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गुलेरी की कहानियाँ
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बुद्धू का काँटा (भाग-3)
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कुएँ पर देखा कि छह-सात स्त्रियाँ पानी भरने और भर कर ले जाने की कई दशाओं में हैं। गाँवों में परदा नहीं होता। वहाँ सब पुरुष सब स्त्रियों से और सब स्त्रियाँ सब पुरुषों से निडर हो कर बातें कर लेती हैं। और शहरों के लंबे घूँघटों के नीचे जितना पाप होता हैउसका दसवाँ हिस्‍सा भी गाँवों में नहीं होता। इसी से तो कहावत में बाप ने बेटे को उपदेश दिया है कि घूँघटवाली से बचना। अनजाना पुरुष किसी भी स्‍त्री से बहन” कह कर बात कर लेता है और स्‍त्री बाजार में जा कर किसी भी पुरुष से भाई” कह कर बोल लेती है। यही वाचिकसंधि दिन-भर के व्‍यवहारों में पासपोर्ट” का काम कर देती है। हँसी-ठट्ठा भी होता हैपर कोई दुर्भाव नहीं खड़ा होता। राजपूताने के गाँवों में स्‍त्री ऊँट पर बैठी निकल जाती है ओर खेतों के लोग मामी जीमामी जी” चिल्‍लाया करते हैं। न उनका अर्थ उस शब्‍द से बढ़ कर कुछ होता है और न वह चिढ़ती है। एक गाँव में बरात जीमने बैठी। उस समय स्त्रियाँ समधियों को गाली गाती हैं। पर गालियाँ न गाई जाती देख नागरिक-सुधारक बराती को बड़ा हर्ष हुआ। वह ग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा, “बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहाँ इतनी तरक्‍की हो गई है।” बुड्ढा बोला, “हाँ साहबतरक्‍की हो रही है। पहले गालियों में कहा जाता था फलाने की फलानी के साथ और अमुक की अमुक के साथ। लोग-लुगाई सुनते थेहँसते थे। अब घर-घर में वे ही बातें सच्‍ची हो रही हैं। अब गालियाँ गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में तिनका निकलते हैं। तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियाँ बंद करोक्‍योंकि वे चुभती हैं।

रघुनाथ यदि चाहता तो किसी भी पानी भरनेवाली से पीने को पानी माँग लेता। परंतु उसने अब तक अपनी माता को छोड़ कर किसी स्‍त्री से कभी बात नहीं की थी। स्त्रियों के सामने बात करने को उसका मुँह खुल न सका। पिता की कठोर शिक्षा से बालकपन से ही उसे वह स्‍वभाव पड़ गया था कि दो वर्ष प्रयाग में स्‍वतंत्र रह कर भी वह अपने चरित्र कोकेवल पुरुषों के समाज में बैठ करपवित्र रख सका था। जो कोने में बैठ कर उपन्‍यास पढ़ा करते हैंउनकी अपेक्षा खुले मैदान में खेलनेवालों के विचार अधिक पवित्र रहते हैं। इसीलिए फुटबाल और हॉकी के खिलाड़ी रघुनाथ को कभी स्‍त्री-विषयक कल्‍पना ही नहीं होती थीवह मानवीय सृष्टि में अपनी माता को छोड़ कर और स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ था। विवाह उसकी दृष्टि में एक आवश्‍यक किंतु दुर्ज्ञेय बंधन था जिसमें सब मनुष्‍य फसते हैं और पिता के आज्ञानुसार वह विवाह के लिए घर उसी रुचि से आ रहा था जिससे कि कोई पहले-पहल थियेटर देखने जाता है। कुएँ पर इतनी स्त्रियों को इकट्ठा देख कर वह सहम गयाउसके ललाट पर पसीना आ गया और उसका बस चलता तो वह बिना पानी पिए ही लौट जाता। अस्‍तुचुपचाप डोर-लोटा ले कर एक कोने पर जा खड़ा हुआ और डोर खोल कर फाँसा देने लगा।

प्रयाग के बोर्डिग की टोटियों की कृपा सेजन्‍म-भर कभी कुएँ से पानी नहीं खींचा था न लोटे में फाँसा लगाया था। ऐसी अवस्‍था में उसने सारी डोर कुएँ पर बखेर दी और उसकी जो छोर लोटे से बाँधीवह कभी तो लोटे को एक सौ बीस अंश के कोण पर लटकाती और कभी उत्तर पर। डोर के बट जब खुलते हैं तब वह बहुत पेच खाती है। इन पेचों में रघुनाथ की बाँहें भी उलझ गईं। सिर नीचे किए ज्‍योंही वह डोर को सुलझाता थात्‍योंही वह उलझती जाती थी। उसे पता नहीं था कि गाँव की स्त्रियों के लिए वह अद्भुत कौतुक नयनोत्‍सव हो रहा था।

धीरे-धीरे टीका-टिप्‍पणी आरंभ हो गई। एक ने हँस कर कहा, पटवारी हैपैमाइश की जरीब फैलाता है।

दूसरी बोली, “नाबाजीगर हैहाथ-पाँव बाँध कर पानी में कूद पड़ेगा और फिर सूखा निकल आएगा।

तीसरी बोली, “क्‍यों लल्‍लाघरवालों से लड़ कर आए हो ?”

चौथी ने कहाक्‍या कुएँ में दवाई डालोगेइस गाँव में तो बीमारी नहीं है।

इतने में एक लड़की बोली, “काहे की दवाई और कहाँ का पटवारी अनाड़ी हैलोटे में फाँसा देना नही आता। भाईमेरे घड़े को मत कुएँ में डाल देनातुमने तो सारी मेंड़ ही रोक ली!” यों कह कर वह सामने आ कर अपना घड़ा उठा कर ले गई।

पहली ने पूछा, ”भाई तुम क्‍या करोगे ?”

लड़की बात काट कर बोल उठी, “कुएँ को बाँधेंगे।

पहली - अरे! बोल तो।“”

लड़की - माँ ने सिखाया नहीं।

संकोचप्‍यासलज्‍जा और घबराहट से रघुनाथ का गला रुक रहा था, उसने खाँस कर कंठ साफ करना चाहा। लड़की ने भी वैसी ही आवाज की। इस पर पहली स्‍त्री बढ़ कर आगे आई और डोर उठा कर कहने लगी, “क्‍या चाहते हो बोलते क्‍यों नहीं ?”

लड़की - फारसी बोलेंगे।

रघुनाथ ने शर्म से कुछ आँखें ऊँची कींकुछ मुँह फेर कर कुएँ से कहा, “मुझे पानी पीना है - लोटे से निकाल रहा... निकाल लूँगा।

लड़की - परसों तक।

स्‍त्री बोली, “तो हम पानी पिला दें। ला भागवंतीगगरी उठा ला। इनको पानी पिला दें।

लड़की गगरी उठा लाई और बोली, “ले मामी के पालतूपानी पी लेशरमा मततेरी बहू से नहीं कहूँगी।

इस पर सारी स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पड़ीं। रघुनाथ के चेहरे पर लाली दौड़ गई और उसने यह दिखाना चाहा कि मुझे कोई देख नहीं रहा हैयद्यपि दस-बारह स्त्रियाँ उसके भौचक्‍केपन को देख रही थीं। सृष्टि के आदि से कोई अपनी झेंप छिपाने को समर्थ न हुआन होगा। रघुनाथ उलटा झेंप गया।

नहींनहींमैं आप ही... 

लड़की - कुएँ में कूद के।

इस पर एक और हँसी का फौवा्रा फूट पड़ा।

रघुनाथ ने कुछ आँखें उठा कर लड़की की ओर देखा। कोई चौदह-पंद्रह बरस की लड़कीशहर की छोकरियों की तरह पीली और दुबली नहींहृष्ट-पुष्‍ट और प्रसन्‍नमुख। आँखों के डेले कालेकोए सफेद नहींकुछ मटिया नीले और पिघलते हुए। यह जान पड़ता था कि डेले अभी पिघल कर बह जाएँगे। आँखों के चौतरंग हँसीओठों पर हँसी और सारे शरीर पर नीरोग स्‍वास्‍थ्‍य की हँसी। रघुनाथ की आँखें और नीली हो गईं।

स्‍त्री ने फिर कहा, “पानी पी लो जीलड़की खड़ी है।

रघुनाथ ने हाथ धोए। एक हाथ मुँह के आगे लगायालड़की गगरी से पानी पिलाने लगी। जब रघुनाथ आधा पी चुका था तब उसने श्‍वास लेते-लेते आँखें ऊँची कीं। उस समय लड़की ने ऐसा मुँह बनाया कि ठि:-ठि: करके रघुनाथ हँस पड़ाउसकी नाक में पानी चढ़ गया और सारी आस्‍तीन भीग गई। लड़की चुप।

रघुनाथ को खाँसतेडगमगाते देख वह स्‍त्री आगे चली आई और गगरी छीनती हुई लड़की को झिड़क कर बोली, “तुझे रात दिन-दिन ऊतपन ही सूझता है। इन्‍हें गलसूँड चला गया। ऐसी हँसी भी किस काम की। लोमैं पानी पिलाती हूँ।

लड़की - दूध पिला दोबहुत देर हुईआँसू भी पोंछ दो।

सच्चे ही रघुनाथ के आँसू आ गए थे। उसने स्‍त्री से जल ले कर मुँह धोया और पानी पिया। धीरे से कहा, “बस जीबस,

लड़की - अब के आप निकाल लेंगे।

रघुनाथ को मुँह पोंछते देख कर स्‍त्री ने पूछा, “कहाँ रहते हो ?”

आगरे।

इधर कहाँ जाओगे ?

लड़की - (बीच ही में) शिकारपुर! वहाँ ऐसों का गुरद्वारा है।” स्त्रियाँ खिलखिला उठीं।

रघुनाथ ने अपने गाँव का नाम बताया। मैं पहले कभी इधर आया नहींकितनी दूर हैकब तक पहुँच जाऊँगा ? ” अब भी वह सिर उठा कर बात नहीं कर रहा था।

लड़की - यही पंद्रह-बीस दिन मेंतीन-चार सौ कोस तो होगा।

स्‍त्री - छि:दो-ढाई भर हैअभी घंटे भर में पहुँच जाते हो।

रास्‍ता सीधा ही है न ? ”

लड़की - नहीं तो बाएँ हाथ को मुड़ कर चीड़ के पेड़ के नीचे दाहिने हाथ को मुड़ने के पीछे सातवें पत्‍थर पर फिर बाएँ मुड़ जानाआगे सीधे जा कर कहीं न मुड़ना सबसे आगे एक गीदड़ की गुफा हैसबसे उत्तर को बाड़ उलाँघ कर चले जाना।

स्‍त्री - छोकरीतू बहुत सिर चढ़ गई हैचिकर-चिकर करती ही जाती है! नहीं जीएक ही रास्‍ता हैसामने नदी आवेगीपरले पार बाएँ हाथ को गाँव है।

लड़की - नदी में भी यों ही फाँसा लगा कर पानी निकालना।

स्‍त्री उसकी बात अनसुनी करके बोली, “क्‍या उस गाँव में डाकबाबू हो कर आए हो ?”

रघुनाथ - नहीं मैं तो प्रयाग में पढ़ता हूँ।

लड़की - ओ होपिराग जी में पढ़ते हैं! कुएँ से पानी निकालना पढ़ते होंगे ?”

स्‍त्री - चुप करज्‍यादा बक-बक काम की नहीं, क्‍या तू इसीलिए मेरे यहाँ आई है ?”

इस पर महिला-मंडल फिर हँस पड़ा। रघुनाथ ने घबरा कर इलाही की ओर देखा तो वह मजे में पेड़ के नीचे चिलम पी रहा था। इस समय रघुनाथ को हाजी इलाही से ईर्ष्‍या होने लगी। उसने सोचा कि हज से लौटते समय समुद्र में खतरे कम हैंऔर कुएँ पर अधिक।

लड़की - क्‍यों जीपिराग जी में अक्‍कल भी बिकती है ?”

रघुनाथ ने मुँह फेर लिया।

स्‍त्री - तो गाँव में क्‍या करने जाते हो ?”

लड़की - कमाने-खाने।

स्‍त्री - तेरी कैंची नहीं बंद होती! यह लड़की तो पागल हो जाएगी।

रघुनाथ - मैं वहाँ के बाबू शोभराम जी का लड़का हूँ।

स्‍त्री - अच्‍छाअच्‍छा तो क्‍या तुम्‍हारा ही ब्‍याह है ?”

रघुनाथ ने सिर नीचा कर लिया।

लड़की - मामीमामीमुझे भी अपने नए पालतू के ब्‍याह में ले चलना। बड़ा ब्‍याहने चली है। यह घोड़ी है और वह जो चिलम पी रहा है नाना बनेगा। वाह जीवाहऐसे बुद्ध के आगे भी कोई लहँगा पसारेगा!

स्‍त्री लड़की की ओर झपटी। लड़की गगरी उठा कर चलती बनी। स्‍त्री उसके पीछे दस कदम गई थी कि स्‍त्री-महामंडल एक अट्टहास से गूँज उठा।

रघुनाथ इलाही के पास लौट आया। पीछे मुड़ कर देखने की उसकी हिम्‍मत न हुई। उसके गले में भस्‍म का-सा स्‍वाद आ रहा थ। जीवन-भर में यही उसका स्त्रियों से पहला परिचय हुआ। उसकी आत्‍मलज्‍जा इतनी तेज थी कि वह समझ गया कि मैं इनके सामने बन गया हूँ। जीवन में ऐसी स्त्रियों से आधा संसार भरा रहेगा और ऐसी ही किसी से विवाह होगा। तुलसीदास ने ठीक ही कहा है कि तुलसी गाय बजाय के दियो काठ में पाँव। स्त्रियों की टोली के वाक्‍य उसे गड़ रहे थे और सब वाक्‍यों के दु:स्‍वप्‍न के ऊपर उस पिघलती हुई आँखों वाली कन्‍या का चित्र मँडरा रहा था।

बड़े ही उदास चित्त से रघुनाथ घर पहुँचा।

गाँव पहुँचने के तीसरे दिन रघुनाथ सबेरा होते ही घूमने को निकला। पहाड़ी जमीनजहाँ रास्‍ता देखने में कोस भर जँचे और चाहे उसमें दस मील का चक्‍कर काट लोबिना पानी सींचे हुए हरे मखमल के गलीचे से ढकी हुई जमीनउस पर जंगली गुलदाऊदी की पीली टिमकियाँ और वसंत के फूलआलूबोखारे और पहाड़ी करौंदे की रज से भरे हुए छोटे-छोटे रंगीले फूलजो पेड़ का पत्ता भी न‍हीं दिखने दें,क्षितिज पर लटके हुए बादलों की-सी बरफीले पहाड़ों की चोटियाँजिन्‍हें देखते आँखें अपने-आप बड़ी हो जातीं ओर जिनकी हवा की साँस लेने से छाती बढ़ती हुई जान पड़तीनदी से निकली हुई छोटी-छोटी असंख्य नहरें जो साँप के-से चक्‍कर खा-खा कर फिर प्रधान नदी की पथरीली तलेटी में जा मिलतीं - ये सब दृश्‍य प्रयाग के ईंटों के घर और कीचड़ की सड़कों से बिल्‍कुल निराले थे। चलते-चलते रघुनाथ का मन नहीं भरा और घाटी के उतार-चढ़ाव की गिनती न करके वह नदी की चक्‍करों की सीध में हो लिया। एक ओर आम के पेड़ थे जो बौरों और कैरियों से लदे हुए थेउनके सामने धान के खेत थे जिनमें से पानी किलचिल-किलचिल करता हुआ टिघल रहा था। कहीं उसे कँटीली बाड़ों के बीच में हो कर जाना पड़ता था और कहीं छोटे-छोटे झरनेजो नदी में जा मिले थेलाँघने पड़ते थे। इन प्रकृतिक दृश्‍यों का आनंद लेता हुआ हमारा चरित्रनायक नदी की ओर बढ़ा।

 

इस समय वहाँ कोई न था। रघुनाथ ने एक अकृत्रिम घाट - चौड़ी शिला - पर खड़े हो कर नदी की शोभा देखी और सोचा कि हजामत बना कर नहा-धो कर घर चलें। नई सभ्‍यता के प्रभाव से सेफ्टीरेजर और साबुन की टिकिया सफरी कोट की जेब में थी हीऊपर की पॉकेटबुक से एक आईना भी निकालना पड़ा। रघुनाथ उसी शिला-फलक पर बैठ गया और अपने मुख रूपी आकाश पर छाए हुए कोमल बादलों को मिटाने के लिए अमेरिका के इस जेबी बज्र को चलाने लगा।

कवियों को सोचने का समय पाखाने में मिलता है और युवाओं को स्‍वयं हजामत करने में। यदि नाई होता तो संसार के समाचारों से वही मगज चाट जाता। इसकी वैज्ञानिक युक्ति मुझे एक थियासोफिस्‍ट ने बताई थी। वह बहुत से तर्क और कुतर्कों में सिद्ध कर रहा था कि पुरानी चालों में सूक्ष्‍म वैज्ञानिक रहस्‍य भरे पड़े हैं। यहाँ तक कि माता बच्‍चे के सिर में नजर से बचाने के लिए जो काजल का टीका लगा देती है अथवा दूध पिलाए पीछे बच्‍चे को धूल की चुटकी चटा देती है - इसका भी वह बिजली के विज्ञान से समाधान कर रहा था। उसने कहा की हजामत बनाते या बनवाते समय रोम खुल जाने से मस्तिष्‍क तक के स्‍नायु-तारों की बिजली हिल जाती है और वहाँ विचारशक्ति की खुजलाहट पहँच जाती है। अस्‍तु।

रघुनाथ की खुजलाहट का आरंभ यों हुआ कि वह नदी सहस्रों वर्षो से यों ही बह रही है और यों ही बहती जाएगी। किनारे के पहाड़ों ने,ऊपर के आकाश ने और नीचे की मिट्टी ने उसको यों ही देखा है और यों ही वे उसे देखते जाएँगे। यही क्‍यानदी का प्रत्‍येक परमाणु अपने आने वाले परमाणु की पीठ को और पीछे वाले परमाणु के सामने देखता जाता है। अथवाक्‍या पहाड़ को या तलेटी की नदी की खबर है क्‍या नदी के कारण परमाणु को दूसरे की खबर है मैं यहाँ बैठा हूँइन परमाणुओं कोइस पत्‍थरों कोइन बादलों को मेरी क्‍या खबर है इस समय आगे-पीछेनीचे-ऊपरकौन मेरी परवाह करता है मनुष्‍य अपने घमंड में त्रिलोकी का राजा बना‍ फिरेउसे अपने आत्‍मविश्‍वास के सिवा पूछता ही कौन है इस समय मेरा यह क्षोर बनाना किसके लिए ध्‍यान देने योग्‍य है किसे पड़ी है कि मेरी लीलाओं पर ध्‍यान रक्‍खे।

इसी विचार की तार में ज्‍योंही उसने सिर उठाया त्‍यों‍ही देखा कि कम-से-कम एक व्‍यक्ति को तो उसकी लीलाएँ ध्‍यान देने योग्‍य हो रही थीं जो उनका अनुकरण करती थी। रघुनाथ क्‍या देखता है कि वही पानी पिलानेवाली लड़की सामने एक दूसरी शिला पर बैठी हुई है और उसकी नकल कर रही है।

उस दिन की हँसी की लज्‍जा रघुनाथ के जी से नहीं हटी थी। वह लज्‍जा और संकोच के मारे यही आशा करता था कि फिर कभी वह लड़की मुझे न दिखाई पड़े और अपनी ठठोलियों से मुझे तंग न करे। अबजिस समय वह यह सोच रहा था कि मुझे कोई न देख रहा हैवही लड़की उसके हजामत बनाने की नकल कर रही है। उसने हाथ में एक तिनका ले रखा है। जब रघुनाथ उस्‍तरा चलाता है तब वह तिनका चलाती है। जग रघुनाथ हाथ खींचता है तब वह तिनका रोक लेती है।

रघुनाथ ने मुँह दूसरी और किया। उसने भी वैसा ही किया। रघुनाथ ने दाहिना घुटना उठा कर अपना आसन बदला। वहाँ भी ऐसा ही हुआ। रघुनाथ ने बाईं हथेली धरती पर टेक कर अँगड़ाई ली। लड़की ने भी वही मुद्रा की। ये प्रयोग रघुनाथ ने यह निश्‍चय करने के लिए ही किए थे कि यह लड़की क्‍या वास्‍तव में मेरा मखौल कर रही है। उसने हल्‍का-सा खँखारा उधर से सुना। अब संदेह नहीं रह गया।

ऐसे अवसर पर बुद्धिमान लोग जो करना चाहते हैंवही रघुनाथ ने किया। अर्थात वह मुँह बदल कर अपना काम करता गया और उसने विचार किया कि मैं उधर न देखूँगा। इस विचार का वही परिणाम हुआ जो ऐसे विचारों का होता है अर्थात दो ही मिनट में रघुनाथ ने अपने को उसी ओर देखते हुए पाया। अब लड़की ने भी अपना आसन बदल लिया था। रघुनाथ ने कई बार विचार किया कि मैं उधर न देखूँगापर वह फिर उधर ही देखने लगा। आँखेंजो मानो अभी पानी हो कर बह जाएँगीसफेद हल्‍का सा नीला कोआजिसमें एक प्रकार की चंचलताहँसी और घृणा तैर रही थी।

यह लड़की यों पिंड न छोड़ेगी। मैंने इसका क्‍या बिगाड़ा है इससे पूछूँ तो फिर वैसे बताएगी पर खैरआज तो अकेली यही है। इसकी चोटों पर साधुवाद करने के लिए महिला-मंडल तो नहीं है। यह सोच कर रघुनाथ ने जोर से खँखारा। वही जवाब मिला। उसने हाथ बढ़ा कर अँगड़ाई ली। वहाँ भी अंग तोड़े गए। रघुनाथ ने एक पत्‍थर उठा कर नदी में फेंकाउधर ढेला फेंका गया और खलब करके पानी में बोला।

वह बिना वचनों की छेड़ रघुनाथ से सही न गई। उसने एक छोटी-सी कंकरी उठा कर लड़की की शिला पर मारी। जवाब में वैसे ही एक कंकरी रघुनाथ की शिला में आ बजी। रघुनाथ ने दूसरी कंकरी उठा कर फेंकी जो लड़की के समीप जा पड़ी। इस पर एक कंकरी आ कर रघुनाथ की पॉकेट-बुक के आईने पर पट से बोली और उसे फोड़ गई। रघुनाथ कुछ चिढ़ गयाउसकी हिम्‍मत कुछ बढ़ गईअबके उसने जो कंकरी मारी कि वह लड़की के हाथ पर जा लगी।

इस पर लड़की ने हाथ को झट से उठाया और स्‍वयं उठी। जहाँ रघुनाथ बैठा थावहाँ आई और उसके देखते-देखते उसने सामने से टोपी,उस्‍तरा और पॉकेट-बुक तथा साबुन की बट्टी को उठा कर नदी की ओर बढ़ी। जितना समय इस बात को लिखने ओर बाँचने में लगा है,उतना समय भी नहीं लगा कि उसने सबको पानी में फेंक दिया। रघुनाथ उसके हाथ को नदी की ओर बढ़ते हुए देखउसका तात्‍पर्य समझ कर किंकर्त्तव्‍य-विमूढ़-सा हो ज्‍योंही दो कदम आगे धरता हे कि पंकाली शिला पर उसका पैर फिसला और वह धड़ाम से सिर के बल पानी में गिरा पड़ा।

घुनाथ तैरना नहीं जानता थायद्यपि वह मित्रों के पास जा कर दारागंज की गंगा में नहा आया था। परंतु चाहे कितना ही तैराक हो,औंधे सिर पानी में गिरने पर तो गोता खा ही जाता है। रघुनाथ का सिर पैंदे के पास पहुँचते ही उसने दो गोते खाए और सीधा होते-होते उसकी साँस टूट गई। यों तो नदी में पानी रघुनाथ के सिर से कुछ ही ऊँचा था और धीरज से उसके पैर टिक जाते तो वह हाथ फटफटा कर किनारे आ लगताक्‍योंकि वह बहुत दूर नहीं गया था। पर फिसलन की घबराहटसाँस का टूटनागले में पानी भर जानानीचे दलदल - इस सबसे वह भौचक हो कर बीस-तीस हाथ बढ़ाता ही चला गया। नदी की तलेटी में चट्टान थीजो पानी के बहाव से क्रमश: खिरती जाती थी। वहाँ पानी का नाला कुछ जोर से बढ़ कर चक्‍कर खाता था। वहाँ पहुँच करपानी कम होने पर भी हाथ-पैर मारने पर भी रघुनाथ के पैर नहीं टिके और उछलता हुआ पानी उसके मुँह में गया।

वह नदी के बहाव की ओर जाने लगा। बालिका ने जान लिया कि बिना निकाले वह पानी से निकल न सकेगा। वह झट सारी से कछौटा कस कर पानी में कूद पड़ी। जल्‍दी से तैरती हुई आ कर उसने रघुनाथ का हाथ पकड़ना चाहा कि इतने में रघुनाथ एक और चक्‍कर काट कर सिर पानी के नीचे करके खाँसने लगा। लड़की के हाथ उसकी चमड़े की पेटी आई थी जो उसने पतलून के ऊपर बाँध रखी थी। वह एक हाथ से उसे खींचती हुई रघुनाथ को छर्रे के बहाव से निकाल लाई और दूसरे हाथ से पानी हटाती हुई किनारे की ओर बढ़ने लगी। अब रघुनाथ भी सीधा हो गया था। पानी चीरने में खड़ा या मुड़ा आदमी लेटे हुए की अपेक्षा बहुत दु:खदायी होता है। हाँफती हुई कुमारी ने बिड़राए हुए रघुनाथ को किनारे लगाया। रघुनाथ मुँह और बालों का पानी निचोड़ता हुआ तरबतर कुरते और पतलून से धाराएँ बहाता हुआ चट्टान पर जा बैठा। पाँच-सात बार खाँसने परआँखें पोंछने पर उसने देखा कि भीगी हुई कुमारी उसके सामने खड़ी है और उन्‍हीं पिघलती हुई आँखों से घृणादया और हँसी झलकाती हुई कह रही है कि - इस अनाड़ी के सामने भी कोई अपना लहँगा पसारेगी?

ये सब घटनाएँ इतनी जल्‍दी-जल्‍दी हुई थीं कि रघुनाथ का सिर चकरा रहा था। अभी पानी की गूँज कानों को ढोल किए हुए था और मानसिक क्षोभ और लज्‍जा में वह पागल-सा हो रहा था। उसके मन की पिछली भित्ति पर चाहे यह अंकित हो रहा हो कि इस लड़की ने मुझे नदी में से निकाला हैपर सामने की भित्ति पर यही था कि शब्‍द के कोड़ों से वह मेरी चमड़ी उधेड़े डालती है। रघुनाथ उसे पकड़ने के लिए लपका और लड़की दो खेतों के बाड़ के बीच तंग सड़क पर दौड़ भागी। रघुनाथ पीछा करने लगा।

गाँव की लड़कियाँ हड्डियों और गहनों का बंडल नहीं होती। वहाँ वे दौड़ती हैंकूदती हैंहँसती हैंगाती हैंखाती हैं और पहनती हैं। नगरों में आ कर वे खूँटे में बँध कर कुम्‍हलाती हैंपीली पड़ जाती हैंभूखी रहती हैंसोती हैंरोती हैं और मर जाती हैं। रघुनाथ ने मील की दौड़ में इनाम पाया था। उस समय का दौड़ना उसके बहुत गुण बैठा। पानी में गोते खाने के पीछे की सारी शून्‍यता मिटने लगी। पाव मील दौड़ने पर लड़की जितने हाथ आगे बढ़ती थीवे घटने लगे। सौ गज और जाते-जाते अचानक चीख मार करलड़खड़ाकर वह गिरने लगी।

रघुनाथ उसके पास जा पहुँचा। अवश्‍य ही रघुनाथ के इतने हँफाने वाले श्रम के और मानसिक क्षोभ के पीछे यही भाव था कि इस लड़की को गुस्‍ताखी के लिए दंड दूँ। रघुनाथ ने उसे दोनों बाँहें डाल कर पकड़ लिया। रघुनाथ के लिए स्‍त्री का और उस लड़की के लिए पुरुष का यह पहला स्‍पर्श था। रघुनाथ कुछ सोच भी न पाया था कि मैं क्‍या करूँइतने में लड़की ने मुँह उसके सामने करके अपनी नखों से उसकी पीठ में और बगल में तेज चुटकियाँ काटीं। रघुनाथ की बाँहें ढीली हुईंपर क्रोध नहीं। उसने एक मुक्‍का लड़की की नाक पर जमाया। लड़की साँस लेते रुकी। इतने में दौड़ने के वेग सेजो अभी न रुका था और मुक्‍के से दोनों नीचे गिर पड़े। दोनों धूल में लोटमलोट हो गए।

 

रघुनाथ धूल झाड़ता हुआ उठा। क्‍या देखता है कि लड़की के नाक से लहू बह रहा है। अपनी विजय का पहला आवेश एकदम से भूल कर वह पश्‍चात्ताप और दु:ख के पाश में फँस गया। उसका मुँह पसीना-पसीना हो गया। वह चाहता था कि इन लहू की बूँदों के साथ मैं भी धरती में समा जाऊँ और उसके साथ ही अपनी आँखें भूमि में गड़ा भी रहा था। परंतु फिर क्षण में आँखें उठ आईं। लड़की अपनी भीगे और धूल लगे हुए आँचल से नाक पोंछते हुई उन्‍ही आँखों में वही घृणा की और पछतावे की दृष्टि डालती हुई कर रही थी -

वाहअच्‍छे मर्द हो। बड़े बहादुर हो। स्त्रियों पर हाथ उठाया करते हैं ?”

रघुनाथ चुप।

वाहपिराग जी में खूब इलम पढ़ा। स्त्रियों पर हाथ उठाते होंगे ?”

रघुनाथ ने नीचे सिर सेआँखें न उठा कर कहा -

मुझसे बड़ी भूल हो गई। मुझे पता ही नहीं था कि मैं क्‍या कर रहा हूँ। मेरा सिर ठिकाने नहीं है। मुझे चक्‍कर...

अभी चक्‍कर आवेंगे। स्त्रियों पर हाथ नहीं चलाया करते हैं।

सड़क यहाँ चौड़ी हो गई थी। कचनार की एक बेल आम पर चढ़ी हुई थी और आम के तले पत्थरों का थाँवला था। सुनसान था। दूर से नदी की कलकल ओर रह-रह कर खातीचिड़े की ठकठक-ठकठक आ रही थी। इस समय रघुनाथ का घोंघापन हटने लगा और स्त्रियों की ओर से झेंप इस पिघलती हुई आँखों वाली के वचन-बाणों के नीचे भागते लगी। ढाढ़स कर उसने पूछा -

तुम्‍हारा नाम क्‍या है ?”

भागवंती।

रहती कहाँ हो ?”

मामी के पास - वही जिसने कुएँ पर पानी नहीं पिलाया था!

उस दिन का स्‍मरण आते ही रघुनाथ फिर चुप हो गया। फिर कुछ ठहर कर बोला – तुम मेरे पीछे क्‍यों पड़ी हो ?”

तुम्‍हें आदमी बनाने को। जो तुम्‍हें बुरा लगा होतो मैंने भी अपने किए का लहू बहा कर फल पा लिया। एक सलाह दे जाती हूँ।

क्‍या ?”

कल से नदी में नहाने मत जाना।

क्‍यों ?”

गोते खाओगे तो कोई बचानेवाला नहीं मिलेगा।

रघुनाथ झेंपापर सम्‍हल कर बोला, “अब कोई मेरी जान बचाएगा। तो मैं पीछा नहीं करूँगादो गाली भी सुन लूँगा।

इसलिए नहींमैं आज अपने बाप के यहाँ जाऊँगी।

तुम्‍हारा घर कहाँ है ?”

जहाँ अना‍ड़ि‍यों के डूबने के लिए कोई नदी नहीं है।

हूँ! फिर वही बात लाई। तो वहाँ पर चिढ़ानेवालों के भागने के लिए रास्‍ता भी नहीं होगा।

जीयहाँ जो मैं आपके हाथ आ गई।

नहीं तो ?”

काँटा न लगता तो पिराग जी तक दौड़ते तो हाथ न आती।

काँटा! काँटा कैसा ?”

यह देखो।

रघुनाथ ने देखा कि उसके दाहिने पैर के तलवे में एक काँटा चुभा हुआ है। उसको यह सूझी कि यह मेरे दोष से हुआ है। बालिका के सहारे वह घुटने के बल बैठ गया और उसका पैर खींच कर रूमाल से धूल झाड़ कर काँटे को देखने लगा।

काँटा मोटा थापर पैर में बहुत पैठ गया था। वह उठ कर बाड़ से एक और बड़ा काँटा तोड़ लाया। उससे और पतलून की जेब के चाकू से उसने काँटा निकाला। निकालते ही लोहू का डोरा बह निकला। काँटा प्राय: दो इंच लंबा और जहरीली कँटीली का था।

ओफ!” कह कर रघुनाथ ने कमीज की आस्‍तीन फाड़ कर उसके पाँव में पट्टी बाँध दी।

बालिका चुप बैठी थी। रघुनाथ काँटे को निरख रहा था।

अब तो दर्द नहीं ?”

कोई एहसान थोड़ा हैतुम्‍हारे भी काँटा गड़ जाए तो निकालवाने आ जाना।

अच्‍छा।” रघुनाथ का जी जल गया था। यह बर्ताव! अच्‍छा क्‍या जाओअपना रास्‍ता लो।

यह काँटा मैं ले जाऊँगा। आज की घटना की यादगारी रहेगी।

मैं जरा इसे देख लूँ।

रघुनाथ ने अँगूठे और तर्जनी से काँटा पकड़ कर उसकी ओर बढ़ाया।

अपनी दो अँगुलियों से उसे उठा कर और दूसरे हाथ से रघुनाथ को धक्‍का दे कर लड़की हँसती-हँसती दौड़ गई। रघुनाथ धूल में एक कलामुंडी खा कर ज्‍योंही उठा कि बालिका खेतों को फाँदती हुई जा रही थी।

अबकी दफा उसका पीछा करने का साहस हमारे चरित्रनायक ने नहीं किया। नदी-तट पर जा कर कोट उठाया और चौंधिआए मस्तिष्‍क से घर की राह ली।

रघुनाथ के हृदय में स्‍त्री-जाति की अज्ञानता का भाव और उसके पृथक रहने का कुहरा तो था हीअब उसके स्‍थान में उद्वेगपूर्ण ग्‍लानि का धूम इकट्ठा हो गया था। पर उस धूम के नीचे-नीचे उस चपल लड़की की चिनगारी भी चमक रही थी। अवश्‍य ही अपने पिछले अनुभव से वह इतना चमक गया था कि किसी स्‍त्री से बातें करने की उसकी इच्‍छा न थीपरंतु रह-रह कर उसक चित्त में उस पिघलती हुई आँखोंवाली का और अधिक हाल जानने और उसके वचन-कोड़े सहने की इच्‍छा होती थी। रघुनाथ का हृदय एक पहेली हो रहा था और उस पहेली में पहेली उस स्‍वतंत्र लड़की का स्‍वभाव था। रघुनाथ का हृदय धुएँ से घुट रहा था और विवाह के पास आते हुए अवसर को वह उसी भाव से देख रहा थाजैसे चैत्र कृष्‍ण में बकरा आनेवाले नवरात्रों को देखता है।

इधर पिता जी और चाचा घर खोज रहे थे। आसपास गाँवों में तीन-चार पत्रियाँ थींजिनके पिता अधिक धन के स्‍वामी न होने से अब तक अपना भार न उतार सके थे और अब वृहस्‍पति के सिंह का कवल हो जाने को अपने नरक-गमन का परवाना-सा देख कर भी आत्‍मघात नहीं कर रहे थे। हिंदू समाज में धौंस से कुछ नहीं होताजरूरत से सब हो जाता है। बड़े से बड़े महाराज थैलियों के मुँह खुलवा कर भी शास्‍त्र-जड़ लोगों से यह नहीं कहला सकते कि अष्‍टवर्षा भवेद् गौरी” पर हरताल लगा दो। उलटा अष्‍ट का अर्थ गर्भाष्‍ट्य करके सात वर्ष तीन महीने की आयु निकल बैठेंगे। परंतु कभी शुक्र का छिपनाऔर कभी बृहस्‍पति का भागनाकभी घर का न मिलना और कभी पल्‍ले पैसा न होनाकभी नाड़ी-विरोध और कभी कुछ-समझदार आदमी चाहे तो कन्‍या को चौदह-पंद्रह वर्ष की करके काशीनाथ से ले कर आजकल के महामहोपाध्‍यायों तक को अँगूठा दिखला सकता है।

दो घर तो ज्‍योतिषी ने खो दिए। तीसरे के बारे में भी उन्‍होंने लत्ता-पात करना चाहा थापर कुछ तो ज्‍योतिषी के डाकखाने के द्वारा मनी-आर्डर का ग्रहों पर प्रभाव पड़ा और कुछ के रघुनाथ पिता के इस बिहारी के दोहे के पाठ का ज्‍योतिषी जी पर -

सुत पितु मारक जोग लखि उपज्‍यो हिय अति सोग।

पुनि विहँस्‍यो पुन जोयसी सुत लखि जारज जोग।।

विधि मिल गई। झंडीपुर में सगाई निश्चित हुई। बीस दिन पीछे बरात चढ़ेगी और रघुनाथ का विवाह होगा।


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