Audio Hindi Books ---- Kavita Mein Gita (Poetry Translation of Shrimad Bhagvad Gita)
श्रीमद् भगवद् गीता

कविता अनुवाद
अश्विनी कपूर


SRIMAD BHAGAVAD GITA
Poetry Translation
by ASHWANI KAPOOR
 
"KAVITA MEIN GITA"
(Voice & Text)
CHAPTER
अध्याय
I. GITA DHARM
गीता धर्म
II. GITA NIRMAN
गीता निर्माण
1. ARJUN VISHAD YOG
अर्जुन विषाद योग
2. SANKHYA YOG
सांख्य योग
3. KARM YOG
कर्म योग
4. GYAN-KARM-SANYAS YOG
ज्ञान कर्म सन्यास योग
5. KARM-SANYAS YOG
कर्म सन्यास योग
6. ATAM-SANYAM YOG
आत्म संयम योग
7. GYAN-VIGYAN YOG
ज्ञान विज्ञान योग
8. AKSHAR-BRAHM YOG
अक्षर ब्रह्म योग
9. PARAM GOPNIYE GYAN YOG
परम गोपनिय ज्ञान योग
10. VIBHUTI YOG
विभूति योग
11. VISHWAROOP DARSHAN YOG
विश्व रुप दर्शन योग
12. BHAKTI YOG
भक्ति योग
13. SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG
शरीर और आत्मा विभाग योग
14. GUNTREY VIBHAAG YOG
गुणत्रय विभाग योग
15. PURSHOTTAM YOG
पुरुषोत्तम योग
 
16. DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG
देवासुर सम्पद विभाग योग
17. SHRADHATREY VIBHAG YOG
श्रद्धात्रय विभाग योग
 
18. MOKSH SANYAS YOG
मोक्ष सन्यास योग
19. KRISHAN BHAAV
कृष्ण भाव

 
 
मोक्ष सन्यास योग

हे महाबाहो तुम सर्वशक्तिमान हो
तुम सर्वान्तर्यामी!
कहीं ज्ञान योग का उपदेश दिया,
कहीं कर्म योग का मार्ग् समझाया
मुझे तुमने हे ॠषिकेश,
पर्मात्मा प्राप्ती का हर भेद समझाया

एक भाव अब शेष मेरा
मुझे ज्ञान योग
और
फलासक्ती भाव का तत्व,
अलग करके समझाओ !
भाव प्रथक हो दोनो के
लक्षण प्रथक करके बतलाओ

श्री कृष्ण तब बोले
कर्मो के विधान की व्याख्या
सब ज्ञानी जन अपने स्वभावानु सार करते
एक ही शब्द से नये-नये अर्थ निकालते !
सब अपने-अपने मत स्थापित करते !

कितने ज्ञानीजन हैं,
जो कम्याकर्मो के त्याग को सन्यास कह्ते हैं !
कर्मो का स्वरूप से त्याग,
ही सन्यास कह्ते !'

और बहुत से विचार कुशल ज्ञानी
समस्त कर्मो के अनुष्ठान से प्राप्त
फल के त्याग को सन्यास कह्ते !
नित्य-अनित्य वस्तु का विवेचन करके,
निशिचत कर लेते,
कर्तव्यो कर्मो का अनुष्ठान करके
केवल कर्मो के फल का त्याग कर देते |'

विद्वान ऐसे भी बहुत
जो कर्मो को दोषयुक्त कहते |
वे कृष्ण के आरम्भ से ही
पाप का सम्बन्ध जोड देते,
और समस्त कर्मो के त्याग को ही
सन्यास कहते |'

' ज्ञानी जन ऐसे भी होते
जो यज्ञ-तप-दान रुप कर्मो को
दोषयुक्त नहीं कहते
वे केवल निषिद्ध कर्मो के त्याग को कहते,
कर्तव्यकर्मो के निर्वाह को उचित कहते |'

विधान रचा ईश्वर ने ,
व्याख्या की ज्ञानी जन ने |
किसी ने एक मार्ग बताया,
किसी ने नया मार्ग सुझाया |
राहें अलग-अलग बन गई ,
तत्व वही फिर भी रहा |
ईश्वर प्राप्ति को
परम आनन्द पाने को
नए-नए मार्गो से
प्राणी अग्रसर रहा |

नए-नए रुप बने
सृश्‍टि भी ,
नए-नए आयाम रचे
सृश्‍टि भी ,
कर्म का स्वरूप
'वही एक' रहा |

' हे पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन |
अब तू मेरा निश्चय सुन |
सन्यास और त्याग का भाव समझ |
पहले त्याग की बात कहता हूं |
इसके तीन भेद समझाता हूं |
त्याग सात्विक्-राजस-तामसी होता |
इसका रुप कर्तव्य-कर्म निर्धारित करता|'

'यज्ञ-दान और तप रूप कर्म ,
कभी नहीं त्यागने योग्य होते |
शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म का त्याग
हितकारक नही होता |
जिस आश्रम में जीवन को जो
आया,
जिस कर्म-विभाग को जिसने अपनाया,
वह कर्तव्य मात्र तुम मानव का मानो |
यही यज्ञ-तप-दान कहलाता,
यही जीवन को पवित्र बनाता |'

'हे पार्थ !
यह कर्म यज्ञ,
यह ज्ञान यज्ञ,
यह मन-वाणी-शरीर का तप
और
समाज-निर्माण को यथायोग्य दान
जीवन का ध्येय जान |'

'समस्त कर्तव्य कर्मो
का अनुष्ठान करो |
जीवन सरल-पवित्र बने ,
बस आसक्ति-फल का
लोभ न हो ,
यही भाव ही त्याग कहलाए,
यही कर्म बन्धन की मुक्ति कहलाए,
यही मेरा उत्तम मत कहलाए |'

'ममता-आसक्ति को त्याग सर्वथा
कर्तव्य कर्म का हो अनुष्ठान,
लोक-परलोक के भोगों में
न रहे स्थित जब ध्यान,
वही भाव त्याग कहलाता
वही कर्म बन्धन से मुक्ति दिलवाता
वही परमपद को प्राप्त करवाता |'

वर्ण
आश्रम
स्वभाव
और
परिस्तिथी
से कर्म निर्धारित होते |
यज्ञ
तप
अध्ययन-अध्यापन
उपदेश
युद्ध
प्रजापालन
कृषि-व्यापार-सेवा
सब कर्तव्य कर्म की श्रेणी में आते |
अपने कर्तव्य में
लग्न भाव से जो जुटा रहता,
कर्मो का जो त्याग न करता |
अपने कर्म को,
अपने धर्म को ही उत्तम जाने |
वही मानव धर्म का
स्वरुप पहचाने |
वही कर्मो की परम्परा
को समझे ,
वही कर्म का भाव जाने |'

'जो कर्तव्य कर्म
के त्याग को मुक्ति का मार्ग माने ,
जो कर्तव्य भूल
मोहजाल में फंस जाए,
कर्तव्य को भूल अपने
मन को भटकाए,
वह तामस त्याग हो ,
वह व्यक्ति तामसी कहलाए |'

'मोह त्यागो ,
आसक्ति त्यागो
कर्म अपना ही अपनाओ |
कर्तव्य कर्मो की श्रेणी कभी निम्न
नही होती |
कर्तव्य कर्मो से ही
समाज का निर्माण होता है |
कर्तव्य परायण मनुष्य ही
एक नए युग का प्रवर्तक बनता है |
कर्तव्य-पालन समाज के उत्थान का
आधार है |
ऐसे में कर्तव्य हर किसी का
अपने में
महान है |'


'कर्मो के अनुष्ठान में
मन-इन्द्रि य-शरीर
सभी का योगदान ,
अथक प्रयत्न,
परिश्रम
नियम पालन
से ही कर्म होता सम्पन्न |'

'ऐसे परिश्रम को
कष्ट माने जो ,
शारीरिक क्लेश
समझे जो,
ऐसे में परिश्रम से
बचने हेतु
यह कर्मो का त्याग
राजस कहलाता |
ऐसा त्याग कर्म बन्धन से
मुक्ति नही देता,
उल्टा कष्ट देता |

'ऐसे में , हे अर्जुन!
शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म
ही धर्म है |
बस इसी भाव से जीना सीखो ,
आसक्ति-फल का त्याग करो ,
बस अपने कर्म में जुटे रहो |
वही त्याग सात्विक कहलाएगा,
वही मनुष्य को सात्विकता देगा,
वही परम पद की श्रेणी देगा |'

'निषिद्ध कर्मो का त्याग
द्वेष् - बुद्धि से नही ,
कर्तव्य भाव से जो करता,
लोक-संग्रह भाव से जो करता,
और
समस्त कर्तव्य कर्मो
का जो अनुष्ठान
फल आसक्ति रहित हुए करता,
वह
शुद्ध
सतगुणयुक्त
बुद्धिकुशल,
संशय रहित
कहलाता,
वही सच्चा त्यागी होता |'

'यह देहधारी
यह मनुष्य
कर्मो का सर्वथा त्याग नही कर सकता |
कर्म में
केवल शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म ,
और
उनके फल में
ममता-आसक्ति-कामना
का त्याग ही
कर्म यज्ञ का अनुष्ठान कहलाता
ऐसा कर्म योगी ही
कर्म फल त्यागी कहलाता |
वही सच्चा त्यागी कहलाता |'

मेरा कृष्ण
भाव सभी जाने ,
मन में आई हर शंका को पहचाने |
कर्म फल का त्याग ही सच्चा त्याग है
पर कर्म फल दिए बिना नही रहता |
आज नही तो कल,
कल नही तो परसो
फल तो जरुर मिलेगा
बीज बोया है तो वृक्ष जरुर निकलेगा |
ऐसे में कर्म फल त्याग से कैसे
मानव
कर्म बन्धन रहित हो सकता?

कैसे मानव कर्म फल त्याग से
सच्चा त्यागी हो सकता?
जो कर्मो में
ममता-आसक्ति-कामना का
त्याग ना करते,
कर्मो से वह फलेच्छा रखते
कर्मो के अनुरुप वह
फल अवश्य पाते |
शुभ कर्म करते
भोगों की इच्छा रखते
वे अवश्य उन्हे पा लेते,
इस देह को त्यागने के बाद
वह पुन: कर्मो के अनुरुप
फल पाने को आते |'

जो दु:ख देते ,
पाप कर्म करते
वे पुन: भोगते दुखो को
एक नया शरीर पाते
एक नई योनी ही पाते |
कभी शुभ कर्म
कभी निषिद्ध कर्म में रत मानव
सभी मिश्रित फल पाते |
जैसा वृक्ष होता,
वैसा ही फल होता |
जैसा फल होता
वैसे ही नए बीज का निर्माण होता |'

'नए-नए रुप बदलता मानव,
नए-नए युग में जन्म लेता
कर्मो में फल की ईच्छा
जिसकी जितनी प्रबल होती
वैसी ही वह श्रेणी पाता |
कर्मो से मुक्ति नही मिल पाती |
मानव जन्म के बाद
पुन: जीव धरा पर आता,
कर्मो की एक नई श्रेणी
कर्मो से एक नए वर्ण में जन्म पाता |'

' श्रेष्ठ वही जो
कर्मो में संलग्न रहे '
फल की चिन्ता न करे |
ममता-आसक्ति-कामना का त्याग करे,
वह कर्म बन्धन से रहित हो जाए,
वह किसी काल में बंधा न हो
वह इस कर्म बन्धन से मुक्ति पा ले |'
' हे महाबाहो !
कर्मो का पूर्ण हो जाना
ही कर्मो की सिद्धि कहलाता |
तत्व ज्ञान को साधन मान,
ज्ञान योग से उपाय जान,
समस्त कर्म प्रकृति प्रेरित
आत्मा सर्वथा अकर्ता !'

'पांच भाव कर्म सिद्धि के
इन्हें जान,
संचित कर ज्ञान,
पहला, करण और क्रिया का आधार
रूप यह शरीर,
दूसरा यह प्रकृति स्थित पुरुष
या भोक्ता |'
'तीसरा भीतर-बाहर का कारण
यानि
मन-बुद्धि-अहंकार का भाव
और
सभी सहयक साधन |'
'चौथा भाव कर्म सिद्धि का
भिन्न-भिन्न चेष्टाओं का रूप,
शरीर को स्पंदित जो करती,
प्रयत्न में संलग्न जो रखती,
बार-बार अभ्यास में जो
रत रखती
वे सभी चेष्टाएं कर्म सिद्धि
को प्रेरित करती |'

'और् पांचवा भाव
बने हमारे सब
शुभ-अशुभ कर्मो के
संस्कार|
यही संस्कार प्रेरित करते
शरीर-आत्मा-मन-बुद्धि
अहंकार को बार-बार
चेष्टा करने को
कर्म में रत रहने को |'

'मनुष्य शरीर बड़ा अमूल्य
यही पाकर जीव
पाप-पुण्य की ओर
बढ़ सकता,
नित-नवीन कर्म कर सकता |
अन्य योनियां
केवल भोग योनियां हैं
वहां नवीन कर्मो का योग नहीं होता |


'मनुष्य रूप में
मन-वाणी-शरीर से,
वर्ण-आश्रम-प्रकृति
और परिस्थिति के भेद से
न्यायपूर्वक
कर्म यज्ञ
ज्ञान यज्ञ
दान
तप-अध्ययन-अध्यापन
युद्ध-कृषि-वाणिज्य
और
समस्त सेवाधर्म निभा सकता |
वह शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मो को
इन पांच भावों के संयोग से
निभा सकता |'

'वही मनुष्य
शास्त्र विरुद्ध
हो कर् भी
इस जीवन में
सब प्रतिकूल कर्म भी करता |
यह पांच भाव
ही सभी
शुभ-अशुभ कर्मो को
संचालित करते |
कर्म की पूर्णता यही स्थापित करते |'

'बिना कर्तापन के
कर्म कभी कर्म नहीं हो सकता |
अशुभ बुद्धि के भाव से
मनुष्य कर्मो के संचालन में
आत्मा को कर्ता जब मानता
वह अज्ञानी होता
वह यथार्थ से परे होता|
जो समस्त कर्मो को
प्रकृति का खेल समझता,
आत्मा को अकर्ता मानता
वही यथार्थ समझ पाता
इस जीवन का |'

कर्मो में कर्ताप्न का
अभिमान नही जिसमें,
"मैने कर्म किया'
'मेरा यह कर्तव्य है'
लेशमात्र भी भाव नही यह जिसमें,
वही जान सका आत्मा के शुद्ध को |
अहम् भाव वह त्याग पाता
ममता-आसक्ति - कामना का
सर्वथा अभाव कर पाता|
तभी उसके सभी कर्म
लोक हित हेतु होते |
आचरण मे पाप कर्म का अभाव हो जाता |
बुद्धि उसकी सांसारिक पदार्थो से
कर्मो की क्रिया में
लिपायमान नहीं होती |'

'लोक दृष्टि से वह कर्म करता,
लोकहित वह स्वधर्म कहता |
लोकहित में
स्वधर्म रक्षा में
पापाचारी को युद्ध में मार कर
वह गर्व नहीं करता,
अपने पौरुष का
अभिमान नहिं करता,
वह सर्वथा विरक्त होता
परिस्थिति के अनुसार
प्रवृत्त होता,
ऐसा स्वधर्म यज्ञ होता,
इससे पाप नही होता |'

'यह अहम् भाव्
भिन्न्ता स्थपित करता
मानव में|
अहम् भाव न रहे
मन में,
आत्मा-परमात्मा में
भेद रहे न,
सामान्य जीवन लगने लगे,

केवल इस देह का सम्बन्ध रहे
वही अहम् भाव में लिप्त रहे,
इस देह से उपर कहीं
कर्तापन व भोक्तापन का भाव् न रहे|'

'ज्ञाता ज्ञान से निश्चय करे
ज्ञेय के स्वरुप का,
तीनो के सन्योग से
प्रवर्ती कर्म ही उत्त्पन्न हो|

कर्ता बनकर
मन-बुद्धि-इन्द्रिय
के संयोग से
प्रवर्ति कर्म ही उत्पन्न हो |

कर्ता बनकर
मन-बुद्धि-इन्द्रिय
के सन्योग से
क्रियाशील हो जब् मानव
तभी कर्म का संग्रह हो |'

'गुण में से ही गुण निकले,
स्रष्टि गुणों की खान |
एक भाव से सतगुण आए
दूसरा भाव रजगुण लाए,
तीसरा भाव तमोगुण प्रधान,
ऐसे में तू ज्ञान-कर्म और कर्ता के
तीनों भेद अब जान|'

'ज्ञान भाव हे अनुभव से
एक भाव में
ब्रह्मा दिखे,
लो कहित की आस्था रहे
भिन्न-भिन्न प्राणी समूह,
अभिन्न भाव में एक दिखे |
यथार्थ ज्ञान का भाव बने,
समग्र सृष्टि जब
अविनाशी ब्रह्मा का अंश लगे |
अनेकता में एकता है
परम ज्ञान|
यही कहलाता सात्विक ज्ञान|'

सम्पूर्ण जगत में
स्थित प्राणियों की आत्मा
को एक मान|
केवल शरीर से भेद जान|
जो प्राणी इस भाव को न माने,
आत्मा को शरीर के भेद से
भिन्न-भिन्न रूप का माने,
सब प्राणियों को विलक्षण जाने,
नए-नए भाव से
नए-नए रूप का माने,
अविनाशी ईश्वर की सत्ता एक,
हर आत्मा का रूप भिन्न,
हर भाव का अपना रूप,
हर रूप का अपना अस्तित्व,
यह ज्ञान नाम मात्र का होता,
यही ज्ञान राजस कहलाता,
आत्म तत्व को भिन्न करवाता|'

और जो मनुष्य
उलट भाव से
प्रकृति स्थित शरीर को ही
अपना स्वरूप माने,
इसी में आसक्ति रखे,
इसी के सुख साधन में जुटा रहे,
इसी से सुख का उपयोग करे,
इसी के दु:ख से दु:ख का आभास करे,
इसी के कारण से
अपना सर्वनाश माने,
आत्मा को भिन्न या
सर्वव्यापि न माने
ऐसा ज्ञान,
ज्ञान नही होता,
ऐसा ज्ञान तामसी होता|
यह मुक्ति-विवेक रहित होता,
पर तमो गुणी इसे ज्ञान कहता,
वह इसकी विवेचना करता,
इसी ज्ञान में स्थित रहता,
इसी ज्ञान को सत्य कहता,
वह तामस भावमयी
यथार्थ ज्ञान से दूर रहता|'

'नियत-कर्म
परिस्थिति समझ
प्रकृति से तुमने जो अपनाया,
लोकहित भाव जब तुम्हारे मन मे आया,
कर्तव्य कर्म की प्रेरणा मिली,
कर्तापन के अभिमान से दूर होकर
ममता-आसक्ति से विरक्त हो
मन राग-द्वेश से दूर हुआ
यही भाव जीवन में सत्विकता लाया|
यही कर्म सात्विक कहलाया |'

'देह का अहम् हो जब मन में ,
सुख साधन पाने की लालसा हो,
अथक प्रयत्न भाव मन में रहे,
तन सुख-साधन में जुटा रहे,
एक कर्म से दूसरा हो
दूसरे से तीसरा हो,
कामना नित्य बढ्ती रहे
आसक्ति हो फल पाने की
भोगो में जीवन यापन हो,
ऐसा कर्म अहम् भरा,
ऐसा कर्म राजस हो |'
'बिन सोचे,बिन् समझे
जो कर्म आरम्भ किया जाता,
वह मोह के वश में होता है |
लोकहित का भाव नहीं,
हिंसा की परवाह नहीं,
हानि-लाभ की सोची नहीं
सामर्थ्य की चिन्ता नहीं,
बस मोह है,
ममता है,
आसक्ति-अहम् भाव की बात है,
अज्ञान भाव यही होता है,
तामसी-कर्म यह कहलाता है|'

'कर्ता कर्मो से संग रहित हो,
मन-इन्द्रिय-शरीर के कर्मो से
ममता-आसक्ति -कामना न रखे,
सरल भाव युक्त कर्म करें,
अहम् भाव से परे रहे
बाधाओं से विचलित न हो
स्वधर्म पालन में जुटा रहे
साहस-धैर्य से मग्न रहे |
ईष्ट फल की चिन्ता न हो,
न हर्ष करे,
न शोक करे,
बस संगरहित हुए जुटा रहे,
वही सात्विक भाव सदा पाए |'

'कर्मो से ममता जो रखे,
फल से आसक्ति बनी रहे,
रागी वह इच्छा पूर्ति में जुटा रहे,
राग-द्वेष
इच्छा-अभिलाषा में अहम् भाव जाग्रत रहे,
कभी हर्षित हो
कभी शोक करे
वह बार-बार जन्म ले
उसका चक्र कभी न टूटे
वह मुक्ति नहीं पाए,
वह हर जन्म में
बस रत रहे,
और अधिक पाने की चेष्टा करे,
वह राजस-भाव का कर्ता हो |
वह इस बन्धन से मुक्त न हो पाए |'

'मन-इन्द्रिय वश में न हो जिसके,
श्रद्धा भाव न मन में हो,
ज्ञान भाव से वंचित हो,
मूढ भाव में स्थित हो,
कटुता-कठोरता
मन-वाणी-शरीर में जिसके हो,
अपने मद में चूर रहे
अनिष्ट करे,अपकार करे,
धूर्त भाव से दूसरों की जीविका का नाश करे,
शोक-मग्न
चिन्ता करे
आज को कल पर टाले,
कल को परसों पर टाले,
शिथिल भाव से कर्म करे,
वह संस्कार रहित,
इस जीवन को नष्ट करे,
तामसी भाव का कर्ता हो,
जीवन में कुछ न कर पाए|
'हे धनन्जय!
बुद्धि से उत्पन्न हो जो ज्ञान
उसके तीन भेद अब जान|
इस ज्ञान को धारण करने की शक्ति भी
त्रिविध भावमयी तू ज्ञान|'

'हे पार्थ!
बुद्धि जो प्रवर्ति मार्ग को समझे,
शुभ कर्मो का
वर्ण-आश्रम-धर्म अनुसार,
निष्काम भाव से आचरण करे|
निव्रति मार्ग को समझे
समस्त कर्मो का
विरक्ति भाव से पालन करे,
वर्ण-आश्रम-प्रकृति परिस्थिति
अनुसार कर्तव्य का पालन करे|
भय से ग्रस्त न हो,
अभय हो कर्तव्य निभाए,
जीवन मरण के बन्धन से
हटकर
ईश्वर की सत्ता को माने
कर्म योग
भक्ति योग
और ज्ञान योग की राह जाने|

जीवन के बन्धन का,
मोक्ष प्राप्ति का
यथार्थ रूप
पहचाने|
निर्णय करने में भूल न हो,
संशय भाव न मन में हो,
वह बुद्धि सात्विकी हो,
वह कल्याणकारी,
सात्विक भाव से
परम ज्ञान को समझाए |'

'हे पार्थ!
धर्म-अधर्म का भेद न जाने जो,
कर्तव्य-अकर्तव्य का यथार्थ न समझे जो,
मेरा धर्म है क्या?
मेर कर्म है क्या?
मेरा कर्तव्य कैसा?
मैं लोकहित में रहूं
या अपने-स्वार्थ के कर्म करूं?
निर्णय करने में बुद्धि कुण्ठित हो,
संशय युक्त हो जाए,
ऐसी बुद्धि राजसी कहलाए|'

'हे अर्जुन!
तमोगुणी बुद्धि
अधर्म को धर्म ही माने|
दु:ख देने को सुख माने|
दूसरे की निन्दा को यश माने
नित्य को अनित्य,
पाप को पुण्य माने|
वह अपने आयाम स्थापित करे,
उसमें विवेक शक्ति न हो,
उसमें संशय भाव भी न हो,
क्योंकि वह जो करे,
अपनी बुद्धि के अनुरूप करे|
उसका निश्चय सदा तामसी हो|'

'हे पार्थ!
ज्ञान अर्जित कर धारण करना,
द्रन्ढ्ता से मन स्थिर रखना,
अटल भाव से
ध्यान योग से
मन-प्राण-इन्द्रिय
स्थिर करना अपने ध्येय पर|
एक लक्ष्य,
सब कर्मो से ऊपर
परमप्रिय परमेश्वर,
यह धृति
यही शक्ति विचलित न करती मानव को|
यही धारण शक्ति सात्विक होती|'

'हे प्रथापुत्र अर्जुन!
धारण शक्ति से
आसक्ति पूर्वक
जो पालन करता धर्म का,
फल की इच्छा मन में रखता,
अर्थ-काम जीवन का लक्ष्य,
यह राजस धृति मन इच्छा में विद्दमान|'

'हे पार्थ!
ज्ञान अर्जित कर धारण करना,
द्रन्ढ्ता से मन स्थिर रखना,
अटल भाव से
ध्यान योग से
मन-प्राण-इन्द्रिय
स्थिर करना अपने ध्येय पर|
एक लक्ष्य,
सब कर्मो से ऊपर
परमप्रिय परमेश्वर,
यह धृति
यही शक्ति विचलित न करती मानव को|
यही धारण शक्ति सात्विक होती|'

'हे प्रथापुत्र अर्जुन!
धारण शक्ति से
आसक्ति पूर्वक
जो पालन करता धर्म का,
फल की इच्छा मन में रखता,
अर्थ-काम जीवन का लक्ष्य,
यह राजस धृति मन इच्छा में विद्दमान|'

'हे पार्थ!
मन्द-मलिन बुद्धि युक्त
जो मानव अनिष्ट भाव ही सोचे,
ईष्ट नाश की चिन्ता में
भय रखे,शोक करे|
धन-जन-बल से उन्मत्त हो,
मद में चूर
स्वभाव से चिन्ता में डूबा रहे,
वह तामस धृति धारण किए
जीवन अपना नष्ट करे|
सात्विक बुद्धि
सात्विक ज्ञान
कर्म यज्ञ में
सात्विक धृति महान|'

'हे भरत श्रेष्ट!
सुख भी तीन भाव का होता|
सुख की महिमा अनन्त|
सुख शांत मन को मिलता|
सुख योग साधना से मिलता|
सुख भजन-ध्यान-सेवा से मिलता,
सुख समभाव में स्थित होकर मिलता,
ऐसा सुख ही रमणीय होता,

ऐसा सुख, दु:ख भाव भुलाता|
यह साधन बहुत विषम,
यह मनोस्थिति अति कठिन,
विष तुल्य जीवन लगे आरम्भ में,
वही जीवन ईश्वरीय भाव में
स्थित होकर,
लगे अमृत तुल्य
कर ईश्वर का ध्यान|
यही परमानन्द ही सात्विक कहलाए|
यही सात्विक सुख दिलवाए|'

सुख की उत्पत्ति
इन्द्रिय-विषय के संयोग से जब होती,
वह सुख आसक्ति से होता,
यह सुख स्थायी नही होता|
भोगकाल में अमृत तुल्य दिखता,
न मिलता जीवन विषम लगता|
आसक्ति में मानव पाप कर्म कर लेता,
संयोग-वियोग ऐसा दु:ख देता,
इच्छा-आकांक्षा-मोह भाव जाग्रत रहता
ऐसा सुख राजस होता|'

'जो योगकाल में
मन मोहित करता,
वह मन को
निद्रा-प्रमाद-आलस्य से जकड लेता,
मन क्रियाशील नहीं रहता,
मन दिवास्वप्न में रत रहकर
नए भाव सदा गढता रहता,
ऐसा मन अज्ञान भाव से
निद्रा-प्रमाद को ही सुख कहता|
कर्तव्य का आभास न होता,
बस क्रियाहीन जीवन होता
और वही सुख प्रतीत होता
ऐसा सुख तामस होता|'

'पृथ्वी में
आकाश में
और
देव लोक में
और
कहीं कोई भी स्थापित है
वह प्रकृति जनित
सत्व-रज-तम-गुण भावमयी|
रचना ईश्वर की
यह सृष्टि
सत्-रज-तम गुण भावमयी
इसी से गुण बनते,
गुणों में और गुण बनते
और उन्हीं से विकास होता,
नए-नए रूपों का निर्माण होता
पल-प्रतिपल क्रियाशील मानव का|'

'नियत कर्म स्वभाव से उपजे|
इस शरीर में चार भाव हैं
विराजमान,
इन्हें तू परिस्थिति के अनुरूप ज्ञान|'

'जो जैसे भाव से,
जो जैसी परिस्थिति में
यह देह धारण करता,
उसका वही कर्म बन जाता,
अनुकूल परिस्थिति होती
सुख-सेवा भाव सदा मन में होता|'

'प्रतिकूल परिस्थिति में
न सुख स्वयं के लिए होता,
और न सेवा भाव कहीं मन में होता
जन्म से जो भाव होते,
वही तुम्हारे संस्कार होते|
कुछ बातें किसी को बताई नही जातीं,
वह स्वभाव में बसी होती हैं|
वही संस्कार होती हैं|
वही स्वभाव कहलाती हैं|'

'इस स्वभाव के
तीन भेद तू जान|
यह तीन भेद
सत्व-रज-तमो गुण
भावमयी जान|
इन तीनों भावों से
इन तीनो गुणों से युक्त
मनुष्य के कर्मो का
निर्धारण होता|'
'जन्म से कुछ नही होता|
गुण से गुणों का जन्म होता|
जन्म से कर्म का रूप बनता,
परिस्थिति नए-नए कर्म रचति,
और स्वभाव के मिश्रण से
ज्ञाण के भाव से
मानव कर्म अपनाता|
जो कर्म अपनाओ|
उसे मन से अपनाओ |'

'सतगुण स्वभावमयी
ज्ञानी होता,
वह ज्ञान का भण्डार
पल-प्रतिपल फैलाता रहता|
हर प्राणी को ज्ञान देता|'

और
स्वभाव में तमोगुण मिश्रित रजोगुण होता
वही वैश्य कहलाता|
और
स्वभाव से रजो मिश्रित तमो गुण होता
वही शूद्र भावमयी होता|'

'ऐसे में जन्म से
नहीं निर्धारित होता वर्ण|
वर्ण स्वभाव के अनुरूप होता,
वर्ण परिस्थिति के अनुरूप होता
वर्ण हर प्राणी में
हर भाव में
हर दम बदल सकता
ज्ञान से, संस्कार से,
परिस्थिति से,
नित नए नवीन कर्म से
प्राणी का नियत कर्म
निर्धारित होता,
वही तुम्हारा वर्ण होता|'

माया-मोह से दूर हुआ जो,
धर्म वही,
कर्म वही एक हो जिसका
ज्ञान के प्रचार का,
ज्ञान के प्रसार का|
धर्म रक्षा हो मन में
तन से चाहे कष्ट सहे,
तन से स्वच्छ रहे,
मन जिसका पूर्णत: शुद्ध हो,
अपराध दूसरों
के क्षमा करे,
मन-इन्द्रिय-शरीर से सरल रहे,
वेद-विधान में
भक्ति भाव से
लोक में
परलोक में श्रद्धा हो|
वेद शास्त्र का अध्ययन करे,
अध्यापन करे,
ईश्वर को मन में स्थापित करे,
ईश्वरीय भाव का ज्ञान दे,
वही स्वभाव से ब्राह्म्ण हो,
वही सच्चा ब्राह्म्ण कहलाए|'

'न्याय की रक्षा हेतु,
मानवता की रक्षा हेतु,
मानव धर्म की रक्षा हेतु,
जो मन से उत्साहित हो,
साहस से युक्त हो,
वह शूरवीर रक्षा करे
तेज
धैर्य
चतुरता से
मानव जाति की|
न्याय संगत युद्ध हो
तो युद्ध करे
भयभीत न हो,
कर्तव्य पालन से विमुख न हो
व्यवहार कुशल हो
राजधर्म निभाए,
न्याय करे,
यथायोग्य दान दे,
सदाचारी हो,
लोकहित का ध्यान हो
ऐसे जन को क्षत्रिय धर्म का
ज्ञान हो|'

'समाज की सरंचना
में सभी वर्ण प्रधान,
ज्ञानी जन का ज्ञान,
क्षत्रिय का बल
और
वैश्य की कृषि
व्यापार,
क्रय-विक्रय,गौ पालन में योगदान|
एक के बिना दूसरा
दूसरे के बिना तीसरा
और तीसरे के बिना चौथा
सभी मह्त्वहीन|'

'सभी एक दूसरे के पूरक,
सभी अपने में महान|
सेवा धर्म का अपना महत्व
समाज का यही अंग सबसे महान|
जैसे पैरों के बिना,
शरीर महत्वहीन,
वैसे ही सब वर्णो का
आधार यही
इसे तू समाज का आधार-स्तम्भ मान|
शरीर क सारा बोझ
यही लेता,
बिन सेवा के ना होता ज्ञान,
बिन सेवा न चलता राजधर्म
बिन सेवा ना होता व्यापार कर्म
सेवा भाव का योग महान|'

'सब कर्म एक-दूसरे से बंधे,
कोई नहीं नीचा,
कोई नहीं किसी से महान|
एक-दूसरे के पूरक सभी,
सब का मिल-जुल कर होता उत्थान |
पर अहम् भाव का अस्तित्व न हो बस,
तभी हो पाए
समाज का उत्थान|'

'स्वभाव से जो कर्म अपनाया,
उसे तत्परता से निभाओ,
एक-दूसरे के पूरक बनकर,
लोकहित का भाव अपनाओ,
ईश्वरीय भाव यही होता है,
मानव परम सिद्धि को पाता है|'

'सरल स्वभाव से,
सरल भाव से
अपने-अपने कर्म निभा कर,
परमसिद्धि का समझ ज्ञान|'

'प्राणी मात्र की उत्त्पति का आधार
एक वही एक जो सबका पालनहार,
समस्त जगत है व्याप्त उसमें,
वही इस जीवन का आधार|
अपने कर्म का धर्म निभाकर,
आसक्ति रहित कर्तव्य कर्म निभाकर,
हम परम सिद्धि को पा सकते,
लोकहित में रत रहकर
हम परम धाम को जा सकते |'

'कर्तव्य कर्म सदा उत्तम,
धर्म सभी अति उत्तम|
मेरा धर्म कर्तव्य पालन,
हम सबका धर्म कर्तव्य पालन|

मैं तेरा धर्म न कर्म जानूं,
मैं अपना धर्म कर्म पहचानूं|
मैं अपना कर्म करूं
मैं अपना धर्म करूं,
मैं अपने धर्म-कर्म की तुलना क्यों करूं?'

'लोकहित का भाव वही,
वही श्रेष्टता दिलवाएगा,
स्वधर्म कर्म को करता हुआ
मानव कभी पापी नहीं कहलाएगा|'

'हे कुन्ती पुत्र!
सहज कर्म तू दोषरहित मान|
उसे न कभी त्याज्य मान|
कहीं न कहीं
सभी कर्मो में
दोष देखो तो मिल जाएगा|
लेकिन यह दोष तुझे
पाप नही दिलवाएगा |
'जैसे धुएं में अग्नि
और
अग्नि में धुआं व्याप्त रहता,
वैसे ही दोष भाव
यदि ढूंढो तो
हर कर्म में विराजमान रहता|'

'ऐसे में सरल-सहज
भाव से किया
अपना निज कर्म महान|
इसे ही तू जीवन मान|'

'सर्वत्र सरल जीवन का
एक भाव मान,
आसक्ति रहित हो मन
स्पृहा रहित हो जीवन,
वश में हो जब अन्त:करण
लोकहित से हो सभी कर्म सम्पन्न,
ऐसा जीवन मुक्ति दिलवाता,
कर्म बन्धन से विरक्त करके
यथार्थ ज्ञान का भाव होता
परम प्रिय ईश्वर से मिलन हो जाता|'

'ज्ञान योग है परम सिद्धि,
तत्व ज्ञान है परम ज्ञान |
सिद्धि-सम्पन्न मानव
परब्रह्मा को क्षण भर में ही पा लेता|
यही ज्ञानयोग की परानिष्ठा होती,
यही आत्मा को परमात्मा से मिलाती |'

'हे कुन्ती पुत्र! यह सरल भाव
यह सरल ज्ञान तू जान |
शुद्ध अन्त:करण हो जिसका,
हल्का-नियमित-सात्विक
भोजन ग्रहण जो करता,
सांसारिक-भोगों में
विषयों में व्यर्थ समय न गवांकर,
एकान्त-पवित्र भाव में रहकर,
सात्विक ज्ञान से,
सात्विक भाव से,
सात्विक धारणशक्ति अपनाकर,
इन्द्रियों को संयमित करके,
मन-वाणी-शरीर को वश में करके,
राग-द्देष को सर्वथा नष्ट करके
द्रढ निश्चय स्थापित करके,
वैराग्य भाव में जो रखे,
अहंकार-बल-घमन्ड
काम-क्रोध-परिग्रह का
सर्वथा त्याग करके
जो निरन्तर ध्यान योग में मग्न रहता,
ममता रहित, आसक्ति रहित,कामना रहित हुए
लोकहित में
शांत-सरल भाव में रत रहता,
वह प्राणी सच्चिदानन्दन ब्रह्मा में
अभिन्न भाव से स्थित होता |'

'वह उस ईश्वर से मिलन कर पाता,
वह उस ईश्वर में आत्मसात हो जाता |
वह उस सच्चिदानन्दन ब्रह्मा में
एकी भाव से स्थित हो जाता |'

'वह प्रसन्न मन वाला योगी
न तो किसी के लिए शोक करता
न आशंका होती मन में ,
न कष्ट भाव की चिन्ता करता |
ऐसा समभाव युक्त योगी
मेरी पराभक्ति का पात्र होता |'

'वह ज्ञान योगी तत्व ज्ञान पा लेता |
वह तत्व ज्ञान का
साधन पाकर,
यथार्थ भाव से मुझे
समझता,
मैं जो हूं ,
जैसा हूं
कितना हूं
वह मेरा सूक्ष्म तत्वा भी
पा लेता,
वह भक्ति भाव से मेरे
उस तत्व में ही
समा जाता |
वह मेरा अंश ही बन जाता
वह उसी क्षण मुझमें रच जाता |'

'वह कर्मयोगी,
मेरे परायण होकर
समस्त कर्मो को मुझमें समर्पित करके
सनातन-अविनाशी परमपद
को पा लेता |
वह सब कुछ मुझको अर्पण करके,
समबुद्धि योग मे स्थित होकर,
मुझे मेरा प्रिय हो जाता
वह मुझमें ही समा जाता |'

'वह मेरी कृपा से
समस्त कष्टों का निवारण पाता |
वह समस्त भोगों से पार हो जाता |'

'अहंकार यदि हो तेरे मन में ,
वचन नहीं समझेगा तू,
परमप्रिय हितैषी समझ मुझे तू,
वरना यह अहम् भाव तुझे
पथभ्रष्ट करके नष्ट कर देगा |
क्योंकि तू अहंकार भाव से ग्रस्त हुआ,
युद्ध न करने की मिथ्या से लिपटा हुआ है |'

'भाव समझेगा ,
शब्दों के तो
सहज कर्म को जानेगा,
युद्ध तो करना है,
मोह में फंसकर
युद्ध न करने की
चेष्टा न कर |
अपने स्वभाविक कर्म को
न त्याग |
युद्ध से पीछे न भाग |'

'अपने स्वाभाव से
अपने संस्कारों से
अपने ज्ञान से
इस भाव को जान,
कर्मो में लोकहित को देख,
उसे तू सर्वोपरि मान
तू युद्ध के लिए
स्वयं को कर्म-योग
में बंधा मान!'

'हे अर्जुन!
इस शरीर को तू यन्त्र मान |
अन्तर्यामी परमेश्वर को तू इसका नियन्ता मान |

वह अपनी माया से,
सबके ह्रदय में स्थित हुआ
कर्मो के अनुसार इसे चलाता |
'वह' प्रेरक है तेरा,
उसे तू अपना इष्ट मान |
उसे तू अपने में स्थित मान |'

'हे भारत!
तू उसकी शरण में स्थापित कर
अपने प्राण |
उसी की कृपा से तू परमशांति को पाएगा,
उसी की अनुकम्पा से तू परमधाम को जाएगा |'

'यह अति गोपनीय ज्ञान
मैंने तुझसे अब कह दिया |
इस का तत्व समझ,
इसका भाव समझ
विचार कर
और
जो चाहता है,
जैसा चाहता है
वैसा ही कर |'

'सम्पूर्ण गोपनीयों से
अति गोपनीय
मेरे परम रहस्ययुक्त
वचन को तू फिर से सुन|
तू मेरा अतिशय प्रिय|

तुझसे मेरा प्रेम बडा,
मै तुझसे फिर एक वचन कहूंगा,
तेरा हितकारक वचन कहूंगा |'
'हे अर्जुन!
तू मुझमें मन वाला बन जा
तूमेरा भक्त बन जा,
मेरे भाव को तू जान,
मुझमें स्थापित कर अपना ध्यान,
सब मुझको अर्पण कर दे,
तू मेरा ही रूप बनेगा,
तू मेरा ही प्रिय रहेगा
मेरी भक्ति कर,मुझको सब अर्पण कर,
यह सत्य प्रतिज्ञा मैं करता हूं ,
मैं अपना रूप तुझे देता हूं |'

'हे अर्जुन!
अपने समस्त कर्तव्य कर्मो
को मुझमे अर्पित कर दे,
जीवन के समस्त धर्मो को
मुझमें अर्पित कर दे,
तू बस मेरी शरण मे आ जा,
तू बस मुझ
सर्व शक्तिमान,
सर्वाधार की शरण में आ जा,
तू मेरा प्रिय,
मेरे रूप में समा जा|'

'तू सहज ज्ञान पा जाएगा,
स्वयं पाप मुक्त हो जाएगा,
शोक मत कर,
बस मेरी शरण में आ जा |'

'यह परम गोपनीय
गीता ज्ञान
तू अमूल्या जान |
किसी काल में
किसी भाव में
भक्ति रहित,
जिज्ञासा रहित,
तप रहित प्राणी से न कहना |
जो ईश्वरीय भाव न रखता हो,
उसे इसका भाव न कहना |

जो श्रद्धा भाव को जानेगा,
वह परम प्रिय मेरा होगा,
वह इस ज्ञान का प्रचार करेगा,
वह मेरे भक्तों को शक्ति देगा,
वह इस ज्ञान को
सहज भाव से प्रकट करेगा,
वह प्रिय भक्त मेरा
मुझे ही पाएगा,
वह मेरे परम धाम को आएगा |'

'ज्ञान योगी का यह
उत्तम कर्म होगा,
उसका यही धर्म होगा,
वह मेरा अति प्रिय होगा |
जो इस गीता शास्त्र
का अध्ययन करेगा,
वह ज्ञान का भाव समझेगा,
वह ज्ञान योगी
तत्व ज्ञान को जानेगा,
वह मेरे भाव को पाएगा |'

'जो श्रद्धा से,
दोष दृष्टि से रहित हुआ
इसका श्रवण करेगा,
वह पाप मुक्त होगा,
वह उत्तम कर्म करेगा,
वह मेरे श्रेष्ठ भाव को पाएगा|

हे पार्थ!
तुमने एकाग्र चित्त हो
क्या मेरे भाव का श्रवण किया?
हे धनन्जय!
तू बता अज्ञान जनित
मोह तेरा क्या नष्ट हो गया?'

अर्जुन् तब बोला,
'हे अच्युत!
तुमने कृपा की मुझ पर,
मेरा मोह नष्ट अब हो गया,
अज्ञान जनित मेरा मोह नष्ट हुआ,
दिव्य ज्ञान का प्रकाश मिला,
मैं संशय रहित हूं अब हुआ|
अब मैं लोकहित हेतु
निमित मात्र बनकर आपकी आज्ञा का
पालन करूंगा|'

गीता शास्त्र
ईश्वर के मुख से
अर्जुन सगं
संजय ने सुना,
उसी का वर्णन उसने किया
वह बोला
धृतराष्ट्र से,
'हे राजन!
सब के ह्रदय में स्थित
सबके पालनहार
श्री वासुदेव के
अतिगोपनीय वचन
मैनें भी सुने
अर्जुन के सगं!
मन मेरा भी रोमांच भरा,
जीवन मेरा भी गदगद् हुआ|
श्री वेदव्यास की कृपा थी मुझ पर,
मुझे दिव्य दृष्टि दी,
मैनें इस परम गोपनीय ज्ञान को
ईश्वर के श्री मुख से प्रत्यक्ष सुना|
अर्जुन का जीवन तो सफल हुआ,
मेरा भी कल्याण हुआ |'

'हे राजन!
इस अदभुत
कल्याणकारी
रहस्ययुक्त संवाद को
बार-बार हूं स्मरण करता,
मन मेरा हर्षित होता,
कल्याण मेरा स्वयं हो गया!

'हे राजन!
श्री हरि का विलक्षण रूप
भी मैने देखा,
मेरा चित्त आश्चर्य भरा,
मैं बार-बार हर्षित हो रहा|

हे राजन!
जहां योगेश्वर भगवान
श्री कृष्ण स्वयं हैं विद्दमान
और् जहां
यह धर्म परायण,
कर्म योगी
अर्जुन,
वहीं श्री विजय
होगी,
वही विभूति,
वही अचल नीति होगी|'

'हे राजन! पाण्डवों की
विजय अवश्य होगी|
जहां सूर्य है,
वहीं प्रकाश होगा|
जहां ईश्वर हैं
वहीं भक्त का वास होगा|'
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