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बचपन (कविता संग्रह)
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रूठे साजन
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मेरे साजन मुझसे रूठ गए

मालूम नहीं क्यों ?

कुर्सी पर बैठे अखबार लिए

मुंह फुलाए तेवड़ी जमाए

पूछने पर भी चुप्पी लगाए

मालूम नही क्यों ?

हुई क्या खता है मुुझसे

कुछ तो बोलो अपने मुहं से

झट से रूख बदल लिया

मुंह मुझसे फेर लिया

मालूम नही क्यों ?

मैंने भी यह ठान लिया

पता करके रहूंगी आज

क्यों हैं नाराज 

मुझसे मेरे महाराज

सवाल पे सवाल किया

फिर भी कोई जबाव नहीं मिला

मालूम नही क्यों ?

आखिर मेरे मुंह से निकला

‘‘पियोगे चाय मेरे जनाब

ला दूं गरमा-गरम प्याला।’’

कहने की बस देर थी

हुआ न यह उनको गंवारा

निकला उनके गुस्से का फव्वारा

मालूम नही क्यों ?

‘‘सुबह से बैठा हूँ मैं ऐसे

चाय नहीं दी अब तक किसी ने।

पूछता हूँ मैं एक सवाल

रखता है कोई 

इस घर में मेरा ख्याल ?’’

खोदा पहाड़ निकला चूहा

घर तुम्हारा अपना है 

और किसी का नहीं

हुकुम चलाते बैठे - बैठे

झट से मिलता चाय का प्याला

इतना अभिमान यह झूठी शान

समझी जाती मर्दो की पहचान

मालूम नही क्यों ?
 

       
- स्वर्ण सहगल