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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव ( चार)
ISBN: 345

 हर घड़ी हमें रहता है

 
किसी का इंतजार।
 
जग है, जीवन है,
 
जीवन में किसी का इंतजार !
 
इंतजार के क्षण कभी समाप्त नहीं होते। मानव-मस्तिष्क हर क्षण कल्पनाएं करता रहता है, अपने काल्पनिक-संसार को इस वास्तविक संसार में निर्मित करने के लिए प्रयत्न करता है, साथ ही क्षण उस घड़ी का इंतजार करता रहता है, जिस घड़ी उसे ‘सत्य’ का साकार-रूप के दर्षन होंगे। येू ही समय का चक्र निरंतर गतिषील रहता है, बचपन आता है, जवानी आती है मानव की काया पर बुढ़ापा भी छाता है, और एक दिन सारे अस्तित्व का भी नाष हो जाता है। इस लंबे काल में हमें सदा रहता है इंतजार, इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति का !
 
एक वर्ष से उन्हें जिसका इंतजार था जिसके स्वागत के लिए वो वर्ष भर बड़ी लग्न के साथ तैयारी करते रहे, वो घड़ी-परीक्षा का दिन आज आन पहंुचा। कर्मण्य आज बहुत उत्साहित थे। होते भी क्यों न ? कर्मण्य अपने गुणों की परीक्षा देना अपना प्रथम कर्मव्य समझता है उसके अर्थों में जीवन की प्रमुख घड़ी परीक्षा का दिन है उसी को पाकर उसे सुख मिलता है। एक अकर्मण्य व्यक्ति, एक भागयवादी परीक्षा को भूत-स्वरूप समझता है। जिससे दामन छुड़ाने के लिए वो जादू-मंत्र, टोने-टोटके प्रयोग में लाता है। चमत्कार अगर सफल हुआ, तो वे भी सफल हो जाता है।
 
आज सुबह नौ बजे केंद्रीय-उच्चतर-माध्यमिक-बोर्ड द्वारा आयोजित प्रथम-परीक्षा होनी थी। इस समय आठ बज रहे थे। सिर्फ एक घंटे की देरी थी। मॉडल-टाउन उच्चतर-माध्यमिक विद्यालय के बाहर भीड़ जमा होनी षुरू हो गई थी। बातचीत का बाजार काफी गर्म था। सभी परीक्षा के विषय में अपने विचार प्रकट कर रहे थे। सारा वातावरण एक अजीब किस्म के जोष से भरा हुआ था। कुछ परीक्षार्थी ऐसे भी थे जो दिल-ही-दिल डर महसूस कर रहे थे।
 
अमित वहां पहुंच चुका था और एक तरफ खड़े होकर अपने साथियों के संग वार्तालाप कर रहा था। सवा आठ बज के करीब उसने सुदर्षन को आते देखा। उसके साथ उसके दो साथी भी थे। तीनों सिगरेट पी रहे थे। सुदर्षन ने अमित को देखा। सिगरेट का कष् लेता हुआ उसकी और बढ़ आया। अमित को कुछ बुरा लगा। बोला ‘‘कम से कम आज तो इसे मुंह न लगाते !’’
 
अमित की बात सुनकर सुदर्षन हंसा और बोला, ‘‘अरे ! तुम्हें षयद मालूम नहीं कि इसका एक ही कष् लगाने से सुस्ती दूर भाग जाती है, चुस्ती बदन में में रहेगी तो पेपर बढ़िया होगा !’’
 
यह उस दिन वाले सुदर्षन के वाक्य नहीं थे। ‘भूत’ के नही ‘वर्तमान’ के सुदर्षन के वाक्य थे ! उसकी बात पर सभी हंस दिये। उसकी, स्वयं की, हंसी सबसे तेज़ थी।
 
‘‘तैयारी करके आए हो ?’’
 
अमित ने प्रवाह बदला।
 
‘‘हर प्रकार की तैयारी है।’’
 
‘‘हर प्रकार की ! क्या मतलब ?
 
‘‘अरे यार ! ये भी नहीं समझे ? याद करने के साथ ‘‘फर्रे भी लेकर आया हंू !’’
 
‘‘ओह् ! क्या फायदा होगा इनसे ?’’
 
‘‘अरे् ! अगर अपना याद किया कुछ न आया तो इनका सहारा मिलेगा। सभी लेकर आते हैं, तो हम क्यों न लाएं ? आजकल के अध्यापक जब कुछ नहीं करते तो फायदा क्यों न उठायें ?’’
 
‘‘स्वभाव की भिन्नता मानव-मन की विषेषता है। हर व्यक्ति का स्वभाव एक-जैसा नहीं होता। जिन्होंने तुम्हें इन वस्तुओं को प्रयोग में लाने के लिए प्रोत्साहन दिया है, मैं पूरे विष्वास के साथ कह सकता हंू कि उनका अपना कोई लक्ष्य नहीं। वो स्वयं पथभ्रष्ट हैं, साथ ही तुमको भी अनुचित-पथ की ओर बढ़ा रहे हैं ! सुदर्षन। अभी भी कई सच्चे अध्यापक हैं जो तुम जैसे परीक्षर्थियों की एक नहीं चलने देते। अगर कोई कटटरवादी आ गया तो पेपर कैसिंल कर देगा।’’
 
‘‘अरे्, भूल जाओ ! हम जैसों का, पेपर अगर किसी ने कैसिंल करने की चेष्टा की तो उस साले की मार-मार कर घर का रास्ता भूला देंगे।
 
अमित उसकी बात सुनकर चुप हो गया। उसने आगे कुंछ कहना उचित न समझा। वह जानता था कि अब वो कुछ भी कहे उसका असर सुदर्षन पर रती भर नहीं पड़ेगा। साथ ही वो अपना मस्तिष्क अधिक बोझिल नहीं करना चाहता था।
 
समय का चक्र आगे बढ़े जा रहा था। साढ़े आठ बज चुके थे। परीक्षा-भवन का मुख्य-द्वार अभी तक बंद था। केन्द्रीय-बोर्ड के नियमानुसार परीक्षार्थियों को परीक्षा-भवन में परीक्षा षुरू होने से पंद्रह मिनिट पूर्व ही प्रवेष दिया जाना था।
 
मुख्य-द्वार पर स्कूल का चौकीदार खड़ा था। नजरें इधर-उधर घुमाते-घुमाते एकाएक वह चौंक गया। उसकी नजरें अपनी तरफ आने वाले एक व्यक्ति पर स्थिर होकर रह गई। आने वाला षहर का माना हुआ बदमाष गंगू था। वह अपने षिष्य सुरेंद्र को लिए रोबदार चाल चलता हुआ, सीधा उसके पास आया। चौकीदार इस समय काफी डर महसूस कर रहा था। कुछ क्षण तक गंगू चौकीदार की मुख-मुद्रा का अध्ययन करता रहा, फिर मुख पर कुटिल मुस्कराहट लिए, सुरेंद्र के कंधे पर हाथ रखकर बोला ‘‘ये मेरा छोटा भाई है। आज से इसके पर्चे षुरू हैं। सेंटर इसी जगह पड़ा है। इसका ख्याल रखना, वैसे मैं भी यहीं रहंूगा !’’
 
और फिर गंगू चौकीदार के मन की प्रतिक्रिया को जाने बिना द्वार की बाई ओर बड़़ गया। सुरेंद्र उसके साथ-साथ था।
 
पंद्रह मिनट पष्चात प्रवेष-द्वार खोल दिया गया। सभी परीक्षार्थी धड़ाधड़ भीतर जाने लगे। सुरेन्द्र जब जाने को उद्यत हुआ तो गंगू उससे बोला ‘‘सुन ! अगर मास्टर ज्यादा तिड़बिड़ करे तो बेझिझक चाकू खोल दियो। समय समाप्त होने पर मैं उन्हें दर्षन दे दूंगा !’’
 
साथ ही गंगू बड़ी कुटिलता-पूर्ण हंसी हंसा। उससे कितनी अच्छी षिक्षा लेकर सुरेन्द्र ने विदा ली ! गंगू के वचन कितने दुर्लभ थे ! सभी परीक्षार्थियों पर अगर ऐसे महानुभव दया कर दें तो सबका बेड़ा पार लग जाए ! बिगड़ी बनाने वाला गंगू !
 
सुदर्षन, सुरेन्द्र और अमित का रोल नम्बर एक ही कमरे में आया था। सुदर्षन व सुरेन्द्र नज़दीक-नज़दीक थे और अमित उसने दूर बैठा था। नौ बजे में जब पांच मिनट की देरी रह गई तो कमरे में दो परीक्षकों ने प्रवेष किया। उन्होंने सबसे चुपचाप बैठ जाने की प्रार्थना की और आवष्यक-निर्देष देने के पष्चात उतर-पुस्तिकायें बांट दी। तभी प्रमुख-परीक्षक प्रष्न पत्रों का लिफाफा दे गया। प्रष्न-पत्रों को परीक्षक के हाथों में देखकर प्रत्येक परीक्षार्थी मन-ही-मन प्रार्थना करने लगा ‘‘प्रष्न कैसे आए होंगे ? हे भगवान ! आषानुकूल आएं !’’
 
‘‘कैसा है ? मिस्टर पॉल !’’
 
‘‘बहुत सरल’’ मिस्टर गुप्ता को उतर देकर वो परीक्षार्थियों को सम्बोधित करते हुए बोले ‘‘अगर किसी के पास कोई गलत चीज़ हो तो वो अब भी निकाल कर बाहर रख सकता है। अगर कोई बाद में पकड़ा गया तो माफ नहीं किया जाएगा।’’
 
सभी ने सुना, मगर चुपचाप बैठे रहे। हां, सुदर्षन-सुरेन्द्र एक-दूसरे को देखकर मुस्कराये जरूर।
 
पेपर षुरू हो गया। सुदर्षन को उसका काफी अंष कण्ठस्थ था। वो निरंतर लिखता जा रहा था। उधर सुरेन्द्र की बेचैनी पल-प्रतिपल पष्चात बढ़ती जा रही थी। उसको कुछ भी नहीं आता था। जी कड़ा करके उसने अपना पहला ‘हथियार’ निकाला। किसी को कुछ न पता लगा। इन कायों में वो पूरा माहिर था। तेजी से वो उस फर्रे की नकल उतर-पुस्तिका पर उतारने लगा। बहुत ही जल्द, करीब पंद्रह मिनट में, उसने लगल पूरी कर ली और फिर उसे कागज को निगल गया।
 
वाह रे ! फर्रों के उस्ताद !
 
दो घंटे बीत चुके थे। सुदर्षन को जितना कुछ आता था, कर चुका था। उसके दो प्रष्न षेष थे। गर्दन घुमा कर उसने अमित की ओर देखा अमित अपना पेपर पूरा करने में तल्लीन था। दृष्टि सुरेन्द्र पर टिकी, तो मुस्करा उठा उसे बड़ी होषियारी से नकल मारते देखकर।
 
सुरेन्द्र !’’
 
मोका मिलते ही वो फुसफुसाया।
 
सुरेन्द्र ने प्रष्नवाचक-मुद्रा में उसकी ओर देखा।
 
‘‘कौनसा ?
 
सुदर्षन ने इषारे से पूछा।
 
प्रत्युतर में सुरेन्द्र ने चार अगुलियां दिखाई।
 
दो क्षण रूककर सुदर्षन फिर फुसफुसाया
 
‘‘करके मुझे दे देना’’
 
सुरेन्द्र ने गर्दन हिलाकर ‘हां’ कर दी।
 
उसी क्षण मिस्टर पॉल को सुरेन्द्र पर संदेह हुआ। समाधान के लिए वो उसके पास आए। सुरेन्द्र की अंगुलियों ने फुर्ती से अपना कमाल दिखाया। कागज खिसक कर उतर-पुस्तिका के पन्नों में छुप गया। मगर मिस्टर पॉल पूरे घाघ थे। उन्होंने उतर-पुस्तिका उठा ली और फर्रे को बाहर निकाल लिया।
 
‘‘ये क्या है ?’’
 
‘‘फर्रा !’’ मुस्कुराते हुए सुरेन्द्र ने उतर दिया और साथ ही अपना दांया हाथ जेब में डाल लिया। सभी परीक्षार्थियों का ध्यान बंट गया। खुसर-फुसर आरम्भ हो गई।
 
‘‘कुपया सब षांति से अपना कार्य करें !’’
 
मिस्टर गुप्ता ने षेष परीक्षार्थियों से प्रार्थना की और स्वयं सुरेन्द्र के पास आ खड़े हुए।
 
‘‘जेब से हाथ बाहर निकालो।’’
 
उसे जेब में हाथ डाले देखकर मिस्टर पॉल ने कहा।,
 
सुरेन्द्र ने ज्योंही जेब से हाथ निकाला, कमरे में ‘टिक’ की आवाज गूंजी। सबने चौंक कर नजरें उठाई।
 
अरे !
 
ये क्या ?
 
सुरेन्द्र के हाथ में लम्बे फल वाला चाकू था। और वो बड़े भयानक अंदाज में उसे दोनों परीक्षकों के सम्मुख लहरा रहा था।
 
‘‘बोलो अब !’’
 
गुर्राहट निकली सुरेन्द्र के मुख से। दोनों परीक्षक कांपने लगे। कुछ न बोले।
 
‘‘नकल मारूं या !’’
 
जानकर सुरेन्द्र ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
 
‘‘मार लो भाई ! हम कुछ नहीं कहेंगे !’’ मिस्टर गुप्ता कांपती हुई वाणी से बोले। ‘‘तो दोनों उस कोने में चुपचाप खड़ हो जाओ।’’
 
उसकी आज्ञा का उन्होंने पालन किया। सुरेन्द्र फिर बड़ी तेजी के साथ, चौकन्ना होकर, षेष पर्चा पूरा करने लगा। कमरे में बैठे अन्य परीक्षार्थियों ने, जिन्हें अपने पर कम विष्चास था ने भी स्थिति का लाभ उठाया ! अमित खिन्न हो उठा। पर वो क्या कर सकता था ? षंांति पूर्वक अपना पेपर पूरा करने लगा।
 
टन-टन-टन !
 
समय समाप्त हो गया। सुरेन्द्र झट खड़ा हुआ और उतर पुस्तिका परीक्षक को थमाते हुए बोला ‘‘अगर तुम दोनों में से किसी ने भी आज की घटना का किसी के सम्मुख वर्णन किया, तो समझ लेना फिर तुम्हारी खैर नहीं !’’ उसी समय उसे खिड़की से गंगू दिखाई पड़ा। खिड़की की ओर ईषारा करते हुए बोला ‘‘वो देखो !
 
दोनों ने खिड़की की ओर देखा। चौंक गए। सामने गंगू को देकर डर गए। षहर की महान हस्ती से भला कौन वाकिफ़ न था !
 
‘‘मास्टर साहब ! बच्चों की भ्ूाल बड़े माफ कर देते हैं, इसे भी माफ कर देना !’’ चाह कर भी गंगू अपनी वाणी मृदु न कर पाया। फिर बोला ‘‘और अगर माफ न किया तो याद रखना मेरा नाम गंगू हैं !’’
 
और फिर गंगू तेज़ी से चला गया। सुरेन्द्र बड़ी अदा के साथ उन्हें सलाम करता हुआ कमरे से निकल गया। दोनों परीक्षक उतर-पुस्तिकायें समेटने लगे।
 
‘‘मिस्टर पॉल ! प्लीज़ किसी से कुछ न कहना !’’
 
‘‘मुझे भी जान प्यारी है, मिस्टर गुप्ता !’’
 
--  8 मार्च  --
 
आज की इस घटना का दोषी किसे ठहराउं ? षिक्षकों को, षिक्षा-पद्धति को अथवा घर-समाज के वातावरण को ?
 
षिक्षक या षिक्षा-पद्धति को तो मैं इसकी जड़ मानता नहीं। क्योंकि मैं भी तो उन्ही षिक्षकों से षिक्षा ग्रहण करता हंू, जिनसे सुदर्षन और सुरेन्द्र तथा अन्य षिक्षार्थी ग्रहण करते हैं। और अगर षिक्षक बुरे भी मान लिये जाएं तो उनका असर उन छात्रों पर पड़ना चाहिए जो नियमित रूप से स्कूल जाते हैं, न कि उनपर जिनके षिक्षकों को दर्षन कभी-कभी मिलते हैं। पर मैं षिक्षकों को दोषी नहीं मानता। जहां तक षिक्षा-पद्धति की बात है, हम उसपर भी दाग नहीं लगा सकते। बेषक हमारे देष की षिक्षा हममें व्यवहरिक-ज्ञान कम उपजाती है, किंतु यह बात सत्य नहीं कि वो हमें बुरे कर्म करना सिखाती है। षिक्षा सैद्धान्तिक है, सिद्धानतों को सीखे बिना व्यवहारिक-क्ष्ेात्र में हम कुछ नहीे कर सकते। षिक्षा-पद्धति बुरी नहीं।
 
आत्मा से प्रष्न का उतर मांगता हंू, तो जवाब मिलता है दोष है आज के समाज के वातावरण का, समाज की नीतियों का और मा-बाप की कर्तव्यहीनता का !
 
मगर कैसे ? क्यों ?
 
बच्चे के जन्म लेने के साथ ही विचारों का एक पौधा भी इस जग में फूटता है, मानव-मस्तिष्क में हरपल तरह-तरह के विचार जन्म लेते रहते हैं। कुछ विचार काम के होते हैं, कुछ बेकार के, कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे। जिस प्रकार के विचारों की तरफ मस्तिष्क ज्यादा आकर्षित होता है, मस्तिष्कवादी उसी प्रकार का बन जाता है। किसी वस्तु की ओर हमारा आर्कषण स्वभाविक होता है। हमारा स्वभाव हमारे चरित्र पर निर्भर करता है। अब प्रष्न उठता है चरित्र का निर्माण कैसे होता है ?
 
जहां तक मैं समझता हंू। चरित्र को निमार्ण वातावरण पर निर्भर करता है। बच्चे को जिस प्रकार के वातावरण में पाला जाता है, उसका उसके जीवन पर गहरा असर पड़ता है। उसे अच्छाई-बुराई का कुछ पता नहीं होता। जैसे विचार वह अपने आसपास देखता है, वैसे ही सब सच्चे मन से ग्रहण करता जाता है, जैसा वह अपने लालन-पालन करने वालों को पाता है, वैसा ही वह खुद बन जाता है।
 
अगर ऐसी बात है तो क्या मैं ‘इनकी’ चारित्रिक-कमियों के उत्पन्नकर्ता इनके मां-बाप और समाज के ठेकेदारों को मानूं ?
 
डायरी बंद करके अमित पलंग पर आराम करने के लिए लेट गया। उसका आज को पेपर बहुत अच्छा हुआ था, मगर अपने सहपाठी सुरेन्द्र के व्यवहार को देखकर उसका मन खिन्न था। सुदर्षन के प्रति भी उसके विचार उदास थे। पर वो डायरी लिखने के सिवाए और क्या कर सकता था ? किसे सुनाता अपने दिल का हॉल ?