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सप्त सरोज
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सौत
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पण्डित देवदत्त का विवाह हुए बहुत दिन हुए, पर उनके कोई सन्तान न हुई। जब तक उनते माँ-बाप जीवित थे, तब तक वे उनसे सदा दूसरा विवाह कर लेने के लिए आग्रह किया करते थे, पर वे राजी न हुए। अन्हें अपनी पत्नी गोदावरी से अटल प्रेम था। सन्तान से होने वाले सुख के निमित्त वे अफना वर्तमान पारिवारिक सुख नष्ट न करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त वे कुछ नए विचार के मनुष्य थे। वे कहा करते थे कि सन्तान होने से माँ-बाप की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। जब तक मनुष्य में यह सामर्थ्य न हो कि वह उसका भले प्रकार पालन-पोषण और शिक्षण आदि कर सके, तब तक उसकी सन्तान से देश, जाति और निज का कुछ भी कल्याण नहीं हो सकता। पहले तो कभी-कभी बालकों को हँसते-खेलते देखकर उनके ह्वदय पर चोट भी लगती थी, परन्तु अब अपने अनेक देश-भाइयों की तरह वे शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त रहने लगे। अब किस्से-कहानियों के बदले धार्मिक ग्रन्थों से उनका अधिक मनोरंजन होता था। अब सन्तान का ख्याल करते ही उन्हें भय-सा लगता था।
 
पर, गोदावरी इतनी जल्दी निराश होने वाली न थी। पहले तो वह देवी-देवता, गंडे-ताबीज और जंत्र-मंत्र आदि की शरण लेती रही, परन्तु जब उसने देखा कि औषधियाँ कुछ काम नहीं करतीं, तब वह एक महौषधि की फिक्र में लगी, जो कायाकल्प से कम नहीं थी। उसने महीनों, बरसों इसी चिन्ता-सागर में गोते लगाते काटे। उसने दिल को बहुत समझाया, परन्तु मन में जो बात समा गई थी, वह किसी तरह न निकली। उसे बड़ा भारी आत्मत्याग करना पड़ेगा।
 
शायद पति-प्रेम के सदृश अनमोल रत्न भी उसके साथ निकल जाय, पर क्या ऐसा हो सकता है ? पन्द्रह वर्ष तक लगातार जिस प्रेम के वृक्ष की उसने सेवा की है, वह हवा का एक झोंका भी न सह सकेगा?
 
गोदावरी ने अन्त में प्रबल विचारों के आगे सिर झुका ही दिया। अब सौत का शुभागमन करने के लिए वह तैयार हो गई थी।

[ 2 ]

ण्डित देवदत्त गोदावरी का यह प्रस्ताव सुनकर स्तम्भित हो गए। उन्होंने अनुमान किया कि या तो प्रेम की परीक्षा कर रही है या मेरा मन लेना चाहती है। उन्होंने उसकी बात हँसकर टाल दी। पर जब गोदावरी ने गम्भीर भाव से कहा- तुम इसे हँसी मत समझो, मैं अपने ह्वदय से कहती हूँ कि सन्तान का मुँह देखने के ले मैं सौत से छाती पर मूँग दलवाने के लिए तैयार हूँ, तब तो उनका सन्देह जाता रहा। इतने ऊँचे और पवित्र भाव से भरी हुई गोदावरी को उन्होंने गले से लिपटा लिया। बोले- मुझसे यह न होगा। मुझे सन्तान की अभिलाषा नहीं।
 
गोदावरी ने जोर देकर कहा- तुमको न हो, मुझे तो है। अगर अपनी खातिर से नहीं, तो तुम्हें मेरी खातिर से यह काम करना ही पड़ेगा।
 
पण्डितजी सरल स्वभाव के मनुष्य थे। हामी तो उन्होंने न भरी, पर बार-बार कहने से वे कुछ-कुछ राजी अवश्य हो गए। उस तरफ से इसी की देर थी। पण्डितजी को कुछ भी परिश्रम न करना पड़ा। गोदावरी की कार्य-कुशलता ने सब काम उनके लिए सुलभ कर दिया। उसने उस काम के लिए अपने पास से केवल रुपए ही नहीं निकाले, किन्तु अपने गहने और कपड़े भी अर्पण कर दिए! लोक-निन्दा का भय इस मार्ग में सबसे बड़ा काँटा था। देवदत्त मन में विचार करने लगे कि मैं मौर सजाकर चलूँगा, तब लोग मुझे क्या कहेंगे! मेरे दफ्तर के मित्र मेरी हँसी उड़ाएँगे और मुस्कुराते हुए कटाक्षों से मेरी ओर देखेंगे। उनके वे कटाक्ष छुरी से भी ज्यादा तेज होंगे। उस समय मैं क्या करूँगा?
 
गोदावरी ने अपने गाँव में जाकर इस कार्य को आरम्भ कर दिया और इसे निर्विघ्न समाप्त भी कर डाला। नई बहू घर में आ गई। उस समय गोदावरी ऐसी प्रसन्न मालूम हुई, मानो वह बेटे का ब्याह कर लाई हो। वह खूब गाती-बजाती रही। उसे क्या मालूम था कि शीघ्र ही उसे इस गाने के बदले रोना पड़ेगा।
 

[ 3 ]


कई मास बीत गए। गोदावरी अपनी सौत पर इस तरह शासन करती थी, मानो वह उसकी सास हो, तथपि वह यह बात कभी न भूलती थी कि मैं वास्तव में उसकी सास नहीं हूँ। उधर गोमती को भी अपनी स्थिति का पूरा ख्याल रहता था। इसी कारण सास के शासन की तरह कठोर न रहने पर भी गोदावरी का शासन अप्रिय प्रतीत होता था। उसे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए भी गोदावरी से कहते संकोच होता था।
 
कुछ दिनों बाद गोदावरी के स्वभाव में एक विशेष परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह पण्डितजी को घर में आते-जाते तीव्र दृष्टि से देखने लगी। उसकी स्वाभाविक गम्भीरता अब मानो लोप-सी हो गई, जरा सी बात भी उसके पेट में नहीं पचती। जब पण्डितजी दफ्तर से आते, तब गोदावरी उनके पास घण्टों बैठे गोमती का वृत्तांत सुनाया करती। इस वृत्तांत-कथन में बहुत-सी ऐसी छोटी-मोटी बातें भी होती थीं कि जब कथा समाप्त होती, तब पण्डितजी के ह्रदय से बोझ-सा उतर जाता। गोदावरी क्यों इतनी मृदुभाषिणी हो गई थी। उशके सौन्दर्य से, उसके जीवन से, उसके लज्जायुक्त नेत्रों से शायद वह अपने को पराभूत समझती। बाँध को तोड़कर वह पानी की धारा को मिट्टी के ढेलों से रोकना चाहती थी।
 
एक दिन गोदावरी ने गोमती से मीठा चावल पकाने को कहा। शायद वह रक्षाबंधन का दिन था। गोमती ने कहा- शक्कर नहीं है। गोदावरी यह सुनते ही विस्मित हो उठी! उतनी शक्कर इतनी जल्दी कैसे उठ गई! जिसे छाती फाड़कर कमाना पड़ता है, उसे अखरता है, खाने वाले क्या जानें? जब पण्डितजी दफ्तर से आये, तब यह जरा-सी बात बड़ा विस्तृत रूप धारण करके उनके कानों में पहुंची। थोड़ी देर के लिए पण्डितजी के दिल में भी यह शंका हुई कि गोमती को कहीं भस्मक रोग तो नहीं हो गया!
 
ऐसी ही घटना एक बार फिर हुई। पण्डितजी को बवासीर की शिकायत थी। लालमिर्च वह बिल्कुल न खाते थे। गोदावरी जब रसोई बनाती थी, तब वह लालमिर्च रसोईघर में लाती ही न थी। गोमती ने एक दिन दाल में मसाले के साथ थोड़ी-सी लालमिर्च भी डाल दी ! पण्डितजी ने दाल कम खाई। पर गोदावरी गोमती के पीछे पड़ गई। ऐंठकर वह बोली- ऐसी जीभ जल क्यों नहीं जाती ?
 
[ 4 ]
 
पण्डितजी बड़े ही सीधे आदमी थी। दफ्तर से आये, खाना खाया, पड़कर सो रहे। वे एक साप्ताहिक पत्र मँगाते थे। उसे कभी-कभी महीनों खोलने की नौबत न आती थी। जिस काम में जरा भी कष्ट या परिश्रम होता, उससे वे कोसों दूर भागते थे। कभी-कभी उनके दफ्तर में थियेएटर के “पास” मुफ्त मिला करते थे। पर पण्डितजी  उनसे कभी काम नहीं लेते, और ही लोग उनसे माँग ले जाया करते। रामलीला या कोई मेला तो उन्होंने शायद नौकरी करने के बाद फिर कभी देखा ही नहीं। गोदावरी उनकी प्रकृति का परिचय अच्छी तरह पा चुकी थी। पण्डितजी भी प्रत्येक विषय में गोदावरी के मतानुसार चलने में अपनी कुशल समझते थे।
 
पर रुई-सी मुलायम वस्तु भी दबकर कठोर हो जाती है। पण्डितजी को यह आठों प्रहर की चह-चह असह्रा-सी प्रतीत होती, कभी-कभी मन में झुँझलाने भी लगते। इच्छा-शक्ति जो इतने दिनों तक बेकार पड़ी रहने से निर्बल-सी हो गई थी, अब कुछ सजीव-सी होने लगी थी।
 
पण्डितजी यह मानते थे कि गोदावरी से सौत को घर लाने में बड़ा भारी त्याग किया है। उनका त्याग अलौकिक कहा जा सकता है, परन्तु उसके त्याग का भार जो कुछ है, वह मुझ पर है, गोमती पर उसका क्या एहसान ? यहाँ उसे कौन-सा सुख है, जिसके लिए वह फटकार पर फटकार सहे ? पति मिला है, वह बूढ़ा और सदा रोगी। घर मिला है, वह ऐसा कि अगर नौकरी छूट जाए तो कल चूल्हा न जले। इस दशा में गोदावरी का वह स्नेह-रहित बर्ताव उन्हें बहुत अनुचित मालूम होता।
 
गोदावरी की दृष्टि इतनी स्थूल न थी कि उसे पण्डितजी के मन के भाव नजर न आवें। उनके मन में जो विचार उत्पन्न होते, वे सब गोदावरी को उनके मुख पर अंकित-से दिखाई पड़ते। यह जानकारी उसके ह्रदय में एक ओर गोमती के प्रति ईर्ष्या की प्रचण्ड अग्नि दहका देती, दूसरी ओर पण्डित देवदत्त पर निष्ठुरता और स्वार्थप्रियता का दोषारोपण कराती। फल यह हुआ कि मनोमालिन्य दिनोंदिन बढ़ता ही गया।
 

[ 5 ]

 
गोदावरी ने धीरे-धीरे पण्डितजी से गोमती की बातचीत करनी छोड़ दी, मानो उसके निकट गोमती घर में थी ही नहीं। न उसके खाने-पीने की वह सुधि लेती, न कपड़े-लत्ते की। एक बार कई दिनों तक उसे जलपान के लिए कुछ भी न मिला। पण्डितजी तो आलसी जीव थे। वे इन सब अत्याचारों को देखा करते, पर अपने शांति सागर में घोर उपद्रव मच जाने से भय से किसी से कुछ न कहते, तथापि इस पिछले अन्याय ने उनकी महती सहन-शक्ति को भी मथ डाला।
 
एक दिन उन्होंने गोदावरी से डरते-डरते कहा- क्या आज-कल जलपान के लिए मिठाई-विठाई नहीं आती ?
 
गोदावरी ने क्रुद्ध होकर जवाब दिया- तुम लाते ही नहीं हो तो आवे कहाँ से ? मेरे कोई नौकर बैठा है ?
 
देवदत्त को गोदावरी के कठोर वचन तीर-से लगे। आज तक गोदावरी ने उनसे ऐसी रोषपूर्ण बातें कभी न की थीं।
 
वे बोले- धीरे बोलो, झुँझलाने की कोई बात नहीं है।
 
गोदावरी ने आँख नीची करके कहा-  मुझे तो जैसा आता है, वैसे बोलती हूँ। दूसरों की-सी बोली कहाँ से लाऊँ ?
 
देवदत्त ने जरा गरम होकर कहा- आजकल मुझे तुम्हारे मिजाज का कुछ रंग ही नहीं मालूम होता। बात-बात पर तुम उलझती रहती हो।
 
गोदावरी का चेहरा क्रोधाग्नि से लाल हो गया। वह बैठी थी, खड़ी हो गई। उसके होंठ फड़कने लगे। वह बोली-  मेरी कोई बात अब तुमको क्यों अच्छी लगेगी अब तो सिर से पैर तक दोषों से भरी हुई हूँ। अब और लोग तुम्हारे मन का काम करेंगे। मुझसे नहीं हो सकता। यह लो संदूक की कुंजी। अपने रुपये-पैसे सँभालो, यह रोज-रोज की झंझट मेरे मान की नहीं। जब तक निभा निभाय, अब नहीं निभ सकता।
 
पण्डित देवदत्त मानो मूर्चि्छत-से हो गए। जिस शांति-भंग का उन्हें भय था, उसने अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। वह कुछ भी न बोल सके। इस समय उनके अधिक बोलने से बात बढ़ जाने का भय था। वह बाहर चले आए और सोचने लगे कि मैंने गोदावरी के हाथ से निकलकर घर का प्रबन्ध कैसे हो सकेगा! इस थोड़ी-सी आमदनी में वह न जाने किस प्रकार काम चलाती थी। क्या-क्या उपाय वह करती थी ? अब न जाने नारायण कैसे पार लगावेंगे ? उसे मनाना पड़ेगा, और हो ही क्या सकता है ? गोमती भला क्या कर सकती है, सारा बोझ मेरे सिर पड़ेगा। मानेगी तो, पर मुश्किल से।
 
परन्तु पण्डितजी की ये शुभ कामनाएँ निष्फल हुई। सन्दूक की वह कुंजी विषैली नागिन की तरह वहीं आँगन में ज्यों की त्यों तीन दिन तक पड़ी रही। किसी को उसके निकट जाने का साहस न हुआ। चैथे दिन तब पण्डितजी ने मानो जान पर खेल कर उसी कुंजी को उठा लीया। उस समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो किसी ने उनके सिर पर पहाड़ उठाकर रख दिया। आलसी आदमियों को अपने नियमित मार्ग से तिल भर हटना बड़ा कठिन मालूम होता है।
 
यद्यपि पण्डितजी जानते थे कि मैं अपने दफ्तर के कारण इस कार्य को सँभालने में असमर्थ हूँ, तथापि उन, इतनी ढिठाई न हो सकी कि वह कुंजी गोमती को दें। पर यह कवल दिखावा ही भर था। कुंजी उन्हीं के पास रहती थी, काम सब गोमती को करना पड़ता था। इस प्रकार गृहस्थी के शासन का अन्तिम साधन भी गोदावरी के हाथ से निकल गया। गृहिणी के नाम के साथ जो मर्यादा और सम्मान था, वह भी गोदावरी के पास से कुंजी के साथ चला गया।
 
[ 6 ]

गृहस्थी के काम-काज में परिवर्तन होते ही गोदावरी के स्वभाव में भी शोकजनक परिवर्तन हो गया! ईर्ष्या मन में रहने वाली वस्तु नहीं। आठों पहर पास-पड़ोस के घरों में यही चर्चा होने लगी। देखो, दुनिया कैसे मतलब की है। बेचारी ने लड़-झगड़कर ब्याह कराया, जान-बूझकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। यहाँ तक कि अपने गहने-कपड़े तक उतार दिए। पर अब रोते-रोते आँचल भीगता है। सौत तो सौत ही है, पति ने भी उसे आँखों से गिरा दिया। बस, अब दासी की तरह घर में पड़ी-पड़ी पेट जिलाया करे। यह जीना भी कोई जाना है।
 
ये सहानुभूतिपूर्ण बातें सुनकर गोदावरी की ईर्ष्याग्नि और भी प्रबल होती थी। उसे इतना न सूझता था कि वह मौखिक संवेदनाएँ अधिकांश में उस मनोविकार से पैदा हुई हैं, जिससे मनुष्य को हानि और दुरूख पर हँसने में विशेष आनन्द आता है।
 
गोदावरी को जिस बात का पूर्ण विश्वास और पण्डितजी को जिसका बड़ा भय था, वह न हुई। घर के काम-काज में कोई विघ्न-बाधा, कोई रूकावट न पड़ी। हाँ, अनुभव न होने के कारण पण्डितजी का प्रबन्ध गोदावरी के प्रबंध जैसा अच्छा न था। कुछ खर्च ज्यादा पड़ जाता था। हाँ, गोदावरी को गोमती के सभी काम दोषपूर्ण दिखाई देते। ईर्ष्या में आग्नि है, परन्तु अग्नि का गुण उसमें नहीं। वह ह्रदय को फैलाने के बदले और भी संकीर्ण कर देती है। अब घर में कुछ हानि हो जाने से गोदावरी को दुरूख के बदले आन्नद होता । बरसात के दिन थे। कई दिन तक सूर्यनारायण के दर्शन न हुए। संदूक में रखे हुए कपड़ों में फफूँदी लग गई। तेल के अचार बिगड़ गए। गोदावरी को यह सब देखकर रत्ती भर भी दुख न हआ। हाँ, दो-चार जली-कटी सुनाने का अवसर उसे अवश्य मिल गया। मालकिन ही बनना आता है कि मालकिन का काम करना भी !
 
पण्डित देवदत्त की प्रकृतति में भी अब नया रंग नजर आने लगा। जब तक गोदावरी अपनी कार्यपरायणता से घर का सारा बोझ सँभाले थी, अब तक उनको कभी किसी चीज की कमी नहीं खली। यहां तक कि शाक-भाजी के लिए भी उन्हें बाजार नहीं जाना पड़ा, पर अब गोदावरी उन्हें दिन में कई बार बाजार दौड़ते देखती। गृहस्थी का ठीक प्रबन्ध न रहने से बहुधा जरूरी चीजों के लिए उन्हें बाजार ऐन वक्त पर जाना पड़ता। गोदावरी यह कौतुक देखती और सुना-सुनाकर कहती- यही महाराज हैं कि एक तिनका उठाने के ले भी न उठते थे। अब देखती हूँ, दिन में दस दफे बाजार में खड़े रहते हैं। अब में इन्हें कभी यह कहते नहीं सुनती कि मेरे लिखने-पढ़ने में हर्ज होगा।
 
गोदावरी को इस बात का एक बार परिचय मिल चुका था कि पण्डितजी बाजार-हाट के काम में कुशल नहीं हैं। इसलिए जब उसे कपड़े की जरूरत होती, तब वह अपने पड़ोस से एक बूढ़े लाला साहब से मँगवाया करती थी। पण्डितजी को यह बात भूल-सी गई थी कि गोदावरी को साड़ियों की जरूरत पड़ती है। उनके सिर से तो जितना बोझ कोई हटा दे, उतना ही अच्छा था। खुद वे भी वही कपड़े पहनते थे, जो गोदावरी उन्हें मँगाकर देती थी। पण्डितजी को नए फैशन और नमूने से कोई प्रयोजन न था। पर अब कपड़ों के लिए भी उन्हीं को बाजार जाना पड़ता है। एक बार गोमती के पास साड़ियाँ न थीं। पण्डितजी बाजार गये, तो एक बहुत अच्छा-सा जोड़ा उसके लिए ले आए। बजाज ने मनमाने दाम लिये। उधार सौदा लाने में पण्डितजी जरा भी आगा-पीछा न करते थे। गोमती ने वह जोड़ा गोदावरी को दिखाया। गोदावरी ने देखा और मुँह फेरकर वह रुखाई से बोली-भला, तुमने उन्हें कपड़े लाने तो सिखा दिए। मुझे तो सोलह वर्ष बीत गए, उनके हाथ का लाया हुआ एक कपड़ा स्वप्न में भी पहनना नसीब न हुआ।
 
ऐसी घटनाएँ गोदावरी की ईर्ष्याग्नि को और भी प्रज्जवलित कर देती थीं ! जब तक उसे विश्वास खा कि पण्डितजी स्वभाव से ही रुखे हैं, तब तक उसे संतोष था। परन्तु अब उनकी ये नई-नई तरंगें देखर उसे मालूम हुआ कि जिस प्रीति को मैं सैकड़ों यत्न करके भी न पा सकी, उसे इस रमणी ने केवल यौवन से जीत लिया। उसे अब निश्चय हुआ कि मैं जिसे सच्चा समझ रही थी, वह वास्तव में कपटपूर्ण था। वह निरा स्वार्थ था।
 
दैवयोग से इन्हीं दिनों गोमती बीमार पड़ी। उसे उठने-बैठने की भी शक्ति न रही। गोदावरी रसोई बनाने लगी, पर उसे इसका निश्चय नहीं था कि गोमती वास्तव में बीमार है। उसे यही ख्याल था कि मुझसे खाना पकवाने के लिए ही दोनों प्राणियों ने यह स्वाँग रचा है। पड़ोस की स्त्रियों में वह कहती कि लौंडी बनने में इतनी ही कसर थी, वह भी पूरी हो गई।
 
पण्डितजी को आजकल खाना खाते वक्त भागा-भाग-सी पड़ जाती है। वे न जाने क्यों गोदावरी से एकान्त में बातचीत करते डरते हैं। न मालूम कैसी कठोर और ह्रदयविदारक बातें वह सुनाने लगे। इसलिए खाना खाते वक्त वे डरते रहते थे कि कहीं उस भयंकर समय का आगमन न हो जाए। गोदावरी अपने तीव्र नेत्रों से उनके मन का यह भाव ताड़ जाती थी, पर मन ही मन में ऐंठकर रह जाती थी।
 
एक दिन उससे न रहा गया। वह बोली- क्या मुझसे बोलने की भी मनाही कर दी गई है ? देखती हूँ, कहीं तो रात-रात भर बातों का तार नहीं टूटता, पर मेरे सामने मुँह न खोलने की कसम-सी खाई है। घर का रंग-ढंग देखते हो न ? अब तो सब काम तुम्हारे इच्छानुसार चल रहा है न ?
 
पण्डितजी ने सिर नीचा करते हुए उत्तर दिया-उहँ ! जैसे चलता है, वैसे चलता है। उस फिक्र से क्या अपनी जान दे दूँ ? जब तुम यह चाहती हो कि घर मिट्टी में मिल जाए, तब फिर मेरा क्या वश है ?
 
इस पर गोदावरी ने बड़े कठोर वचन कहे। बात बढ़ गई। पण्डितजी चैके पर से उठ गए। गोदावरी ने कसम दिलाकर उन्हें बिठाना चाहा, पर वे वहाँ क्षण भर भी न रुके ! तब उसने भी रसोई उठा दी। सारे घर को उपवास करना पड़ा।
 
गोमती में एक विचित्रता यह थी कि वह कड़ी से कड़ी बातें सहन कर सकती थी, पर भूख सहन करना उसके लिए बड़ा कठिन था। इसीलिए कोई व्रत भी न रखती थी। हाँ कहने-सुनने को जन्माष्टमी रख लेती थी। पर आजकल बीमारी के कारण उसे और भी भूख लगती थी। जब उसने देखा कि दोपहर होने को आयी और भोजन मिलने के कोई लक्षण नहीं, तब विवश होकर बाजार से मिठाई मँगायी। सम्भव है, उसने गोदावरी को जलाने के लिए ही यह खेल खेला हो, क्योंकि कोई भी एक वक्त खाना न खाने से मर नहीं जाता। गोदावरी के सिर से पैर तक आग लग गई। उसने भी तुरन्त मिठाइयाँ मँगवायीं। कई वर्ष के बाद आज उसने पेट भर मिठाइयाँ खायीं। ये सब ईर्ष्या के कौतुक हैं।
 
जो गोदावरी दोपहर के पहले मुँह में पानी नहीं डालती थी, वह अब प्रातरूकाल ही कुछ जलपान किए बिना नहीं रह सकती। सिर में वह हमेशा मीठा तेल डालती थी, पर अब मीठे तेल से उसके सिर में पीड़ा होने लगती थी। पान खाने का उसे नया व्यसन लग गया। ईर्ष्या ने उसे नई नवेली बहू बना दिया।
जन्माष्टमी का शुभ दिन आया। पण्डितजी का स्वाभाविक आलस्य इन दो-तीन दिन के लिए गायब हो जाता था। वे बड़े उत्साह से झाँकी बनाने में लग जाते थे। गोदावरी यह व्रत बिना जल के रखती थी और पण्डितजी तो कृष्ण के उपासक ही थे। अब उनके अनुरोध से गोमती ने भी निर्जल व्रत रखने का साहस किया, पर उसे बड़ा आर्श्च्य हुआ, जब महरी ने आकर उससे कहा- बड़ी बहू निर्जल न रहेंगी, उनके लिए फलाहर मँगा दो।
 
सन्ध्या समय गोदावरी ने मान-मन्दिर जाने के लिए इक्के की फरमाइश की। गोमती को यह फरमाइश बुरी मालूम हुई। आज के दिन इक्कों का किराया बहुत बढ़ जाता था। मान-मन्दिर कुछ दूर भी नहीं था। इससे वह चिढ़कर बोली- व्यर्थ रुपया क्यों फेंका जाए ? मन्दिर कौन बड़ी दूर है। पाँव-पाँव क्यों नहीं चली जातीं ? हुक्म चला देना तो सहज है। अखरता उसे है, जो बैल की तरह कमाता है।
 
तीन साल पहले गोमती ने इसी तरह की बातें गोदावरी के मुँह से सुनी थीं। आज गोदावरी को भी गोमती के मुँह से वैसी ही बातें सुननी पड़ीं। समय की गति !
इन दिनों गोदावरी बड़े उदासीन भाव से खाना बनाती थी। पण्डितजी ने पथ्पापथ्य के विषय में भी अब उसे पहले की-सी चिन्ता न थी। एक दिन उसने महरी से कहा कि अन्दाज से मसाले निकाल पीस लो। मसाले दाल में पड़े तो मिर्च जरा अधिक तेज हो गई। मारे भय के पण्डितजी से वह न खाई गई। अन्य आलसी मनुष्यों की तरह चटपटी उन्हें भी बहुत प्रिय थीं, परन्तु वे रोग से हारे हुए थे। गोमती ने जब यह सुना तो भौंह चढ़ाकर बोली- क्या बुढ़ापे में जबान गज भर की हो गई है ?
 
कुछ इसी तरह से कटु वाक्य एक बार गोदावरी ने भी कहे थे। आज उसकी बारी सुनने की थी।
 

[ 7 ]

आज गोदावरी गंगा से गले मिलने आई है। तीन साल हुए वह वर और वधू को लेकर गंगाजी को पुष्प और दूध चढ़ाने गई थी। आज वह अपने प्राण समर्पण करने आयी है। आज वह गंगाजी की आनन्दमयी लहरों में विश्राम करना चाहती है।
 
गोदावरी को अब उस घर में एक क्षण रहना भी दुस्सह हो गया था। जिस घर में रानी बनकर रही, उसी में चेरी बनकर रहना उस जैसी सगर्वा स्त्री के लिए असम्भव था।
 
अब इस घर से गोदावरी का स्नेह उस पुरानी रस्सी की तरह था, जो बराबर गाँठ देने पर भी कहीं न कहीं से टूट ही जाती है। उसे गंगाजी की शरण लेने के सिवाय और कोई उपाय न सूझता था।
 
कई दिन हुए उसके मुँह से बार-बार जान दे देने की धमकी सुन, पण्डितजी खिझलाकर बोल उठे थे दृ तुम किसी तरह मर भी तो जातीं। गोदावरी उन विष भरे शब्दों को अब तक न भूली थी। चुभने वाली बातें उसको कभी न भूलती थीं। आज गोमती ने भी वही बातें कही थीं, तथापि गोदावरी को अपनी बातें तो भूल-सी गई थीं, केवल गोमती और पण्डितजी के वाक्य ही उसके कानों में गूँज रहे थे। पण्डितजी ने उसे डाँटा तक नहीं । मुझ पर ऐसा घोर अन्याय, और वे मुँह तक न खोलें !
 
आज सब लोगों के सो जाने पर गोदावरी घर से बाहर निकली। आकाश में काली घटाएँ छाई थीं। वर्षा की झड़ी लग रही थीं। उधर उसके नेत्रों से भी आँसुओं की धारा बह रही थी ! प्रेम का बन्धन कितना कोमल है और दृढ़ भी कितना ! कोमल है अपमान के सामने, दृढ़ है वियोग के सामने। गोदावरी चैखट पर खड़ी-खड़ी घंटों रोती रही। कितनी ही पिछली बातें उसे याद आती थीं। हां ! कभी यहाँ उसके लिए प्रेम भी था, मान भी था, जीवन का सुख भी था। शीघ्र ही पण्डितजी के वे कठोर शब्द भी उसे याद आ गए। आँखों से फिर पानी की धारा बहने लगी गोदावरी घर से चल खड़ी हुई।
 
इस समय यदि पण्डित देवदत्त नंगे सिर, नंगे पाँव पानी में भीगते, दौड़ते आते और गोदावरी के कम्पित हाथों को पकड़कर अपने धड़कते हुए ह्रदय से उसे लगाकर कहते “प्रिये” ! इससे अधिक और उनके मुँह से कुछ भी न निकलता, तो भी क्या गोदावरी अपने विचारों पर स्थिर रह सकती ?
 
कुआर का महीना था। रात को गंगा की लहरों की गरज बड़ी भयानक मालूम होती थी। साथ ही बिजली तड़प जाती, तब उसकी उछलती हुई लहरें प्रकाश से उज्जवल हो जाती थीं। मानो प्रकाश उन्मत्त हाथी का रूप धारण कर किलोलें कर रहा हो। जीवन-संग्राम का एक विशाल दृश्य आँखों के सामने आ रहा था।
गोदावरी के ह्रदय में भी इस समय अनेक लहरें बड़े बेग से उठतीं, आपस में टकरातीं और ऐंठती हुई लोप हो जाती थीं। कहाँ ? अन्धकार में।
 
क्या यह गरजने वाली गंगा गोदावरी को शांति प्रदान कर सकती है ? उसकी लहरों में सुधासम मधुर ध्वनि नहीं है और उसमें करुणा का विकास ही है। वह इस समय उद्दंडता और निर्दयता की भीषण मूर्ति धारण किए है।
 
गोदावरी किनारे बैठी क्या सोच रही थी, कौन कह सकता है? क्या अब उसे यह खटका नहीं लगा था कि पण्डित देवदत्त आते न होंगे ! प्रेम का बन्धन कितना मजबूत होता है। उसी अंधकार में ईर्ष्या, निष्ठुरता और नैराश्य की सतायी हुई वह अबला गंगा की गोद में गिर पड़ी ! लहरें झपटीं और उसे निगल गईं !!!
सबेरा हुआ। गोदावरी घर में नहीं थी। उसकी चारपाई पर यह पत्र पड़ा हुआ था-
 
“स्वामिन, संसार में सिवाय आपके मेरा और कौन स्नेही था ? मैंने अपना सर्वस्व आपके सुख की भेंट कर दिया। अब आपका सुख इसी में है कि मैं इस संसार में लोप हो जाऊँ। इसीलिए ये प्राण आपकी भेंट हैं। मुझसे जो कुछ अपराध हुए हों, क्षमा कीजिएगा। ईश्वर सदा आपको सुखी रखे।”
 
पण्डितजी इस पत्र को देखते ही मूर्चि्छत होकर गिर पड़े। गोमती रोने लगी। पर क्या वे उसके विलाप के आँसू थे ?