+91-11-41631787
गुलेरी की कहानियाँ
Select any Chapter from
     
उसने कहा था (भाग-2)
ISBN:

राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं :  - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पच्चीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक् से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।

लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका (बकरा मारना) करेंगे और पेट-भर खा कर सो रहेंगे। उसी फिरंगी (फ्रेंच) मेम के बाग में--- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम लेती नहीं। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।

चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े-संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो -

नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों ?” सूबेदार हजारासिंह ने मुसकरा कर कहा, लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा ? ”

सूबेदार जी, सच है

लहनसिंह बोला - पर करें क्या ? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाईं में दोनों तरफ से चंबे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।

उदमी(उघमी), उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ ले कर खाईं का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाईं के दरवाजे का पहरा बदल दो।” - यह कहते हुए सूबेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाईं के बाहर फेंकता हुआ बोला - मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण! इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा - अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।

हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा (जमीन की नाप) जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे (पेड़) लगाऊँगा।

लाड़ी होराँ (स्त्री) को भी यहाँ बुला लोगे? या वहीं दूध पिलानेवाली फरंगी मेम

चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।

देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तमाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।

-अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है ?

-अच्छा है।

जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे (नई शहरों के पास वर्ग भूमि) नहीं मिला करते।

मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।

वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा - क्या मरने-मारने की बात लगाई है ? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे-

    दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,

    कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए,

    कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए -

    (ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।

    कद्दू बणया वे मजेदार गोरिए,

    हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।

(अरी दिल्ली शहर से पेशावर को जाने वाली, लौंगों का व्यापार कर ले ओर इजारबंद का सौदा कर ले। जीभ चटाचट कर कद्दू खाना है। गोरी कद्दू मजेदार बना है। अब चटचटा कर उसे खाना है। )

कौन जानता था कि दाढ़ियों वाले, धरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।

 

 

इस कहानी का अगला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें....