रघुनाथ प्... प्.... प्रसाद त्.... त्.... त्रिवेदी - या रुग्नात् पर्शाद तिर्वेदी - यह क्या ?
क्या करें, दुविधा में जान हैं। एक ओर तो हिंदी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिंदी के कर्णधारों का अविगत शिष्टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, वैसे ही जैसे हिंदी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्टाचार भी कैसा ? हिंदी साहित्य-सम्मेलन के सभापति अपने व्याकरणकषायति कंठ से कहें “पर्षोत्तमदास” और “हर्किसन्लाल” और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह कि पढ़ा जाए -
“पुरुषोत्तमदास अ” दास अ और “हरि कृष्णलाल अ”! अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी! कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़ने?
अच्छा, जो हुकुम। हम लाला जी के नौकर हैं, बैंगनों के थोड़े ही हैं। रघुनाथप्रसाद त्रिवेदी अब के इंटरमीडिएट परीक्षा में बैठा है। उसके पिता दारसूरी के पहाड़ के रहनेवाले और आगरे के बुझातिया बैंक के मैनेजर हैं। बैंक के दफ्तर के पीछे चौक मे उनका तथा उनकी स्त्री का बारहमासिया मकान है। बाबू बड़े सीधे, अपने सिद्धांतों के पक्के और खरे आदमी हैं जैसे पुराने ढंग के होते हैं। बैंक के स्वामी इन पर इतना भरोसा करते है कि कभी छुट्टी नहीं देते और बाबू काम के इतने पक्के हैं कि छुट्टी माँगते नहीं। न बाबू वैसे कट्टर सनातनी हैं कि बिना मुँह धोए ही तिलक लगा कर स्टेशन पर दरभंगा महराज के स्वागत को जाएँ और न ऐसे समाजी ही हैं कि खँजड़ी ले कर “तोड़ पोपगढ़ लंका का” करने दौड़ें। उसूलों के पक्के हैं।
हाँ, उसूलों के पक्के हैं। सुबह का एक प्याला चाय पीते हैं तो ऐसा कि जेठ में भी नही छोड़ते और माघ में भी एक के दो नहीं करते। उर्द की दाल खाते हैं, क्या मजाल की बुखार में भी मूँग की दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पासवालों को हँसते हैं कि शेक्सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे दफ्तर के काम की अंगरेजी-चिट्टी नहीं लिख सकते। अपने जमाने के साथियों को सराहते हैं जो शेक्सपीयर के दो-तीन नाटक न पढ़ कर सारे नाटक पढ़ते थे, डिक्शनरी से अंगरेजी शब्दों के लैटिन धातु याद करते थे। अपने गुरु बाबू प्रकाश बिहारी मुखर्जी की प्रशंसा रोज करते थे कि उन्होंने “लायब्रेरी इम्तहान” पास किया था। ऐसा कोई दिन ही बीतता होगा (निगोशिएबल इन्सट्रूमेंट ऐक्ट के अनुसार होने वाली तातीलों को मत गिनिए) कि जब उनके “लायब्रेरी इम्तहान” का उपाख्यान नए बी.ए. हेडक्लर्क को उसके मन और बुद्धि की उन्नति के लिए उपदेश की तरह नहीं सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकर्जी बाबू को बंगाल-लायब्रेरी में जा कर खड़ा कर दिया। राजा हरिश्चंद्र के यज्ञ में बलि के खूँटे में बँधे हुए शुन: शेप की तरह बाबू आलमारियों की ओर देखने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी आलमारियों से मनचाहे जैसी किताब निकाल कर मनचाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमारियाँ खुल गईं, सब किताबें चुक गईं, लाट साहब की बाँह दुख गई, पर बाबू कहते-कहते नहीं थके, लाट साहब ने आने हाथ से बाबू को एक घड़ी दी और कहा कि मैं अंगरेजी-विद्या का छिलका ही भर जानता हूँ, तुम उसकी गिरी खा चुके हो। यह कथा पुराण की तरह रोज कही जाती थी।
इन उसूल-धन बाबू जी का एक उसूल यह भी था कि लड़के का विवाह छोटी उमर में नहीं करेंगे। इनकी जाति में पाँच-पाँच वर्ष की कन्याओं के पिता लड़केवालों के लिए वैसे मुँह बाए रहते हैं जैसे पुष्कर की झील में मगरमच्छ नहाने वालों के लिए, और वे कभी-कभी दरवाजे पर धरना दे कर आ बैठते थे कि हमारी लड़की लीजिए, नहीं तो हम आपके द्वार पर प्राण दे देंगे। उसूलों के पक्के बाबू जी इनके भय से देश ही नहीं जाते थे और वे कन्या-पिता-रूपी मगरमच्छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़ कर आगरे आ कर बाबू जी की निद्रा को भंग करते थे। रघुनाथ की माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ कहना आरंभ करती कि बाबू जी बैंक की लेजर-बुक खोल कर बैठ जाते या लकड़ी उठा कर घूमने चले देते। बहस करके स्त्रियों से आज तक कोई नहीं जीता, पर मष्ट मार कर जीत सकता है।
बाबू के पड़ोस में एक विवाह हुआ था। उस घर की मालकिन लाहना बाँटती हुई रघुनाथ की माँ के पास आई। रघुनाथ की माँ ने नई बहू को असीस दी और स्वयं मिठाई रखने तथा बहू की गोद में भरने के लिए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुहल्ले की वृद्धा ने कहा –
“पंद्रह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से नहीं मिला।”
दूसरी वृद्धा, जो तीन बड़ी और दो छोटी पतोहू की सेवा से इतनी सुखी थी कि रोज मृत्यु को बुलाया करती थी, बोली, “बड़े भागों से बेटों को ब्याह होता है।”
तीसरी ने नाक की झुलनी हिला कर कहा - “अपना खाने-पहनने का लोभ कोई छोड़े तब तो बेटे की बहू लावे। बहू के आते ही खाने-पहनने में कमी जो हो जाती है।”
चौथी ने कहा - “ऐसे कमाने-खाने जो आग लगे। यों तो कुत्ते भी अपना पेट भर लेते हैं। कमाई सफल करने का यही तो मौका होता है। इसके पति ने चारों बेटों के विवाह में मकान और जमीन गिरवी रख दिए थे और कम-से-कम अपने जीवन भर के लिए कंगाली का कंबल ओढ़ लिया था।”
अवश्य ही ये सब बातें रघुनाथ की माँ को सुनाने के लिए कही गई थीं। रघुनाथ की माँ भी जानती थी कि ये मुझे सुनाने को कही जा रही हैं। परंतु उसके आते ही मुहल्ले की एक और ही स्त्री की निंदा चल पड़ी और रघुनाथ की माँ यह जान कर भी कि उस स्त्री के पास जाते ही मेरी भी ऐसी ही निंदा की जाएगी, हँसते-हँसते उसकी बातों में सम्मति देने लग गई। पतोहुओं से सुखिनी बुढ़िया ने एक हल्के से अनुदात्त से कहा - “अब तू रघुनाथ का ब्याह इस साल तो करोगी ? ”
“उसके चाचा जानें, गहने तो बनवा रहें” - रघुनाथ की माँ ने भी वैसे ही हल्के उदात्त से उत्तर दिया। उसके अनुदात्त को यह समझ गई और इसके उदात्त को वे सब। स्वर का विचार हिंदुस्तान के मर्दों की भाषा में भले ही न रहा हो, स्त्रियों की भाषा में उससे अब भी कई अर्थ प्रकाश किए जाते हैं।
“मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जल्दी रघुनाथ का ब्याह कर लो। कलयुग के दिन हैं, लड़का बोर्डिंग में रहता है, बिगड़ जाएगा। आगे तुम्हारी मर्जी, क्यों बहन सच है न ? तू क्यों नहीं बोलती ?”
“मैं क्या कहूँ, मेरे रघुनाथ-सा बेटा होता तो अब तक पोता खिलाती।” यों और दो-चार बातें करके यह स्त्रीदल चला गया और गृहिणी के हृदय-समुद्र को कई विचारों की लहरों से दलकता हुआ छोड़ गया।
सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, “इन गर्मियों में रघुनाथ का ब्याह कर देंगे।”
स्त्री ने पहले ही लेजर और छड़ी छिपा कर ठान ली थी कि आज बाबू जी को दबाऊँगी कि पड़ोसियों की बोलियाँ नहीं सही जातीं। अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी - “हें आज यह कैसे सूझी ?”
“दारसूरी से भैया की चिट्ठी आई है। बहुत कुछ बातें लिखी हैं। कहा है कि तुम तो परदेशी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृहस्पति सिंहस्त हो जाएगा, फिर डेढ़-दो वर्ष तक ब्याह नहीं होंगे। इसलिए छोटी-छोटी बच्चियों के ब्याह हो रहे हैं, बृहस्पति के सिंह के पेट में पहुँचने के पहले कोई चार-पाँच वर्ष की लड़की नही बचेगी। फिर जब बृहस्पति कहीं शेर की दाढ़ में से जीता-जागता निकल आया तो न बराबर का घर मिलेगा, न जोड़ की लड़की। तुम्हें क्या है, गाँव में बदनाम तो हम हो रहे हैं। मैंने अभी दो-तीन घर रोक रखे हैं। तुम जानो, अब के मेरा कहना न मानोगे तो मैं तुमसे जन्म-भर बोलने का नहीं।”
भैया ठीक तो कहते हैं।
मैं भी मानता हूँ कि अब लड़के को उन्नीसवाँ वर्ष है। अब के इंटरमीडिएट पास हो जाएगा। अब हमारी नहीं चलेगी, देवर-भौजाई जैसा नचाएँगे, वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब तक मेरी चली, यही बहुत हुआ।
“भैया की कहो, मेरा कहना तो पाँच वर्ष से मान रहे हो।”
“अच्छा अब जिदो मत। मैंने दो महीने की छुट्टी ली है। छुट्टी मिलते ही देश चलते हैं। बच्चा को लिख दिया है कि इम्तहान देकर सीधा घर चला आ। दस-पंद्रह दिन में आ जाएगा। तब तक हम घर भी ठीक कर लें औ दिन भी। अब तुम आगरे बहु को ले कर आओगी।”
स्त्री ने सोचा, बताशेवाली बुढ़िया का उलाहना तो मिटेगा।
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