Audio Hindi Books ---- Kavita Mein Gita (Poetry Translation of Shrimad Bhagvad Gita)
श्रीमद् भगवद् गीता

कविता अनुवाद
अश्विनी कपूर


SRIMAD BHAGAVAD GITA
Poetry Translation
by ASHWANI KAPOOR
 
"KAVITA MEIN GITA"
(Voice & Text)
CHAPTER
अध्याय
I. GITA DHARM
गीता धर्म
II. GITA NIRMAN
गीता निर्माण
1. ARJUN VISHAD YOG
अर्जुन विषाद योग
2. SANKHYA YOG
सांख्य योग
3. KARM YOG
कर्म योग
4. GYAN-KARM-SANYAS YOG
ज्ञान कर्म सन्यास योग
5. KARM-SANYAS YOG
कर्म सन्यास योग
 
6. ATAM-SANYAM YOG
आत्म संयम योग
 
7. GYAN-VIGYAN YOG
ज्ञान विज्ञान योग
 
8. AKSHAR-BRAHM YOG
अक्षर ब्रह्म योग
 
9. PARAM GOPNIYE GYAN YOG
परम गोपनिय ज्ञान योग
 
10. VIBHUTI YOG
विभूति योग
 
11. VISHWAROOP DARSHAN YOG
विश्व रुप दर्शन योग
 
12. BHAKTI YOG
भक्ति योग
 
13. SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG
शरीर और आत्मा विभाग योग
 
14. GUNTREY VIBHAAG YOG
गुणत्रय विभाग योग
15. PURSHOTTAM YOG
पुरुषोत्तम योग
 
16. DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG
देवासुर सम्पद विभाग योग
 
17. SHRADHATREY VIBHAG YOG
श्रद्धात्रय विभाग योग
 
18. MOKSH SANYAS YOG
मोक्ष सन्यास योग
 
19. KRISHAN BHAAV
कृष्ण भाव

 
 
ज्ञान कर्म सन्यास योग

'बुद्धि द्वारा मन वश में करके,
काम रुप दुर्जन शत्रु का नाश करो |
कर्म योग में
आसक्ति-कामना-ममता रहित
निष्काम भाव से लोकहित में जुटे रहो,
'काम' भाव का त्याग करो,
हठ योग या समाधि योग नहीं,
कर्म योग ही प्रधान समझो |'

यह बतलाकर श्री कृष्ण
ने कहे ये वचन-
'यह योग सूर्य ने मुझसे जाना,
सूर्य से सूर्यपुत्र मनु ने,
मनु से राजा इक्ष्वाकु ने
और
तदन्तर सभी सूर्यवंशियों ने जाना |
वेद-विधान के ज्ञाता राजर्षि
राज धर्म में,
करते रहे युगों-युगों तक इसका आचरण |'

'लोकहित
राजवंश का परम धर्म,
लोकहित
जब तक ध्येय रहा,
कर्म योग ही साधन रहा |'

'कहीं कभी किसी काल में,
कोई न कोई
प्रेरणासूत्र राह भटक गया,
कर्म योग से
आसक्ति मार्ग पर चला गया,
धीरे-धीरे यह साधन
लुप्त प्राय: हो गया |'

'भोग में ही
योग सबने देखा,
और
आसक्ति-कामना-ममता
युक्त साकाम भाव
ही 'कर्मयोग' का साधन बना |'

'वेद वाणी लुप्त हो गई |
नए-नए आयाम
स्थापित हुए
लोकहित युक्त
राज धर्म
का बदल गया
स्वरुप |'

यह कर्म योग,
यह ज्ञान योग
यह भक्ति योग
है अविनाशी,
-यह प्रकाश-पुन्ज
सबके भीतर तब भी
रहा विद्यमान,
आज भी सभी में इसका स्वरुप
परन्तु युगों-युगों में बदले
स्वरुप से
लुप्त हो गया इसका ज्ञान |'

'शरणागत होकर,
अन्त:स्थल में व्याकुल होकर,
जिज्ञासा भरी साधना ही,
अधिकार देती है मानव को
ज्ञान प्राप्त करने का |
जबरन कोई किसी को
कुछ नहीं सिखा सकता |'

'युद्ध क्षेत्र में
जिस व्याकुलता से,
जिस अधीरता से
तुमने
शोक से निवृत होने की,
कल्याण-मार्ग को पाने की
जिज्ञासा की है |
तुम परम प्रिय सखा हो
तुम परम प्रिय भक्त हो,
मैनें तुमसे वह योग कहा है,
वही पुरातन योग कहा है,
जो राज धर्म का, लोकहित हेतु कर्म का,
स्त्रोत है ज्ञानमयी प्रकाश पुन्ज का |'

'यह उत्तम रहस्य गोपनीय है
यह गुप्त रखने योग्य है
उसे ही प्रकट करो जो
जिज्ञासु-व्याकुलता से भरा,
तुझसा साधक हो और
लोकहित जिसका धर्म-कर्म हो |'

'व्याकुल अर्जुन तब और हुआ,
शंकाओं से घिरा हुआ,
श्री कृष्ण से फिर बोला,
'सूर्य की उत्पत्ति,
सृष्टि के आरम्भ में,
हुई अदिति के गर्भ से,
जन्म आपका अभी हुआ
फिर कैसे मानूं हे भगवन!

यह कर्म योग क रहस्य
आप ही ने सूर्य से कहा?
मेरी व्याकुलता दूर करो,
मुझे अपना स्वरुप समझाओ |
हे कृष्ण! तुम अपनी सर्वज्ञता का,
जीवों की अल्पज्ञता का रहस्य
समझाओ |'

श्री कृष्ण, तब बोले,
'हे अर्जुन!
मैं और तुम
अभी प्रकट हुए है,
पहले न थे
यह सत्य नहीं है |
हम सभी अनादि-नित्य है |
मेरा नित्य स्वरुप तो है ही
और मै युगों-युगों में,
विविध रुपों में,
मानवता की रक्षा में,
धर्म की स्थापना में,
अब ही नहीं,
पहले भी प्रकट को चुका हूँ |'

'कल्प में मैंने
नारायण रुप में ही सूर्य से
यह योग कहा था
और
अब मै तुमसे यह योग कह रहा हूँ |'

'मै धर्म-स्थापना करने आया हूँ
अर्जुन! तुम मेरा माध्यम हो,
अर्जुन! तुम मेरे प्रिय हो,
यह भाव समझो,
मेरा स्वरुप स्वयं समझ जाओगे |'

'मैं अजन्मा हूँ,
अविनाशी हूँ,
और समस्त जगत का
ईश्वर हूँ,
पर योग माया से
प्रकृति के नियम में
स्वयं को स्थापित करके
प्रकट होता हूँ
प्रकृति में आई विघ्नता
को दूर करने |'

'मैं योग माया के पर्दे मी छिपा,
साधारण मनुष्य-सा प्रकट होता हूँ
अज्ञानी-जन जब मैं आता हूँ
उसे मेरा जन्म,
और जब मैं जाता हूँ
उसे मेरा मरण मान लेते है,
और मैं जब-जब मनुष्य रुप में
लीला करता हूँ
वे अज्ञानी मेरा तिरस्कार करते है
युगों-युगों से ऐसा ही हुआ है
मेरे हर रुप का कहीं न कहीं
तिरस्कार भी हुआ है |'

'मेरा जन्म
दिव्य रुप में
इच्छा भाव से होता है,
कर्म प्रेरित,
प्रकृति स्वरुप से अलग-थलग होता है
मेरे कर्म विलक्षण रहते,
मैं लोकहित भाव से ही प्रकट होता
योग माया से प्रविष्ट होता हूँ
इस सृष्टि की प्रकृति में
और
योग माया से साधन प्रदानकर
ज्ञानी जन को,
योग माया से ही
अप्रकट हो जाता हूँ |'

'हे भारत!
जब-जब धर्म का नाश होता है,
अधर्म का विकास होता है,
तब-तब रुप रचता हूँ,
नई-नई लीलाएँ रचकर,
साकार रुप में प्रकट हो जाता हूँ |'

'अहिंसा-सत्य
और
समस्त सामान्य धर्मो का,
यज्ञ-दान-तप-अध्ययन-अध्यापन
एवं प्रजापालन,
अपने-अपने वर्ण आश्रम का,
अपने-अपने धर्म पालन,
हितकारी-सदाचारी
श्रद्धालु जन का
उद्धार करने,
प्राकृतिक नियम का प्रचार करने,
श्रवण-मनन-चिन्तन
और ममता-आसक्ति-कामना रहित
कर्म का विकास करने,
पाप कर्म में जुटे मनुष्यों का
विनाश करने,
उनके प्रकाश-पुन्ज का
विकास करने,
पथभ्रष्ट को राह दिखाने
मैं युगों-युगों में प्रकट हुआ,
मैं इस युग में अब आया हूँ
मैं युगों-युगों आता रहूँगा
मैं लोकहित में अपना
योग लगाता रहूँगा |'

'हे अर्जुन!
जन्म दिव्य,
सब कर्म दिव्य हैं |
दर्शन, स्पर्श से सुख देकर,
मन आकर्षित करके,
धर्म को स्थापित करने,
जन्म-धारण की लीला मैं करता |'

'मेरे कर्म में अहम् नहीं,
आसक्ति-कामना द्वेष
दोष से मुक्त सभी,
केवल निहीत कल्याण भाव,
केवल नीति-धर्म-प्रेम-भक्ति
का भाव छिपा |'

'मेरे कर्म सब लोकहित समर्पित
तत्व ज्ञान ही प्रधान |
प्राप्त हो जिसे यह ज्ञान,
वह मुझमें ही समा जाता,
वह मुझसे अलग नहीं होता,
वह प्रकृति में प्रविष्ट नहीं होता
न पीछे कहीं जाता है वह,
न ही नयी देह पाता है |
वह मेरी तरह इसी प्रकृति के
कण-कण में विराजमान हो जाता है |'

'राग-द्वेष, भय-क्रोध सर्वथा नष्ट हो जाते,
मेरी प्रकृति के मन रुप में
प्रेम भाव से स्थित हो जाते,
मुझमें वे स्थापित हो जाते
युगों-युगों से यह होता रहा है,
ज्ञान योग से कर्म योग
में मग्न प्राणी,
पवित्र मयी होकर मुझमें ही समा जाता है |
उसका कर्म, कर्म होकर भी
लोकहित में, कर्म से अहम् भाव
निवृत होता है |
उसमें राग-द्वेष, भय-क्रोध
का सर्वथा अभाव हो जाता है |'

'मेरा मैं सर्वत्र व्याप्त,
जैसे जिसने जब-जब मुझको चाहा,
मैं तब-तब वैसे रुप में चला आया,
मैं एक, पर भक्त मानें मेरे रुप अनेक |
मेरी उपासना जो जिस रुप में करता
मैं उसे वैसे ही दर्शन देता हूँ |
जो जैसे मेरा चिन्तन करता,
मैं वैसे उसका चिन्तन करता हूँ |
जो मेरे लिए व्याकुल हो जाता,
मैं उसके मिलन को आतुर होता हूँ |
जो मुझ पर न्यौछावर होता,
मैं सर्वस्व लुटा देता हूँ |'

'ध्यान मग्न होकर,
करो मेरा स्मरण,
मैं वहीं तुम्हें मिलूँगा,
मन जहाँ करोगे अर्पण |
मैं अहम् भाव मुक्त हुआ
प्रेम ही लुटाऊँगा,
तभी तो मेरी महिमा समझोगे
और प्रेम ही फैलाओगे |
जैसा मुझे दोगे,
वैसा ही तुम पाओगे |'

'मेरा ज्ञान कठिन,
कर्म योग है और कठिन,
क्षण भर में कुछ न हो पाता |
न मैं मिलता,
न निष्काम भाव का 'भाव' समझ आता |
मेरी आराधना कुछ भी नहीं
बस, लोकहित कर्म की है,
आसक्ति-कामना-के
समर्पण की है |
ऐसे में मन मुझमें
सभी न लगा पाते
सब देवताओं में ध्यान लगा देते |
वे साधन सब जुटा रहे,
वे ही भण्डार है भरते
बस, यह जीवन
साकाम कर्म,
बस यह जीवन ही 'जीवन',
यह जीवन ही महान धर्म |
जिसने सब साधन दिए,
उसकी आराधना करो,
वही और भी साधन देगा,
वही और सिद्धियाँ देता
हित-अहित की कौन सोचे
सब स्वार्थ सिद्धि की बात सोचें,
और तभी
सिद्धियाँ पाने को,
देव पुरुषों के चरण पकड लें |
वे सिद्ध कर देते सब साधन,
वे सुगाम बना देते यह जीवन |'

'मैं तो कर्मो का कर्ता होकर भी,
प्रकृति में अकर्ता हूँ |
मैनें तो रचना की है,
प्रकृति चक्र की सरंचना की है,
सब कुछ सब है स्वयं चल रहा,
ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य और शूद्र
चार वर्ण की कर्म भाव से केवल रचना हुई,
सब एक-दूसरे पर निर्भर,
सब समूह, गुण और कर्मो से
बँधे हुए है
यह मनुष्य एक
यह जन्म एक
सब के धर्म है
कर्मो से बंधे हुए,
मेरा धर्म है स्वकर्म करना,
तेरा धर्म है स्वकर्म करना
अपना धर्म है सर्वोपरि,
अपना कर्म है सर्वोपरि,
फिर कौन कहाँ छोटा किससे?
कौन कहाँ किससे बड़ा?
मैं तुमसे बँधा,
तुम मुझसे बन्धन बाँधें |'

'अहम् भाव ही
हुमें एक-दूसरे से अलग करवाते
ब्राह्मण को क्षत्रिय से
क्षत्रिय को वैश्य से
और वैश्य को शूद्र से
छोटा-बड़ा करवाते |
मेरी प्रकृति में
सब एक समान,
सबके अपने कर्म महान!'

'जो कर्म मिला उसको निभा,
दूसरे के कर्म से,
दूसरे के धर्म से,
अपनी तुलना मत कर |
मेरी प्रकृति में सब
कर्म ही प्रधान,
सभी कर्म लोकहित में एक समान |'

'अहम्, भाव से विरक्त होकर
जो करता यह कर्म,
यह कर्मयोगी कहलाता,
वह कर्म निष्काम भाव से किया
कर्म कहलाता |'

'हे अर्जुन!
मैं जो भी कर्म करता हूँ
वे ममता-आसक्ति
फलेच्छा और कर्तापन रहित,
लोकहितार्थ होते है,
उनसे मेरा बन्धन नहीं होता,
इसीलिए मैं उनमें लिप्त नहीं होता |
बस वह सृष्टि चक्र
के साथ-साथ चलते रहते |
उनका चक्र कभी नहीं टूटता,
बस कभी कर्ता का स्वरुप,
कभी कर्ता का रुप बदल जाता है |
ऐसे में कर्तापन का एहसास
नहीं होता |
ऐसे में कर्तापन का अहम् नहीं होता |

'ऐसे ज्ञानी जन,
ऐसे मनुष्य जो
जन्म-मरण के बन्धन से
मुक्त होकर
परमानन्द स्वरुप में
स्वयं को लीन कर दें,
जो जन्म में पाए भोगों से
विरक्त हो जाएं,
और जो कामना-और आसक्ति
से रहित हो कर
राग-द्वेष से मुक्ति पा लें |'

'वे ज्ञानी जन
वे सभी पूर्वज तेरे,
कर्मो की दिव्यता समझकर
कर्मों का तत्व समझकर
निष्काम भाव से करते थे आचरण |
निष्काम भाव से किए कर्म ही कर्म कहलाते
उठ! वही कर्म निभा |
चल उठ! अपना धर्म निभा |'

'कर्म क्या है?
अकर्म क्या है?
इसका निर्माण भी मोहित करता |
अब कर्म तत्व का ज्ञान समझ,
यह कर्म तत्व ही तुझे
अशुभता का भाव समझाएगा |
जिसे तू अशुभ मान रहा,
उसी कर्म बन्धन से तू स्वयं को
मुक्त पाएगा |'

'कर्म का स्वरुप समझना,
अकर्म की स्थिति को परख पाना
और विकर्मो को अलग कर पाना
कैसे हो पाता,
इस गहन गति को कर्म की
हर प्राणी समझ न पाता |
शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म का नाम कर्म है,
इतना कह देना सरल बहुत,
आचरण भाव के भेद से,
कर्म स्वरुप में भेद हो जाता
शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म का नाम
अकर्मता की श्रेणी में आ जाता |'

'शास्त्र तत्व को जाने बिना,
पुण्य को प्राणी पाप,
और
पाप को पुण्य की श्रेणी में पाता |
मेरा कर्म दूसरे के लिए विकर्म बन जाता |'

'शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म
ही कर्म कहलाते,
इन सब में
आसक्ति-फलेच्छा का त्याग करो,
ममता-अहंकार का मूल त्यागो,
तभी ज्ञानी जन कर्म को
अकर्म-भाव से देखता |
कर्म करके भी स्वयं को
कर्मो में लिप्त नहीं पाता |'
'अकर्म में कर्म यानि,
कर्मो का त्याग
कष्ट के भय से नहीं
राग-द्वेष-मोहवश नहीं
मान-प्रशंसा-प्रतिष्ठा वश होकर नहीं,
बल्कि
मुक्त भाव से त्याग में भी
ममता-आसक्ति-फलेच्छा
और अहंकार जिसके आड़े न आता,
वह ज्ञानी पुरुष कहलाता |
वह योग को प्राप्त कहलाता |
कर्म में अकर्म देखकर
और अकर्म में कर्म देखकर ही
वह समस्त कर्मो का कर्तव्य निभा
योगी कहलाता |'

'सभी कर्म जिस योगी जन के
शास्त्र-सम्मत होते,
कामना रहित,
संकल्प रहित होते,
वहां कर्म-अकर्म का भेद न होता,
वहां केवल कर्तव्य भाव होता |
ज्ञानाग्नि की लौ में
भेद सभी मिट जाते
वह महापुरुष ही
पण्डित-पद पाता |'

'जो पुरुष समस्त कर्मो में
लिप्त होकर भी
लिप्त नहीं स्वयं को पाता,
फल में आसक्ति का
सर्वथा त्याग कर देता,
वह स्वयं को
संसारिक होते हुए भी
स्वयं को सभी कर्मो से मुक्त पाता |
उसे न तो आभास होता
अपने कर्म का,
न अकर्म का,
वह तो रम जाता
प्रकृति-प्रेरित
प्रकृति में |'

जिस मनुष्य को
किसी वस्तु को पाने की
आवश्यकता न होती,
किसी भी कर्म से इच्छा न होती,
किसी भी भोग की आशा न होती
जिसने इच्छा-कामना-वासना का
त्याग कर दिया,
वह विजयी पुरुष

अन्तरात्मा में सन्तुष्ट रहता
और यज्ञ-दान-अनुष्ठान
आदि कर्मो का भी अनुष्ठान न करके,
केवल
शरीर्-सम्बन्धी कर्म ही करता,
भूख लगने पर खा लेता,
प्यास लगने पर पानी पी लेता,
'वह भी पापी न कहलाता,
उसका धर्म अकर्म की श्रेणी में न आता |
क्योंकि उसका त्याग
आसक्ति-अहम्-फलेच्छा रहित है |
उसी में कहीं न कहीं इस प्रकृति का हित है |'

'मन-इच्छा रुप पाकर
कुछ आनन्दित होता,
राग बढाकर
और पाने की इच्छा करना
या फिर
मन से प्रतिकूल पाकर
कुछ द्वेष करना,
उसके नष्ट होने की इच्छा करना,
दोनों परिस्थितियों में जो सम रहता
शांत-प्रसन्नचित रहता,
हर्ष-शोक के द्वन्द से
दूर हुआ जो
वह कर्म योगी
कर्म करते हुए भी
स्वयं को बंधा नहीं पाता |
वह मुक्त होता
वह तृप्त होता
वह परम आनन्द को पाता |
वह योगी
आसक्ति-रहित हो जाता |'

'चाह कर भी
जिसे आसक्ति का आभास न होता,
वह देह दम्भ से दूर होता |
न देह की ममता होती,
न होता अनुराग,
ज्ञान योग में जो लीन होकर
मन को पाता जो स्थिर |
जो अपने वर्ण-आश्रम व परिस्थिति
अनुरुप ढल जाता,
जिसमें इस भेद का अभाव हो जाता
बस, जो केवल कर्तव्य कर्म में
जुटा रहता
वही योगी
वही यज्ञ उसे जीवन लगता
उसके सभी कर्म ही
विलीन हो जाते
ऐसे में कर्म-अकर्म
और विकर्म का
विभाजन न हो सकता,

ऐसे में पाप्-पुण्य का भेद क्या रहता?
ऐसे में आसक्ति-कामना-द्वेष
की परिभाषा क्या हो सकती?
ऐसे में बस कर्तव्य कर्म और
लोकहित के अतिरिक्त
सबका सर्वथा अभाव हो जाता!
मन अनुरागी हो जाता |
मन ईश्वर में रम जाता |
कर्ता-कर्म और करण
का भेद नहीं रहता,
वह ब्रह्मं रुप हो जाता |'

'यज्ञ-क्रियाएं
भिन्न-भिन्न होतीं,
लेकिन ब्रह्मं एक रुप वह पाता!
समस्त जगत,
समस्त्-कर्म
और समस्त कारण
एक रुप हो जाते
सब कुछ ब्रह्म
ही नजर आता,
योगी ब्रह्म रूप होकर,
ब्रह्मज्ञानी होकर,
पूर्णब्रह्म को पाता |

'योगीजन वे भी होते,
जो सभी देवताओं का
अनुष्ठान करते,
अपने धर्म से,
अपने कर्म से,
कर्तव्य साधना करते,
ईश्वर-प्राप्ति के लिए
आराधना करते ईष्ट-देवों की
ममता-आसक्ति-फलेच्छा
का अभाव करके |'

'योगी जन वे भी होते
जो आत्मा और परमात्मा
में भेद नहीं करते,
ब्रह्म में लीन रहते
निर्गुण-निराकार्-सच्चिदानन्दघन ब्रह्म
का दर्शन समझ,
अपनी या किसी अन्य की
सत्ता से विलग होकर
कर्माग्नि से कर्म के हेतु
यज्ञ करते |'

'इन्द्रियों, को वश में
करना संयम है |
वश में की इन्द्रियों में
विषयों से आसक्ति,
आसक्ति की शक्ति नहीं रहती |
मन एक ही चिन्तन करता,
निरन्तर लोकहित में जुटा रहता |
मन संयम से कहीं और न भटके,
ऐसा जन भी, कर्म यज्ञ में
संयम से संयमित होकर,
योगी की श्रेणी में आए |'

'वश में की इन्द्रियों से
वर्ण, आश्रम, परिस्थिति
के अनुसार प्राप्त विषयों का चिन्तन,
ग्रहण और कर्म करता,
अन्त:करण में जिसके
दूसरे शब्द न उत्पात मचाते |
संयम से
अन्त:करण के,
जुटा रहता योगीजन,
समाधि में
जाग्रत रहता
विवेक-ज्ञान उसका,
शून्य से दूर रहता ऐसा योगीजन |'

'ध्यान योग में,
ध्येय का मन में
चिन्तन रहता |
चिन्तन से एकाग्रता होती,
और ध्येय भी विलीन हो जाता,
ऐसा योगीजन
आत्म-संयम-योग से
अग्नि में इन्द्रियों व प्राणों की
समस्त क्रियाओं का यज्ञ करता,
ऐसा योगीजन ध्यान योग में मग्न हो जाता |'

'अपने-अपने धर्म से
अपने-अपने कर्म से
न्याय के अनुकूल
ममता-आसक्ति-फलेच्छा से मुक्त होकर,
जो जन द्रव्य अर्जित करता,
लोकसेवा में अर्पित करता
ऐसा जन पूर्ण कर्म भाव युक्त
योगीजन कहलाता |
ग्रहस्थ होकर भी यज्ञार्थ कर्म
की श्रेणी में आता |
ग्रहस्थ से आगे
मन कर्म योगी का और पूर्णता पाता |
मन उसका तपोयज्ञ में
रम जाने को कहता |
ऐसा जन तप करता,
त्याग देता सब सुख,
सहनशील हो जाता,
धर्मपालन में युक्त होकर
मन को तप में कर देता लीन |
इस तन-मन की प्यास सदा
बढ़ी रहती,
इससे ध्यान हटा,
रम जाता लोकहित में
मन योगी का |'

'बहुत योग है,
योगीजन
नित-नई क्रियाएं करते,
अहिंसा व्रत का पालन करते,
कष्ट सहते,
यत्नशील रहते,
स्वाध्याय रुप में
चित्तवृति निरोध में,
ज्ञान यज्ञ में जुटे रहते |'

'दूसरे कितने ही योगीजन
श्वास क्रिया से यज्ञ करते |
प्राण स्थित हृदय में,
अपान स्थित नाभि में,
श्वास बाहर से भीतर करके
अपान गति को नियमित करना,
श्वास से शरीर स्थिर करना,
श्वास क्रिया से मन को संयमित करना,

श्वास के प्रयोग से स्वयं को
प्रकृति में स्थापित करना,
भी यज्ञ श्रेणी में आता |'
'न अधिक खाना,
न उपवास करना,
नियम में बंधकर आहार लेना,
योग सिद्ध होना कहलाता है |
नियमित भोजन,
संतुलित भोजन,
श्वास क्रिया पर हो अनुशासन,
प्राणों को श्वास के बिना,
और
श्वास को प्राणों के बिना
रहने का साधन जो करते,
प्राणायाम की हर विधि का पालन जो करते,
वे योग सिद्ध हो जाते,
पापों का नाश स्वयं हो जाता,
वे योगीजन भी यज्ञ-साधक कहलाते |'

'ज्ञान, सयंम, तप, योग, स्वाध्याय, और
प्राणायाम का अनुष्ठान कर जो
अन्त:करण के शुद्ध पाकर
परम आनन्द का अनुभव करता,
हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन!
वह परब्रह्म परमात्मा को
स्वयं ही पा लेता |'

'जो पुरुष यज्ञ नहीं करता,
मन में न संकल्प होता,
मन में न उत्साह होता,
तन जिसका थका रहता,
बस फल पाने को आतुर रहता,
न उसको मिल पाता सुख
इस लोक में,
फिर परलोक के सुख की
कल्पना भी कैसे हो पाती?'

'यज्ञ की प्रकृति है अनन्त,
वेद वाणी में विस्तृत व्याख्या |
यज्ञ है साधना
तू बन साधक इसका |'

'सब अपने कर्तव्यकर्म का पालन
मन-इन्द्रिय और शरीर से करते क्रियान्वित |
किसी क्रिया का सम्बन्ध मन से,
किसी का इन्द्रिय और मन से,
किसी-किसी का शरीर-इन्द्रिय और मन से होता |

ऐसा कोई यज्ञ नहीं होता,
जिसका कोई सम्बन्ध न हो |

यह क्रिया
ममता-आसक्ति-फल-कामना
रहित हो,
तभी कर्मो से मुक्ती मिल पाती |'

'सभी कर्म
मन-इन्द्रिय-शरीर की क्रिया से होते,
आत्मा इससे मुक्त ही रहती,
ज्ञानयोगी की सिद्धि अहम् भाव
से विरक्त होने पर ही हो पाती |'

साधक को साधन बहुत
साध्य को पाने के,
त्याग कर ममता-आसक्ति
अहम्-फलेच्छा
साधक अवश्य सफल हो सकता |
कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता |

'हे परन्तप अर्जुन!
सांसारिक वस्तु की प्रधानता जिसमें,
सभी शास्त्रविहित शुभ कर्म कहलाते |
वे सब द्रव्यमय यज्ञ की
परिधि में आते |'

'विवेक
विचार
और
ज्ञान से जो
शास्त्रविहित कर्म करता
वह ज्ञानयोगी कहलाता |
वह यज्ञ में श्रेष्ठता
की उपाधि पाता |
द्रव्ययज्ञ तभी सफल
होगा जब
ममता-आसक्ति-फलेच्छा
का त्याग होगा |
ज्ञान के बिना इनका
त्याग नहीं हो पाता |
इसीलिए ज्ञानयज्ञ ही
श्रेष्ठता की उपाधि पाता |'

'परमात्मा के यथार्थ तत्व
को जाने बिना
कर्म बन्धन से कोइ छूट न पाता |
तत्व ज्ञान का दर्शन
ज्ञानयोगी ही समझा सकता |'

'अर्जुन!
मेरे वचन मन में तेरे घर कर जाएंगे,
यदि तू तत्व ज्ञान को जानने की इच्छा से,
श्रद्धा-भक्ति भाव से,

जब जाकर किसी ज्ञानयोगी से
सरल स्वभाव युक्त,
नतमस्तक होकर जानने का
यत्न करेगा!
वह ज्ञानी जन उपदेश देंगे,
तुझे बताएंगे,
तेरा भेद तुझे समझाएंगे |
तुम क्या हो?
क्या है माया?
कौन है परमात्मा?
बन्धन में किस छोर से बंधी है आत्मा,
परमात्मा से?
मुक्ति क्या? और साधन क्या है?'

'ध्यान रहे
श्रद्धा-भक्ति रहित मनुष्य
कभी ज्ञान नहीं पा सकता |
कपट भाव, दम्भ, उदण्ड़ता भरी बुद्धि
कभी प्रवृत्त नहीं हो सकती
ज्ञान भाव जानने को |
सहज भाव से
तत्व ज्ञान को ग्रहण कर,
तुझे मोह नहीं मारेगा |'

हे अर्जुन!
ज्ञान मिलेगा,
मोह मिटेगा
तुम स्वयं मार्ग दिखाओगे,
अज्ञानी रहकर तुम
वर्तमान में हुई दुर्दशा को
दूर नहीं कर पाओगे |'

लैकिक सूर्य यदि देखो तुम
नित्य अस्त हो जाता है,
नई सुबह होती है,
सूर्य उदय हो जाता है |
लेकिन ज्ञानी जन जानता है
सूर्य अस्त नहीं होता - वह एक
और अस्त होता है
और दूसरी ओर उदय हो जाता है |
तुम पूरब दिशा जिसे समझते,
किसी और के लिए वह पश्चिम है |
तुम जहां खड़े हो,
उसी दिशा ज्ञान को जानते हो |
देखो! ज्ञानी जन इस पार नहीं,
उस पार तुम्हें लगा देगा |
सूरज जो आज उदित हुआ है
तुम्हें कभी अस्त नहीं लगेगा |
यह ब्रह्मज्ञान है सरल बहुत
शाम ढला सूर्य
तुम्हारे लिए शाम है, अंधेरा है |
देखो, दूसरी ओर देखो,
तुम्हारी शाम, किसी ओर के लिए नया सवेरा है!

'तत्व ज्ञान को जान,
आत्मा को सर्वव्यापी मान,
आत्मा का अनन्त स्वरुप समझ,
स्वयं आत्म भाव जाग्रत होगा
वर्तमान और भूत का
भूत और भविष्य का,
वर्तमान और भविष्य का
भेद स्वयं मिट जाएगा |
केवल तत्व ज्ञान ही अभिन्न लगेगा |
और तत्व ज्ञान का बोध
तुझे परमात्मा का दर्शन कराएगा |'

'पापी से बड़े पापी भी मानों
यदि तुम स्वयं को
यह तत्व ज्ञान तुम्हें
इस सम्पूर्ण पाप-जगत से
पार लगाएगा |'

'ज्ञान योग को समझ कर,
स्वयं को इस संसार से
सर्वथा असंग,
निर्विकार,
नित्य और अनन्त मानोगे
और
लोकहित कर्म में जुटे हुए भी,
स्वयं को कर्म बन्धन से
मुक्त मानोगे |'

'हे अर्जुन!
जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि
से सब ईधन भस्म हो जाते,
इस ज्ञान रुपी अग्नि से
सभी कर्म बन्धन मिट जाते |
जगत में स्थापित
यज्ञ-दान-तप-सेवा
व्रत-उपवास-संयम और ध्यान,
कोई नहीं आड़े आता,
समझो यदि तुम यथार्थ ज्ञान |
वे तो बस सब साधन है |
वे पवित्र है!
तत्व ज्ञान तो साध्य है,
तत्व ज्ञान को पाकर स्वयं
राग-द्वेष,
हर्ष-शोक
अहंता-ममता-अज्ञान युक्त विकारों का,
अभाव स्वयं हो जाता है |'

'इस तत्व ज्ञान को,
कर्म योग से
शुद्ध अन्त:करण करके,
मनुष्य स्वयं आत्मा में ही पा लेता है |'
'सृष्टि-नियम में बंधा हुआ मानव,
ज्ञान से, विज्ञान से आलोकित
श्रद्धा-विश्वास में बंधा हुआ,
अवश्य साध्य को पाता है |
परम-शांति का मार्ग स्वयं सरल हो जाता है!'

'विवेक हीनता,
श्रद्धा-भक्ति की अवहेलना
परमार्थ से भटका देती,
पथभ्रष्ट होकर मनुष्य,
संशय-विकारों से घिरा हुआ,
न इस लोक के लिए,
न परलोक के लिए
बस इस देह की चिन्ता में लिप्त
छटपटाता है
सुख उससे मीलों दूर हो जाता है |'

'हे धनन्जय!
जिस योगी ने
कर्मयोग की साधना कर ली,
कर्मो को अर्पण कर डाला,
संशय सब नष्ट हो गए जिसके,
मन को जिसने सयंमित कर लिया,
परमात्मा से ऐसे योगी का मिलन हो गया!
कर्मो के बन्धन से वह स्वयं मुक्त हो गया!'

'इसीलिए हे भरतवंशी अर्जुन!
अज्ञान से प्रेरित
व्याकुल मन में
उत्पन्न संशय का,
विवेक ज्ञान रुपी तलवार से छेदन कर दे |
उठ! समत्व कर्मयोग में स्थित हो जा|
कर्तव्य-कर्म निभा,
उठ! युद्ध के लिए खड़ा हो जा |'


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