दो पहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछाकर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट(ओवरकोट) ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
“क्यों बोधा भाई, क्या है ?”
“पानी पिला दो।”
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा - “कहो कैसे हो ?” पानी पी कर बोधा बोला - “कँपनी (कँपकँपी) छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।”
“अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!”
“और तुम ?”
“मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।”
“ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए -”
“हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से मैंमें बुन-बुन कर भेज रही हैं, गुरु उनका भला करें।” यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
“सच कहते हो ?”
“और नहीं झूठ ?” यों कह कर नाँहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घंटा बीता। इतने में खाईं के मुँह से आवाज आई - “सूबेदार हजारासिंह।”
“कौन लपटन साहब ? हुक्म हुजूर!” - कहकर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
“देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाईं है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पंद्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”
“जो हुक्म।”
चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझा कर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा - “लो तुम भी पियो।”
आँख पलकते-पलकते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला - “लाओ साहब।” हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए ? शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है ? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
“क्यों साहब, हम लोग हिंदुस्तान कब जाएँगे ?”
“लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?”
“नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे।”
“हाँ, हाँ....”
“वहीं जब आप खोते (गधे) पर सवार थे और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था ?”
“बेशक पाजी कहीं का... ”
“सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न ? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे।”
“हो, पर मैंने वह विलायत भेज दिया....”
“ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे ?”
“हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया ?”
“पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ” - कह कर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया। “कौन ? वजीरासिंह ?”
“हाँ, क्यों लहना ? क्या कयामत आ गई ? जरा तो आँख लगने दी होती ?”
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