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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव (तीन)
ISBN: 345

 ‘ये दिन

 
आते हैं,
 
चले जाते हैं।
 
करवाते हैं कुछ हमसे
 
कुछ करवा जाते हैं।
 
कुछ कर पछताते हैं हम
 
कुछ कर मुस्काते हैं।’
 
हर दिन आता है, फिर चला जाता है। हम दिनभर किसी-न-किसी कार्य में लगे रहते हैं। समय के पाबंद बने होने पर हम जीवन में सदा सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जाते हैं। पर समय का पाबंद बनना कोई सरल काम नहीं है। समय का पाबंद बनने के लिए हमे अपने भीतर संयम की भावना को जागृत करने की भरपूर कोषिष करनी चाहिए। प्रयत्नों के तदुपरांत हमें सफलता मिलेगी, हम समय के पाबंद बन जाएंगे, हर कार्य हम सही ढ़ग से, सही समय पर पूरा कर सकेगे, जिसका परिणाम होगा, सुखमय जीवन !
 
अमित समय को सदुपयोग कर रहा था। वो ऐसे कार्यों में रत था, जिनसे उसके उज्जवल भविष्य का निर्माण हो रहा था। उसकी अपने दुर्लभ जीवन का मूल्य मालूम था। परंतु सुदर्षन हर बात की ओर सक लापरवाह हो, ऐसे कर्म कर रहा था, जो उसे अपने में रत रख कर, उसके जीवन का सर्वनाष कर रहे थे, उसके भविष्य को अंधकारमय बना रहे थे।
 
परीक्षाएं सिर आ आ चुकी थं। सभी विद्यार्थी बड़ी लग्न के साथ परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। परंतु सुदर्षन और उसके कुछ साथी अभी तक पढ़ाई के विषय से तटस्थ थे। वो सब अभी तक ‘जुए’ में मम्त थे। षायद वो जुए-महाराज के बड़े भक्त थे। भगवान के भक्त की भांति वे भी प्रतिदिन क्रीड़ावंन रूपी मंदिर में जाते और श्रृद्धापूर्वक अपने गुरू-महाराज ! के चरणों मे ‘फूलों’ की भेंट चढ़ाते थे। गुरूजी जिसदिन जिसकी भक्ति से प्रसन्न होते, उसी को वे भेंट का सामान सौंप दिया करते। गुरू-भक्ति में लीन भक्तों की समाधि टूटी। अपने चारों ओर गर्द का ढेर देखकर वो घबरा गये वायु-दूषण से उनका जी मितलाने लगा।
 
सुदर्षन को इस बात का एहसास हुआ कि सफलता प्राप्त करने के लिए ठोस-अध्ययन आवष्यक है। पर वो अब सिर्फ पंद्रह दिनों में क्या कर सकता था ? फिर भी सब कुछ भूल कर वो अध्ययन में जुट गया। जिसने सारे सालभर पुस्तक को हाथ न लगाया हो, वो अगर एकाएक पढ़ना षुरू कर दे, तो काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यही हाल सुदर्षन का था।
 
षांत मन के लिए सब कुछ सम्भव है। लेकिन जिसके मन में हर पल तूफान मचा हो कि कोर्स कैसे पूरा होगा, वो भला कम समय में अधिक लाभ कैसे उठा सकता है ? सुदर्षन अपने कमरे में बुत बने बैठा था। चाहकर भी वो अपनी घबराहट पर काबू नहीं पा सक रहा था। पुस्तक उसके सम्मुख खुली पड़ी थी आंखें उसकी, यंू प्रतीत होती थी कि, पुस्तक पर टिकी हैं, मगर वास्तविकता यह भी कि वो रोषनी के होते हुए भी कुछ न देख पा रही थीं।
 
‘‘क्या करूं, अब मैं क्या करूं ?’’
 
मौन भंग तो किया उसने, मगर साथ ही झल्लाकर उसने मेज पर मुक्का दे मारा।
 
‘‘सब पढ़ रहे होंगे और एक मैं हंू, कुण्ठाग्रस्त, जो चाहकर भी नहीं पढ़ पा रहा हंू, अमित पढ़ रहा होगा, अमित !’’
 
अमित का चेहरा उसी क्षण उसके चक्षु-क्षेत्र में उभरा ! एक प्रष्न उसके मस्तिष्क-पटल पर अंकित हुआ। स्वयं से उसने पूछा
 
‘‘क्या अमित मे पास जाउं ? हो सकता है वो मुझे ऐसे प्रष्न बता दे, जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हों !’’
 
‘‘नहीं-नहीं, सुदर्षन ! इससे तुम्हारे अहं को चोट लगेगी !’’
 
अहम्-भाव भरा उतर मिला।
 
‘‘हां ! फिर क्या करूं ?’’
 
‘‘मेरे अहम् का बुर्ज गगन को चूम रहा है और मैं स्वयं कब्रिस्तान की एक कब्र में लेटा हुआ हंू !’’
 
एक अकविता स्मरण हो आई उसे !
 
तभी उसके कमरे के दरवाजे पर थाप पड़ी।
 
‘‘कौन ?’’
 
कुर्सी से उठकर उसने दरवाजा खोला।
 
उसके सामने अमित खड़ा था। सुदर्षन अचम्भित वाणी में बोला ‘‘अमित, तुम !’’
 
‘‘हां, पढ़ाई कैसी चल रही है ?’’
 
मुस्कुराते हुए अमित ने उससे पूछा और साथ ही भीतर आ गया।
 
‘‘ठीक ही चल रही है।’’
 
मन की भावनाओं व वास्तविकता को छिपाते हुए सुदर्षन ने कहा।
 
‘‘आज एकाएक तुम्हारा ध्यान हो आया। सोचा, देख आउ तुमने क्या-क्या तैयारी की है !’’ अमित ने आने का कारण बताया। सुनकर सुदर्षन धीमें से बोला, अमित !’’
 
‘‘क्या ?’’
 
‘‘यार, मुझे कुछ महत्वपूर्ण प्रष्न बता दो।’’
 
‘‘उसी कारण आया हंू, मैं जानता था कि तुम मेरे पास नहीं आओगे। मैं तुम्हारा भला चाहता हंू, सुदर्षन ! फिर भी न जाने क्यों तुम मेरी बात पसंद नहीं करते ! खैर छोड़ा, ये लो। इस पर लिखे प्रष्नों को याद कर लेना। अगर कोई समझ न आए तो घर आकर पूछ लेना’’ इसी के साथ अमित ने उसे एक कागज थमा दिया, जिस कुछ प्रष्न लिखे हुए थे।’’
 
‘‘धन्यवाद, अमित !’’
 
‘‘अच्छा, अब चलता हंू।’’
 
‘‘बैठो, कुछ पीते तो जाओ।’’
 
‘‘नहीं, फिर कभी सही।’’
 
यह कहकर अमित मुड़ा ही कि सुदर्षन ने उसे टोका, ‘‘अमित ! न जाने क्यों अध्ययन में मेरा मन नहीं लगता।’’
 
‘‘मन तो लगाने से लगता है, सुदर्षन ! ये जो मन है न, इसकी धंुडी को जिधर मोड़ो, उधर ही मुड़ जाता है। तुमने इसको अनुचित पथ पर फैला रखा है, वहां से अपने को उठालो। षिक्षा-क्षेत्र में इसे रमाओ। सुदर्षन ! अभी भी मौका है, संभल जाओ। इस दुनिया में काई ऐसी ताकत नहीं जो तुम्हारे पथ को अवरूद्ध कर सके। भूल-चूक से सीख लेकर समय का लाभ उठाओ। एक कर्मण्य ने कहा हैः
 
‘‘हम कुछ कार्यों में रत रहकर
 
जीवन बसर करते हैं,
 
भल-चूक से सीख लेकर
 
गुजर-बसर करते हैं।
 
इस जीवन का है
 
हर एक पल अनमोल रत्न,
 
रत्नों की चाह हमें
 
कार्य कराती हरदम
 
रत्न-रूपी-समय का उठाकर लाभ
 
जीवन सफल बनाते हैं हम,
 
खुषियों से अपनी जीवन-नैयया
 
जग में बहाते हैं हम।’’
 
अमित इतना कहकर चुप हो मुस्कुराने लगा, सुदर्षन कुछ बोला नहीं, बस मूक मुख लिए अमित को निहारने लगा, परतु क्षणभर ही वो अमित से आंखे मिला पाया। आंखें नीची कर वो कुछ सोचने लगा, षायद बड़ी गहराई में उतर कर।
 
‘‘अच्छा, अब चलूं।’’
 
अमित का स्वर सुनकर उसकी तंद्रा भंग हुई। मूख से कुछ न बोला, बस गर्दन हिला कर रह गया। अमित उसके कमरे से बाहर निकल आया।
 
अमित को सुदर्षन के पास, सुदर्षन की माताजी ने ही भेजा था। उन्होंने जब देखा कि सुदर्षन अपने कमरे में, किताब अपने सम्मुख रखकर, गुम-सुम बैठा रहता है अथवा बेचैनी लिए कमरे में टहलता रहता हैं, तो वो अमित के पास गई और उसे सारी परिस्थिति से अवगत करवाकर प्रार्थना की कि वो सुदर्षन की कुछ सहायता करे। अमित भला ऐसा अवसर कहां त्यागने वाला था !
 
इस समय सुदर्षन के हृदय में अमित के प्रति अपार श्रद्धा की भावना समाई हुई थी। पर क्या यह स्थायी थी ?
 
‘‘सचमुच, अमित जैसा हीरा बहुत दुर्लभ है ! हर कोई उसके अच्छे स्वभाव के कारण ही तो उसकी प्रषंसा करते नही थकता !’’
 
मन में ऐसा विचारने के उपरांत सुदर्षन ने कुंजी की सहायता लेकर, अमित द्वारा निद्रेषित प्रष्नों को याद करना षुरू कर दिया।