Audio Hindi Books ---- Kavita Mein Gita (Poetry Translation of Shrimad Bhagvad Gita)
श्रीमद् भगवद् गीता

कविता अनुवाद
अश्विनी कपूर


SRIMAD BHAGAVAD GITA
Poetry Translation
by ASHWANI KAPOOR
 
"KAVITA MEIN GITA"
(Voice & Text)
CHAPTER
अध्याय
I. GITA DHARM
गीता धर्म
II. GITA NIRMAN
गीता निर्माण
1. ARJUN VISHAD YOG
अर्जुन विषाद योग
2. SANKHYA YOG
सांख्य योग
3. KARM YOG
कर्म योग
4. GYAN-KARM-SANYAS YOG
ज्ञान कर्म सन्यास योग
 
5. KARM-SANYAS YOG
कर्म सन्यास योग
 
6. ATAM-SANYAM YOG
आत्म संयम योग
 
7. GYAN-VIGYAN YOG
ज्ञान विज्ञान योग
 
8. AKSHAR-BRAHM YOG
अक्षर ब्रह्म योग
 
9. PARAM GOPNIYE GYAN YOG
परम गोपनिय ज्ञान योग
 
10. VIBHUTI YOG
विभूति योग
 
11. VISHWAROOP DARSHAN YOG
विश्व रुप दर्शन योग
 
12. BHAKTI YOG
भक्ति योग
 
13. SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG
शरीर और आत्मा विभाग योग
 
14. GUNTREY VIBHAAG YOG
गुणत्रय विभाग योग
15. PURSHOTTAM YOG
पुरुषोत्तम योग
 
16. DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG
देवासुर सम्पद विभाग योग
 
17. SHRADHATREY VIBHAG YOG
श्रद्धात्रय विभाग योग
 
18. MOKSH SANYAS YOG
मोक्ष सन्यास योग
 
19. KRISHAN BHAAV
कृष्ण भाव

 
 
कर्म योग

'हे केशव!
ज्ञान श्रेष्ठ जब कर्म से,
कर्म नहीं कुकर्म करुँ
ऐसा मुझसे क्यों करवाते?
हे जनार्दन! शरणागत हूँ
क्योँ पाप कर्म में मुझे लगाते?
ज्ञान योग से मन मोह लिया
मैं समझा कर्म निकृष्ट
और
बुद्धि का आश्रय बडा,
शब्दों में विरोध दिखा,
निश्चय कुछ ना कर पाया
बस, मन मेरा मोहित हो गया |
कुछ ऐसे निशिचत वचन कहो,
कल्याण प्राप्त मैं कर सकूँ |'

श्री कृष्ण तब बोले,
'तुम पाप रहित हो, अर्जुन,
सहज ज्ञान तभी सम्भव है
सांख्य योगी अभिन्न माने
आत्मा-परमात्मा को,

ज्ञान योग से साधन करके
देहाभिमान नष्ट करे जो |
कर्मयोगी स्वंय को सेवक माने
सर्वशक्ति, जगतकर्ता
जगतहर्ता, जगत स्वामी का |'

'कर्मयोग का साधक बन
ममता-आसक्ति और कामना
का अभाव करे जो,
सिद्धि असिद्धि समत्व जाने जो
वही कर्मयोगी |'

'कर्मो को आरम्भ किए बिना
निष्कर्मता कैसे मिल सकती,
कर्मो के त्याग मात्र से
सिद्धि भी न मिल पाती |'

'कर्मो में फल-आसक्ति का त्याग करो
कर्मो में कतार्पन का अहम् त्यागो
तभी ईश्वर को पाओगे
कर्मो का सर्वथा त्याग करके
मूढ़-बुद्धि बने रह जाओगे |'

'उठना-बैठना,
खाना-पीना,
सोना-जागना,
सोचना-स्वप्न देखना
ध्यान-मनन,
सब के सब ही हैं कर्म,
श्रण भर ऐसा नहीं कभी
जब कर्त्ता न हो मनुष्य कर्म का |
जब जीवन है
तब कर्म है |
कर्म हमारा धर्म है |'

'मिथ्याचारी वही,
जो बगुला भक्त बना,
बाहर से साधक बनकर,
भीतर ही भीतर ताक में रहता,
चिन्तन में डूबा रहता |
ऐसा मन दम्भी कहलाता |'

'हठ से जो रोके मन को
वह भी, साधक
वह साधना का पहला चरण है
समस्त विहित कर्मो में
लोक-परलोक के समस्त भागों में,
राग-द्वेष का त्याग कर,
सिद्धि-असिद्धि में सम होकर,

यज्ञ-दान-तप,
अध्ययन-अध्यापन्-प्रजापालन,
लेन-देन-व्यापार,
सेवा, धर्म, खान-पान
में जो रत रहता
वही कर्मयोगी
वही श्रेष्ठ पुरुष कहलाता |

हे अर्जुन!
तू कर्म कर
शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर |
कर्म श्रेष्ठ है
युद्ध करना अब स्वधर्म क्षेत्र है,
कल्याण हेतु यह युद्ध की हिंसा,
तेरा धर्म है |
तभी जीवन शेष्ठ है
तभी जीवन उत्तम है |'

'अनासक्त भाव से
कर्तव्य रूप से
फल की इच्छा किए बिना
शास्त्रविहित कर्म
बन्धनकारक नहीं होते |'

'स्वार्थ बुद्धि से
शुभ-अशुभ कर्म सभी
साकाम-कर्म श्रेणी में आते
वह निम्न श्रेणी के कहलाते |'

कर्म बन्धन है यह जीवन
मुक्ति की राह
केवल कर्तव्यपालन,
आसक्ति रहित कर्तव्यकर्म |'

'वर्ण,
आश्रम,
स्वभाव,
परिस्थिति के भेद से
यज्ञ-दान-तप
प्राणायाम,
इन्द्रिय-संयम
अध्ययन-अध्यापन,
प्रजापालन,
युद्ध
कृषि-वाणिज्य
और सेवा
यह सब कर्तव्यकर्म,
इन्हीं से सिद्ध हो सकता
स्वधर्म यज्ञ |'

'प्रजापति ने
रचना की स्वधर्म यज्ञ की,
पालन कर इसका ही
मानवता की उन्नति होगी |
पतन कभी ना होगा |'

'जब-जब भेदभाव होगा
अधर्म स्वयं बढ जाएगा,
सब स्वधर्म यज्ञ में
अपने अहम् का जाप करेंगे
तब-तब विनाश होगा |
तब-तब स्वधर्म-यज्ञ का नाश होगा |'

'इसलिए युद्ध तेरा
स्वधर्म क्षेत्र,
यही तेरा कर्तव्य कर्म |'

'यह यज्ञ भूमि
यह कर्म भूमि
नि:श्वार्थ भाव से
कर्म करो
तुम आगे बढ़ो ,
सब आगे बढ़ें,
सब साथ चलें,
एक-दूसरे के साथी बनें |
तुम्हारा स्वयं कल्याण होगा,
परम सुख की
प्राप्ति होगी |
स्वधर्म यज्ञ की
स्वयं विजय होगी |'

'सब एक-दूसरे से बँधे हुए,
सब साथ-साथ ही बढ़े ,
मैं सेवक तुम्हारा,
तुम सेवक मेरे,
कहीं न कहीं
किसी रुप में
रक्षक मैं तुम्हारा,
तुम रक्षक मेरे |

'देवता आधीन ब्रह्मा के
और
दिये सब साधना तुम्हें देवताओं ने,
पशु-पक्षी
औषध-वृक्ष-तृण की पुष्टि कर दी,
अन्न-जल-पुष्प-फल-धातु
सब तुम्हारे भण्डार में भर दी,
उनका भोग करो तुम,
पर साथ चुकाओ उनका ऋण |
ऋण चुकाना सरल बहुत
यज्ञ है यह जीवन
इसको तुम चरितार्थ करो
कुछ पाओ, कुछ दे भी जाओ
ॠण का भार नहीं बढ़ाओ ,
वरना चोर कहलाओगे,
मानव होकर भी, मानव नहीं कहलाओगे |'

'कर्तव्य कर्म ही यज्ञ है,
यज्ञ की साधना करो,
मिला जीवन है,
हर जीवन की आराधना करो |
अन्न को जीने के लिए खाओ |
न कि अन्न
पाने की चाह में,
अन्न खाने कि चाह में,
लगे रहो,
उसे ही जीवन मानों,
उसे ही जीवन जानों,
ऐसा जीवन तो पाप है |
ऐसा तेरा स्वधर्म नहीं |'

'प्राणियों की उत्पत्ति,
वृद्धि-पोषन हो
अन्न से |
अन्न से ही
रज-वीर्य बने,
संयोग से जिसके
प्राणी कि उत्पत्ति |
इसीलिए
जैसा खाओगे अन्न,
वैसा होगा तुम्हारा मन |'

'स्थूल-सूक्ष्म की उत्पत्ति
में जल-प्रधान,
जल का आधार
है वृष्टि |
वृष्टि का मूल-मन्त्र है यज्ञ |
यह यज्ञ-यह कर्मयज्ञ ही प्रधान |'

'कर्तव्य मनुष्य का इस सृष्टि में
बहुत महान
भरण-पोषण-सरंक्षण का दायित्व है,
हित में की हर क्रिया ही
सत्कर्म-यज्ञ कहलाती है |
ऐसे में अन्न से
मन,
मन से कर्म,
कर्म से यज्ञ,
यज्ञ से परमात्मा
को ही साक्षी मान|'

'हे पार्थ!
यह चक्र सृष्टि का
सदा-सदा से चला हुआ |
मानव जो सृष्टि चक्र
में होता प्रतिकूल
कर्तव्य पालन से होता विमुख,
भोगों में ही करता रमण
वह इच्छाधारी होता,
व्यवस्था में सृष्टि की पड़ जाता विघ्न,
पापायु पुरुष का यह जीवन,
जीवन होकर भी
होता मरण
ऐसा जीवन व्यर्थतम् |'

'आत्मा में रमण करने वाला,
आत्मा से तृप्त मानव,
आत्मा में लीन परमात्मा को पाता |
कर्तव्य उसके लिए कोई शेष न रहता |
प्राणी सब साधन
कर ऐसा कर सकते,
प्राणी यह साधना कर
परमात्मा को पा सकते |'

'कर्म भी तभी
कर्म लगता
जब मैं सोचुँ
मैं कुछ कर रहा हुँ |
आत्मज्ञानी तो
ऊपर उठकर इससे
शास्त्रानुकूल कर्म करता |
ऐसे में नियमित बन,
अनुशासन का हो पालन
सुबह-शाम का चक्र चले,
नित्य जीवन आगे बढ़े,
कर्म स्वयं होता रहे,
मन-बुद्धि
हो स्थिर,
आत्मा परमात्मा का
हो स्वयं मिलन
कर्म ऐसे में क्यों लगे कर्म
वही है जीवन!'

'स्वार्थ सम्बन्ध सब
मिट जाते,
कर्म जीवन का न् होता प्रयोजन,
प्रयोजन सब मिट जाते,
जीवन-चक्र स्वयं चलता तब
अहम् भाव मिट जाता तब |
ज्ञानी पुरुष कुछ करके,
या कुछ न करके,
कुछ सिद्ध कर दिखाने की
अवस्था से दूर होता |
ऐसे में कर्म-और्-अकर्म से
उसका वियोग हो जाता |'

'जीवन-चक्र में वह होकर
भी परमात्मा में हो जाता मग्न|
वह स्वयं आनन्दमयी हो जाता|
'ग्रहण' और 'त्याग' का भेद स्वयं मिट जाता |'

'हे अर्जुन!
आसक्ति रहित कर्तव्यकर्म में जुटा रह,
यही भावना तुझे परमात्मा से मिलाएगी |'

'लोकहित परम कर्तव्य,
इसे तू सर्वोपरि मान |
देख स्वयं,
सिद्ध पुरुषों की जीवनचर्या
है दर्पण,
राजा जनक,
भक्त प्रहलाद
और बहुत से महानुभावों के
जान समस्त कर्म |'

'वे सभी
ममता-आसक्ति-कामना रहित थे |
केवल लोकहित में
जुटे रहे,
कल्याण हेतु जुटे रहे मानवता का,
अपने कल्याण का न सोचा कभी
पर स्वयं कल्याण हो गया |
परम आनन्द स्वयं मिलता रहा,
परमात्मा से स्वयं मिलन हो गया |'

'ऐसा कब हुआ?
लोकहित में लगे मानव को
स्वयं भी ज्ञात न हुआ |
सृस्‍टि चक्र में
जुटे हुए,
कब-कैसे क्या चरितार्थ
हुआ,
कब कैसे कल्याण हुआ,
बस, कर्तव्य कर्म
में दिव्य पुरुष जुटा रहा |
बस कर्तव्य कर्म
ही ध्येय रहा |'

'श्रेष्ठ पुरुष तू अर्जुन!
जन-जन करता
श्रेष्ठ पुरुष का अनुसरण
श्रद्धा और विश्वास
बड़ा अडिग,
जैसा राजा-वैसी प्रजा,
एक-सा सबका आचरण |
व्यवस्था को बनाए रखना
तेरा धर्म |
व्यवस्थित चले सब,
लोकहित हो ऐसा ही करो आचरण |'

'हे अर्जुन!
मैं तुमसे वही कह रहा
जो मैं स्वयं करता हूँ |
मेरा क्या है,
सब प्राप्त मुझे,
ऐसा नहीं कुछ जिसको पाने कि इच्छा हो,
मेरा कर्म तृप्त हो गया,
मैं तो लोक संग्रह में जुटा हुआ |
कर्मो में अहम् नहीं,
कर्मो का कर्तव्य नहीं,
पूर्ण तृप्त मिल चुकी,
मगर,
लोक हित है सर्वोपरि |
इसलिए
स्वयं के लिए न शेष कर्म |
फिर भी त्याग नहीं सकता
लोक हित हेतू कर्म |

'मैं निष्क्रिय हो जाऊँ
ऐसा कभी न सोच सकूँ
ऐसा कभी न कर पाऊँ
लोकहित मेरा कर्म बना,
लोकहित ही में जुटा हुआ |
मेरी निष्क्रियता से
सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा |
मैं धर्म-स्थापित करने आया,
मैं कल्याण मार्ग बनाने आया,

धर्म रक्षक बने हुए,
तुम करो इसका अनुसरण,
मानव जाति करे अनुसरण |'

'जब-जब कर्तव्य कर्म
का त्याग होगा,
जब-जब लोकहित से
ध्यान हटेगा,
शास्त्रविहित कर्मो को
जब-जब सब व्यर्थ मानेंगे
जब-जब अपने कर्तव्य
को भूल
लोग दूसरे के कर्तव्य को
अपना अधिकार क्षेत्र मानेंगे
जब-जब अपना कर्तव्य
त्याग,
अपने अधिकारों का जाप करेंगे
तब-तब राग-द्वेष बढ़ जाएगा,
सब निम्न श्रेणी का कर्म करेंगे
स्वार्थ परायण, भ्रष्टाचारी होंगे
सब मिथ्याचारी होकर
आसक्ति-कामना से लिपट-लिपट कर
दूसरे के कर्मो की दुहाई देंगे
न अपना स्वधर्म-कर्म करेंगे
लोक नाशाक बनकर
कर्महीन सब हो जाएँगे
लोकहित में कर्म नहीं होगा

पर सभी
लोकहित की बीन बजाएंगे |
अपने अहम् का विकास होगा,
मनुष्यता का नाश होगा |'

'हे भारत!
देख जरा अज्ञानी जन को,
कैसे आसक्ति से लिपट-लिपट कर,
अपने कर्म में जुटा हुआ,
देख उसकी
ध्यान मग्नता को,
देख उसकी मनन सक्ति को,
ऐसी ध्यान मग्नता
ऐसी ध्यान साधना
ऐसी आसक्ति
लोकहित युक्त कर्म में
लगाए यदि तुझ स ज्ञानी
तो मानवता का कल्याण होगा |
ऐसा ध्यानअ-मनन कितना
उत्तम होगा!'

'सभी संसारिक प्राणी
कर्म में जुटे रहते।
श्रद्धापूर्वक
ध्यानपूर्वक

साकाम भाव से अनुष्ठान करते,
अपने-अपने निहित भाव का
अपने व्यक्तित्व विकास का
करते प्रयास |'

'ऐसे जन को ज्ञान दो,
निष्कामभाव क ज्ञान दो,
पर याद रहे,
शब्दों के संयोग से,
ज्ञान हेतु शब्दों के प्रयोग से,
कुछ संशय उत्पन्न न हो जाए
उनकी श्रद्धा, निष्कामभाव के नाम पर
परित्याग भाव में न बदल जाए
कहीं प्राणी कर्म ही त्याग,
पतन की ओर न बढ़ जाए |'

'ज्ञानी तो शास्त्रविहित कर्म करे,
और ज्ञान दे
आसक्ति और कामना के अभाव का,
और ज्ञान दे
उन्हें पूर्ववत
श्रद्धापूर्वक कर्मो में लगे रहने का |'
'प्रकृति-प्रेरित है सब कर्म,
बुद्धि का विषय निश्चित करना,
मन का विषय मनन करना,
कान का शब्द सुनना,
त्वचा का किसी वस्तु को स्पर्श करना,
आँख का किसी रुप को देखना,
जिव्हा का रस पान करना,
नाक का गंध सूंघना,
वाणी का शब्द उच्चारण करना,
हाथ का वस्तु ग्रहण करना,
पैरों का चलना,
गुदा आदि का मल-मूत्र त्यागना,
यही कर्म है |'

'सब कर्म प्रकृति प्रेरित है |
एक से दूसरा,
दूसरे से तीसरा,
ऐसे ही यह चक्र चलता है
ऐसे एक-दूसरे का
संयोग-वियोग,
भाँति-भाँति के योग बनाता |'

प्रकृति के इन गुणों
को समझकर भी
कुछ अज्ञानी रहते,
इन गुणों से मोहित रहते
इन गुणों में,
इन कर्मो में आसक्त रहते
उनको ज्ञानीजन
विचलित न करे-
ऐसे वचन कभी न कहे
कि कर्म है बन्धन,
मिथ्या है जगत,
शब्दों से
कर्मो के प्रति
श्रद्धा कम हो सकती,
कर्मो से मन हट सकता
अज्ञानी मूढ़भाव को पा सकता
ऐसे में बस ज्ञानी जन
कुछ ऐसे कहे वचन
कि मन
साकाम कर्म से
आसक्ति रहित कर्म में
परिणित हो जाए
अज्ञानी अंधकार
से निकल कर रिशनी में
बस आ जाए |'

'कर्म चक्र तो
चल रहा है,
वह तो तब भी चलता रहेगा
बस ध्येय में
आसक्ति-कामना-का अभाव होगा |
हे अर्जुन!
ईश्वर को
सर्वशक्तिमान,
सर्वाधार,
सर्वव्यापी,
सर्वज्ञ,
परमप्राप्य,
परमहितैषी,
परमप्रिय,
समझकर
अपने अन्त:करण
इन्द्रियों और शरीर
द्वारा किए हर कर्म को
ईश्वर द्वारा किया मान कर,
सब 'उसको' अर्पण कर दे
आशा रहित बन,
संताप रहित बन
ममता रहित होकर
युद्ध कर! युद्ध कर!'

'यह धर्म युद्ध है |
यह अनीति के विरुद्ध है
इससे आसक्ति-कामना
को दूर रख |
जब-जब मनुष्य
सम्पर्ण भाव से
दोष दृष्टि से रहित,
श्रद्धापूर्वक
कर्तव्य कर्म का करे आचरण,
इस कर्मयोगी क पूर्ण हो
जाए अनुष्ठान और
मुक्ति मिल जाए उसे
कर्मो के प्रति कर्ता के मोह से |
कर्मो के प्रति ममता के मोह से |'

'जिसका चित्त दोष भरा,
जिस मानव में है विकार भरा,
जो ईश्वर की इस
जीवन-चर्या को
स्वीकार न करता,
सब स्वयं न होता
सब 'मै करता' कहता
ऐसाअज्ञानीतो

मोहजाल में बंधा हुआ,
हर श्रण विनाश की ओर बढ़े |
यह देह नष्ट हो रही है |
किसको इसकी चिन्ता रहती है?
ज्ञानी तो सोचता भी नहीं इसका
और अज्ञानी
नश्वर शरीर की चिन्ता में
पल-पल मरता
जो पल मिला है
उसे मिलने से पहले ही
खो देता है |
नष्ट होने से पहले ही
नष्ट हो जाता है |'

'सभी प्राणी प्रकृति जनित,
प्रकृति जनित कर्मो में
लीन
जैसे नदियों का जल
समुद्र कि ओर ही रुख करता,
हठ पूर्वक कोई रोक नहीं सकता,
इसी तरह हम सब प्राणी
अपनी-अपनी प्रकृति जनित,
प्रकृति के प्रवाह में
प्रकृति की ओर जा रहे हैं |
हम इस बीच बस प्रयत्न
कर सकते,
धारा-प्रवाह बदल कर
अज्ञान-रुपी बंजर भूमि
को उपजाऊ बना सकते,
अंधकार को प्रकाशमान कर सकते |
ऐसे में हठ से नहीं
प्रयत्न से ही काम चलता |
ज्ञानी पुरुष इसी तरह
लोकहित में जुटा रह सकता |'

'सुनने में,
ज्ञान में,
वाणी में
कर्म में सब ओर
राग-द्वेष छिपे है
जिस वस्तु-घटना-प्राणी में
सुख मिल जाता,
उससे आसक्ति हो जाती
मन रागमयी हो जाता |
जो दु:ख देता,
प्रतिकूल होता
वह द्वेषमयी लगता |

मन-भावना रुप
दु:ख-सुख के भी भेद अनेक |
मेरा दु:ख मेरा है
तेरा वह सुख हो सकता |
मेरा सुख मेरा है
तेरा वह दु:ख हो सकता |
इस राग-द्वेष से
इस सुख-दु:ख की
परिभाषा से
वशीभूत न हो
इस भावना की कामना को त्याग
यह कल्याण मार्ग
की साधना नहीं,
यह लोकहित कर्म
की बाधक है |'

'देख! तू अपना धर्म देख!
देख! तू अपना कर्म देख!
दूसरे का धर्म,
दूसरे का कर्म,
दूसरे का आचरण
मन को करता हो चाहे प्रसन्न,
अपना धर्म अति उत्तम,
अपना कर्म अति उत्तम
लोकहित में जुटा हुआ
मरकर भी कल्याण को पाएगा,
दूसरे की ओर देखता रहेगा,
कर्म से विमुख तो होगा ही,
कायरता बढ़ेगी
और धर्मयुद्ध भयभीत कर जाएगा |'

अर्जुन बोला,
'कौन है जो मन को हर लेता,
बलात्कार से पाप कर्म में लगा देता?
सब प्रकृति जनित तो क्या
पाप प्रेरित मनुष्य भी प्रकृति प्रेरित?

श्री कृष्ण तब बोले,
'राग-द्वेष
ममता-आसक्ति हर इन्द्रिय में
विराजमान,
स्थूल रुप उनका काम और क्रोध
और इन दो में 'काम' ही प्रधान |
काम की उत्पत्ति राग से होती,
और क्रोध की काम से |
'काम' भाव कभी तृप्त न होता,
जैसे घी और लकड़ी से अग्नि-ज्वाला
बढ़ जाती,
उतनी ही काम-वासना से अतृप्ति बढ़ती रहती |
भोगों के प्रलोभन से
विजय पाने की चाह सदा अधूरी रहती |
ऐसे को वैरी ही जान |
हर प्राणी में प्रकाशअ-पुन्ज
उपस्थित जान,
ज्ञान का भण्डार उपस्थित जान |
एकाग्रचित हुए बिना मनुष्य
न देख सके अन्त:करण में छिपा ज्ञान |'

'जैसे धुंए से अग्नि
मैल से दर्पण,
और जेर से गर्भ छिपा रहता,
वैसे काम से ज्ञान
छिपा रहता |
काम से मोहित मनुष्य
निद्रा में स्वप्न देख,
आलस्य भाव से प्रेरित होकर
सुख को भोगों में पाता
काम की तृष्णा बढ़ी रहती,
ज्ञान कोसों दूर रहता |
और काम की आराधना
में जब-जब विघ्न पड़ता,
क्रोध में आसक्ति,
कामना का जोर होता,
मानव उसी
मोहजाल में फँसा रहता |
यह कामाग्नि
कभी न मन्द होती,
ज्ञान का प्रकाश-पुन्ज
काम रुप के मोहपाश
से बँधा रहता,
उसे अंधेरा ही
प्रकाश पुन्ज दिखाता
इन्द्रिय-मन-और बुद्धि में
काम रुप का वास होता,
इसी से मन प्रसन्न,
इन्द्रियां इसी में मग्न
और बुद्धि क यही ज्ञान |'

'हे अर्जुन!
सबसे पहले
तू इन्द्रियों को वश में कर,
काम को नष्ट कर,
बल से-हठ से
आसक्ति-कामना रहित होकर,
काम का नाश कर |
ज्ञान से, विज्ञान से
स्वयं तू
बन्धन स्थापित कर |'

'शरीर रथ है,
इन्द्रियां घोड़े,
बुद्धि सारथी है
आत्मा रथी
और मन लगाम |
विषय सभी जीवन के
इस रथ का मार्ग बने है |
जिस रथी का सारथी
विवेक ज्ञान से शून्य है
ऐसे रथी के इन्द्रिय रुप घोड़े,
उच्छॠंखल होकर
रास्ता भटक जाते
और जबरन ही गड्ढ़ों में
ढ़केल आते |
इसलिए जब तक
मन-बुद्धि और इन्द्रिय पर
तेरा अधिपत्य नहीं है,
तू अपना सामर्थ्य भूला है,
तू इनके आधीन है |
हे महाबाहो!
बुद्धि से
श्रेष्ठ, सूक्ष्म और बलबान
तू आत्मा को जान,
कामरुप दुर्जय शत्रु का नाश कर,
उठ! विजयी हो,
यही कर्म होगा महान |''


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