Audio Hindi Books ---- Kavita Mein Gita (Poetry Translation of Shrimad Bhagvad Gita)
श्रीमद् भगवद् गीता

कविता अनुवाद
अश्विनी कपूर


SRIMAD BHAGAVAD GITA
Poetry Translation
by ASHWANI KAPOOR
 
"KAVITA MEIN GITA"
(Voice & Text)
CHAPTER
अध्याय
I. GITA DHARM
गीता धर्म
II. GITA NIRMAN
गीता निर्माण
1. ARJUN VISHAD YOG
अर्जुन विषाद योग
2. SANKHYA YOG
सांख्य योग
3. KARM YOG
कर्म योग
4. GYAN-KARM-SANYAS YOG
ज्ञान कर्म सन्यास योग
5. KARM-SANYAS YOG
कर्म सन्यास योग
6. ATAM-SANYAM YOG
आत्म संयम योग
7. GYAN-VIGYAN YOG
ज्ञान विज्ञान योग
8. AKSHAR-BRAHM YOG
अक्षर ब्रह्म योग
9. PARAM GOPNIYE GYAN YOG
परम गोपनिय ज्ञान योग
10. VIBHUTI YOG
विभूति योग
11. VISHWAROOP DARSHAN YOG
विश्व रुप दर्शन योग
12. BHAKTI YOG
भक्ति योग
 
13. SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG
शरीर और आत्मा विभाग योग
 
14. GUNTREY VIBHAAG YOG
गुणत्रय विभाग योग
15. PURSHOTTAM YOG
पुरुषोत्तम योग
 
16. DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG
देवासुर सम्पद विभाग योग
 
17. SHRADHATREY VIBHAG YOG
श्रद्धात्रय विभाग योग
 
18. MOKSH SANYAS YOG
मोक्ष सन्यास योग
 
19. KRISHAN BHAAV
कृष्ण भाव

 
 
विश्वरुप दर्शन योग

अलौकिक भाव सुनकर
अर्जुन कृतज्ञता से बोला
'कृतज्ञ हूं आपका
जो मेरा अनुग्रह स्वीकार किया |
मैं योग्य नहीं था
फिर भी परम् गोपनीय ज्ञान कहा |
अज्ञान मेरा अब दूर हुआ
ईश्वर का रुप मैं जान गया |'



'हे कमलनेत्र!
प्राणी की उत्पत्ति-प्रलय का भाव
मैं जान गया,
मैं जान गया अविनाशी महिमा को |

हे परमेश्वर |
आप सर्वसमर्थवान हैं |
शक्ति-बल-वीर्य-तेजयुक्त,
असीम-अनन्त ज्ञानवान हैं |'

'सुना, समझा
अब इच्छा है इस विराट रुप को
देखने की |
हे प्रभो!

प्रबल लालसा मेरे मन की शांत करो |
हे योगेश्वर!
अपने सामर्थ्य से अधिकार दो,
अविनाशी रुप के दर्शन दो |'

परम श्रद्धलु,
परम प्रेमी अर्जुन
के सुनकर वचन,
श्री भगवान बोले
'हे पार्थ!
उठो! चलो, देखो
मेरे असंख्य रुपों का दर्शन देखो!
देव-मनुष्यों की भिन्न-भिन्न
आकृतियां देखो!
एकता में स्नेकता देखो!
भिन्न-भिन्न रुपों में एकरसता देखो!
जाति-वर्णो के विभिन्न
रुप देखो!'

'देखो! मेरे नए-नए रूप देखो!
असंख्य भाव हैं मेरे,
पर सबमें एक भाव देखो!
मेरे रुप अनेक,
मेरे कर्म अनेक
पर फिर भी मैं एक!
इस आलौकिक रुप को देखो!
हे भरतवंशी अर्जुन!

मेरे रुपों में सब विराजमान |
मेरे रुपों में देव-ऋषि-मुनि
सब विद्यामान |'

'अदिति पुत्र द्वादश,
आठ वसु
और रुद्र एकादश सब विद्यमान |
दोनों अश्विनी कुमारों को देख |
आश्चर्यमयी उन्चास वायु देवताओं
को देख!
संशय रहित होकर
देख! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख!
जो कुछ देखने की इच्छा है,
उसे मेरे समग्र रुप में देख!'

'भूत-भविष्य ओर वर्तमान,
मेरे रुप में सब हैं विद्यमान!

क्या रुप है ईश्वर का!
क्या भाव है ईश्वर के!
हम ईश्वर को सर्वत्र देखकर भी,
नहीं देख सकते!
हम जानकर भी ईश्वर को
नहीं जान पाते!
भाव बहुत सरल है
पर इन्हें कठिन समझते!
एक ईश्वर है,
अंश बहुत हैं विद्यमान!'

'एक ईश्वर,
नित नए रुप रचे, रचे नित नए
विधान |
हर भाव ईश्वर है,
हर रुप ईश्वर है,
ईश्वर समझने की बात है,
ईश्वर जानने की बात है
ईश्वर स्वयं होकर भी
नहीं होता विद्यमान |'

विरक्त है,
निर्लिप्त है,
फिर भी वही मेरा ईश्वर है!
'हे अर्जुन!
योगशक्ति से ही
तू मेरा रुप समझ पाएगा,
दिव्य नेत्रों से ही
तू मेरा रुप देख पाएगा |
यह दिव्य दृष्टि मैं तुझे
प्रदान हूं करता,
यही तुझे ईश्वरीय योगशक्ति
को प्रत्यक्ष दिखाएगी |
यही दिव्य दृष्टि
तुझे ज्ञान का भण्डार प्रत्यक्ष दिखाएगी |'

युद्ध में हो रही
इस लीला को संजय देख रहा था |
राजा धृतराष्ट्र को
सब वृतान्त कह रहा था |
बोला संजय-'हे राजन!
श्री कृंष्ण हैं स्वयं ही दिव्य पुरुष
वे ही हैं परमेश्वर |
परम ज्ञानी, परम योगी,
पापों का नाश करने वाले ,
दु:खों को हरने वाले,
अर्जुन क्या,
मैं भी कृतार्थ हो उठा,
ईश्वर के अलौकिक-दिव्य तेजमय
रुप का दर्शन पा लिया |'

'एक रुप
में दिखते हैं रुप अनेक!
मुखमण्डल ऐसा कि
असंख्य मुखों-सा होता प्रतीत!
नेत्र एक सूर्य सदृश,
नेत्र एक चन्द्र सा,
अनेक नेत्र, नेत्रों में दिखते!
दिव्य दर्शन,
हर क्षण नया परिवर्तन!
विराट भाव के अदभुत दर्शन!
दिव्य भूषणों से सजे हुए,
दिव्य मालएं धारण किए,
वस्त्रों का है कठिन वर्णन
दिव्य गन्ध का लेप किए,
शस्त्र अनेकों धारण किए,
विराट रुप में, सर्वत्र दृष्टिगत
श्री कृंष्ण हुए !'

'हजारों सूर्य एक साथ
नहीं कर सकते ऐसा दिव्य प्रकाश!
अनित्य-भौतिक-सीमित हैं सब
प्रकाश पुन्ज,
ईश्वर का स्वरुप
नित्य-अलौकिक-दिव्य-अपरिमित
प्रकाशमयी!'

'हे राजन!
पाण्डु पुत्र अर्जुन ने
सम्पूर्ण विश्व रुप को,
एक साथ,
पृथक-पृथक रुप में
देवों के देव श्री कृष्ण भगवान
के रुप में स्थित देखा!
यह विराट रुप आश्चर्यमयी!'

अर्जुन आश्चर्य युक्त हुआ,
समस्त शरीर पुलकित हो उठा |
श्रद्धा-भक्ति से नतमस्तक
होकर, कृतज्ञं भाव युक्त वचन वह
बोला,
'हे देव!
आश्चर्य चकित
सम्पूर्ण विश्व मैं देख रहा!
एक रुप में अनेक रुप मैं देख रहा!
सभी प्राणियों को एक साथ,
सभी देवताओं को आत्मसात
किए देख रहा!'

'कमल पर बैठे ब्रह्मा को,
महादेव, ऋषियों को,
दिव्य रुप सभी,
प्राणी-पशु-पक्षी
और दिव्य सर्पो को भी देख रहा!'

'हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामी!
अनन्त रुप हैं,
असंख्य बाहु-पेट-भुजा-मुख,
नेत्र अनेक मैं देख रहा |
विराट रुप ऐसा कि
आदि नहीं, मध्य नहीं
न अन्त कहीं दिखता है!'

'कहीं मुकुट धारण किए,
कहीं गदा युक्त,
कहीं चक्र सुदर्शन हाथ लिए!'

'प्रकाश मान तेज के पुन्ज बने,
अग्नि से प्रज्ज्वलित,
सूर्य सदृश ज्योति युक्त हो!
निकट होकर भी,
लगता है बहुत दूर हो!
दूर दिखते हो
मगर लगता है मेरे भीतर भी तुम हो!
मेरे आगे भी तुम हो,
मेरे पीछे भी तुम हो,
जिधर देखता हूं
तुम ही तुम हो!
यह प्रेम भाव मेरा
अतुलनीय है!
रुप तुम्हारा अतुलनीय है!'

'हे परमेश्वर!
एक ओंकार तुम्हीं हो
तुम परमब्रह्म परमात्मा हो!
परम आश्रय जगत के हो,
अनादि धर्म के रक्षक हो!
अविनाशी तुम,
तुम्ही सनातन पुरुष हो!'

'विरात रुप है आपका,
असीम भाव में सब कुछ समाया |
उत्पत्ति,
स्थिति वृद्धि-क्षय-परिणाम
और विनाश रुप
के विकारों से रहित हो!
बल-वीर्य-सामर्थ्य-तेज
की सीमा नहीं कोई,
जिधर देखता हूं
अनन्त भुजाएं लिए खड़े हो!
असंख्य मुख,
चन्द्र-सूर्य सम नेत्र हैं दिखते!
प्रज्ज्वलित अग्नि-सा प्रकाश
और तेज युक्त सारा विश्व है दिखता!'

'हे महात्मन!
विस्तृत रुप में सभी दिशाएं
स्वर्ग लोक-पृथ्वी की सीमाएं
सभी व्याप्त दिखती हैं |
यह अदभुत और उग्र रुप ऐसा
कि स्वर्ग-मृत्यु और अन्तरिक्ष
में स्थित सब जीव व्यथित से दिखते है!'

'देव समुदाय सभी
आपके विराट रुप में उपस्थित हैं!
कुछ भयभीत हुए,
कुछ जोड़े हातह्,
नाम-गुण की महिमा करते!
महर्षि-सिद्ध योगी सभी
कल्याण मयी भावों से
स्तुति आपकी करते दिखते |
विस्मित भाव से देख रहे,
रुद्र ग्यारह और बारह आदित्य,
आठ वसु और साध्य देव सभी!'

'रुप आपका, महिमा ऐसी,
अदभुत भाव से आश्चर्य चकित है,
विश्वदेव, अश्विनीकुमार,
वासुदेव, पितर समुदाय,
गन्धर्व-यज्ञ-राक्षस और सिद्धों के समुदाय!'

'हे महाबाहो!
असंख्य मुख, नेत्र देख,
अनगिनत हाथ-जंघा-पैरों को देख
उदर अनेक, विकराल भाव से
व्यथित सभी, मैं भी व्याकुल!'

'हे विष्णो!
कहां सौम्य मुखमण्डल,
चेहरे पर धीमी सी मुस्कान!
और कहां विकराल रुप यह नभ छूता,
वर्ण अनेक, कैसे मुख चारों ओर!
विशाल नेत्र हैं दैदीप्यमान!
अन्त:करण भयभीत हुआ
मैं धीरज-शांति खो रहा!'

'हे देवेश!
भूल दिशा ज्ञान मैं भटक रहा,
विकराल रुप देख दिग्भ्रमित हुआ |
अग्नि समान प्रज्ज्वलित मुखमण्डल देख
जल रही देखो मेरी त्वचा!'

'हे जगन्नाथ!
दया करो, के दया निधान!
लौटा दो अब वही सौम्य मुस्कान!'

'मैं देख रहा,
भयभीत हुआ!
धृतराष्ट्र पुत्र सभी,
राज समुदाय सभी,
भीष्म पितामाह, गुरु द्रोणाचार्य, कर्ण
और बहुत से यौद्धा हमारे,
विकराल-भयानक दाढओ से ग्रसित
मुखों में आपके प्रवेश कर रहे!
कई शूरवीर चूर्ण सिरों से
दांतो में आपकी फंसे हुए |
यह कैसी लीला है!
जो हुआ नहीं
वह भी हो रहा!'

'समुद्र की ओर जैसे नदियों का
जल दौड़ता,
वैसे ही नरलोक के वीर सभी
प्रज्ज्वलित मुखों में आपके
दौड़ रहे!
अग्नि मोह से आकर्षित हो
जैसे पतंगा नष्ट हो जाता,
वैसे ही यह शूरवीर हैं,
मोह में कैसे फंसे हुए,
दौड रहे हैं मुख की ओर!
कैसा है विकराल रुप |
उग्र भाव में ग्रास बने हैं
वीर सभी!'

'हे विष्णो! यह कैसी लीला है,
अतृप्त भाव से आप भी
उन्हें बार-बार चाट रहे हैं |
यह उग्र प्रकाश पुन्ज विलक्षण,
जगत् समग्र सन्तप्त विलक्षण!'

'हे देवों में श्रेष्ठ!
मुझे परिचय दो इस रुप का!
मुझे परिचय दो इस समग्र रुप का!'

'हे देव! आपको नमस्कार!
मन प्रसन्न करो अपना,
भयभीत हूं परिचय दो अपना!
कैसी प्रवृति, कैसा भाव यह
कैसा रहस्य यह,
उत्सुक हूं, परिचय दो अपना!'

श्री भगवान बोले
'एक रुप मेरा जन्मदाता का,
एक रुप मेरा आश्रयदाता का,
यह रुप मेरा महाकाल का!'

'जिन प्राणियों का अन्त समय आया है,
वे सब अब जाएंगे!
कैसे-कब, सब निश्चित है,
मेरे रुप में सब समाएंगे!
तुम कायरता से युद्ध छोड़ रहे,
स्वजन देख मुंह मोड रहे |
यह जानो कि मरण तो सबका
निश्चित है |
रक्षा अब नहीं हो सकती,
इन्हें कालग्रास अब बनना है!'

'जान इस मृत्यु-योग को,
उठ! धैर्य दिखा!
युद्ध कौशल दिखा!
यश प्राप्त कर
और शत्रुओं पर विजय पा!
राज्य-सुख भोग
धन-धान्य युक्त अब राजधर्म निभा!'

'एक ओर किसी का अन्त लिए है,
दूसरी ओर तेरे लिए
राज्य-सुख हाथ फैलाए
खड़ा है |
देखो! कैसी ये माया है!
किसी के लिए
एक ही क्षण में विध्वंस
और
किसी के लिए
सब सुख लिखा है!'

'यह सुख-दु:ख का चक्र,
यह जन्म-मृत्यु का चक्र,
चल रहा निरन्तर,
मेरे भाव में देखा तुमने,
इस विराट रुप में सब
उपस्थित!
यही भाव तुझे समझाया है,
जानकर यह सब,
उठकर युद्ध कर!'

'जो शूरवीर देखे तुमने
निकट भविष्य में मेरे हुए,
उठो हे सव्यसाची!
निमित्त बनो मेरे,
दोनो हाथ से बाण चलाकर
धर्म रक्षा हेतु युद्ध करो!
यह धर्म पालन तुझे
मेरा माध्यम ही तो बना रहा,
तू जिस प्राणी का मरना निश्चित,
उसे ही तो मारने जा रहा!'

'द्रोणाचार्य, भीष्म पितामाह
जयद्रथ और कर्ण
और बहुत से योद्धाओं का अन्त
कै निश्चित!
भय से रहित बन,
सब बैरी लोग काल के ग्रास बनेंगे |
सब पर तेरी विजय निश्चित,
उठ! संशय रहित बन,
मोह-ममता रहित बन,
धर्म के नाम पर कर्म निभा,
अर्जुन! उठ! निर्णायक युद्ध
का बिगुल है बज उठ!'

संजय तब बोला
'हे राजन!
वचन सुनकर केशव के,
सूर्य के समान प्रकाशमान
दिव्य मुकुटधारी
अर्जुन हाथ जोड़,
भयभीत हुआ
नतमस्तक होकर
श्री कृष्ण को वरुणामयी वाणी से बोला
'हे अन्तर्यामी!
एक ओर जग हर्षित होता,
एक ओर जग प्रेम में डूबा,
दूसरी ओर तेरा रुप भयंकर,
दौड़ रहे सब राक्षसजन इधर-उधर!
यह मेरे लिए है रुप रचा
यह रूप भयंकर मैंने देखा,
लीला तुम्हारी का रहस्य खुला |
यह विराट रुप वास्तव में जग है,
यह भाव सभी इस जग की दिनचर्या
यह अदभुत स्वरुप देख
मैं भयभीत हुआ!'

'हे महात्मन!
हे जगत के परम आधार!
जगत की रचना करने वाले
ब्रह्मा को तुमने बनया,
देव-ऋषियों का रुप रचा,
वे सब भी नतमस्तक है |'

'हे अनन्त! तू असीम है!
हे जगन्निवास!
तेरा अभाव नहीं हो सकता,
तू सत् आत्म भाव युक्त है,
तू ही असत् का रुप है
और तू ही सत्-असत्
से विरक्त भी है !'

'तेरा भाव समझने की बात् है |
तेरा रुप जानने की बत है |
तुझे पहचानने में एक क्षण भी
लग सकता,
और जन्म-जन्म तू समझ नहीं आता !'

'तू सच्चिदानन्दन परम ब्रह्मं,
तू अविनाशी सबका पालनहार,
तुझे बार-बार मेरा नमस्कार!'

'देवों के देव तुम्ही हो,
सनातन नित्य पुरुष परमात्मा तुम्हीं हो!
इस सृष्टि के परम आश्रय दाता तुम्हीं हो!
सृष्टि का भरण-पोषण तुम्हीं करते!
सृष्टि को प्रलय भाव में तुम्हीं ले जाते!
प्रलय में अपने अंश में सभी समेटे!'

'नित्य दृष्टा तुम्हीं,
सर्वज्ञ तुम्हीं
तुम्हारे सदृश नहीं कोई |
तेरा रुप जानने योग्य है!
तुझे समझना परम उद्देश्य है |
तू साक्षात परम परमेश्वर है!
तू मुक्त हुए पुरुषों की परम गति है,
तू परम धाम परमेश्वर है!
तेरा रुप अनन्त,
यह ब्रह्माण्ड है तुममें व्याप्त हुआ |
कहीं कुछ और नहीं
बस तेरा रुप ही अब दिखता |'

'तुम्हीं वायु हो,
तुम्हीं यमराज!
तुम्हीं अग्नि हो,
तुम्हीं वरुण-चन्द्रमा तुम्हीं हो,
तुम्हीं ब्रह्मा हो,
और तुम्हीं ब्रह्म के रचियेता हो!

तुम्हीं तुम हो,
तुम्हें मेरा कोटि-कोटि नमस्कार!
नमस्कार,
एक बार नहीं
बार-बार नमस्कार
नमस्कार!'

'हे अनन्त सामर्थ्य वाले ईश्वर!
सब दिशाओं में व्याप्त हो तुम|
तुम्हें मेरा नमस्कार,
तुम्हें आगे से, तुम्हें पीछे से,

ऊपर से, नीचे से,
दायें से, बायें से,
सब ओर से मेरा नमस्कार!'

'तुम सर्व रुप हो,
हर अणु में व्याप्त हो,
हर भाव का नया रुप हो |'

'अज्ञानता से मैं
सखा समझ केवल अपना,
प्रेम से, प्रसाद से 'हे कृष्ण!'
'हे सखे!' 'हे यादव!'
कहता रहा |
हे अच्युत! बिना जाने
बिना सोचे,
मैंने हठात विनोद भाव से
अपराध किया!
बिना जाने, बिना पहचाने
मैं मूढमति
नहीं जान पाया |
चलते-फिरते,
उठते-सोते,
सखा जान अपराध किया,
मुझे क्षमा करो
हे जगन्नाथ!
मैं अज्ञान भाव में न जान सका |'

'जगत पिता हो,
सबके गुरु
अति पूज्यनीय हो |
हे अनुपम प्रभाव युक्त स्वामी!
इस सृष्टि की पालन हार
तुम सदृश कोई नहीं |
कौन है ऐसा जो तुलना कर पाए!

हे दयामय!
सखा जान मैंने तुलना की,
बार-बार मैंने दुष्टता की |
अब तुम्हीं क्षमा प्रदान करो,
अब तुम्हीं क्षमा प्रदान करो!'

'हे प्रभो!
पिता पुत्र के,
मित्र मित्र के,
पति अपनी प्रियतमा पत्नि के
अपराध सहन कर सकता,
वैसे ही मेरे अपराध भाव को
क्षमा करो !
प्रसन्न होकर
मेरा निवेदन स्वीकार करो!'

'मैं हर्षिट हो
आश्चर्यमयी यह रुप देखकर,
मैं व्याकुल भी हूं मन से,
इस विराट रुप को देखकर,
सौम्य रुप तुम्हारा, गुण, प्रभाव
मुझे हर्षित करता,
वही विकराल रुप मुझे व्याकुल करता |'

'लौट आओ, अपनी मुद्रा में!
मुझे वही सौम्य रुप दिखाओ!
मुझे वही सौम्य रुप दिखाओ!
मुझे वही चतुर्भुज रुप दिखाओ
मुझे परमधाम में स्थित अपना
विष्णुरुप दिखाओ |'

'हे देवेश!
हे जगन्नाथ!
प्रसन्न हो जाओ |
अपना सौम्य रुप दिखाओ |
हे विश्व रुप!
हे सहस्रबाहो!
मुकुट धारण किए,
हाथ में गदा-चक्र लिए,
सौम्य सी मुस्कान से,
अपने चतुर्भुज रुप में प्रकट
हो जाओ!'

देखो! भाग्य देखो
अर्जुन का!
ईश्वर का विराट रुप देखा,
ईश्वर का मनुष्य रुप देखा,
ईश्वर का सौम्य रुप भी देखेगा |
भक्ति में शक्ति कितनी होती!
भक्ति मे श्रद्धा से कैसे
कृष्ण रुप को पा सकते!

श्री भगवान बोले
'हे अर्जुन!
तुम मेरे प्रिय,
तुम मेरे सखा बने हो |
तुम्हारी भक्ति, तुम्हारी प्रार्थना
बनी थी सर्वोपरि,
तभी तुम्हे यह रुप दिखाय |
इस आलौकिक रुप से
न भय करो, न व्यकुल हो |'

'इस विराट रुप के दर्शन
योग शक्ति से होते हैं !
इस विराट रुप के दर्श न दिव्य दृष्टि
से होते हैं |
यह रुप दिव्य प्रकाश का पुन्ज है |
पर यह भी पूर्ण नहीं |'

'यह बस केवल एक अंश है |
हे अर्जुन!
मनुष्य लोक में
यह रुप फिर से न कोई देख पाएगा |
न वेद पढकर ,
न यज्ञ करके,
न दान से, न ज्ञान से |
न वर्ण-धर्म के पालन से,
न उग्र भाव धारण करके
अब कोई इस रुप के दर्शन
न कर पाएगा |
अब व्याकुल मत हो!
मूढ भाव अब त्याग दो!
भय रहित बन,
प्रीतियुक्त वही अर्जुन बन!
देख! मन कर अपना प्रसन्न,
देख! मेरा शंख-चक्र-गदायुक्त
चतुर्भुज रुप अब देख!'
और कृष्ण ने अपना
चतुर्भुज रुप दिखाया |
सौम्य भाव में लौटकर
मनुष्य रुप धारण कर,
वासुदेव ने अर्जुन को
धीरज दिया |

अर्जुन भी
दर्शन पाकर सौम्य रुप
का शांत-चित्त
होकर बोला -
'हे जनार्दन!
मधुर-शांत यह सौम्य रुप
को फिर से देख कर,
मेरा चित्त स्थिर अब हो गया |
मैं स्वाभाविक स्थिति में लौट आया |
भय-व्याकुलता अब दूर हुई,
अपनी स्थिति में मैं लौट आया |'

श्री भगवन तब बोले,
'मेरा चतुर्भुज विष्णु रुप,
मायतीत, दिव्य गुणों से युक्त,
नित्य रुप का दर्शन भी दुर्लभ है |
देव पुरुष भी इच्छा रखते,
इस रुप को देखने की |
चह चतुर्भुज रुप
न वेदों से, न तप से,
न दान से, न यज्ञ से देख सकते |
यह अनन्य भक्ति से,
एकीभाव में स्थापित हो कर
प्रत्यक्ष दिखता है |'

'हे अर्जुन!
जो प्राणी कर्तव्य कर्म करता,
ममता आसक्ति अहम् त्याग
सब मुझको समर्पित करता,
जो भक्ति में शक्ति पाता,
वैर भाव मन में न रखता,
वह अनन्य भक्ति पूर्ण
प्राणी नित्य
मुझे पा लेता |
वह मेरा ही रुप बन
मुझमें आत्मसात हो जाता |'
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