मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
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लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि, “तेरी कुड़माई हो गई ?” तो वह “धत्” कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा - “हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलों वाला सालू ? सुनते ही लहनासिंह को दुख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ ?
“वजीरासिंह, पानी पिला दे।”
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पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे, तब सूबेदार वेढे में से निकल कर आया। बोला- “लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।”
लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं ? कब से ? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर “मत्था टेकना” कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
“मुझे पहचाना ?”
“नहीं।”
“तेरी कुड़माई हो गई ?”- “धत्” - “कल हो गई - देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -”
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
“वजीरा, पानी पिला” - “उसने कहा था।”
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स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - “मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों (स्त्रियों) की एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती ? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।” सूबेदारनी रोने लगी, “अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।”
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी(अंदर का घर) में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
“वजीरासिंह, पानी पिला” - “उसने कहा था।”
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लहना का सिर अपनी गोद में लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला –
“कौन! कीरतसिंह ?”
वजीरा ने कुछ समझ कर कहा - “हाँ।”
“भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।”
वजीरा ने वैसे ही किया।
“हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।”
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
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कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा -
फ्रांस और बेल्जियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह ।
(प्रथम प्रकाशन : सरस्वती : जून, 1951 ईं)
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