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कविता में गीता
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कर्म सन्यास योग
ISBN: 81-901611-05

 कर्म सन्यास योग


अर्जुन बोला
'हे कृष्ण!
आकर्षित करते
आनन्द देते
तभी तुम कृष्ण कहलाते |
कभी तुम कर्म-सन्यास की बात करते
कर्तापन का अहम् त्यागने को कहते,
एकी भाव से परमात्मा में स्थित हो,
ब्रह्म दृष्टि रखने को कहते |
ज्ञान योग ही उत्कृष्ट कहते |
क्या कल्याण कारक यह मेरे लिए
या कि निष्काम भाव से
लोकहित अर्पित कर्मो का
सम्पादन है कल्याण कारक?
कौन सा साधन मैं अपनाऊं?'

'दोनों श्रेष्ठ है मेरे लिए,
मैं निश्चित मत हूं चाहता
मेरी राह निश्चित करो
वही जो कल्याण कारक हो |'

'सांख्य योग और कर्म योग
दोनो की सत्ता भिन्न-भिन्न,
कर्म योगी,
कर्म को,
कर्मफल को,
परमात्मा को,
और स्वयं को
भिन्न-भिन्न मानकर
कर्मफल और आसक्ति का त्याग करे,
बुद्धि को ईश्वर में अर्पित कर दे |
सांख्य योगी
इन्द्रियों को ही इन्द्रियों क कर्ता मानकर,
गुणों को ही गुणों का संचालक मानकर,
कर्तापन के अभिमान से रहित,
परमात्मा को स्वयं से अभिन्न मानता
वह ब्रह्म के सिवा किसी सत्ता को नहीं स्वीकारे |

वह ब्रह्म में ही कर्म,
और कर्मफल की सत्ता स्वीकारे |
स्वयं की सत्ता में कर्म या कर्मफल से
अपना कोई सम्बन्ध न स्वीकारे |
ऐसे में अर्जुन क्या करे?
कौन सी राह अपनाए?
कैसे कल्याण हो पाए?'

श्री भगवान तब बोले,
'कर्म सन्यास
और
कर्म योग
दोनों श्रेष्ठ
दोनों का एक ही ध्येय
दोनों ही कल्याणदायक |
लेकिन ज्ञान योग है कष्टमयी |
कर्म योग का साधन बिना किए,
कोई ज्ञान योग न पाए!
कर्मयोगी
कर्म करते-करते
स्वयं सन्यासि-सा हो जाए!
सुख में ही वह सांसारिक-बन्धन
से स्वयं को मुक्त पाए |
ईश्वर की सत्ता
सदा ही बनी रहे,
ईश्वर का साथ न छूट पाए |
ऐसे में
लोकहित में जुटे हुए,
अधिकारी भाव से डटे हुए
कर्म योग ही सुगम है
तुम्हारे लिए
और वही श्रेष्ठ है |'

'हे अर्जुन!
जो मानव किसी से द्वेष न रखे,
इच्छा-आकांक्षा से नाता न जोडे
वह कर्मयोगी,
वह सन्यासी कि श्रेणी ही पाए |'

'राग-द्वेष से दूर जो होता,
मन में जिसके द्वन्द्व न होता,
कर्मो में जो जुटा रहता,
वह इस बन्धन से मुक्त हो जाता |'

'सन्यास योग
और
कर्म योग हैं एक सदा
राह अलग पर साध्य है एक सदा |
बल-बुद्धि से
साधन को साध्य समझकर,
साध्य को पृथक्-पृथक समझा |
ज्ञानीजन भेद यह जाने,
आत्मदर्शन के स्वरुप का साधन पहचाने |
साध्य दोनों का एक ही माने,
आत्मा का परमात्मा में मिलन ही
दोनों का ध्येय माने |'

'साधन भिन्न,
राह भी भिन्न,
फिर भी ध्येय एक है |
आत्म आनन्द
या
परमानन्द,
आत्म सन्तुष्टि
या
परमपद प्राप्ति,
लक्ष्य दोनों का एक है |'

'ज्ञान योग का साध्य वही,
कर्म योग का लक्ष्य वही,
यही सत्य है,
इसे सत्य ही मानो |'

'देखो! उगते सूर्य को देखो
पूरब से जो निकलता है
वह पश्चिम दिशा को जाएगा,
तुम पूरब से पूरब की ओर बढ़ो,
मैं पश्चिम से पश्चिम की ओर जाता हूं
देखो! फिर भी मिलन होगा,
मेरा तुम्हारा,
कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ पर|'

'वैसे ही साधन भिन्न
पर साध्य सभी का एक है |
कोई जानता है,
कोई जान कर भी अन्जान रहता है |
हे महाबाहो!
तुम क्यों चिंतित हो?
स्वयं को अकेला मत समझो
साथ भुजाएं बने खड़े हैं
वीर सभी,
भ्राता जन, सब सम्बन्धी
और मित्र बना मैं साथ खड़ा हूं
फिर भी चिन्तित हो? हे महाबाहो!
मत व्याकुल हो |'

'ज्ञान योग पर कठिन है |
कर्म योग के बिना साधना सम्भव नहीं |
साधक कोई
माने यदि समस्त जगत को मिथ्या
और एक ब्रह्म को सत्य |
माया का आधार जगत को
एक ब्रह्म ही सत्य
अन्त्:करण में छिपा हो
जिसके-राग-द्वेष-काम-क्रोध-मोह,
चेष्टा न कर शुद्धिकरण की,
ध्यान मग्नता हो फिर भी साधक बनने की
वह साधना व्यर्थ हो जाएगी |
साधक कभी ज्ञान न पाएगा |'

'जब तक शरीर में अहम् भाव है |
भोगों में ममता है |
अनुकूलता में,
प्रतिकूलता में
राग-द्वेष है विद्यमान
ज्ञान निष्ठा का साधन होना,

अहम् भाव से रहित होना
अभिन्न भाव से आत्मा और
परमात्मा को एक भाव से
देखना तो दूर की बात है,
यह योग समझ आना भी कठिन है |
ऐसे में कर्म योग को जानो,
कर्म योग का भाव जानो
कर्म योग के साधक बन कर भी
तुम साध्य को पाओगे
लोकहित में जुटे रहो
तुम साधक हो कर्म भूमि में,
कर्म की आराधना करो,
कर्म से ही परम आनन्द को पाओगे |'

'मन जिसका अपने वश में
इन्द्रियां सभी अपने वश में
अन्त्:करण में राग-द्वेष न विद्यमान
वही साधक ही कर्म योगी |'

'लोकहित में सब प्राणियों का आत्मरुप
ही वह परमात्मा माने
वह कर्मयोगी
कर्म करता हुआ भी कर्म में लिप्त नही होता |

तत्वज्ञानी, जो समझे न स्वयं को कर्ता,
जो देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श से,
सूंघते हुए, भोजन करते हुए, घूमते हुए,
सोते हुए, श्वांस लेते हुए, बोलते हुए,
त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए,
आंख खोलकर देखते हुए, आंख मूंद्ते हुए,
यही माने की वह कुछ नहीं करता,
यही सब अंग स्वयं करते है
वह तो माध्यम भी नहीं इनका,
वह तो कर्ता भी नहीं इनका
वह तो स्वयं को इस
आत्मभाव से दूर माने |'

'जो सब कर्मो को
परमात्मा में अर्पण करके,
आसक्ति को त्याग कर्म करे,
वह पाप से लिप्त नहीं होता |
जैसे जल में उगे कमल के पत्ते को
जल छू नहीं पाता
वैसे ही कर्म योगी को इस जगत में व्याप्त
पाप सब छू भी नहीं पाते |'

'कर्म योगी
मन-बुद्धि-शरिर और इन्द्रियों से
ममता नहीं रखते |
लौकिक स्वार्थ से रहते दूर सदा,
नि:स्वार्थ भाव से,
अन्त:करण की शुद्धि हेतु कर्म करते |
कर्म योगी
कर्मो के फल का त्याग करके
परम आनन्द को पाता है |
कर्मो में कामना से प्रेरित मनुष्य
आसक्ति में बंधा रह जाता है |'

'ज्ञान योग का
आचरण करने वाला पुरुष,
अन्त:करण वश में रखे |
वह न करता हुआ,
न करवाता हुआ
बस इस
नौ द्वार वाले शरीर रथी घर में स्थित
सब कर्मो को मन से त्याग कर,
स्वयं को परमात्मा के
स्वरुप में ही लीन पाता है |
वह आत्मा और
परमात्मा में भेद नहीं करता |'

'सम्पूर्ण जगत की
उत्पत्ति, स्थिति
और
संहार करने वाले
सर्वशक्तिमान परमेश्वर,
न तो इस सृष्टि में स्थिति
प्राणियों में
कर्तापन के अहम् की,
न कर्मो की,
और न कर्मफल के
संयोग की रचना करते है
यह सब तो
स्वचलित है
एक से दूसरा,
दूसरे से तिसरा,
तीसरे से चौथा
यह चक्र तो चल पड़ा है|
मनुष्य इस चक्र में बंधा हुआ है
आत्मा का वास्तव में इसमे सम्बन्ध नहीं |
आत्माज्ञानी वही जो
ऊपर उठकर समझे
इस सृष्टि की संरचना को |

'सर्वव्यापी परमेश्वर
तो न किसी के पाप कर्म को,
न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करता,
किन्तु यही ज्ञान
अज्ञान से ढका हुआ है |
सब इस अज्ञान से मोहित है,
इस अज्ञान को ही ज्ञान मान
सब जुटे हुए है
अपने अहम् भाव का विकास करने को |'

'जिसने इस
संरचना को समझा,
वह तत्व ज्ञानी कहलाता है |
अज्ञान उसका
इस तत्व ज्ञान से नष्ट हो जाता है |
वह सूर्य समान
प्रकाशमयी हो जाता |
उस पर अज्ञान न छा पाता |
रात्रि शब्द उसके
शब्द कोश से लुप्त हो जाता|
वह केवल ज्ञानदीप से
प्रज्ज्वलित हो उठता|
तम उसकी परिधि में न आता|
मन उसका अपना न रहता,
तन उसका अपना न रहता,
वह सूर्य सदृश हो जाता है |
वह नित्य प्रति आगे बढ़ता है
जो मिलता उसको रोशनी देता,
जो मिलता उसको प्रकाशित कर देता,
अपना स्वार्थ भला कहां होता है?
सूर्य का प्रकाश क्या
ज्ञान नहीं दे सकता?'
'मन से भेद-भाव मिट जाए,
बुद्धि आत्मा को परमात्मा में मिला जाए |
मन चिन्तन करे परमात्मा के
आनन्दमय स्वरुप का|
ऐसा मनन मन को
परमात्मा में रमा जाए |'

'बुद्धि की सत्ता भी भिन्न न रहे
वह भी एकाकर हो जाए |
आत्मा-परमात्मा के भेद-भ्रम का नाश हो जाए |
ज्ञानी पुरुष को,
ज्ञान
और
ध्येय का सर्वथा अभाव प्रतीत हो,
मन-बुद्धि का भेद मिटे |
परमात्मा ही सर्वत्र नजर आए |'
'ज्ञान, अज्ञान का नाशक है,
परमात्मा को प्रकाशमान करे वह,
उसी ज्ञान की लौ से पाप सभी
नष्ट हो जाते है |
हुम सर्वथा पाप रहित हो जाते है |'
'यथार्थ ज्ञान पाकर ही योगी
अक्षय सुख को पाता है |
यह निर्वाण-ब्रह्मं,
कहीं उत्तम सुख
कहीं परमगति
कही दिव्य परमपुरुष्,
कहीं परमधाम को पाता है |
वह दिव्य पुरुष आत्मज्ञान को पाकर
परमात्मा में स्थित हो जाता है |"

'तत्वज्ञानी का
विषय भाव सर्वथा नष्ट हो जाता है |
परब्रह्म परमात्मा ही है सर्वोपरि,
और कोई सत्ता उसकी नहीं रहती |'
'विध्या सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मंण,
नीच से नीच चाण्डाल,
पशुओं में उत्तम गौ,
मध्यम हाथी
और नीच से नीच कुत्ता
समदर्शी ही लगते |
कर्मो के भेद से ही जानते
पर सभी को शरीर का अंग भी मानते |'

'वर्ण-आश्रम का भेद वही
जो शरीर में प्रत्येक अंग
का भेद है |
जो काम मस्तिष्क व मुख से होता,
वह हाथ-पैर नहीं कर सकते |
जो हाथ-पैर से काम लेते
वह सिर से सिद्ध नहीं होता |
लेकिन सब अंगो से है आत्म भाव,
सब अंगो से सम प्रेम भाव |
कहीं कोई विषमता नहीं |
सभी अंगो का दुख-सुख एक समान |'

'ऐसे ही ज्ञानी जन होते
एक-सा ही प्रेम रखते,
कहीं विषमता होती नहीं
समभाव युक्त मन होता
सर्वत्र ब्रह्म दृष्टि होती |
व्यवहार में ही भेद होता,
कर्म ही भेद करवाते |
लेकिन आत्म ज्ञानी कभी भी
आत्म भाव व प्रेम को
विषम नहीं पाते |
उनका प्रेम सर्वत्र सम रहता |'

'राग-द्वेष को छोड़ जिसने,
जिस मन ने ममता को छोड़ दिया,
वही मन समता में स्थित हुआ |
समबुद्धि जिसकी साथी बनी,
उस मन ने विश्व यह जीत लिया |
मन वह सत-रज-तम से अलग हुआ,
निश्छल मन ऐसा कहलाता |

यह समभाव रूप ब्रह्म कहलाता,
इसी भाव में ईश्वर स्थित होता |'
'कुछ पाकर जो हर्षित नहीं होता,
कुछ खोकर जो रोता नहीं,
वह आसक्ति रहित होता है |
वह स्थिर बुद्धि युक्त, संशयरहित
एक ब्रह्म की सता में ही लीन रहता |
वह 'ब्रह्मवित होता,
ब्रह्म स्वरुप का प्रत्यक्ष मिलन हो जाता |'


'शब्द-स्पर्श-रुप-रस-गन्ध,
आसक्ति-रहित जब हो जाए मन,
विवेक-ज्ञान तब प्रबल रहे,
मन स्वयं ध्यान-मग्न रहे
सात्विक-आनन्द में मग्न रहे |'

'ध्यान-मग्नता,
बाहर से भीतर तक
एक रस में स्थित कर देती,
मन विकल नहीं होता,
मन ध्यान योग में अचल हो जाता |
जग में होकर भी
वैरागी हो जाता,
असीम-आनन्द में मग्न हो जाता |
सुख में रमना
सुख रुप से प्रीति करना
है सरल बहुत |
मन ललचाए, मन भ्रम में डूब जाए |
याद में सुख की मन बार-बार
ललचे,
मन रोए,
मन पछ्ताए |
गया सुख फिर भी लौट न आए |'

'भोग-विलास है क्षणिक सुखदाता,
मन में ईषर्या की अग्नि भड़काता |
विवेक-ज्ञान से पूर्ण पुरुष
इस भ्रमजाल में न फंसे
इस क्षणिक सुख की गति समझे,
मन को इसमें न कभी रमाए |'

'पुरुष के लिए स्त्री,
स्त्री के लिए पुरुष,
इन दोनों के लिए पुत्र, धन और मकान,
आसक्ति सभी मन-इन्द्रियों के विषयों से,
यह सब कहलाते है 'काम' |'

'मन-बुद्धि और इन्द्रियों से होता
जब-जब प्रतिकूल,
इच्छा-पूर्ति में होती जब-जब बाधा उत्पन्न,
द्वेष भाव का होता तब जन्म,
क्रोध स्वभाव में बस जाता,
काम-क्रोध के इस प्रवाह का
वेग जो कर पाए शांत,
साधन से साधक बनकर जो,
शांत-निर्विकार हो पाता,
वही जन योगी कहलाता |
वही जन परम सुख को पाता |'

सुख बाहर से नहीं होता,
सुख भावना का नाम है |
सुख साधना है
सुख आराधना है,
सुख मोल लिया नहीं जाता,
सुख वही रुप जो हुम पहचाने |
सुख वही जो मन की डोरी से नहीं बंधा,
जो हो रहा, वही सुख
उसी भाव में जीना सीखो |

सुख की परिभाषा है सरल बहुत |
जो दु:ख लगता, उसको त्यागो |
जो दु:ख लगता, उसमें सुख खोजो |
यही परम आनन्द है |

'मन जिसका ब्रह्म में लीन हुआ,
उसका सत्य एक है,
ब्रह्म ही होकर, ब्रह्म को प्राप्त वही होता
अन्तरात्मा में जो सुख पाता,
आत्मा में ही रमण करता जो,
आत्मा ही जिसे ज्ञान देती,
आत्मा को अभिन्न माने जो परमात्मा से,
वह सुख-दु:ख का भेद नहीं करते,
उसे बस कल्याण प्रत्यक्ष होता,
वही परम-शांति को पाता,
अक्षय आनन्द को वह पाता |
ब्रह्म ही स्वयं वह हो जाता |'

'ब्रह्म को प्राप्त होकर,
दोष का लेशमात्र नहीं रहता,
मन संशय रहित हो जाता है |
पाप सभी नष्ट हो जाते
हित में जब वह जुट जाता है |'
'मन विजयी हुआ जिसका,
वह परमात्मा में स्थित होकर
शांत मन से, निश्छल मन से
ब्रह्म में लीन हो जाता है |
काम-क्रोध से रहित हुए,
विजयी चित्त वाले,
परमब्रह्म को प्रत्यक्ष पाकर
वह शांतिप्रिय हो जाता |
मन में इच्छा न होती
बस असीम आनन्द की होती अनुभूति |'

'विषय चिन्तन,
मन में छिपे विचार
बार-बार जग उठते,
आसक्ति की आग भड़काते,
मन को ललचाते
रमणिय-सुख का स्वप्न दिखाते,
चंचल मन, मन शांत नहीं हो पाता |
ध्यान-मग्न होकर भी मन मुक्त नहीं हो पाता |'

'चलचित्र मन में चंचलता से
चलें स्वचलित |
इन से ही मन हो बार-बार विचलित |
कर साधन मन का,
साधना से ध्यान जुटा
तभी मुनि मन मुक्ति पा सकता
योग साधन का यंत्र यही,
मन नियमित ध्यान योग में तभी लगेगा |'

'नेत्र मूंद कर नहीं,
नेत्र सर्वत्र विचरा कर नहीं,
नेत्र भृकुटी क्षेत्र में टिका कर ही,
ध्यान मग्नता हो पाती |
प्राण और अपान की गति
सम होकर ही,
समता स्थापित हो पाती |'
'मन चंचल,
नेत्र चंचल,
श्वास गति अति चंचल |
प्राण-अपान विषम गति रखते |
कभी एक नासिका में विचरते |
कभी दूसरी में चले जाते |
ऐसे में चंचल बालक सा रुप लिए रहते |
इस प्राण-अपान की गति को
सम कर दे जो,
चंचल स्वभाव से ध्यान हटे,
वह योगी मुक्त मन का कहलाए |
मन-इन्द्रिय-बुद्धि पर विजय प्राप्त करे |
और
इच्छा-भय और क्रोध से वह मुक्ति पाए |'

'योगी जन जाने
ईश्वर के इस तत्व को |
योगी जन जाने सबके मन में
आत्मरुप में बसे ईश्वर को |
वह सेवा भाव से
देव-ब्राह्मंण-दीन-दु:खी,
मानव जाति के कल्याण में चित्त लगाकर,
ईश्वर को साकार करे |
ऐसा
अहिंसा-सत्य धर्म का पालन,
देव-ब्राह्मंण,
माता-पिता,
गुरुजन
की सेवा-पूजन,
दीन-दु:खी-पीडित जीवो से स्नेह,
सेवाभाव लिए, लोकहित हेतु
आदर से जुटाए जो साधन
ऐसा ही होता योगी जन |'

'यही यज्ञ, यही तप,
यही इस जीवन का प्रयोजन |
योगी जन जाने,
ईश्वर के इस तत्व को |
योगी जन जाने
आत्मरुप से सर्वत्र बसे ईश्वर को |
वह सेवा भाव में चित्त लगाकर,
ईश्वर को साकार करे,
प्रेमभाव से ईश्वर की सत्ता स्वीकार करे |
ईश्वर ही मन है,
ईश्वर ही बुद्धि,
ईश्वर बसा है नेत्रों में |
ईश्वर मेरा परम मित्र,
मैं ईश्वर का अंश बना |
यही शांत ब्रह्म का साधन,
यही लक्ष्य हमारा,
यही हमारा धर्म |'