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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव ( तेरह)
ISBN: 345

 दिनभर विजय एकांत में बैठे सोचता रहा। कल रात उसने अपने पिता के सम्मुख दुकान जाने के लिए ‘हां’ कर दी थी। आज वो उसी पर विचार करता रहा कि उसका दुकान जाना उचित होगा या नहीं। वो अपने पिता के सख्त व्यवहार से डर गया था। उसके मन में एक विचार बार-बार उठकर उसे भयभीत कर रहा था कि अगर उसने अपने पिता के कहे अनुसार कदम न उठाये, तो वो उसे घर से निकाल देंगे। इन्ही विचारों से विजय दिनभर घिरा रहा। आखिर उसने दुकान जाने का निष्चय किया। सोचा, व्यक्ति को परिस्थितियों के अनूकुल ही स्वयं को ढालना चाहिए। जैसी परिस्थितियां आएं, वैसे ही उसे कार्य करने चाहिएं। अगर उसने विद्रोह किया तो दुःख झेलने पड़ेंगें। और दुःखों को झेलना, वो भी बिना किसी मजबूरी, विजय न सीखा नहीं था।

 
सुबह हुई माताजी ने आकर उसे जगाया, और नहा-धोकर तैयार हो जाने को कहा। मां का चेहरा आज प्रसन्नता से चमक रहा था। विजय को वो चेहरा आज अच्छा लगा। तैयार होने में उसने पूरा उत्साह दिखाया। कमरे से बाहर निकला तो पिता मिले। वो अपनी सामान्य-स्थिति में थे। चेहरे पर सदा विरजमान रहने वाली कठोरता थी, जिसे छिपाने के लिए वो विजय को देखकर मुस्कुराने और मीठ्र-स्वर में बोले ‘‘हो गए तैयार कर्म-क्षेत्र में उतरने को !’’
‘‘जी !’’
 
‘‘चलो फिर।’’ यह कहकर केसरदास बाहर जाने को मुड़े। विजय ने पास खड़ी मां की ओर देखा। मां ने आषीर्वाद दिया। पिता के पीछे-पीछे विजय बाहर आ गया। कार में बैठकर पिता-पुत्र करोलबाग को चल दिये।
 
लाला केसरदास एक दक्ष-व्यापारी थे। जानते थे पैसा कैसे कमाया जाता है। उनकी करोबाग में एक कपड़े की दुकान थी। काम काफी था। करीब दस कर्मचारी वहां काम करते थे। कार चलाने के साथ-साथ वो विजय को काम के बारे में समझाते जा रहे थे। विजय मौन बैठा हुआ, उनकी प्रत्येक बात को सुन-समझ रहा था।
 
दिनभर विजय पूरी लग्न के साथ अपना कार्य करता रहा। षाम हुई। फिर अंधेरा होने लगा। आठ बजते ही विक्रय-कार्य बंद कर दिया गया। हिसाब की जांच करने में ग्यारह बज गए। पिता-पुत्र घर लौट आए। विजय, आदत न होने के कारण, काफी थकावट महसूस कर रहा था। खाना खाकर वो सो गया।
 
केसरदास ने अपनी पत्नी को विजय के काम के बारे में बताया। उसकी प्रषंसा की। कहा, धीरे-धीरे उसे इतना व्यस्त कर दूंगा कि वो ‘कुकर्म’ षब्द का अर्थ भी भूल जाएगा। बस उसे हमेषा यही कहना है कि दुकान उन्नति करेगी तो तुम्हें सुख मिलेगा, फिर देखना !’’
 
माता जी भी खुष थी। विजय की प्रषंसा करते हुए कह रही थी ‘‘बेटा आखिर मेरा है !’’ फिर बोली ‘‘प्रत्येक व्यक्ति में हर कार्य को करने की योग्यता होती हे। मगर दुर्भाग्यवष या अज्ञानता के कारण वो अपनी उस योग्यता का सही ढंग से प्रयोग नहीं कर पाता। इसी कारण वो गलत कार्य करता है, उनको सही समझकर ! काष ! विजय की भांति सभी अपनी योग्यता का सही ढंग से प्रयोग करना षुरू कर दें !’’
 
इतना की कहकर उन्होंने अपने पति की ओर देखा, जो उन्हीं की ओर देख रहे थे। दोनों मुस्कुरा पड़े और खुषी की तरंगों को स्पष्ट सुनने के लिए एक-दूसरे के नजदीक चले आए !