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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव (दस)
ISBN: 345

 

 
‘‘आ गए विजय ?’’
 
‘‘जी पिताजी !’’
 
साथ ही उठकर विजय ने अपने पिता के चरणों की ओर अपना हाथ बढ़ाया, आषीर्वाद लेने के लिए ! पिता केसरदास ने पुत्र की पीठ पर हाथ रखा। फिर सफर आािद के बारे मंे पूछा। बातचीत के अतिंम क्षणों में अपने इस प्रष्न ने विजय के मन में भय उत्पन कर दिया।
 
‘‘लाए क्या-क्या हो विजय ?’’
 
भय को छिपाने का भरसक प्रयत्न करते हुए विजय ने उतर दिया, ‘‘जी बस कुछ कपड़ें !’’
 
‘‘दिखाओ जरा’’
 
कांपते हाथें से चिजय ने अपना बक्सा खोला। उसमें से तीन सुटों का कपड़ा निकाल कर उनके सम्मुख रख दिया। कपड़ा परख कर केसरदास बनावटी अचम्भे से बोले ‘‘कमाल है ! मैंने तुम्हें तीन सौ रूप्ये दिये थे। उसी से तुमने गाड़ी-भाड़ा, होटल-भाड़ा चुकाया और तीन सुटों का कपड़ा खरीद लिया ! क्या रूप्ये पूर हो गए थे ?’’
 
पिता के इस प्रष्न पर विजय के मन में उत्पन्न भय की एक और षाखा फूटी। संभल कर बोला ‘‘जी, पूरे नहीं हुए थे। कम पड़ गए थे, एक दोस्त से उधार लिये’’
 
‘‘दोस्त से उधार लिये थे या बैंक से निकलवाये थे ?’’
 
‘‘जी, जी नहीं ! यह आपको किसने कह दिया ?’’
 
यह सुनते ही केसरदास ने बैंक की ‘पास-बुक’ विजय के सम्मुख खोल कर रख दी। उस पर ‘एकाउंट-क्लोज्ड’ लिखा था। विजय ने बम्बई जाने से पहले उसे अपने कमरे में छिपा दिया था। उसके पीछे एक दिन जरूरी कागजात तलाषते केसरदास की निगाह उस पर पड़ी। देखने पर पता लगा कि उनके साहबजादे विजयकुमार ने अपने खाते में जमा सारी राषि निकलावा ली है।
 
बचपन से खाता पिता ने इसलिए तो नहीं खोला था कि खाताधारी उसका प्रयोग बेकार के कार्यों में करे। पिता ने तो यही विचार कर उसके खाते में रकम जमा करवाई थी कि जरूरत के समय पुत्र के भविष्य के लिए काम आएगी। मगर पुत्र, जिसे भविष्य का अर्थ नहीं मालूम, जो यह समझता है कि वर्तमान ही सबकुछ हैं, भविष्य भी वर्तमान बनता है, इसलिए जो कुछ जिस पल हाथ में आए उसी पल उसका प्रयोग अपने को ‘आनंद’ दिलाने में कर देना चाहिए। विजय का पिता को यही उतर था।
 
ऐसा सुनकर केसरदास ने उसके एक थप्पड़ मारा। भरपूर वार विजय का गाल सहन न कर सका, वो लाल हो गया, जुबान थथला गई। मां ने यह देखा तो बोली, ‘‘उसे मार क्यों रहे हैं ? पैसा अब वापिस तो नहीं आने का !’’
 
‘‘पर इसे अक्ल आ जाएगी।’’ और फिर क्रोध-युक्त वाणी से वह विजय से बोली, आज के बाद अगर तूने घर से एक भी कदम बाहर दखा तो तुम्हारी टांगें तोड़ दूंगा। सोमवार से मेरे साथ तुम दुकान पर चलोगे।’’ साथ ही उसके बालों को पकड़कर झटकते हुए बोले ‘‘समझे !’’
 
मैं नहीं जाउंगा, नहीं जाउंगा !’’
 
विजय रोते-रोते चिल्लाया। उसका उतर सुनकर केसरदास के तन-बदन में आग लग गई। विजय के बालों को फिर से झटकते हुए बोले ‘‘क्या कहा ? नहीं जाओगे ! लिकल जाओ फिर इस घर से !’’ झटका दिया। संतुलन बिगड़ा और विजय गिर पड़ा।
 
मां सब देख रही थी। पुत्र को गिरते देखकर पति पर उबल पड़ी ‘‘होष में आईये आप। अब ये बड़ा हो चुका है। इसे अब मार से नहीं समझाया जा सकता, प्यार से बात कीजिए।’’
 
‘‘तुम मूर्ख हो ! लातों के भूत बातों से नही मानते। तुम्हारे अंत्यधिक प्यार ने ही तो इसे बिगाड़ दिया है। मै तो इसे भेजना नहीं चाहता था, तब तुम्हीं ने इसकी तरफदारी की थी। अब देखो अपने लाडले की करतूतें, बीस दिनों में तेरह सौ रूपया फूंक आया है !’’
 
पति महोदय की बात सुनकर वो चुप हो गई। केसरदास ने कुछ झूठ थोड़े ही कहा था, उन्होंने तो हकीकत ब्यान की थी। कुछ क्षणों तक कमरे में विजय की सिसकियों के सिवाए अन्य कोई आवाज न उभरी। मौंन-भंग किया केसरदास ने। बोले ‘‘क्या निर्णय किया है ? दुकान जाओगे कि नहीं ?’’ विजय ने कोई उतर न दिया। वो फिर बोले ‘‘सोच लो ! अगर दुकान नहीं जाओगे, तो मैं तुम्हें घर से निकाल दूंगा। तुम्हें आवारागर्दी करते अब मैं एक क्षण भी और नहीं देख सकता ! जल्दी जवाब दो ! अतिंम वाक्य में कठोरता थी।
 
‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप ? कभी पुत्र को घर से निकाला जाता है ! वह दुकान जाएगा, मैं भेजूंगी उसे !’’
 
और यही हुआ ! विजय को दुकान जाने के लिए ‘हां’ करनी पड़ी। मां को षांति मिली, पिता संतुष्ट हो गए।