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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव (सात)
ISBN: 345

 

 
लाज होटल के बाहर एक टैक्सी आकर रूकी। उसमें से सुदर्षन, सुरेन्द्र, गुरजीत व विजय बाहर निकले। टैक्सी का बिल अदा करके वो होटल में प्रवेष कर गए। उन्होंने दो डबल-बेड-रूप किराये पर लिए। एक में सुदर्षन व गुरजीत तथा दूसरे में सुरेन्द्र व विजय ठहरे।
 
सफर की थकावट के कारण वो करीब सात घंटे सोये रहे। उठे तो षाम के पांच बज चुके थे। नहा-धो लेने के उपरांत उन्होंने नाष्ता किया और बंबई षहर घूमने निकले। चारों ने सिगरटें सुलगा ली थी और बाते करते हुए आगे बडते जा रहे थे।
 
‘‘अरे ! चले जा रहे हो, सोचा भी है जाना कहां है?’’
 
रूककर सुरेन्द्र ने उन तीनों को संबोधित किया।
 
‘‘जुहू चलते हैं।’’ उसकी बात पर सुदर्षन बोला ‘‘इतवार है, वहां रंगीन समां होगा !’’
 
टैक्सी में बैठकर वो ‘जुहू’ चल दिये।
 
रविवार का दिन था। समुद्र-तट पर काफी रौनक थी। लोग हंस खेल रहे थे। मौसम बहुत रंगीन था। जुहू की रेत पर एक जगह एक नटनी रस्सी पर चढ कर अपना तमाषा दिख रही थी। चारों उधर ही बढ गए और बडी तन्मयता के साथ, दर्षकों की भीड़ में खड़े होकर नटनी के आष्चर्यजनक करतब देखने लगे। नटनी बार-बार रस्सी पर एक तरफ को लचक जाती । उसके सुडौल व चिकने षरीर के संतुलन को देखकर दर्षक सासें साध लेते, और वो झट से सम्भलकर मुस्कुराने लगती।
 
नटनी का तमाषा देखने के उपरांत वो रेतीली भूमि पर घूमते हुए जाड़ों पर फब्तियां कसने लगे। कोई अकेली लड़की उन्हें नजर आती तो वो उसको छेड़ते, उस पर तरह-तरह की भददी आवाजें कसतें। डेढ़ घंटा वहां यंू ही मस्तियां मारने के उपरांत वो वापिस होटल आ गए।
 
रात का खाना चाने तक दस बज चुके थे। चारों उठकर कमरे में आ गए। एक-एक पेग षराब का लेने के उपरांत उन्होंने घूमने जाने की सलाह बनाई। विजय ने इंकार कर दिया। वो सोने के लिए उतावला हो रहा था। इस पर उसे वही छोड़कर सुदर्षन, सुरेन्द्र और गुरजीत होटल से बाहर निकल आए।
 
तीनों सिगरेट पीते हुुए गंदी बातें कर रहे थे। बातों-ही-बातों में वेष्याओं का किस्सा छिड़ गया। गुरजीत का दिल मचल उठा। वो बोला ‘‘दिल्ली में सुना था कि बंबई में वेष्याएं बहुत सस्ती मिलती हैं !’’
 
‘‘बड़ा दिल कर रहा है ?’’
 
‘‘हां यार !’’
 
‘‘तलाष करें ?’’
 
होंठ चबाते हुए सुदर्षन ने कहा।
 
‘वाह ! मजे आ जाएंगें !’’
 
सुरेन्द्र ने सिसकारी भरी।
 
तीनों के पीछे-पीछे एक बदमाष-सम व्यक्ति चल रहा था। इनके मध्य होने वाली प्रत्येक बात को वो सुन रहा था। यह सब सुनकर वो मुस्करा पड़ा। मध्यम स्वर में पुकारते हुए बोला ‘‘बाबूजी !’’
 
तीनों ने चौंककर पीछे मुड़कर देखा। वो फिर बोला ‘‘बाबूजी ! माल बढ़िया दिलवाउंगा ! चलिए।’’
 
‘‘सच !’’
 
‘‘एकदम ऐवन होगा, बाबूजी!’’
 
कितनी दूर ?’’
 
बस पास ही !--
 
‘‘चलो फिर ?’’
 
तीनों मन के लडडू खाते हुए उस व्यक्ति के साथ चलने लगे। वो वेष्याओं का दलाल था। उन्हें करीब डेढ़ फर्लांग चलना पड़ा। उनको वो एक चाल में ले आया और बरामदे में आकर एक दरवाजे को उसने खटखटाया। एक बूढें व्यक्ति ने दरवाजा खोला। वो बोला ‘‘माल लाया हंू !’’
 
आ जाओ !’’
 
इस पर उन्हें दो मिनट तक इंतजार करना पड़ा। बूढ़ा भीतर चला गया। वापिस आया तो उसके साथ तीन लड़कियां थी। माल पसंद आ गया। तीनों ने एक-एक चुन ली और उस पर उन्हें वो अलग-अलग कमरों में ले आई।
 
सुरेन्द्र ने धड़कते दिल से उस औरत के साथ-साथ कमरे में प्रवेष किया। यह एक छोटा-सा कमरा था। कमरे के बीचों-बीच एक पलंग पड़ा था, जिस पर स्वच्छ चादर बिछी हुई थी। दरवाजे के बाई ओर के कोने में एक मेज तथा एक कुर्सी रखी थी। मेज पर एक षीषा और श्रृंगार का सामान पड़ा था। दरवाजे के सामने की दीवार में एक अलमारी पड़ी थी। षायद उसमें कपड़े आदि रखे थे।
 
कमरे से हटकर सुरेन्द्र की निगाह उस औरत के षरीर पर पड़ी। वो उसे बड़ी तन्मयता के साथ निहार रही थी। सुरेन्द्र उसकी ओर बढ़ा ं ं ं ं ं ं ं ं ं
 
आले में बैठे कबूतर के जोड़े को मजबूत हाथों ने दबोच लिया। दबाब असहनीय था, नषृंसता का नंगा नाच वो हाथ करने लगे। कबूतरों का दम फूलता जा रहा था। एकाएक सांस का सुर टूट गया खून की धारा बह निकली !
 
अब षांति थी !
 
गुरजीत का पषुत्व पहले से ही जागा हुआ था। कमरे के भीतर आते ही उसने अपने तीखी निगाहों से औरत के षरीर को देखा सागर में एकाएक बड़ी जोर से तूफान आ गया। लहरें सर्प की भांति बल खाती हुई, किनारे पर क्रीड़ा करते मानव को जकड़ने लगी और पूरी षक्ति लगाकर उसे बीच समुद्र में ले जाने लगीं। मानव लहरों में खोकर अस्तित्वहीन हो गया ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़
 
आइये !’’
 
सुदर्षन ने सुना। आगे बढ़ा औरत के मुख पर छाये षून्य-भावों को देखकर वो रूक गया। आखों से षैतानियत लुप्त हो गई। बोला ‘‘तुम हंस क्यों नहीं रही ?’’
 
उसने सुदर्षन की आंखों में देखा। मुस्कुराने की चेष्टा की। सुदर्षन उसके नजदीक आ गया। कुछ पल तक उसके चेहरे को देखता रहा। फिर और आगे बढा, उसे अपने बाहुपाष में जकड़ लिया ं ं ं ं ं ं ं ं
 
भूखा षेर अपनी भूख षांत करने लगा। सांस फूली तो षिकार को लड़पता छोड़, मदहोष होकर गिर पड़ा। समय आगे बढने लगा। सुदर्षन वहीं सो चुका था। वो औरत कुछ देर तक तो यूं ही पड़ी रही। फिर उठ बैठी। कपड़े आदि पहनकर नीचे फर्ष पर लेट गयी। सूनी छत को घूरने लगी। मन में उसके तूफान छाया हुआ था। छत पर जैसे कुछ लिखा हो, वो सफेद-सूनी छत को घूरते हुए कुछ पढने का प्रयत्न कर रही थी।
 
कुछ देर तक यूं ही पड़ीं रही। फिर उठी। अलमारी खोलकर उसने अपनी डायरी निकाली और लिखने लगी:
 
वो दिन चाहकर भी भूल नहीं पाती जब मेरी इच्छा के विपरीत कोई काम न होता था। मैं जो कहती थी, मैं जो चाहती थी, मैं जो सोचती थी वही, केवल वही होता था। पर आज स्थिति बदल चुकी है। मेरी इच्छाओं-आकांक्षाओं को इंसानों के बोझ के नीचे दबाकर, किसी और की इच्छा-पूर्ति की जाती है। मेरा अपना तो काई अस्तित्व रहा नहीं। न मेरे वाक षक्ति रही है, न श्रवणषक्ति और न ही दृष्टि ! मुझे बस एक कार्य बता दिया गया है, मुझे एक घिनौना बिस्तर दे दिया गया है। साथ ही कहा गया है, आनंद दोगी, तो आनंद मिलेगा !
 
उसकी आंखों से आंसू बह निकले। सिसक उठी।
 
षांति भंग हुई। सुदर्षन की आंख खुल गई। उठकर देखा तो चौंक पड़ा। वो औरत घुटनों में सर दबाये रो रही थी। पास में ही एक डायरी पड़ी थी। उठकर सुदर्षन ने डायरी उठा ली। पढ़ले लगा। उसने गर्दन उठाकर देखा। बोली ‘‘मत पढ़ो, बाबू ! कुछ नहीं मिलेगा !’’
 
तब भी सुदर्षन ताजे पृष्ट को पढ़ गया। पढकर उसको देखने लगा। उसके मुख पर सहानुभूमि छा चुकी थी। उसे देखते हुए बैठ गया। आंखें साफ कर दी और बोला:
 
‘‘रोती क्यों हो ?’’
 
‘‘क्या करूं फिर ?’’
 
‘‘रोने से कुछ नहीं बनता !’’
 
सुदर्षन ने षांत स्वर में कहा। वो गंभीर हो चुका था।
 
‘‘तुम्हारा नाम क्या है ?’’
 
उसने गंभीर स्वर में पूछा।
 
‘‘सबीना !’’
 
संक्षिप्त सा उतर। फिर सिसकी।
 
सुदर्षन को वो चार लाइनें ही पढकर इस बात का आभास हो ही चुका था कि वो पढ़ी-लिखी है तथा किसी सभ्रांत-घराने से संबधित है। वो उसकी दास्तान जानने को उत्सुक हो उठा।
 
‘‘ये धन्धा कब से कर रही हो ?’’
 
‘‘तीन साल से’’
 
उसका संक्षिप्त उतर था। सुदर्षन ने सुनकर उसके षरीर पर षांत-दृष्टि डाली। अनुमान लगाया कि वो इक्कीस साल से अधिक उम्र की नहीं।
 
‘‘इससे पहले !’’
 
उसने प्रष्न जानकर अधूरा छोड़ दिया।
 
‘‘मैं ‘सुनीता’ थी!’’
 
‘‘कहा रहती थी ?’’
 
‘‘दिल्ली !’’
 
‘‘मां-बाप के पास ?’’
 
‘‘हां।’’
 
‘‘यहां कैसे पहंुची ?’’
 
‘‘भाग्य की विडम्बना !’’
 
‘‘भाग्य !’’
 
‘‘करता कौन है, दोष भाग्य को दिया जाता है मैंने गलत कहां ?’’ सबीना मुस्कुरा पड़ी। षायद उसे यूं लगा था कि सुदर्षन उसका हमदर्द बन गया हे।
 
‘‘मुझे अपनी कहानी सुनाओ !’’
 
‘‘क्या करोगे सुनकर ?’’
 
मालूम पड़ जायेगा कि ‘तुम’ कैसे बनती हो !’’
 
सबीना ने एकाएक कुछ न कहां। कुछ चण चुप रही। मुख खोला तो यूं:
 
‘‘जग में आते हैं। हाथ-पैर हिलाकर कुछ करना षुरू कर देते हैं। जो कुछ करते हैं, यही समझ कि अच्छा कर रहें हैं। ये तो हमें फल मिलने पर तो मालूम पड़ता है, कि हमारे कर्म कैसे थे, अच्छे कि बुरे ? जब मुझे फल मिला तो मुझे एहसास हो गया कि मैं बुरे कर्म करती आ रही थी। दिल का दर्द दवाने के लिए कह देती हंू ‘भाग्य की विडम्बना’ है। मगर वास्तविकता यह कि सब कुछ मेरा अपना किया हुआ है। मैंने अपने पैरों पर आप ही कुलहाड़ी मारी ! जीवन का अर्थ गलत लगाया और उसी अर्थानुरूप कार्य किये कभी बगिया का एक सुंदर फूल भी, अब फूल की बजाए नाली का दुर्गधित कीचड़ हंू। एक उच्च घराने में जंम लेना बड़े सौभाग्य की बात मानी जाती है। हमारे कुल वाले कहते है जीवन फूलों की सेज है यही अर्थ मैंने अपनाया। मगर वास्तविकता को जब सामने पाया तो आंसू बहाने पड़े। सभ्यता जिसे कहते हैं, मैं उससे कहीं आगे जो चली गई थी यह सोचकर कि ये जीवन है !
 
‘‘इक्कीस साल पूर्व दिल्ली में जन्म लिया। आयाओं के संरक्षण में बचपन बीता। मां-बाप वास्तव में क्या होते हैं? उनका प्यार क्या होता है ? कैसा होता है ? मैं न जान सकी। मेरे मां- बाप पर अंग्रेजीयत का नषा चढ़ा हुआ था। अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूलकर मंदिर के भगवान को भूलकर, वो क्लबों और होटलों में षरीर का नंगा नाच करना पूजा मानते थे। आयाओ के संरक्षण में रहकर मैंने भी खोखले संस्कारों को ग्रहण किया।
 
‘‘बचपन से हर प्रकार की स्वतंत्रता थी। विषैले वातावरण का नषा मुझ पर भी चढ़ रहा था। घर में आये दिन पार्टी होती, तो मैं भी षामिल हुआ करती। अपने पूज्यों को वहां नषा करते देखती, एक-दूसरे पर चुम्बन अंकित करते देखती नषे की आग में जलते बदनों को सिकुड़ते देखती। इन सब का फल यह हुआ कि मैं जवान होने से पहले ही जवान हो गई। कालेज में पहंुची। युवकों की ओर मेरा झुकाव स्वाभाविक था। झुकी और एक को चुन लिया। उसे अपना दिल दिया, अमूल्य धन भी दिया। समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था और मेरे कदम उसकी गति से तेज। कोई रोकने वाला जो नहीं था, कोई समझाने वाला जो नहीं था !
 
एक ने फिल्मों में लाने का प्रलोभन दिया। उसके साथ भाग कर मैं यहा आ गई। यहीं से मुझे फल मिलना षुरू हुआ, मुझे ‘एहसास’ होना षुरू हुआ। उस नीच ने मुझे कहीं का न छोड़ा। मेरे साथ सहवास किया। उसकी फिल्म तैयारकर ली। बाद में उसे कई पूंजीपतियों के हाथ बेचा गया।
 
फिर मुझे यहां लाकर रख दिया गया और रोज चार-चार व्यक्तियों ने आकर मेरा बदन नोचना आरम्भ कर दिया। मुझे तब मालूम पड़ा कि वो व्यक्ति औरतों का धन्धा करता है, लड़कियों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर यहा ले आता है।’’
 
उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। वो फिर बोली ‘‘वो दिन गया और ये दिन आया। हर सुबह नींद लिये आती है और रात सिसकियां। हर रात कोई न कोई दिवाना मेरा रक्त चूसने आ जाता है। मैंने ये कार्य षौक-सभ्यता-संस्कृति के नषे में किए थे और आज जब सभ्यता-संसकृति का वास्तविक अर्थ मालूम हुआ है, मजबूरी के कारण ये धन्धा कर रही हंू। ये मेरे षौक का फल है ! पर अब क्या कर सकती हंू ? मेरी राह कांटों भरी है। मैं इन कांटों को लांघ नही सकती, क्योंकि से काफी लम्बे-चौड़े हैं, मैं इन पर चलकर राह पार नहीं कर सकती, क्योंकि से काफी विषैले हैं। मैं जहां लाकर खड़ी कर दी गई थी, वहीं की वहीं खड़ी हंू, पिंजरे में बंद बेबस पंछी की भांति !’’
 
बस !
 
उसकी दास्तान समाप्त हो गई। उसकी आंखों से दर्द भरे आंसू बहते देखकर सुदर्षन की आंखें भी नम पड़ गई। जेब से रूमाल निकाल कर उसने सबीना के आंसू पोंछ दिये। मूक मुख से वो सबीना को सहानुभूति पूर्ण नज़रों से देखने लगा। कुछ क्षणों तक कमरे में षंांति छाई रही। सुदर्षन ने समय देखा। सबह के चार बज रहे थे। वो उठ खड़ा हुआ। चुपचाप सौ रूप्ये का नोट सबीना के हाथ में थमा दिया और साथ ही बोला ‘‘काष ! मैं तुम्हारे लिय कुछ कर सकता ।’’
 
‘‘मेरे दर्द को सुना, सहानुभूति दिखाई, यही काफी है !’’
 
‘‘भगवान करे तुम इस कैद सें जल्द ही छूट जाओ।’’
 
‘‘वो दिन षायद मेरी मौत का दिन होगा।’’
 
‘‘सुदर्षन मुड़ा। तभी उसे कुछ ध्यान आया। बोला, ‘‘तुम ‘नारी-कल्याण समिति’ से संपर्क क्यों नहीं करती ?’’
 
‘‘नारी कल्याण समिति ! बड़ा कठिन कार्य है’’
 
‘‘कोषिष करना ! अच्छा, चलता हंू’’
 
‘‘सुदर्षन ने एक कदम आगे बढ़ाया, तभी वह बोली ‘‘अपना पता देते जाओ’’
 
‘‘पता ! अच्छा लाओ कागज।’’
 
सबीना झट से कापी और पैसिंल उठा लाई। सुदर्षन ने पता लिख दिया। सबीना ने पता पढ़ा। एकदम चौंकी। बोली ‘‘दिल्ली ! क्या तुम दिल्ली से आये हो ?’’
 
‘‘हा’’
 
‘‘घूमने ?’’
 
‘‘हां’’
 
वो कुछ न बोली। सुदर्षन दो पल उसे देखता रहा फिर बोला, ‘‘समझ नहीं आ रहा तुम्हें क्या सम्बोधन दंू।’’
 
‘‘बहन !’’
 
सबीना के मुख से एकाएक निकला। सुनकर सुदर्षन चौंका। बोला ‘‘बहन ! मगर बहन-भाई का संबंध कैसे हो सकता है ? जानती हो, ये बंधन कितना पवित्र होता हैं, और कुछ घंटे पहले हम पवित्रता पर दाग लगा चुके हैं’’
 
‘‘मगर प्रायष्चित भी तो हो चुका है ! पष्चाताप की आग में हवन सामग्री और घी की आहुति तुमने दी ! सब कुछ भूलकर मुझे बहन कहदो, भाई !
 
‘‘मगर, मैं कुछ नहीं कह सकता, कुछ नहीं !’’
 
और फिर सुदर्षन तेजी से उसके कमरे से निकल गया। सबीना चुपचाप खड़ी रही। दरवाजे को देखती रही। दो आंसू उसकी आंखों से टपक कर फर्ष पर गिर पड़े।
 
क्या बात है सुदर्षन ? काफी गम्भीर हो।’’ गुरजीत ने प्रष्न किया।
 
‘‘कुछ नहीं। यूं ही जरा दिल खराब है’’ सुदर्षन की गम्भीरता अभी तक समाप्त नहीं हुई थी।
 
‘‘षायद रात का नषा अभी तक नहीं टूटा।’’ साथ ही हंस पड़ा सुरेन्द्र।
 
‘‘ऐसा कोई बात नहीं’
 
‘‘फिर ?’’
 
सुदर्षन ने उन्हें सारी बात सुना दी। सुरेन्द्र, गुरजीत और विजय उसकी बात ध्यानमग्न हो सुनते रहे। सुदर्षन चुप हुआ तो सुरेन्द्र बोला ये ही क्या सभी इसी प्रकार ही वेष्याएं बनती हैं। अगर बचपन से न बिगड़ें, तो ऐसा जीवन ही क्यों बितायें !’’
 
ऐसा बात नहीं है, कुछ षौक के कारण और कुछ पैतृक, धन्धे के कारण भी ये काम करती हैं।’’ विजय ने अपने विचार रखे।
 
‘‘एक बात मेरी समझ मे नहीं आ रही’’
 
‘‘क्या ?’’ विजय ने पूछा।’’
 
‘‘पुरूष जितना भी कुकर्मी क्यों न हो, उसे नीचा स्थान समाज में नहीं मिलता, उसकी ख्याति को तब भी बटटा नहीं लगता। परंतु अगर औरत बुरे कर्म करे तो समाज उसे घृणा भरी नजरों से देखता है वही समाज के लोग उसे दिन के उजाले में दुतकारते हें, जो रात के अंधरे में उसके साथ रंगरेलियां मनाते हैं, क्यांे ? क्यों औरत को एक पंछी की भांति पिजरे में रहने पर मजबूर किया जाता हैं ? उसे पुरूष जैसी स्वतंत्रता क्यों नहीं प्राप्त ?’’
 
सुदर्षन की बात सुनकर विजय बोला ‘‘सुदर्षन ! तूमने सुना होगा कि दबे को और दबाया जाता है। यही बात औरत पर लागू होती है। इस सृष्टि का जब से निर्माण हुआ है, तभी से पुरूष का प्रभुत्व ही जग पर रहा है वो अपनी ताकत के बल पर युगों से औरत को दबाता आ रहा है। औरत को वो निम्न मानता हैं और स्वयं को प्रधान जबकि औरत जननी है, पुरूष को उसी ने जन्म दिया है। वैसे अब पिछले युग जैसी स्थिति तो नहीं रही, मगर फिर भी अभी नारी का उत्थान नहीं हो सका है। सुदर्षन ! इसका सबसे बड़ा कारण उसका ‘मां’ होना है।’’
 
सुदर्षन के भीतर दो दिन तक अंतर्द्वन्द्व चलता रहा। धीरे-धीरे वो षांत हो गया, और वो फिर से पहले की भंांति हो गया
 
एक आधुनिक किषोर !
 
विषैले-युग का वासी !