मेरे मन गगन पर सहसा
कोटि - कोटि विचारों के
नक्षत्रचमकने लगते हैं एक साथ
आखिर क्यों ?
भू - लोक पर प्रगंटित नही होता
एक स्वर्गजहां
प्रेम के घर हो
शांत कोलाहल हो
सरिताओं की ध्वनि का
जहां मानव मूल्यों का मंदिर हो
हर मौसम झूम - झूम कर गाता हो
जहां मस्ती का आलम हो
ना गम हो
ना कभी आंख नम हो
ऐसा होता नहीं
आखिर क्यों ?
- (निधी सेठ)