Audio Hindi Books ---- Kavita Mein Gita (Poetry Translation of Shrimad Bhagvad Gita)
श्रीमद् भगवद् गीता

कविता अनुवाद
अश्विनी कपूर


SRIMAD BHAGAVAD GITA
Poetry Translation
by ASHWANI KAPOOR
 
"KAVITA MEIN GITA"
(Voice & Text)
CHAPTER
अध्याय
I. GITA DHARM
गीता धर्म
II. GITA NIRMAN
गीता निर्माण
1. ARJUN VISHAD YOG
अर्जुन विषाद योग
2. SANKHYA YOG
सांख्य योग
3. KARM YOG
कर्म योग
4. GYAN-KARM-SANYAS YOG
ज्ञान कर्म सन्यास योग
5. KARM-SANYAS YOG
कर्म सन्यास योग
6. ATAM-SANYAM YOG
आत्म संयम योग
7. GYAN-VIGYAN YOG
ज्ञान विज्ञान योग
8. AKSHAR-BRAHM YOG
अक्षर ब्रह्म योग
9. PARAM GOPNIYE GYAN YOG
परम गोपनिय ज्ञान योग
10. VIBHUTI YOG
विभूति योग
11. VISHWAROOP DARSHAN YOG
विश्व रुप दर्शन योग
12. BHAKTI YOG
भक्ति योग
13. SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG
शरीर और आत्मा विभाग योग
14. GUNTREY VIBHAAG YOG
गुणत्रय विभाग योग
15. PURSHOTTAM YOG
पुरुषोत्तम योग
 
16. DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG
देवासुर सम्पद विभाग योग
 
17. SHRADHATREY VIBHAG YOG
श्रद्धात्रय विभाग योग
 
18. MOKSH SANYAS YOG
मोक्ष सन्यास योग
 
19. KRISHAN BHAAV
कृष्ण भाव

 
 
गुणत्रय विभाग योग

सृष्टि त्रिगुण मयी,
सत्-रज-तम गुण भावमयी |
बन्धन यह आनन्द दे,
गुण में जीव बँधा रहे |
श्री कृष्ण के भाव को समझे जो,
पहले रज-तम भाव का त्याग करे,
सत् को ग्रहण करे जीवन में |
नियमित बन अभ्यास करे
फिर सत्व भाव को भी तज दे |
ऐसे में ईश्वर अवश्य मिलेगा
ऐसे में ज्ञान युक्त योगी
परम सिद्धि को पाएगा |

अर्जुन से बोले
श्री कृष्ण,
' सृष्टि का भाव
है ज्ञान का भण्डार,
जो कुछ भी मैं कह चुका,
उसी ज्ञान को फिर कहता हूँ|
सब ज्ञानों में यह उत्तम,
यह परम ज्ञान तू जान |
इस तत्व ज्ञान का भाव जान |
प्रकृति का स्वरूप समझ,
बन्धन से छूट पाने की राह को जान |'

'देख! इस तत्व ज्ञान को पाकर ही,
मुनिजन परब्रह्म को प्राप्त हुए |
इस परम ज्ञान को पाकर ही,
ज्ञानीजन परम शाँति को प्राप्त हुए |'

'इस ज्ञान को जो आश्रम माने,
मेरे स्वरूप को वह पहचाने |
वह मेरे भाव में स्थित हो जाए |
न महासर्ग के आरम्भ में
वह उत्पत्ति पाए,
न प्रलय काल में भय से पीडित स्वयं को पाए |
वह मेरे स्वरूप में अभेद-भाव से स्थित हो जाए |'

'हे अर्जुन!
जगत की कारणरूप,
मेरी ब्रह्मा रूप मूल प्रकृति
प्राणी मात्र में
जड़ चेतन के संयोग से गर्भ धारण करे,
जड़ को जीवन प्रदान करे
प्राणी जगत में उत्पत्ति की
प्रक्रिया स्थापित करे |'

'हे अर्जुन !
भिन्न-भिन्न वर्ण-आकृति
पशु-पक्षी-देव-गण-राक्षस
स्थूल भाव प्रकृति से पाएँ |'

'माता प्रकृति स्वरूप बनी,
जीव धारण करे,
मैं पिता भाव में आकर
चेतनता ले आऊँ |
मैं जीव को जीवन प्रदान करूँ |'

माँ प्रकृति भाव है,
पिता ब्रह्मा का रूप है |
देखो! लीला विचित्र देखो,
हर जीव जन्म लेता है
माँ के गर्भ से
और पिता जीवन देता है |
वही प्राणी फिर उत्पत्ति का
कारण बनता
वही ब्रह्मा का भाव बन जाता |

'चक्र सृष्टि का जब तक चलता
हर प्राणी
प्राणी से ऊपर
ईश्वरीय भाव को पाता |
वह प्रकृति की प्रक्रिया में
गर्भ धारण करने वाली
बनता माता,
वह प्रकृति में चेतनता लाता,
वह ब्रह्मा का
माध्यम बनता,
वह तभी पिता कहलाता |'

'हे अर्जुन!
जीव की आत्मा
अविनाशी |
सत्-रज-तम
ये तीन गुण प्रकृति के,
इन्हीं से बनता यह शरीर |'

'अज्ञान ही बन्धन में बाँधे ,
अहँ-आसक्ति और ममत्व भाव में
सतगुण सात्विक्ता लाए |
रजोगुण लोभ प्रदान करे
और
तमोगुण प्रमाद-मोह-अज्ञान भाव में
से जीव को जीवन प्रदान करे

'हे निष्पाप !
सतगुण का स्वरूप निर्मल है,
यह दोष मुक्त,
प्रकाशमयी
और
ज्ञानमयी होकर शाँति प्रदान करे |
मन की चंचलता को रोके,
मन विरक्त हो छल-प्रपन्च से |
ईश्वरीय भाव मन में आए |
पापों का अभाव हो मन से
और ज्ञान भाव से मोहित ज्ञानी,
मोहपाश में ज्ञान के बँधा रहे |
सुख से सम्बन्ध स्थापित हो
जीवन मुक्त वह न हो पाए |'

'हे अर्जुन!
रजो गुण उत्पन्न हो
आसक्ति-कामना से |
उसी भाव से वह वृद्धि पाए |
जैसे बीज से वृक्ष उत्पन्न हो
और वृक्ष ही बीज की उत्पत्ति
का कारण बने |
वैसे ही फल की भावना
स्थापित हो मन में
कर्म मोह से बाँधे रहे |
बार-बार कामना हो,
आसक्ति भाव मन में रहे |
कर्म फल भाव मन में रहे,
प्राणी मोहजाल में फँसा रहे |'


'हे अर्जुन!
देह का अभिमान हो प्राणी में,
अंत:करण में ममता हो,
मोह भाव से अज्ञान भाव
प्रकट हो,
प्रमाद में मन डूबा रहे,
आलस्य-निद्रा से मन बँधा रहे |

जीव का शरीर से ही बस प्रेम रहे,
शास्त्र विहित कर्मो से सम्बन्ध न हो,
बस जीवन है,
जीवन में प्रमाद भाव ही प्रधान रहे |
ऐसा जीव तमोगुण भाव में लिप्त रहे |'

'हे अर्जुन!
सतगुण से सुख प्राप्ति हो |
भोगों में लिप्त न हो प्राणी,
आत्म चिन्तन से सुख-शाँति मिले |'

'रजोगुण शास्त्रविहित साकाम कर्म भाव
से बाँध ले,
भोगों की इच्छा उत्पन्न करके
कर्मो की ओर प्रवृत्त करे |'

'तमोगुण
कर्तव्य-अकर्तव्य भाव को नष्ट करे |
विवेक ज्ञान को शून्य कर दे |
प्रमाद में प्राणी रत हो जाए |
चेतनता मन से दूर हो
बस आलस्य-निद्रा में घिरा रहे |'

'हे अर्जुन!
रजोगुण और
तमोगुण भाव को रोक कर ही
सतगुण भाव बढ़ता है |
अन्त:करण में जीव के
प्रकाश-विवेक-वैराग्य बढ़ता है |'

'सतगुण और तमोगुण
भाव को दबाकर ही
रजोगुण भाव बढ़ता है |
शरीर-इन्द्रिय अन्त:करण में
चंचलता-लोभ के वश में होकर
जीव कर्मो का कर्ता बनता है |'

वैसे ही
सतगुण व रजोगुण को
दबाकर
तमोगुण भाव ही बढ़ता है |
मोह में लिप्त होकर प्राणी
प्रमाद में प्रवृत्त हो जाता है |
वृत्तियाँ विवेक शून्य हो जाती हैं |
ज्ञान का अभाव होकर,
कर्मो और फल भोगने की
प्रवत्ति का भाव नहीं रहता |
मन प्रमाद-आलस्य युक्त हो जाता |
तभी तमोगुण भाव बढ़ जाता |'

'सतगुण भाव में
मन उत्सुक होता,
मुक्ति भाव मन में आता |
अन्त:करण में चिन्तन होता,
इन्द्रियों में चेतनता आती,
विवेक शक्ति भी जाग्रत हो उठती |'

'तमोभाव त्यागता मन,
मन रजोगुण रूप आसक्ति त्यागता,
स्वयं ही एक लौ जाग्रत हो उठती |
मन सत्य-असत्य का निर्णय करता,
मन कर्तव्य भाव को स्थापित करता,
मन मान-मर्यादा की सीमा तय करता |'

'हे अर्जुन!
रजोगुण बढ़ता,
लालसा बढती |
धन-लालसा में मनुष्य रत हो जाता,
कर्तव्य भाव का विवेचन भूल,
मन इच्छा पूर्ति में मग्न हो जाता |
हर नई सुबह
नया लोभ होता |
धन-संग्रह की इच्छा होती |
मन चंचल हो उठता |
नये-नये भाव सोचता,
नई-नई राह ढूंढता,
मन की प्रकृति में बस स्वार्थ होता |
साकाम कर्म ही मन में रहते,
विषयों के आधीन मन
अशाँत रहता |
ऐसा मन रजोगुण भाव
से मोहित होता |
मन दिन-रात उधेड़ बुन में रहता,
आसक्ति-पूर्ति में जुटा रहता |'

'हे अर्जुन!
तमोगुण के बढ़ जाने से
कर्म भाव लुप्त हो जाता |
विवेक शक्ति शून्य हो जाती |
मोहिनी- वृत्ति के मोहजाल
में मन स्वप्न-दृष्टा हो जाता |
न कर्तव्य भाव रहता,
न स्मृति भाव होता,
मन स्वप्न-दृष्टा हो जाता |
कर्तव्य-कर्म की अवहेलना होती,
निद्रा-प्रमाद-आलस्य भाव ही जाग्रत रहता |'

दिव्य प्रकाशमय
शुद्ध-सात्विक भाव,
कर्तव्य कर्म में लिप्त हुए
स्थूल-शरीर से
मन इन्द्रिय-प्राणों से विलग होकर,
सतगुण भाव में प्राणी
निर्मल-दिव्य स्वर्ग लोक को पाता |'

'आसक्ति भाव में
साकाम कर्मो में रत प्राणी,
स्थूल शरीर से विलग होकर,
लौट कर फिर
साकाम-कर्म श्रेणी में
मनुष्य लोक में आता है,
बार-बार वह जन्मता है,
बार-बार कर्मो की पूर्ति में
इच्छा आकाँक्षा की पूर्ति में
वह रजोगुण भाव में रत रहता |
आसक्ति उसे आकर्षित करती,
वह प्रेममयी इस जीवन में
बार-बार वृद्धि ही पाता |'

'और तमोगुण भाव से
लिप्त हुआ प्राणी,
लौट मनुष्य भाव नहीं पाता,
अज्ञान भाव से भटकता रहता,
मानव जन्म नहीं पाता,
कीट-पतंग-पशु-पक्षी बनकर
तामस भाव ही मन में रखता |'

'मूढ़ भाव का जीवन जीकर,
कर्तव्य भाव को तजकर
तुम इस जीवन को व्यर्थ न करो,
यह बार-बार नहीं पाओगे |
तामसी भाव मन में होगा,
फिर लौट कर भी नहीं आओगे |

'यह जन्म मिला है |
परम शाँतिमय-परब्रह्मा परमात्मा
को पाने का मार्ग बना है |
निष्काम कर्म करोगे,
लोकहित कर्म करोगे,
परम शाँति को पाओगे |
सतगुण भाव रखोगे,
स्वर्ग-सुख पाओगे |
रजोगुण भाव होगा,
एक बार फिर प्रयत्न करने
को मिलेगा,
साकाम कर्म को निष्काम
भाव में परिणित
करने का,
उससे भी उपर ऊठकर
स्वर्ग लोक को पाने का
और स्वर्ग लोक से भी
ऊपर
परब्रहमा परमेश्वर में
ही लीन होने का |'

पर तामसी भाव तो
वापिस लौटा ले जाएगा,
वही मूढ़ योनि में
तुम्हें ले जाएगा |
ब्रहम् भाव या स्वर्ग क्या
मनुष्य भाव भी फिर न
मिल पाएगा |'

'शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म
निष्काम भाव से कर प्राणी,
सुख-ज्ञान और वैराग्य भाव को पाता |
भोगों की प्राप्ति हेतु किए कर्मों में
अहम्-आसक्ति-परिश्रम होता,
मन आठों पहर जुटा रहता,
सुख शरीर को मिलता लगता,
पर शाँति कभी न मिल पाती |
अन्त में सदा
भाव एक ही रहता
'मेरा सुख अभी कहाँ मिला,
अभी दु:ख साथ खडा |'

'सुख की सीमा अनन्त-असीम,
एक मिला, दूसरे की चिन्ता,
दूसरे से तीसरे की चिन्ता,
जहाँ रूका, दु:ख आन खड़ा |
ऐसा कर्म राजस भाव का |
यही दु"ख का कारण सबका |'

'तामस भाव अज्ञान युक्त |
मूढ़ भाव में जीवन यापन |
केवल जीवन-मोह
आलस्य-निद्रा में
मरण सम जीवन |'

'ज्ञान-प्राकश
सुख-शाँति
सतगुण भाव प्रदान करे |
लोभ मिले रजोगुण से,
जो आसक्ति-कामना-स्वार्थ भाव
का जन्म करे |
तमोगुण भाव
अज्ञान युक्त,
मोह-प्रमाद-आलस्य
जीवन के अंग बने |'

'पुण्य कर्म
सतगुण से हो
और जीव स्वर्ग लोक को जाए |
अपने कर्मो का भोग वह
सुख में भोग पाए |'

'मध्य मार्गी राजसी हो |
मोह-प्रेम भाव से आसक्ति रहे |
वह बार-बार जन्म ले,
बार-बार मनुष्य भाव में लौटकर
अपनी आसक्ति,
इच्छाशक्ति को प्राप्त करे |'

'तामस भाव
तो न जान पाए
इस जीवन की दुर्लभता को |
अवसर मिला इस जीवन में,
वह भी पुन: लौट न मिल पाए |
एक जन्म इस मनुष्य भाव में,
अज्ञान युक्त ही बीत जाए,
लौट कर तामस प्राणी
फिर कीट-पतंग-पशु-पक्षी
बनकर ही इस सृष्टि में
जीवन-पर्यन्त जड़ सा बना
रह जाए |'

'स्वाभाविक दृष्टि से
मनुष्य
स्वयं को इस शरीर से
अभिन्न माने,
स्वयं को ही कर्ता माने |
ज्ञान भाव से युक्त होकर,
विवेकशीलता अपनाकर
वह स्वयं को
कर्ता न कर्मो का समझ
केवल दृष्टा जब माने |
सब प्रकृति जनित गुणों
को ही
गुणों का कर्ता जाने,
वह केवल दर्शक बन जाए |'
स्वयं को विलग मान
इस इन्द्रिय-मन
इच्छा-लालसा से
केवल परमतत्व को जान पाए |'

'अपने को निर्गुण-निराकार ब्रह्मा
से अभिन्न माने |
सर्वत्र-सदा-सर्वदा
एक ही सत्ता का भाव रहे,
हे अर्जुन! वह मेरा ही रुप बन जाए,
वह स्वयं मुझे प्राप्त हो जाए |
वह इस शरीर के गुणों
से परे हो जाए,
शुद्ध आत्मा,
ज्ञान-चिन्तन से
वह इस शरीर की उत्पत्ति
का मूल कारण,
इस जड़-चेतन के संयोग का
उल्लंघन कर जाए,
वह जन्म-मृत्यु-वृद्धावस्था
के दौर पुन: न पाए,
वह दु:ख मुक्त हो जाए |
वह परमानन्द को पा जाए |'


यह सुनकर
अर्जुन तब बोला,
'कैसा स्वभाव?
कैसे हों लक्षण?
हे प्रभो! सत्-रज-तम
का अभाव कैसे कर लेता योगीजन?'
तम से निकल कर
रज भाव मिलता,
रज से निकल सतगुण पाते,
या फिर
सत से रज
और
रज से तमोगुण में वृद्धि पाते ?
कैसा साधन जो गुण से गुण
में ही रह जाए ?
कर्म भाव हो कैसा विलक्षण,
त्रिगुण भाव से दूर हो मन?'

श्री भगवान तब बोले
'हे अर्जुन्!
शरीर-इन्द्रिय और अन्त:करण में
आलस्य-जड़ता का अभाव हो जाता |
मन निर्मल-चेतन भाव युक्त हो जाता |
ज्ञान-शाँत-आनन्दमयी हो जाता |
उसका मन समभाव युक्त हो जाता |
प्रवृत्त होने की बात कहाँ रहती!
मन का निरुपण ही ज्ञानमयी होता,
वह निर्मल होता, वह चेतन होता |'

'निष्काम भाव युक्त होकर
कर्तव्य कर्म, ज्ञानमयी होता,
इच्छा-आसक्ति से परे होता |
वह स्वयं प्रकाश-सदृश हो जाता |

'रजोगुण के कार्य रुप
काम-लोभ-स्पृहा-आसक्ति का
अभाव हो जाता |
कर्मो की प्रवृति होती,
कर्मो में समभाव स्थिति होती |
मोहिनी-वृत्ति मन की न रहती,
अज्ञान-प्रमाद का अभाव हो जाता |'

'सत्-रज-तम भाव से मुक्त हो प्राणी,
विचलित नहीं होता,
गुणों को गुणों में बरतता देखता,
केवल वह एक माध्यम होता |
सुख-दु:ख-कर्म-फल से
मन में विक्षेभ न होता,
वह निर्विकार हो जाता |
वह एकरस भाव में रम जाता |
निरन्तर एक भाव
मन में होता |'

'आत्मा
नित्य-चेतन है,
एकरस-सच्चिदानन्द स्वरुप है,
ऐसा मान
वह निर्गुण-निराकार
पूर्ण ब्रह्म परमात्मा में
अभिन्न भाव से स्थित
हो जाता |
ऐसे में तन-मन से
हो रहे कर्मो का
वह कर्ता न हो कर
दर्शक बन कर रह जाता |'

वह आत्म भाव में,
अपने वास्तविक स्वरुप में,
शाँत-चित्त,
श्वास-क्रिया पर नियन्त्रण रखे,
द्वेष-अहम्-लोभ-मोह-आसक्ति से परे,
सम रहता,
वह स्वस्थ चित्त होता |
सुख-दु:ख,
हर्ष-शोक में विचलित न होता |'

'मिट्टी-पत्थर-सुवर्ण
समान भाव दिखते |
प्रिय-अप्रिय,
निन्दा-स्तुति भाव सम लगते |
न निन्दा सुन क्रोध वह करता,
न स्तुति सुन वह प्रसन्न चित्त होता |
वह समभाव युक्त,
सरल चित्त-शाँतिप्रिय रहता |'

'इस स्थूल शरीर का अभिमान नहीं होता,
वह मान से राग नहीं रखता,
वह अपमान से द्वेष नहीं रखता |
मान देने वाले से प्रेम
और
अपमान करने वाले से
बैर नहीं रखता |
वह भावनाओं में नहीं बहता |
शरीर-मन-इन्द्रिय-बुद्धि से
लोक संग्रह में की क्रियाओं
के कर्तापन का अभिमान नहीं रखता |'

'हे अर्जुन!
जब तक अन्त:कारण में
राग-द्वेष,
विषमता
हर्ष-शोक,
अविद्या
और
अभिमान
हो लेशमात्र भी विद्दमान,
तब तक प्राणी गुणातीत अवस्था
में न स्थित कर पाए अपने प्राण |
धारण करे जो इन भावों को,
नित्य प्रति अभ्यास करे
अवश्य सफल होगा वह
कर्तापन का अहम् स्वयं दूर हो जाएगा |'

'और दूसरा सरल उपाय
भक्तियोग भी तू जान |
मात्र एक परमेश्वर को
तू अपना आश्रय दाता मान |
उसे स्वामी,
परम आश्रय दाता,
परम हितैषी
सर्वस्व मान |
स्वर्थ रहित
श्रद्धा पूर्वक
अनन्य प्रेमभाव में
अटल कर उसमें ध्यान |

समस्त भावों को
ईश्वरीय भाव मान,
स्वयं को निमित्त मात्र मान,
समस्त क्रियाओं को अपनी
भक्ति भाव में अर्पण कर दे |
ब्रह्म भाव तू स्वयं पा लेगा |
त्रिगुणमयी भावों को लाँघ सकेगा
ईश्वरीय भक्ति में होकर लीन,
तभी ब्रह्म का अंश बनेगा |
तभी ब्रह्म भाव को पाएगा |'

'यह निर्गुण-निराकार
ब्रह्म,
मुझ सगुण रुप
परमेश्वर से भिन्न नहीं|
इसी भाव में
मै हूँ ,
ब्रह्मा है |
यही सबका आश्रयदाता |
यही अमृतमयी
नित्य धर्म,
अखण्ड,
एकरस,
आनन्द आश्रय प्रदाता |
यही पाने की
चेष्टा कर,
बार-बार चेष्टा
कर |'''


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