भक्ति योग
'हे प्रभु!
भक्ति में शक्ति है,
यह अब जान गया |
जिज्ञासा है भक्ति-भाव को जानने की |
जिज्ञासा है उपासना विधि जानने की |
कहीं निर्गुण-निराकार का महत्व
मुझे बताया है |
कहीं सगुण-साकार का रुप
मुझे समझाया है |'
'प्रेमी भक्त
निश्छल भक्ति से
भजन-ध्यान में लगे हुए,
निरन्तर सगुण रुप परमेश्वर का
भजते हैं |
प्रेमी भक्त ऐसे भी हैं
जो अतिश्रेष्ठ भाव से
अविनाशी सच्चिदानन्दन
निराकर-ब्रह्म को भजते हैं |
कौन उत्तम?
कौन अति उत्तम?
अतुलनिय भाव की
तुलना कैसी?
यह मेरी जिज्ञासा है,
निर्गुण भाव
और
सगुण भाव
में भाव कौन सा श्रेष्ठ है?'
श्री भगवन बोले,
सुनकर अर्जुन के वचन,
'योगियों में उत्तम योगी
वही होता
जो समस्त कर्मो में रत रहकर भी,
सर्व-सर्वत्र प्रभु चिन्तन में लीन रहता |
तन्मय होकर ईश्वर के गुण-प्रभाव
में मन स्थापित करता |'
'ईश्वर की सत्ता में, वचनों में,
शक्ति में
अतिशय श्रद्धा रखता, उसी पर निर्भर रहता |
सगुण रुप मन में होता,
उसी रुप में ध्यान स्थापित होता |'
'जो पुरुष मन-इन्द्रियों को वश में करके,
मन-बुद्धि को स्थिर करके
सर्वव्यापी-नित्य-अचल-निराकार ब्रह्म की,
समभाव युक्त होकर
उपासना करते,
सभी प्राणियों से समहित भावना रखते,
वे योगी ही मुझे प्राप्त होते |'
'सगुण रुप ईश्वर का,
अनन्य भक्ति से प्राणी
सहज प्राप्त कर लेता |
वह सगुण उपासक
ईश्वर को तत्व रुप में जानता |
वह ईश्वर के दर्शन
सहज ही पा लेता |'
'निर्गुण-उपासक
योग भाव से
अनेकता में एकता का भाव देखता |
ईश्वर का दर्शन पाने को
वह उत्सुक न होता |
उसे निराकार ब्रह्म से आगे
ईश्वर भाव कर्म-ज्ञान-लोकहित ही लगता |'
'निर्गुण-ब्रह्म का तत्व गहन है |
बुद्धि जिसकी शुद्ध-स्थिर और सूक्ष्म
होती,
जिसमें अहंभाव नहीं होता
वही उसे समझ सकता |
वह विलक्षण बुद्धि-युक्त होता |'
'सच्चिदानन्दन निराकार ब्रह्म की उपासना
है कठिन बहुत,
देहाभिमान में स्थित पुरुष
यह भाव कठिनता से पाते |
सगुण-उपासना है सरल,
ईश्वर पर रहता योगी निर्भर |
ईश्वरीय शक्ति से प्रार्थना होती,
सहायता भी ईश्वर से मिलती |'
'ईश्वर पर निर्भर होकर
प्राणी यदि निर्भय-निराकार रहता,
दु:खों को भी ईश्वर का प्रसाद
समझ कर
ग्रहण करता,
दु:ख को सुख रुप में लेता,
ईश्वर की शरण में रहता,
परमप्रेमी, परमगति,परम सुहृद
समझ,
कर्म भाव से युक्त रहकर सब
सगुण रुप परमेश्वर को
अर्पण कर देता
वह भक्तिभाव में ईश्वर पा लेता'
'हे अर्जुन!
मृत्यु रुप संसार सागर से
उद्धार भी मैं करवाता |
प्रियजन मेरे, सखा बनकर
भक्तों का उद्धार मैं करता |'
'जगत यह व्याप्त
जिसके हृदय में,
जो दयालु-सर्वत्र-सुहृद
गुणों का सागर,
उस परम दिव्य,
आनन्दमय,
सर्वशक्तिमान
परमेश्वर में मन को लगा |
उसी में बुद्धि तो टिका |'
'संशय मत कर |
सदा-सर्वदा-सर्वत्र
अटल निश्चय रख |
ईश्वर भाव तभी समझेगा,
ईश्वर में तू तभी स्थित होगा |'
'मन अचल-अटल
स्थापित करो |
भटके मन अभ्यास करो,
बार-बार अभ्यास करो |
हे अर्जुन!
अभ्यास भाव में एक ही
भाव स्थापित कर,
ईश्वर को पाने की
बस इच्छा कर |'
'हे अर्जुन!
मन ईश्वर में अचल स्थापित करना
कठिन,
अभ्यास योग भी लगे कठिन,
तब ईश्वर को तू परम आश्रम मान
श्रद्धा-प्रेम से मन-वाणी और
शरीर से
शास्त्रविहित कर्मो की राह पर चल
कर्तव्य समझ कर कर्म निभा
ईश्वर भाव को पाने क यह
सरल साधना अपना |'
'और यदि कर्म योग पर आश्रित
राह भी कठिन लगे
तब सब कर्मो में निहित
ममता-आसक्ति-कामना
से विरक्त हो
कर्मो से फल की इच्छा का त्याग कर |'
'समस्त कर्मो को ईश्वर में
अर्पित करना,
ईश्वर के लिए समस्त कर्म करना,
और सब कर्मो के फल का त्याग
करना,
ये तीनों ही हैं कर्म योग |
तीनों ही राह हैं ईश्वर भाव को पाने की |'
'केवल कर्म योगी की भावना
और
कर्म की प्रणाली का भेद है |
समस्त कर्म ईश्वर को
अर्पित करना
और
ईश्वर के लिए समस्त कर्म करना
इनमें भक्ति भाव की प्रधानता |'
'सर्व कर्मफल त्याग में केवल
फल-त्याग की प्रधानता है |
कर्म का मर्म समझे बिना
अभ्यास करना व्यर्थ |'
'विवेकहीन अभ्यास
अभ्यास नहीं कहलाता |
ऐसे अभ्यास से
विवेक ज्ञान श्रेष्ठ होता |
कर्म का मर्म जान लेने पर
ज्ञान जाग्रत हो उठता |
ज्ञान से अभ्यास करना
ही सिद्ध होता |'
'वैसे ही ज्ञान से
श्रेष्ठ ध्यान होता |
ईश्वर को श्रेष्ठ मानकर
अपने सब कर्म उसी पर
अर्पित कर देता |
उसके ध्यान योग में
तत्व ज्ञान और अभ्यास
का समन्वय हो जाता |'
'अभ्यास-ज्ञान-ध्यान
से भी उत्कृष्ट
कर्मो के प्रति फल के त्याग
की भावना होती |
इस कर्म फल त्याग की
भावना से ही परम शांति मिल जाती |
ऐसे में जिस कर्मयोगी
की भावना
ईश्वर को सर्वश्रेष्ठ मान
निष्काम भाव की होती,
वह स्वयं ही
अभ्यास में लीन रहता
तत्व ज्ञान भाव जाग्रत रखता
और ध्यान में उसके
ईश्वर का स्वरुप उपस्थित रहता |
'जो पुरुष
प्राणियों से द्वेष-भाव नहीं रखता,
स्वार्थ रहित सम-प्रेम भाव रखता,
आकांक्षा रहित दया भाव रखता,
ममता से मन ग्रस्त न करता,
अहम् भाव से विलग रहता,
सुख पाकर आसक्त न होता,
दु:ख देख विरक्त न होता,
वह समभाव युक्त रहता |
ऐसा योगी सदा सन्तुष्ट रहता,
क्षमावान होता,
अहित चाहने वाले का भी हित सोचता |'
'मन-इन्द्रिय सभी वश में होती,
ईश्वर में दृढ-निश्चय रखता,
मन बुद्धि ईश्वर को समर्पित कर देता
वही भक्त ईश्वर का प्रिय बन पाता |
श्रद्धा ईश्वर पर
प्रेम ईश्वर से
जिस भक्त को सब ईश्वरमयी लगता,
वह जाने-अनजाने
प्राणी से दु:ख-संताप-भय-क्षोभ
न रखता,
सबकी सेवा,
परम हित भाव सबसे रखता |
वह दया-प्रेम की मूर्ति होता,
समभाव युक्त होता,
हर्ष-शोक-दु:ख-भय
का भाव न होता |
उद्वेग उसे विचलित
न करते,
प्रभु लीला में लीन रहता,
वह प्रिय भक्त मेरा कहलाता |'
'जीवन-निर्वाह में
प्रकृति-प्रेरित कर्म में लीन,
आकांक्षाओं से रहित,
बाहर-भीतर शुद्ध
द्वेष रहित,
समभाव बुद्धि युक्त,
पक्षपात से रहित,
विकार रहित
दु:ख की परिभाषा सुख समझे,
सहज भाव से कर्म करे
वह अभिमान रहित होकर
लोकहित भाव से
कर्म यज्ञ में जुटा रहे,
वही कर्म के आरम्भ से ही
त्याग भाव रखे
और मेरा प्रिय भक्त कहलाए |'
'ईष्ट वस्तु की प्राप्ति में,
अनिष्ट के वियोग में,
जो हर्ष भाव
का सर्वथा अभाव करे,
वह भक्त केवल
परम-प्रिय परमेश्वर
को सदा से साथ मान कर
उसी भाव में मग्न रहे |
सम्पूर्ण जगत ईश्वर का स्वरुप समझे,
ऐसे में किसी जड़-चेतन मे द्वेष न रखे |
ईश्वर भाव से प्रेम है जब,
द्वेष भाव कैसे रह सकता तब?'
'अनिष्ट भाव को पाकर
जो शक्ति नहीं करत,
ईश्वर का ही प्रसाद समझता |
जीवन का एक अनुभव माने,
कष्ट को कष्ट न मान,
शोक को शोक न समझ,
वह जीवन को ईश्वर का
भाव माने |
ऐसे में वह कामना,
शुभ-अशुभ
समस्त कर्मो में
ईश्वर भाव ही जाने |
वह स्वयं को कर्मो का
कर्ता भी न जाने |
वह कर्म भाव को
ईश्वरीय भाव ही माने |
ऐसा पुरुष त्यागी कहलाता,
वह भक्ति युक्त
मुझे परम प्रिय लगता |'
जब मन में विकार
नहीं होता,
जब मन समभाव युक्त होता,
तब कैसे
शत्रु-मित्र में,
मान-अपमान में,
सुख-दु:ख में,
सर्दी-गर्मी में
भेद लगे?
सब समभाव युक्त होता,
सब आसक्ति रहित होता |
बस प्रेम भाव मन में होता |'
'भक्त का नाम नहीं होता,
भक्त का शरीर नहीं होता,
भक्त अभिमान रहित होता,
भक्त ममत्व रहित होता |
वह केवल भक्त ही होता |
उसमें कुछ भेदभाव नहीं होता |
उसे सब ईश्वर ही लगता |
ऐसे में निन्दा
निन्दा नहीं लगती |
स्तुति में स्तुति भाव नहीं लगता |
उसे समभाव प्रेम ही दिखता |'
'वह मननशील,
कर्मो से सन्तुष्ट,
ममता-आसक्ति से रहित,
जो मिल जाए उसी में सन्तुष्ट रहता,
वह स्थिर बुद्धि-युक्त होता,
वह प्राणी मुझे प्रिय होता |'
'जो श्रद्धा युक्त प्राणी,
ईश्वर को सर्वव्यापी,
सर्वशक्तिमान मान,
ईश्वर के गुण-प्रभाव-वचनों
को परम प्रेम से
सहज होकर ग्रहण करे,
ईश्वर के धर्ममय
अंरत् को
निष्काम भाव से,
प्रेम भाव से ग्रहण करे
वह भक्त
अतिशय प्रेम
का पात्र बने |
वह मेरा परमप्रिय
कहलाए |'
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