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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव ( सोलह)
ISBN: 345

 

 
रामपाल !
घर का सबसे पुराना नौकर। बाईस वर्षीय दुबना-पतला, काला, आर्कषणहीन व्यक्तित्व ! पर विषेषता यह कि बदन और लिबास बिल्कुल स्वच्छ रखता है। मगर वो दिल का लोभी है। हडडी फेंकने वाले का पलभर में मित्र बनने वाला रामपाल सुदर्षन का साझाी बना हुआ है।
 
मार खाने के बाद सुदर्षन ने जान-बूझकर घर से निकलता छोड़ दिया था। उसके कानों यह बात पड़ चुकी थी कि अब उसे पैसा देना बंद कर दिया जाएगा। एक मई को उसे मई माह का खर्चा मिला था। उसे इस माह की तो परवाह नहीं थी, मगर अगले माह का ख्याल कर उसे स्वांग रचना पड़ा। उसने फिर ‘साधुवाद’ की षरण ली, बनावटी अवास्तविक साधुवाद की। कमरा बंद करके वो भीतर पड़ा रहता, सिगरेट पीता, षराब पीता। बस केवल वो जुए महाराज की आराधना न कर सकता था और घूम-फिर न सकता था। रामपाल कुछ पैसों और थोड़ी षराब के लालच में उसकी मदद कर दिया करता था। गाड़ी आराम से आगे बढ़ रही थी। दो हफते हो गए।
 
‘‘आज दो हफते होने को आ गए हैं, सुदर्षन ने घर से कदम बाहर नहीं निकाला है। मुझे विष्वास है कि उस पर मेरी बातों का असर पड़ा है।’’
 
‘‘असर पड़ा है, तभी तो घर बैठकर मन को बदलने का यत्न कर रहा है। उस दिन एकांत में बैठ कर उसने विचार किया होगा कि क्या अच्छा है और क्या बुरा ! भेद समझ आ जाने पर उसे अंतर्मन से अच्छा बनने की प्रेरणा मिली होगी।’’
हां, तुम ठीक कह रही हो लक्ष्मी !’’
रात के ग्यारह बज चुके थे। लक्ष्मीदेवी व षिवचरण बाबू सुदर्षन के बारे में ही बातचीत कर रहे थे। फिर उन्होंने खाना खाया और उसी के बारे में बातें करते हुए सो गये।
 
आखिर सारा दिन घूमने वाला व्यक्ति जेल की भांति कब तक घर की चारदिवारी में रह सकता है ? जल्दी ही उसे उकताहट होने लगती है, मन बाहर जाकर घूमने के लिए छटपटाने लगता है। आज 24 मई थी। जेब खर्च के दो सौ रूप्ये सुदर्षन समाप्त कर चुका था। कुकर्मी जब पूर्ण स्वतंत्रता से घूमता रहता है तो वो कुकर्म इतनी तेजी से नहीं करता, जितने कि वो एकांत में करता है। एकांत उसे काटता है और वो उसके दर्द को भूलने के लिए अपने कर्मों को तेजी से करने लगता है, अधिक सिगरेट-षराब पीता है और कुण्ठाओं के लोक में विचरता रहता है। सुदर्षन की भी यही दषा थी। घर में वो दिन भर अपने कमरे में बंद रहता, सिगरेट पीता रहता। षराब दिन में तो कम, मगर रात को बहुत पिया करता। गंदी पुस्तके पढ़ता, गंदे विचार मन में भरता रहता यौवन की कैद में विचरता रहता।
 
लक्ष्मरदेवी को प्रसन्न देखकर वह षाम के समय उनके पास गया और बोला ‘‘मम्मी ! मुझे कुछ पैसे चाहिए।’’
 
मां आखिर मां होती है। ममता का त्याग नहीं कर सकती। पुत्र से वो कभी नफरत नहीं कर सकती, उसके बुरे कर्मा को देखकर वो उन कर्मा से नफरत करती है। पुत्र का उनसे दामन छुड़ाने के लिए आवेष के क्षणों में पुत्र पर हाथ उठा सकती है, त्याग की बात कर सकती है, मगर तब भी पूर्ण रूप से अपने वचन का पालन नहीं कर सकती। खून की महिमा है ये। लक्ष्मीदेवी ने अपने मन में समाये सुदर्षन के प्रति आक्रोष के सभी भावों को निकाल कर बाहर फेंक दिया था। सुदर्षन के प्रति अब उनका व्यावहार वैसा ही हो गया था, जैसा सामान्य राह पर चलते पुत्र से किया जाता है।
 
सुदर्षन की मांग सुनकर दो पल तक लक्ष्मीदेवी ने कुछ सोचा फिर बोली, ‘‘कितने चाहिए ?’’
जितने आप की मर्जी !’’ सुदर्षन बोला।
सुदर्षन की यह बात सुनकर लक्ष्मीदेवी मन-ही-मन हर्षित हो उठी और बाली ‘‘बेटा ! जब बच्चा मुनासिब राह पर चलता है, तो सब उसकी प्रषंसा करते हैं कोई उसे डांटता-फटकारता नहीं ।’’
 
उनकी बात सुनकर सुदर्षन मन-ही-मन हंसा, पर मुख पर उसने अपने मनोभाव को प्रगट न होने दिया, चुप रहा आंखें नीची किये खड़ा रहा बिल्कुल ‘बगुला-भक्त’ की भांति ! लक्ष्मीदेवी ने अपने पर्स से दस का नोट निकाल कर उसे थमा लिया। सुदर्षन बाहर की ओ बढ़ा कि लक्ष्मीदेवी ने उसे टोका ‘‘यहीं आसपास घूमकर जल्दी वापिस आ जाना।’’
‘‘जी अच्छा।’’
 
कहकर सुदर्ष्र्रन घर से बाहर निकल आया। धीमी गति से सड़क के किनारे होकर आगे बढ़ने लगा। अभी वो दो फर्लांग ही चला था कि उसे गुरजीत और सुरेन्द्र आते दिखाई दिये। सुदर्षन ने दोनों के साथ हाथ मिलाया और हाल पूछा।
 
‘‘क्या बात थी प्यारे, इतने दिन नजर नहीं आये ?’’गुरजीत ने उससे पूछा।
‘‘बस यंू ही यार !’’
सुरेन्द्र गिला करते हुए बोला, ‘‘तुम भी कोई दोस्त हो जो मुझे पूछने तक नहीं आएः’’
‘‘क्यों, क्या हुआ था तुम्हें ?’’
‘‘पंद्रह दिन बिस्तर पर पड़ा रहा।’’
‘‘माफ करना यार ! कारणवष न आ सका।’’
‘‘ऐसा क्या कारण था ?’’
‘‘मार पड़ी थी घर से !’’ मुस्कुरा कर सुदर्षन ने उतर दिया।
‘‘सच, सुदर्षन ? सच !’’ गुरजीत हंसते हुए एकदम बोला।
‘‘सच ! बिल्कुल सच !’’
‘‘फिर तो प्यारे, मेरे-तुम्हारे नक्षत्र एक जैसे हैं।’’
क्या तुम्हें भी ?’’
अंगुली गुरजीत की छाती पर सीधी टिका सुदर्षन ने अधूरी बात कही।
‘‘हां, भाई !’’
तीनों खिलखिलाकर हंस पड़े
‘‘तुम्हें किसलिए मार पड़ी थी ?’’
हंसी का दौर समाप्त हुआ तो गुरजीत ने प्रष्न किया।
‘‘बस, वही पुराने किस्से। ये क्यों करते हो ? ये नहीं करना चाहिए। जवाब दिये तो मम्मी ने मारा।’’
‘‘यही मेरे साथ हुआ था।’’
‘‘ओह !’’
‘‘भाई, मैं तुम सबसे अच्छा हंू।’’ सुरेन्द्र उनकी बात सुनकर बोला।
‘‘कैसे ?’’ उत्सुकतावष सुदर्षन ने पूछा।
‘‘मैं इन सब चीजों का सेवन बेरोक-टोक कर सकता हंू। षराब मैं अक्सर डैडी के साथ बैठकर पीता हंू और सिगरेट भी घर में पी लेता हंू !’’
‘‘कमाल है !’’ सुदर्षन की वाणी में अत्यधिक अचम्भा था। दरअसल बात यह है कि वह बिल्कुल आधुनिक विचारों वाले हैं। वह उस जीवट के व्यक्ति हैं, जो सदा ये कहते हैं कि किसी को वही कार्य करने से रोको जो तुम स्वयं न करते हो। साथ ही इनका सेवन आधुनिक युग का सबसे प्रबलतम फैषन है, और फैषन की दौड़ में पीछे रहना महामूर्खता होता है’’
 
सुरेन्द्र की बात सुनकर दोनो कुछ देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे, फिर सुदर्षन बोला ‘‘तो क्या तुम ये समझते हो कि मेरे घर वाले अगर मुझे रोकते हैं तो मैं रूक जाउंगा ? कभी नहीं !’’
‘‘मैंने ये कब कहा ?’’
‘‘हमें तो किसी का बाप भी आकर नहीं रोक सकता।’’
गुरजीत ने तो सम्पूर्ण पुरानी पीढ़ी को ललकार दिया।
‘‘अच्छा छोड़ो ये किस्सा, और बताओ ‘परिणाम’ कब निकलेगा ? सुदर्षन ने प्रष्न किया।
‘‘आठ जून को।’’ गुरजीत ने उतर दिया।
‘‘हंू’’
तभी सुरेन्द्र ने जेब मेे से सिगरेट की डिबिया निकाली और उनकी ओर बढ़ाकर बोला ‘‘लो पियो।’’
तीनों ने एक-एक सिगरेट सुलगा ली और उसके कष खींचने लगे।