सुबह से ही मन परेशान था। अपने कमरे में बैठा अपने विषय में न जाने क्या-क्या सोच रहा था। मुझे एक मानसिक समस्या ने जकड़ रखा था। मस्तिष्क इतना उलझ गया था कि समस्या से मुक्ति पाने की कोई राह ही न दिख रही थी। ..... तभी, एकाएक बड़े भैया का ध्यान हो आया। अभी बीते कल ही उनका पत्र आया था। ...... भैया ने सदा मेरी परेशानियों का समाधान करने का प्रयत्न किया है......, जबकि मैं उनके सुझाए मार्ग पर आज तक नहीं चल पाया। इसका कारण यह नहीं कि उनकी बातों में व्यवहारिकता न हो, बल्कि इसका मूल कारण मेरी अपनी एक आन्तरिक कमी है। और मैं जानता हूं कि जब तक मैं अपनी इस कमी को दूर नहीं करूंगा, तब तक भैया की तो क्या, आत्मनिर्देशित बातों का भी पालन न कर सकूंगा। मगर समझ नहीं आता कि इस कुंठित वातावरण से कैसे मुक्ति पांऊ! भैया को इस विषय में कभी नहीं लिखा। लिख दिया होता तो शायद आज सबसे खुलकर बात करने योग्य होता........। मनो-मस्तिष्क को ढके बैठा हीनता का आवरण कब का कट-फट चुका होता। ..........हां, यह ठीक है, भैया को आज लिख ही दूं, वह अवश्य मेरी सहायता करेंगे। मुक्ति का मार्ग मिल जाएगा। मैं काल्पनिक-अवास्तविक-कुंठाग्रस्त वातावरण के बंधन से छुटकारा पा जाऊंगा ! ..... बस...! इतना ही सोचकर मैं भैया को पत्र लिखने बैठ गया। मन में उठ रहे प्रत्येक विचार को मैं लेखनीबद्ध करने लगा.....
प्रिय भैया,
नमस्कार !
कल ही आपका स्नेहपूर्ण पत्र मिला, पढ़कर बोझिल मन को कुछ सांत्वना मिली।...... सच, भैया ! आपका पत्र जब भी पाता हूं, मुझे एक नई राह .... एक सुन्दर-राह के दर्शन पाने का सौभाग्य मिलता है। उत्साह-लग्न की अमर-ज्योति मेरे भीतर प्रज्वलित हो उठती है..... मैं कुंठित वातावरण से मुक्ति पाकर स्वचछंद वातावरण में सांस लेने को निकल पड़ता हूं। ..... मगर दिन ढलते ही...., शाम के बाद अंधेरे को देख न जाने मुझे क्या हो जाता है, मैं तब आपके पत्र की इबारत तक को भूल जाता हूं और अंधेरे-बंद कमरे में बेचैनी से चक्कर काटने लगता हूं......,न जाने मेरे भीतर जाग्रत प्रकाश तब कहां लुप्त हो जाता है।...... शायद स्वतन्त्र-वातावरण में सांस लेना इतना सरल नहीं, जितना कि समझा जाता है !...... हां, भैया, मैं अपने पास उपलब्ध समय का सदुपयोग नहीं कर पाता। इतनी अधिक स्वतन्त्रता-स्वच्छंदता पाकर भी मैं केवल सोचता रह जाता हूं ----कब क्या करूंगा और कब क्या करूंगा ......? बस ! और कुछ भी ठोस नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप, मेरा मस्तिष्क बेचैन हो उठता है और अंधेरे को देखते ही मेरी चर्या का सन्तुलन बिगड़-सा जाता है......!
कभी-कभी चेतनावस्था में, अंधेरे में, अर्द्ध चेतनावस्था की दशा में की हुई स्वयं की बातों पर, स्वयं को कोसता हूं। तब कहता हूं। ‘मैं भी कितना मूर्ख हूं। सभी को ज्ञान देने का प्रयत्न करता हूं और स्वयं फिर सब कुछ भूलकर, दूसरों को कहीं, अपने मुख से निकली अपनी अर्न्तात्मा की बातों को विस्मृत कर एक मूर्ख-अज्ञानी व्यक्ति की भांति दीवारों से सिर पटक-पटक कर रोता हूं...... चीखता हूं, चिल्लाता हूं बिना किसी कारण !’ ----पत्र को पढ़कर आप आचर्य-चकित होंगे कि मैं क्या लिखे जा रहा हूं..... पहले तो मैंने कभी भी आपको ऐसा नहीं लिखा।..... मगर भैया, यही मेरी सबसे बड़ी समस्या है। इसी के कारण आज तक मैं अपनी पुरानी-से-पुरानी, छोटी-से-छोटी समस्या के घेरे से मुक्त नहीं हो पाया।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं पागल हो चुका हूं। मेरी मानसिकता का बोझ इतना बढ़ चुका है कि कुछ भी सहन नहीं कर पाता। मगर जब शांत-मन मेरा साथी होता है, तो स्वयं के लिए मुख से इतना ही निकलता है--‘मूर्खता कर बैठा था, आगे से कभी ऐसा न करूंगा !’ ---मगर फिर वही..... अंधेरा होते ही कमरे में बंद होकर अंधेरे में कुछ खोजने का प्रयत्न करता हूं।.......मगर प्रयत्न सदैव विफल हो जाता है.......,अंधेरे में भला कौन देख सकता है? तब सब........।
मैं पागल हूं? ----कभी हां नहीं कह पाता, मगर न भी नहीं कर सकता। ........ बस ! मुख-मुख लिए स्वयं को प्रश्न की तराजू में तुलते एकटक देखता रहता हूं। कुछ समझ में नहीं आता, भैया मुझे क्या हो गया है! मेरा समस्याविहिन मस्तिष्क न जाने किस समस्या से ग्रस्त है! .........करता क्या हूं, समझता कुछ और हूं। कभी प्रवीण कहलाता था, अब सुस्त-निक्कमा-आवारा कहलाता हूं! ..... भैया! नित्य मैं अपने कमरे में बैठकर अध्ययन करने का प्रयत्न करता हूं, प्रश्नों को हल करने का प्रयत्न करता हूं, मगर विफलता हाथ लगती है। मस्तिष्क की धुंडी न जाने क्यों स्थिर नहीं हो पाती। तब यूं लगता है जैसे मस्तिष्क द्विपक्षीय हो चुका है, जिसका एक पक्ष अध्ययन करने का प्रयत्न कर रहा है, और दूसरा पक्ष कपोर कल्पित, अवास्तविक स्थितियों का निर्माण!..... और मस्तिष्क की इस द्विपक्षीयता के परिणामस्वरूप न मुझे यह ज्ञात होता है कि मैंने क्या पढ़ा और न ही यह कि मैं क्या कल्पना कर रहा था। तब मुझे अपना अंग-अंग टूटता महसूस होता है, लगता है, मेरे मस्तिष्क,मेरे अस्तित्व का निरन्तर विध्वंस होता जा रहा है। और अपनी हीनता पर अपने अन्तर में अश्रु कण व्यर्थ करता, मैं स्वयं को अपने
शयन-कक्ष में बंद कर लेता हूं..... यही विचार कर कि शायद कुछ क्षण सो लेने पर शांति मिल जाए। मगर मस्तिष्क शांत होने का नाम नहीं लेता। निरन्तर उल-जलूल बातें सोचता रहता हूं, नींद भी नहीं आती....। बेचैनी से पल-प्रतिपल करवटें बदलता रहता हूं।..... मस्तिष्क का बोझ इतना बढ़ जाता है कि मैं तंग आकर हीनता की सीमा लांघने का प्रयत्न करना आरम्भ कर देता हूं। ..... कुछ क्षण पश्चात होश आती है तो अपनी स्थिति पर आंसू बहाने लगता हूं।..... तब एकाएक आंखें झपक जाती हैं। मगर गहरी नींद नहीं आ पाती। रात भर अनोखे-अनजाने-भयानक स्वप्न आ आकर मुझे भयग्रस्त करते रहते हैं।
सुबह होती है, बिस्तर से उठने को मन नहीं करता। तब सिर में दर्द हो रहा होता है। अपना सारा शरीर टूटता महसूस होता है, नित्य-कर्म से निवृत होने के पश्चात कॉलेज की ओर चल देता हूं। वहां संगत में घुल कर सब कुछ भूलने का प्रयत्न करता हूं। ....... मगर भैया, मैं आदर्शवाद का बनावटी आवरण ओढ़े रहना चाहता हूं, साथी कोई भी ऐसी-वैसी बात करते हैं, तो मैं उनसे अलग हट कर खड़ा हो जाता हूं। शायद मेरी यही सबसे बड़ी कमजोरी है। झूठे व्यक्तित्व की छाप मुझे हीनता के निम्न-स्तर की ओर ले जाती है। अकेला खड़ा होकर, इधर-उधर,आती-जाती, हंसती-बातें करती लड़कियों को चोर निगाहों से घूरता रहता हूं ...... उतेजना बढ़ती है, तो समय का ध्यान हो आता है। तब बड़ी कठिनाई से मन को नियंत्रित कर पढ़ने का प्रयत्न करता हूं.....मगर.....!
दोपहर बाद घर लौटता हूं। थकावट दूर करने के लिए खाना खाने के उपरांत सो जाता हूं। ......शाम होती है। तैयार होता हूं। तब मन में प्रश्न उठता है ----कहां जाऊं? सड़क पर अकेले चलने में मुझे झिझक होती है। तो सुदेश के घर जाने का निर्णय करता हूं। मगर पहला पग उठाते ही झिझक उठता हूं। मेरे कुंठित मन में शंका उठती है ---‘कहीं वह नित्य मेरे आने का अर्थ यह न लगा ले कि उसकी बहन पर मेरी नजर बुरी है। ..... यदि वास्तव में उसने ऐसा सोचा, तो मेरे प्रति उसके मन में अनादर समा जाएगा। वह मुझसे घृणा करने लगेगा, ----मगर तब भी, अपने इन हीन भावों को दबा कर, धड़कते हृदय से मैं सुदेश के घर जा पहुंचता हूं। सुदेश से पहले यदि उसकी बहन से सामना हो जाता है, तो मेरी घबराहट बढ़ जाती है। तब टूटे-स्वर में मुख पर मुस्कुराहट लाने का प्रयत्न करते हुए उससे पूछता हूं ---‘सुदेश है?’ ---यदि‘हां’ उतर मिलता है तो सुदेश के कमरे की ओर बढ़ जाता हूं।
सुदेश मेरा प्रिय मित्र है। वह मुझसे असीम स्नेह करता है। तब उसका स्नेह पाकर मेरा मन कुछ समय के लिए शांत हो जाता है। मेरे संस्कार मेरी हीन भावनाओं के बोझ से कुछ उबर से आते हैं। तब दो घंटे तक मैं सुदेश के साथ विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श करता हूं। विभिन्न विषयों पर अपनी दार्शनिकता झाड़ने के उपरान्त जब मैं घर लौट कर आता हूं तो पुनः मेरा मस्तिष्क कल्पनालोक में उड़ाने भरने लगता है। मैं सोचता हूं ----‘मेरी बातों का सीमा पर कितना प्रभाव पड़ा होगा? ----सच! मेरी बातें सुनकर उसके मन में मेरे प्रति प्रेम उमड़ा होगा। वह मुझसे कभी प्रत्यक्ष-रूप से प्रेम करेगी।’ बस ! फिर मैं कल्पनाओं के घेरे में पूर्णतया खो जाता हूं। तब मेरी यौन की भूख बढ़ जाती है..... मैं काल्पनिक-यौन-प्रक्रिया में लीन हो जाता हूं। ....क्रम फिर से लागू हो जाता है........!
..... अब आप ही बताईये, भैया, मैं क्या करूं?..... कुछ ऐसा नहीं जो मैं न करता होऊं, कुछ ऐसा नहीं जो मैं न करना चाहता होऊं!.......... कैसे मुक्ति पाऊं इससे? मुझे लगता है, मैं स्वयं को नष्ट कर रहा हूं ..... और एक दिन दीमक लगी लकड़ी की भांति चूर-चूर हो जाऊंगा..... ! ...... बस ! इतना ही बहुत है !
आपका भाई
अशोक।
पत्र को लिफाफे में बंद कर उसे प्रेषित करने के लिए मैं घर से निकल पड़ा। लैटर-बॉक्स घर से लगभग एक फलांग दूर था। राह चलते मन में पत्र की इबारत विचर रही थी। भैया को क्या कुछ लिख दिया। पत्र पढ़कर भैया मेरे प्रत्येक हीन विचार से परिचय पा जाएंगे...... मैं उनकी दृष्टि में गिर जाऊंगा। ...... भाभी भी मुझे शंकित-दृष्टि से देखा करेगीं। नारी है, मेरे प्रति उनके मन से विश्वास उठ जाएगा। ..... नहीं-नहीं भैया को यह पत्र नहीं भेजना। हां, अन्यथा सब कुछ चौपट हो जाएगा। आज तक उन्हें केवल अपनी व्यवहारिक-समस्याएं ही लिखी थी। मगर आज न जाने क्या हुआ कि पत्र में अपनी मानसिक-कुंठाओं को वर्णित कर बैठा..... जो नहीं लिखना था, वही लिख बैठा। ...... नहीं-नहीं ....... !....और इतना ही सोचकर मैंने तीव्रता से पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। मेरे निकट से ही एक युवती गुजर रही थी। उसने मुझे पत्र फाड़ते देख लिया। मुझे अजीब दृष्टि से देखती हुई वह आगे बढ़ गई। मैंने सोचा, ‘पत्र फाड़ते लड़की ने मुझे देखा अचम्भे से। मुझे पागल समझा होगा ! ..... हां! मैं उसकी दृष्टि में गिर गया ......।’
‘पागल हो तुम भी ! उसे जानते भी हो ?’ ---अन्तर्मन ने दुतकारा।
‘कोई किसी को नहीं जानता, सभी पहले एक-दूसरे के लिए अजनबी होते हैं! भविष्य में वह मेरी आत्मीय बन बैठी तो.... ?’ ---स्वयं से ही मेरा कुंठित मन तर्क करने लगा।
‘मूर्ख ..... !’ शायद मेरे मस्तिष्क का दूसरा पक्ष, कुंठित-पक्ष को नहीं समझ सका। ..... तब मैं पत्र के टुकड़ों को सड़क के किनारे बहती नाली में बहाकर घर लौट आया।
कुछ भी हो, कितना भी स्वयं को समझा लूं, मगर मैं अपनी हरकतों से बाज नहीं जा पाता। चाहता हूं,रूक जाऊं। मगर भीतर एक आग सुलगती महसूस होती है, जिसे बुझाने के लिए मैं अपने अस्तित्व के भीतर छिप जाता हूं....., अपने आप को भूलकर मैं शांति नहीं प्राप्त कर पाता। आगे बढ़ता प्रत्येक क्षण मुझे भयग्रस्त किए जाता है। मैं चौकन्ना रहने का प्रयत्न करता हूं।..... कार्य-सम्पन्न हो जाता है, तो भी मुझे शांति नहीं मिलती, तो भी मुझे, आनन्द नहीं मिलता। ...... नित्यप्रति प्रयत्नारम्भ करता हूं। सोचता हूं, अपने भीतर लग्नभाव जाग्रत करूंगा जिसके फलस्वरूप कार्य-समाप्ति पर मुझे आनन्दप्राप्ति होगी। मगर ऐसा नहीं कर पाता। न जाने लग्नशीलता का मुझमें से कहां-क्यों विलुप्तिकरण हो गया है। मैं एक ऐसे हथौड़े के समान हो गया हूं, जिसका हत्था ढीला है, जो प्रत्येक चोट के पश्चात हथौड़े से अलग हो जाता है। और जिस हर चोट मारने के उपरान्त हत्थे से जोड़ना पड़ता है। मेरे मन से स्थायी-भाव लुप्त हो चुके हैं, ...... मन केवल कल्पनाशील पक्षी बन कर रह गया है।
................ सुबह उठकर स्वयं को दर्पण में देखा। मुख पर पीलाहट छाई हुई थी। यह सोचकर कि सुस्ती है, मुख पर हाथ मला......,पुनः दर्पण देखा। मगर पीलाहट ज्यों-की-त्यों विराजमान थी। अपनी एक वर्ष पूर्व की मुखाकृति स्मरण हो आई। तब कितना तन्दुरूस्त हुआ करता था मैं! अतीत की वर्तमान में तुलना कर हृदय में एक टीस उठी। बाहर बरामदे में आ गया। सामने ही, रसोईघर में, मां बैठी चाय बना रही थी। मुझे देखकर बोली ---‘‘चाय तैयार है आ जाओ।’’ मैंने चाय की ओर देखा। क्षण सोचकर कह दिया ---‘‘चाय नहीं पीऊंगा। ‘‘पर दूध कैंसे दूं? जानते हो कितना महंगा है।’’
‘‘मगर मैं चाय नहीं पीऊंगा ! देखती नहीं, कितना कमजोर हो गया हूं!’’ ----मेरे शब्द सुनकर मां ने मेरी ओर देखा, फिर निःश्वास लेती हुई बोली ----‘‘अब मैं तुम्हें क्या कहूं......?’’ और कहती भी क्या! ---घर का गुजर ही कठिनता से चलता है। खाने को सूखी रोटी, तन ढकने का कपड़ा। रहने को पैतृक मकान, यही गनीमत है। अन्यथा बढ़ती महंगाई तो अब कुछ छीनने का प्रयत्न कर रही है। ...... पर तब तो मैं सब कुछ भूला था। मुझे जब अपनी ही स्थिति का एहसास नहीं, तो कैसे घर की आर्थिक स्थिति का आभास पा सकता। ...... पा भी लेता, तो अपना ध्यान उस पर केन्द्रित न कर पाता।
‘‘....... दूध मिल जाए तो अच्छा होगा !’’
‘‘हमारा इतना सामर्थ्य नहीं ......!’’
‘‘एक पाव अधिक ले लिया करो !’’
‘‘........ यानि पच्चीस रूपये महीना अधिक खर्चा ..... ! नहीं भाई, ऐसा नहीं हो सकता !...... फिर तुम्हीं तो नहीं, और भी तो हैं। जैसे सभी रह रहे हैं, रहना होगा !’’
‘‘मगर मेरी सेहत...... !’’
‘‘सेहत !’’ ----मेरा रूआंसा स्वर सुनकर के मुख पर व्यंग्य-भाव छा गए। तब बोली ---‘‘जितना तुम खाते हो, उतना ही दूसरे भी खाते हैं। सेहत तो अपने हाथ में हैं।’’
‘‘हूं-ह! अपने हाथ में !’’
अपने कर्मों को देखा, सब समझ जाओगे !’’ ----मां के ये शब्द सुनकर मैं उससे दृष्टि न मिला सका। चुपचाप आंगन में बिछी खाट पर आकर लेट गया। मां के शब्द मेरे कर्ण क्षेत्र में गूंज रहे थे। तभी मेरे शंकितमन ने सोचा ----‘कहीं मां ने मुझे बंद कमरे में पड़े तो नहीं देख लिया ...... कहीं मेरी अन्धेरे की हरकतों को तो नहीं देख लिया। ....... तभी मां चाय ले आई। मैंने उठकर कप थाम लिया। गर्म चाय का पहला घूंट हलक से उतारा कि यूं महसूस हुआ मेरा सारा अन्तर जल उठा हो। ..... तब भी अगला घूंट भर ...... चाय पीते मुझे यह लग रहा था कि मैं भी चाय की भांति किसी अदृश्य व्यक्ति द्वारा निरन्तर अपने हलक से नीचे उतारा जा रहा हूं। ...... मैं निरन्तर हार पाता जा रहा हूं..........।
आज कॉलेज की छुट्टी थी। घर पर कोई काम नहीं था। दस बजे के लगभग तैयार होकर सुदेश के घर की और चल दिया। राह में ही सुदेश की माता जी से मुलाकात हुई। वह कहीं जा रही थी। मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया। उन्होंने मुस्कुरा कर मेरे अभिवादन का उतर दिया और बोली ----‘‘क्या बात है, अशोक, कमजोर हो गए हो?’’ मेरे मन को चोट लगी। कुछ उतर न बन पड़ा। केवल मुस्कुराकर रह गया। वह भी और कुछ न बोली। मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गई।
सुदेश अपने कमरे में बिस्तर पर लेट कर कोई उपन्साय पढ़ने में लीन था। उसे मेरे आने की आहट भी न हुई। मैं भी चुपचाप उसकी दाहिनी ओर पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। उसके चेहरे की और मुस्कुराकर देखने लगा। सुदेश का चेहरा खिले हुए गुलाब के फूल की भांति सुन्दर लग रहा था। उसी को निहारते हुए मैं विचारने लगा ----‘मेरी शारीरिक-कमजोरी की ओर अब सभी का ध्यान केन्द्रित होने लगा हैं। जो भी मिलता है, इसी के विषय में पूछता है। शारीरिक-कमजोरी का ज्ञान सभी को होने लगा है....., कल जब सबके सम्मुख मेरी मानसिक कमजोरी का भेद खुलेगा, तो मैं कहीं का न रहूंगा। ..... सभी मुझे घृणा से देखेंगे। आज जो मुझसे प्रेम करते हैं, कल वही ---सुदेश भी, सीमा भी, सभी ---मुझे ‘आदर्शवादी’ कह कर चिढ़ाएंगे। झूठे अस्तित्व का साथ कब तक बना रह सकता है? सभी की दृष्टि में अभी मैं शिष्ट, मृदु स्वभावयुक्त और आदर्शवादी युवक हूं ..... और जब सभी को मेरी वास्तविकता ज्ञात होगी तो ......’’
----आगे कुछ न सोच सका। सुदेश ने मुझे देख लिया था। उसने कहा ---‘‘अरे ! कब आए, अशोक ! ..... माफ करना, उपन्यास में इतना खो गया था कि ज्ञात ही न हुआ.....।’’
मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए मैंने कहा ---‘‘मैंने भी सोचा कि तुम्हारे ध्यान को भंग न करूं, सो चुपचाप बैठ गया ......। ‘‘और कहीं खो गए। ...... अशोक ! आजकल तुम्हें क्या हो गया है, जो कहीं खोए-खोए, उदास-उदास रहते हो !’’
‘‘कुछ भी तो नहीं ..... ’’
कुछ है तो अवश्य ! तुम्हारे मुख पर अब मुस्कुराहट भी नहीं आती...... आती है तो फीकापन लिए ! शारीरिक-रूप से भी कमजोर हो गए हो। ...... कल ही सीमा कह रही थी ----अशोक कितना कमजोर हो गया है ! ----क्या बात है? क्या परेशानी है तुम्हें?’’
मैंने सुदेश के अंतिम शब्द नहीं सुने। सीमा के शब्द सुनकर खो गया था ---‘सीमा कह रही थी, मैं कमजोर हो गया हूं। हे भगवान !’ ---सुदेश मेरे मुख के भावों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था। उसने पुनः कहा ---‘‘क्या कष्ट है तुम्हें ?’’
तब मैंने कहा ---‘‘नहीं, सुदेश, मुझे कुछ नहीं हुआ। तुम्हें यूं ही वहम हो गया है, मैं बिल्कुल ठीक हूं।’’ ---मेरा मस्तिष्क चकराने लगा था। सुदेश के समीप बैठे रहने का सामर्थ्य मुझमें न रहा। उठते हुए बोला ---‘‘अच्छा, चलूं।’’
‘‘अरे, बैठो ! अभी तो आए थे ...... ’’
‘‘अब चलता हूं .... !’’
‘‘आए किसलिए थे ..... !’’
‘‘यूं ही .....!’’
‘‘फिर बैठो.....’’
‘‘अब नहीं, शाम को आऊंगा।’’
....... और फिर मैं बिना कुछ कहे-सुने अपने घर चला आया। इस समय घर में केवल मां थी। वह अपने काम में व्यस्त थी। मैं चुपचाप अपने कमरे में आकर पलंग पर लेट गया। मेरे मस्तिष्क में तूफान मचा हुआ। सिर घूमता महसूस हो रहा था।
तभी मुझे लगा कि कोई मेरे कमरे के दरवाजे पर खड़ा है। मैंने उधर ही देखा ---सुदेश था। मुझे उसे एकाएक यूं अपने पीछे आया देखकर आश्चर्य हुआ। मैंने कहा ---‘‘सुदेश, तुम ! कैसे चले आए ?’’
‘‘तुम्हारे पीछे-पीछे ...... !’’
‘‘कहो ...... ?’’---मेरा अन्तर्मन न जाने क्यों भयभीत-सा हो गया था। मेरे हृदय की धड़कन तीव्र हो चली थी।
--तुम कुछ खो चुके हो ...... !’’
‘‘क्या ...... ?’’
‘‘नहीं जानते ?’’
‘‘नहीं ..... !’’
‘‘अशोक ! तुम्हें क्या हो चुका है ? ये अकारण तुम्हारे मन में छाया भय, मन में उठते व्यर्थनीय, हीन विचार क्यों तुमसे चिपट-से गए हैं ...... ?’’
‘‘कैसी बात करते हो, सुदेश?’’ ----मैंने स्वयं पर नियन्त्रण कर दार्शनिक बनने का प्रयत्न किया।
‘‘हां, अशोक।’’ ---सुदेश गम्भीर था, कहने लगा ---‘‘तुम अपनी आत्मशक्ति, अपनी विचारशक्ति, अपने संयम, अपने आत्मज्ञान को स्वयं के लिए विस्मृत किए बैठे हो। ..... मैं तुम्हारे भीतर चल रहे मानसिक-द्वन्द को समझता हूं। इस समय तुम ऐसे दौर से गुजर रहे हो, जहां तुम्हारे विचारों में मंथन हो रहा है। ....... तुम यदि अपने इस मंथन-क्षण में तनिक भी चूक गए, तो जीवन-पर्यन्त तुम्हें पश्चाताप करना होगा। और मुझे लगता है यदि कुछ दिन और तुमने ऐसी परिस्थिति में व्यतीत कर दिए, तो कुछ अनर्थ हो जाएगा। ...... तुम्हारा मन अपनी पढ़ाई में नहीं लगता। हर क्षण व्यर्थनीय विचार तुम्हारे मस्तिष्क में उमड़ते रहते हैं न ?....... तुम चाह कर भी इनसे छुटकारा नहीं पा पाते न ?...’’ ---सुदेश कुछ क्षण के लिए रूका, मेरे मुख पर आते-जाते भावों को पढ़ने का प्रयत्न करता रहा। पुनः उसने कहा ---‘‘कई दिनों से देख रहा हूं तुम स्वयं को भूलकर कहीं और खोये रहते हो। तुम अपने वर्तमान को भूलकर दिव्यास्वप्न लिया करते हो। अन्धकार में बैठकर शांति पाने का प्रयत्न करते हो। मैं अशांत हूं ..... मैं अशांत हूं ! ---चिल्लाते हो, परन्तु शांति पाने का प्रयत्न नहीं करते। तुम्हीं ने तो कहा था, मानसिक कुंठाओं से नाता तोड़ने के लिए व्यक्ति को संयम से काम लेना चाहिए। मगर तुम स्वयं संयम का त्याग कर न चाहकर भी एकान्तवास करते हो। जानते हो, एकान्तवास की स्थिति में संयम का साथ हो तो आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और इसकी अनुपस्थिति में मानसिक-कुंठाए जन्म लेती हैं, जो व्यक्ति को उसके वास्तविक व्यक्तित्व से दूर उसके आदशर्वाद से दूर ले जाती हैं। अशोक ! किससे असन्तुष्ट हो ?....... क्यों अतृप्त बना लिया हैं तुमने अपनी आत्मा को ?’
---सुदेश चुप हो गया और मैं सब कुछ सुनकर ओंधे मुंह बिस्तर पर लेट गया और अपना सिर इधर-उधर हिलाते हुए बोला ---हां-हां ! सुदेश ! ऐसा ही है ! ऐसा ही है ! बताओ मुझे, मैं क्या करूं ? सामान्य राह पर चलते हुए भी मुझे यही लगता है कि मैं असामान्य हूं, मेरा सन्तुलन बिगड़-सा गया है। मस्तिष्क हरदम भारी सा लगता है, छोटी-छोटी बात मुझे उत्तेजित कर जाती है। क्या करूं मैं बोलो, मैं क्या करूं ?’’
तब सुदेश मेरे समीप बैठ गया। कुछ क्षण तक कुछ सोचता रहा, तदुपरान्त उसने शनैः-शनैः कहना आरम्भ किया ---‘‘अशोक ! हमारे द्वारा किए जाने वाला प्रत्येक कार्य स्वाभाविक है या अस्वाभाविक ........, उचित है या अनुचित, इसका निर्णय हमारे संस्कार करते हैं। हम यदि कभी कुछ ऐसा कर बैठते हैं और उससे कुछ ‘नया’ पाकर सदा वैसा ही करने का प्रयत्न करते हैं ---जबकि वैसा करते समय हमारे आन्तरिक विचार-संस्कार हमें रोकते हैं ---ऐसी स्थिति में हमारे मस्तिष्क में द्वन्द होना आरम्भ हो जाता है। तुमने कई ऐसे व्यक्ति भी देखे होंगे, जो प्रत्येक कार्य निधड़क होकर करते हैं। इसका कारण जानते हो ? ---वे अपने कर्म का अपने विचारों के साथ सामन्जस्य स्थापित कर लेते हैं। मगर कभी तुमने कुछ ऐसा किया और फिर निरन्तर वैसा करने लगे, जिसका तुम्हारे विचारों से विपरीत सम्बन्ध था। मेरा मतलब है तुमने कभी ऐसा सोचा था, या तुम्हें ऐसा सिखाया गया था कि ये कर्म बुरे हैं। फलस्वरूप तुम्हारे भीतर द्वन्द होने लगा। धीरे-धीरे द्वन्द का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि अब तुम जो भी कार्य करते हो, वही तुम्हें अनुचित लगता है। प्रत्येक कार्य के लिए तुम्हें उचितानुचितता के विषय में सोचने पर विवश-सा हो जाना पड़ता है। समय व्यर्थ करते हो, और जब तुम्हें इस बात का आभास होता है कि तुमने कुछ खोया, तो पश्चाताप के रूप में स्वयं को कोसते हो। मगर यही कोसना तुम्हारे लिए अभिशाप बन जाता है। तुम स्वयं को शांति देने के लिए........ अपनी उतेजना की समाप्त करने के लिए उत्तेजित होकर शांत होने का प्रयत्न करते हो। हीनता की सीमा लांघने के उपरान्त पुनः तुम स्वयं को कोसते हो और क्रम पुनः लागू हो जाता है। .....अशोक ! वास्तविकता को देखो, संयम से काम लो और व्यर्थ का सोचना-व्यर्थनीय कार्य करना बन्द कर दो।’’ ---सुदेश चुप हो गया। कुछ क्षण तक मेरे मुख को निहारता रहा, फिर बोला ---‘‘आओ ! थोड़ा घूम आएं।’’
मैं यन्त्रवत-सा उठा और सुदेश के साथ चल दिया। कुछ देर तक हम घूमते रहे, राहभर सुदेश मुझसे कुछ कहता रहा और मैं सब चुपचाप सुनता रहा। मैंने पाया, मेरा मन धीरे-धीरे शांत होता जा रहा है। घर लौटे, प्रफुल्लित मन से सुदेश को विदा करके मैं कमरे में आकर भैया को पत्र लिखने बैठ गया।
‘‘प्रिय भैया,
आपको शायद यह पढ़कर अचम्भा होगा कि मैं आपको यह दूसरा पत्र लिख रहा हूं, ...... मगर पहली बार प्रेषित कर रहा हूं। पहले भी एक पत्र लिखा था, मगर चाहकर भी उसे प्रेषित न कर पाया। मन भयभीत-सा हो गया था, राह में ही उसे फाड़ दिया।
राहत की सांस ली है आज कई दिनों के पश्चात। भैया ! पिछले चार माह से मुझे मानसिक-कुंठाओं न जकड़ रखा था, उन्हीं में खोकर मैं स्वयं को, अपने आदर्शवाद को भूल-सा गया था। ..... मगर आज मुझे मुक्ति मिल गई है। दो घन्टे पूर्व ऐसा न था। अगर कुछ दिन और मुझे छटपटाना पड़ता, तो शायद मैं किसी दिन आत्महत्या कर बैठता। हां भैया, अपनी अज्ञानता के परिणामस्वरूप अपनी आत्मा को कष्ट दे डालता। स्वयं को पिंजरे में बन्द बेबस पंछी की भांति महसूस कर रहा था ओर यह सोचने लगा था कि क्यों न पिंजरे की सींखचों से टकरा-टकरा कर अपने अस्तित्व को नष्ट कर दूं, कि एक मित्र ने आकर मुझे अतीत के अशोक को स्मरण कराया। मैं कभी जो कुछ ओरों से कहता था, वही स्वयं भूला था..... उसने वही सब स्मरण कराया ...... उसने कहा ---अशोक ! कुंठाओं से मुक्ति पाने के लिए तुम्हें अपने मन को नियन्त्रित करना होगा। मन को नियन्त्रित करने के लिए सात्विक पुस्तकों का अध्ययन-मनन-चिंतन करो, अच्छी संगत में रहो। मन में मवाद उठे तो उसे झट से समूल निकाल कर फेंक दो। इसके लिए यदि कोई बात मन में उठे तो उसे अच्छी बात से ढक दो और बुरी बात पर कुछ सोचो नहीं। यदि व्यर्थ में कुछ सोचने लगे तो पुनः भटक जाने का भय है। जैसा किसी को कहते हो, वैसा मन में धारण करने का प्रयत्न करो।
...... उसने बहुत कुछ कहा, जिसके परिणामस्वरूप अब मैं स्वयं को स्वरथ महसूस कर रहा हूं। मानसिक बीमारी बहुत बुरी होती है। वह शरीर को समूल नष्ट कर देती है। शुक्र है, मैं बच गया.... !
बस ...... !
आपका भाई,
अशोक।’’
भैया को पत्र प्रेषित करने के पश्चात मैं अपने कमरे में बैठकर ‘श्रीमद् भगवतगीता’ का अध्ययन करने लगा। ........ शाम हुई, प्रफुल्लित मन से मैं सुदेश के घर गया। सामने सीमा दिखाई दी। मैंने मुस्कुरा कर उससे पूछा ---‘‘सुदेश .....?’’
‘‘भीतर है...... ।’’
मैं निधड़क भीतर चला गया। आज मन में भय नहीं था। यूं लगा कि मेरे मन में आकर्षण भाव के साथ-साथ स्नेहभाव ने भी आज जन्म ले लिया हैं, जिसके फलस्वरूप आज मेरे कुंठाग्रस्त-स्वरूप का अन्त हो गया है..... !