी-वानी पी कर धूप ढलते ही चल देंगे और बात-की-बात में आपको घर पहुँचा देंगे।” रघुनाथ को भी टाँगें सीधी करने में कोई उज्र न था। खाने की इच्‍छा बिल्‍कुल न थी। हाँ,पानी की प्‍यास लग रही थी। रघुनाथ अपने बक्‍स में से एक लोटा-डोर निकाल कर कुएँ की तरफ चला।


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