एक
प्रिय दर्शन
सच ! मुझे एकाएक विश्वास नहीं आ रहा कि वह तुम हो ! तुम्हारी ही तो छवि है न इन शब्दों में ! हां, तुम्ही ! एकाएक .... ,बस कुछ उभर आया मन में। मैं रूक नहीं सका, परतें उधेड़ डाली एक ही क्षण में सारी और वहीं जा पहुंचा, उन्हीं दिनों में ! कॉलेज के सभी साथी, तुम .... और, और बहुत से चेहरे आखों के सामने नाचने लगे। तन तड़प उठा, मन में कसक उठी ---कहां गए दिन ? कहां गए सब ?कहां हो तुम ? ..... और, और मैं कहां ? ----स्वयं को तलाशने लगा। यहां-वहां, इधर-उधर, हर कहीं देख डाला ..... , लेकिन दर्शन मुझे आनन्द नहीं मिल सका जो हंसता था, जो लापरवाह बना अपनी मस्ती में मस्त रहता था। और तब लगा कि तुमने ठीक लिखा है कि मैं तुम्हें भूल गया हूं। तुम्हें ही नहीं, सभी को। स्वयं को भी। आज तुम्हारे शब्दों ने याद दिलाया तो मुझे याद आया। आंखें भर आई कि .... कि कभी मैं ‘वह’ था,कि कभी तुम भी थे मेरे साथ, कि कभी आनन्द कविता की चाह में सब कुछ भूला था।
..... कविता थी, तुम थे, सब थे। कॉलेज के प्रांगण में हमारी हंसी का सम्मिलित स्वर गूंजा करता था। हम हंसते थे खिलखिलाकर, हम घूमते थे हाथ में हाथ डालकर। जीवन कितना मधुर लगता था तब ! सुबह होती थी कि मिलने की ललक बढ़ जाती थी। बातों ही में दिन बीत जाता था,शाम गए घर लौटते थे। कहां कौन परेशान है, क्यों है ? ----सब भूलाए ! इसी ने शायद मुझे स्वयं को भूल जाने पर विवश कर दिया है। दुनिया का शोर, मेरे घर का शोर, सब कुछ तो मैं भूला था। लेकिन ..... ! अब क्या रह गया है। क्या कुछ, कितना ? ‘मैं’ बस मैं ही हूँ। ‘हम’ टूट गए हैं। तुम कहां, मैं कहां, कविता कहीं ओर ..... !
हाथ रूक गए हैं। आगे कुछ लिखने को मन नहीं कर रहा। क्या लिखूं उसे मैं ? मेरे जीवन में यथार्थ रह ही कितना गया है, जो उसे कुछ लिखा जा सके। सपना बन गया है जीवन। केवल सपना ! पुरानी यादें हैं, उन्ही में खोया रहता हूँ। ----कभी मैं हंस सकता था ! कितना सुन्दर लगता था ! ----लेकिन अब कभी सोचा नहीं मैंने, कभी देखने का यत्न नहीं किया मैंने कि मैं अब भी हंस सकता हूँ, कि मैं अब भी सुंदर लगता हूँ। मेरा आज जैसे कहीं खो गया है, मेरे पास केवल अपना कल है ----बीता कल ! उसी से लिपटा हूँ। उसमें शोर है, सुखद शोर। उसमें गति है ... और, और उसमें दर्शन है, उसमें कविता है ! ..... कविता !
‘‘कविता ! ...... क---वि---ता---!’’
बड़े ही रोमांटिक अंदाज में मैंने शब्द बार-बार दोहराये दर्शन ने मुझे कोहनी मार कर सचेत किया ‘‘साले ! लेक्चर चल रहा है, चुप !’’
‘‘ऐं .... !’’ ----मैं चौंका। अगले डेस्क से दृष्टि हटाकर लैक्चर सुनने का ढोंग करने लगा। लेकिन इस शब्द ने मन में न जाने क्यों गुदगुदी मचा दी थी। डेस्क के ऊपर लिखा था ----कविता ----और मैं मन में दोहरा रहा था बार-बार ----कविता ! कविता !
घंटी बजी कि दर्षन ने मुझसे कहा ‘‘साले, छोड़ दे चक्कर कविता का !’’
‘‘कौन कविता ?’’
‘‘अरे वाह ! अभी बार-बार उसका नाम ले रहा था और अब कहता है कौन कविता ?’’ ----उसने मेरी नकल उतारी।
‘‘विश्वास करो, मैं किसी कविता को नहीं जानता !’’ ----मैने उसे समझाने का प्रयत्न किया, लेकिन व्यर्थ ‘‘क्यों बनाता है, साले, कौन नहीं जानता कविता को !’’
‘‘आखिर वह है कौन ?’’ ----मेरी भी उत्सुकता बढ़ी।
‘‘नहीं जानता ...... ?’’
‘‘नहीं ..... !’’
‘‘नाम कैसे ले रहा था’’
‘‘डेस्क पर लिखा था !’’
‘‘अच्छा !’’ ----वह हंस पड़ा।
‘‘दिखा तो सही !’’
‘‘आ मेरे साथ !’’
वह कॉरीडोर में खड़ी थी। उसने कोहनी मार कर मुझे ईशारा किया। मेरे दिल की धड़कन एकाएक बढ़ गई। उस समय वह मुस्कुरा रही थी। बस ! उसकी वही छवि मेरी आंखों में समा गई। मन बार-बार पुकारने लगा ----कविता ! कविता ! ----उसी दिन मैंने डेस्क पर लिख दिया ----कविता ! माई स्वीट हार्ट ! और फिर .......
कविता प्रिय ...... !
ये मुझे क्या हो गया है ? एकाएक हूक उठती है बहुत जोर से और मन बार-बार तुम्हारा नाम पुकारने लगाता है। सामान्य जीवन घातक नहीं हुआ करता, अतृप्ति स्वयं घातक नहीं होती, वियोग स्वयं एक रोग नहीं, अपितु यह हमारा मन है, यह हम हैं जो एक ही वस्तु की रट लगाकर स्वयं को अतृप्त करते हैं, स्वयं को रोग लगा होने का बहाना करते हैं, कि एक हूक उठती है और मन बार-बार तुम्हारा नाम पुकारने लगता है ! ---यह रोग है क्या ?
कविता ! ये मेरे क्षण तुम्हारा नाम लेते बीत रहे हैं, कैसे कह दूं कि यह झूठ है। कैसे कह दूं कि मेरे जीवन में कोई कविता नहीं। मेरा जीवन सूना कहां ? इसमें तो प्यार-ही-प्यार !
प्यार !
उसी प्यार की सुगंध मुझे जीवित रखे है। उसी को सम्बल बनाए मैं पल-प्रतिपल आगे बढ़ रहा हूं। वही प्यार मेरी प्रेरणा बना है। वही प्यार मुझे उत्साह दे रहा है। मगर यह भी तो झूठ नहीं कि वही प्यार मुझे तड़पा रहा है ----और इसीलिए क्या प्यार सुन्दर है ? ----जिसमें उत्साह भी है, निराशा भी। जिसमें प्रेरणा भी है, तड़पन भी। जिसमें और भी बहुत कुछ है। सबकुछ है लेकिन, लेकिन कविता नहीं। कविता नहीं, कुछ भी नहीं। कुछ भी नहीं, केवल मैं ! और मैं प्यार की तड़पन के साथ, कभी-कभी आ मिलने वाले उत्साह के साथ, किसी प्रेरणा के साथ, लेकिन कविता से दूर इसलिए अधूरा। अधूरा ----अपूर्ण !
सूना आंगन। कोई साथी नहीं जिसका। जिसमें धूल जमती जा रही है। ऐसे में, कविता, यदि तुम होती तो कितना मधुर होता मेरा जीवन ! जानती हो, गुलाब के पौधे की यदि नियमित रूप से कांट-छांट न की जाए तो वह जंगली झाड़ बन जाता है जिसपर उगने वाले फूल में सुगंध नहीं होती। क्या मुझे भी वैसा बन जाना होगा ?
ये दिन उग रहा है, ढलेगा भी अवश्य। कुछ करना है तो ढलने से पहले ही कर लें, रात के अंधेरे में क्या होगा ! कुछ सुझाई नहीं देता अंधेरे में। मस्तिष्क की चेतना लुप्त हो जाती है। जो भी है उजाला है, उसी में कुछ कर लेंगे तो समय-सारथी कहलाएंगे। अन्यथा बाद में क्या होगा हमारे साथ ! लेकिन आज तो है। जो हो सकता है उसे साथ ले लो, जो मिल सकता है उससे मिल लो। उसी से कुछ प्यार लो। उसी से कुछ ज्ञान लो,उसका विश्वास लो। जीवन केवल हंस कर, मस्त रहकर बिता देना ही तो नहीं, कुछ करना है ताकि कह सकें ----मैंने ये किया !
लेकिन अब मुझे ये क्या हो गया है। मन को प्रतिबिम्बित करते ऐसे शब्द अब ढूढंने पर भी नहीं मिलते। चाह उठती है कभी-कभी उसके नाम पर कुछ लिखने की, लेकिन जैसे मेरे इस समर्पण में अब कोई उत्साह नहीं। निर्जीव जान पड़ते हैं शब्द, कोई रह-रह कर कहता प्रतीत होता है ----कविता तेरी नहीं, वह नहीं आएगी ! कभी नहीं, कभी भी....! ----ऐसे में मस्तिष्क-पटल पर उसकी हंसती-मुस्कुराती छवि उभारने का प्रयत्न करता हूँ।
लेकिन ..... !
कविता है कहां ? ----जिसे मैं अपने मनोभावों का बिम्ब मानता था, आंखों का उल्लास उसकी छवि मेरे आसपास अब नहीं। मेरे सारे साथियों के साथ वह भी तो चली गई। कहीं ओर ! किसी नए विकल्प की खोज में। अब शायद कभी नहीं मिलेगी ..... । भटकते हुए कितनी बार कॉलेज गया हूं, मगर, कॉरीडोर सूना है, कमरे में कोई नहीं, लाईब्ररी मे ताला पड़ा है, कविता ही क्या वहां कोई भी नहीं कहीं भी। छुट्टियां हैं। अब कविता नहीं होगी ! जो वह लेने आई थी यहां, लेकर चली गई। उसे मैं अब याद कहां ? ‘‘उसका अपना एक संसार है। अपना ! तभी तो एकांत में, तड़पन बढ़ जाने पर .......
‘‘कविता ! ----कविता, तुम कहां हो ? मैंने तो न चाहा था, ऐसा हो ! सोचता था, तुम मेरी हो चुकी हो। मेरी, सिर्फ मेरी ! कोई कह रहा है तुम मेरे जीवन में मुझसे पूछ कर नहीं आई ! मेरी भावनाओं से तुम्हारा रिश्ता मैंने पूछकर नहीं बंधा ! कविता ! मैं नहीं तो कौन ? मेरी भीतर मैं नहीं कोई और है क्या ? ----कोई कह रहा है तेरा ‘तू’ जब अपना नहीं तो कविता से तेरा क्या रिश्ता ! भूल जा, भूल जा कि कविता तेरी है ! कोई रोता है तब, किसी का दर्द मेरे दिल में उठता है। किसी का ही कहूं न, क्योंकि बार-बार कोई कह रहा है अब भी कि तेरा ‘तू’ अपना नहीं। मैं ‘मैं’ नहीं।
‘‘मैं कहां हूं ? किसमें हूं मैं ? मेरा मैं कहां विलीन हो गया ? इतना अकेला तो मैं कभी नहीं था। कितना अकेला ! कि आज मेरा अपना कुछ भी नहीं, बस कुछ कहीं ओर चला गया। मैं अकेला हूं, नितान्त !
‘‘तुम्हें तो ऐसा महसूस नहीं होता न, कविता ! तुम्हारा सब कुछ तो तुम्हारा अपना है न ? तुम तो अकेली नहीं न ? तुम्हारा घेरा सुखद है, तुम हो, तुम्हारे मीत हैं, हंसते-खिले फूल ----और उस सुंदर बगिया में खिलखिलाती तुम सबके मन को हर्षित किए बैठी हो, तुममें मैं तो कहीं नहीं न तुम्हारे लिए ? जबकि मुझे लग रहा है कि मेरा ‘मैं’ तुममें जा चुका है। तुममें ! इसीलिए तो मैं आज अकेला हूं। कहीं मन नहीं लग रहा, कुछ करने को जी नहीं करता। ----जानता हूं समय मूल्यवान है, क्षण बिखर गए तो क्या होगा ? क्या होगा ? ----सबके-सब स्वप्न अधूरे रह जाएंगे !’’
अधूरे स्वप्न ....... !
‘‘ऐ मिस्टर !’’
----किसी ने पुकारा मुझे। मुड़कर देखा ----कविता ! लेकिन पुकारा उसके साथ चल रही एक अन्य नवयुवती ने था। नैन-नक्ष देखकर मैंने झट से अनुमान लगा लिया कि वह उसकी बड़ी बहन है।
‘‘कहिए ..... ?
----मैं ठिठका रहा। वे मेरे निकट आ गई। उन्होंने कदम आगे बढ़ाए, मैं भी साथ हो लिया।
‘‘आप आनन्द हैं न ?’’
‘‘जी हां !’’
‘‘इसे जानते हैं ?’’
उसने कविता की ओर ईशारा करके पूछा।
‘‘जी, जी हां, जानता हूं।’’
‘‘मैं आपसे कई दिनों से मिलने की सोच रही थी। आज अचानक राह में ही आप मिल गए, अच्छा ही हुआ !’’
‘‘जानते हैं क्यों ?
----उसने पूछा। मैंने उसके चेहरे की ओर देखा। कहीं कोई रोष नहीं था। वह मंद-मंद मुस्कुरा रही थी। कविता का चेहरा सपाट था, कोई भाव मुझे नज़र नहीं आया। मैंने साहस कर कह दिया ----‘‘जानता हूं।’’
उसने अचकचाकर मेरी ओर देखा। कविता ने भी। शायद दोनों को मेरे इतना स्पष्टवादी होने का एहसास नहीं था।
‘‘अच्छा।’
‘‘दरअसल बात यह है, जब आप मिली ही हैं तो मैं कुछ छिपाना नहीं चाहता। देखिए, मैंने जो कुछ भी किया यदि कविता जी उससे अप्रसन्न हो तो मैं क्षमा मांगता हूं, और यदि....।’’
वह हंस पड़ी। कविता भी मुस्कुरा दी।
‘‘तो आप समझ गए !’’
‘‘दाढी तो है नहीं कि तिनका छिपा सकता।’’
इस बार कविता भी खिलखिला पड़ी। तब मुझे यूं लगा जैसे किसी ने सात जन्म की खुशियां एक साथ मुझे थमा दी हों..........
अधूरा ही रह गया सब कुछ। आंखें बंद कर लेता हूं तो सब कुछ पूर्ण जान पड़ता है, आंख खुलती है तो कुछ नहीं। सब वही, जो था। कितने सपने देखता हूं मैं ! घर बैठे, राह चलते, बातें करते। बात में बात निकलती है, बात बढ़ती जाती है, साथ ही मेरी कल्पना भी। मुझे मालूम है न कविता थी, न कविता है, न होगी कहीं मेरे जीवन में मेरे अपने लिए ! जो जैसा है, वैसा ही रहेगा। कल्पनाएं कर-कर मैं क्या बनूंगा ? ----टूटे पंखों वाला पक्षी। जो पेड़ की डाल पर बैठा दूर आकाश में अपने साथियों को उड़ते देखकर उन्हीं के बीच होने की सोच लेता है, और जब उसे अपने वर्तमान का एहसास होता है तो केवल छटपटा कर रह जाता है। केवल आंसू बहा सकता है। आत्महत्या भी तो नहीं कर सकता ........ कैसे करे ?
मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, बस दिन बीते जा रहे हैं। कहीं कुछ ठोस नहीं मिल रहा। दिन बीत रहे हैं यही क्या बड़ी बात नहीं ? लेकिन अकर्मण्यता के प्रति मन में क्षोभ है। कुछ नहीं कर पाता इसलिए बीते हुए के प्रतिमन में लोभ है, ‘क्यों बीत रहा है, रूक जा, रूक जा--------।’ ----कौन मगर सुनता है ? कुछ कर नहीं पाऊंगा लगता है, सब व्यर्थ चला जाएगा, सब व्यर्थ जाएगा, कुछ न रहेगा मेरे पास, अकेला ही ......... आने वाले को रोकना चाहता हूं, वहीं जहां वह है। समय की रफ्तार शून्य हो जाए। जो है, बीत रहा है। तू रूक जा, कुछ कर सकने लगूं तब ! अब, अभी मत आ, बीत जाएगा यूं ही ! यूं ही, मत आ, मत आ। लेकिन व्यर्थ, समय आगे बढ़ें जा रहा है। वे सब काम कर रहे हैं। सभी-के-सभी ! मेरी लोभी दृष्टि उन्हीं पर जा टकी है ‘अपनी खुशी मुझे दे दो ! मुझे दे दो, ताकि मैं भी हंस सकूं, मेरा कुछ अपना है। लेकिन व्यर्थ ! कोई मुझे कुछ नहीं देता। मैं अकेला हूं, और यह अकेलापन कितना अशांत। लगता है मैं पागल हो चुका हूं। परेशान ! दुविधा में फंसा कि वह करूं या नहीं। यह करूं तो कैसे ? मेरी आकांक्षाएं बहुत ऊंची है। ऊंचा और ऊंचा उठने की तमन्ना ! लेकिन न जाने क्यों मैं स्वयं को टूटा जान रहा हूं। स्वयं को विवश मानकर सोचने लगता हूं कि मैं जो कुछ चाहता हूं, वह अब नहीं होगा। और ........... सदा एक हुक-सी मन में मेरे उठती ही रहती है, नहीं मैं वो भी कर पाता जो मन में बात उठती है...... मैं टूटता जा रहा हूं।
...... और मैं टूट चुका हूं। मेरी सारी इच्छाएं, आकांक्षाएं, सभी-के-सभी स्वप्न वैसे ही हैं, जैसे थे। यथार्थ में एक मशीनी इंसान है। एक ऐसा इंसान मेरे ‘आनन्द’ को दबाकर उभरा हुआ है जो नहीं जानता उसका अपना क्या है। जो भूल चुका है, उसका अपना क्या था। जो बस सुबह उठने के बाद और रात गए तक मशीनी अंदाज में अक्षरों से अक्षर मिलाता रहता है। जिसकी अपनी सारी अनुभूतियां दब गई हैं, जिसमें तनिक-सी भी विरोध शक्ति नहीं रही। जो कुछ भी लिखा देखता हैं, वही पढ़ डालता है, उसी को सत्य समझना पड़ता है, सत्य कहना पड़ता है। ----सत्य क्या है उसके लिए ? उसकी अपनी मान्यताएं कहां हैं, कैसी हैं ? उसे नहीं मालूम। जानता है जो जैसा है, उसे वैसा ही रहना है। उसे कुछ बदलने का अधिकार नहीं दिया गया। वह नीतियों का अंधानुकरण कर सकता है, उनकी खामियों को निकालना, बदलना उसका न कर्तव्य है, न ही अधिकार ! वह केवल अक्षर से अक्षर मिलाता है, शब्द से शब्द, वाक्य से वाक्य ........... ।
प्रूफ पढ़ते-पढ़ते आंखे कमजोर हो गई... महसूस करता हूं। किसी पुराने साथी को पहचानने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। और मुझे भी तो कोई पहचान नहीं पाता। आनन्द की वह सुदरता नष्ट हो गई है। उसका चेहरा मुरझा गया है। कविता को लिखा सत्य जान पड़ता है, टहनियों की कांट-छांट नहीं की गई, जंगली झाड़ बन गया हूं। पिचके गाल, धंसी आंखें, लैंप की रोशनी जैसा पीला चेहरा ..........
कल तक जो मेरे थे, आज मेरे होकर भी वह मेरे नहीं। और मैं भी इतना साहस नहीं कर पाता कि उन्हें पुकार लूं। हीनभाव मेरे भीतर उमड़ते-उमड़ते रहते हैं। कोई रह-रह कर कहता प्रतीत होता है ----तू छोटा है। मत पुकार उन्हें वे बड़े हैं। तुझे भूल गए होंगे। न भी भूले हों तो तुझे इस दशा में देखकर तेरी खिल्ली उड़ाएंगें।
कोई मेरी खिल्ली उड़ाएगा, कोई मुझे पहचानने से इंकार कर देगा और, दर्शन जैसा शायद कोई मिल जाए जो आत्मीयता प्रकट करे। लेकिन तब भी मेरा ‘आनन्द’ नहीं उभर पाता। बहुत पीछे रह गया है वह। जिसे मेरे आज तक पहुंचने में काफी समय लगेगा, शायद मुझ तक पहुंच ही न पाये। मैं अब भी तो चल रहा हूं। मशीनी गति से। पहले से बहुत तेज़। लेकिन जाने बिना, कहां, सोचे बिना, किधर ? मैं चल रहा हूं, बस ! ऐसे में कोई पुकारता है ----आनन्द ! ----तो मैं ............
वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखा, पूछा ‘‘कहिए’’ और, और मैं उसे पहचान गया। हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। वह दर्शन था, दर्शन !
‘‘द--र- श--न--!’’ ----मेरी आंखों में आंसू उभर आए।
‘‘आनन्द !’’
बहुत दिनों बाद हम मिले थे। और मुझे जैसे विश्वास नहीं आ रहा था कि वह वही दर्शन है, जबकि वही था, वैसा ही।
‘‘मुझे बिल्कुल विश्वास नहीं आ रहा। तुम तो बिल्कुल बदले नहीं ! जैसे थे, वैसे ही हो !’’ ----मैंने उसकी आंखों में आंखें डालकर, मुख पर कृत्रिम मुस्कुराहट लाने का प्रयत्न करते हुए कहा। उसकी आंखों में मुझे दूर कहीं बादल तैरते दिखाई दिए, जो धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे।
‘‘तुम्हे क्या हो गया है, आनन्द !’’ ----बादल पानी बनकर निकट आ गए थे, पलकों के किनारे।
‘‘मुझे ? मुझे क्या हुआ ? मैं बिल्कुल ठीक हूं !’’
अपने शब्द कहते हुए मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे भीतर कोई पहाड़ टूट रहा हो। पत्थरों के टुकड़ें इधर-उधर लुढकते गरज रहे हैं, ऐसे में मैं चुप न रह सका। फफक उठा।
‘‘आनन्द ! आनन्द।’’
लेकिन मैं रोता रहा, फफकता रहा। जी हल्का हुआ तब कहीं जाकर थमा। कुछ क्षण तक चुप्पी रही। मैं अपने सामने बैठे दर्शन की ओर देख रहा था, और वह किसी सोच में डूबा था।
‘‘तुम इतने बदल कैसे गए आनन्द !’’
उसने पूछा मुझसे गम्भीर स्वर में।
‘‘समय के साथ-साथ, न जाने कैसे !’’
---- स्वर मेरे बहुत भीतर से उठ रहा था, शब्द अपने नहीं जान पड़े थे।
‘‘समय ? दिन बीते ही कितने हैं ?’’
दर्शन को मेरी बात पर कुछ आश्चर्य हुआ था।
‘‘दिन ! कितने वर्ष !’’
‘‘अरे ! तुम कहां खोये रहते हो। अभी वर्ष भर ही तो हुआ है, तुम्हें कॉलेज छोड़े।’’
‘‘एक !’’
----मैं जैसे सोते से जागा था।
‘‘और नहीं तो क्या !’’
‘‘मुझे कॉलेज छोड़े एक ही वर्ष हुआ है।’’
----मुझे उसके शब्दों पर जैसे विश्वास ही न आ रहा था।
‘‘हां, लेकिन तुमने अपने ये कैसी दशा बना डाली ! तुम्हारी हंसी, तुम्हारी मस्ती सब कहां गई ? कैसे रोगियों जैसे लग रहे हो ! आनन्द ! क्या हुआ तुम्हें ?’’
दर्शन के शब्द मेरे कानों ने सुने। वह मुझसे कुछ पूछ रहा था। लेकिन उसका मुझसे एकाएक कोई उत्तर न बन पड़ा।
‘‘मुझे क्या हुआ है, क्या कहूं मैं !’’
----सिर घूमने लगा था। बैठा न रह सका। लड़खडाते हुए बिस्तर तक पहुंचा और औंधे मुंह जा पड़ा।
समय की रफ्तार का मुझे तनिक भी एहसास न था। कैसी बना ली थी मैंने ये जिन्दगी ! बोझिल और हीन ! कितना निराश बना डाला था मैंने स्वयं को कि मुझे एक दिन बिताना भी भारी जान पड़ता था। और एक-एक दिन करते जब वर्ष ही बिता तो मुझे लगा मेरी जिन्दगी ही बीत गई है। बहुत ऊंचा उठने की तमन्ना थी, और बड़ा बनने के लिए केवल स्वप्न लिया करता था। सोचता था, कल्पनाएं करके एक दिन ऊंचा बन जाऊंगा। ऊंचा, इतना ऊंचा कि सभी मुझे जान लेंगे, और आंखें मूंद कर मैं इसे यथार्थ बनाने की सोचा करता था। समुद्र की गहराई में उतरकर विचरता था, जहां मोती-ही-मोती बिखरे दिखाई पड़ते थे।
अपना ही है सब कुछ। जो अपना है उसे कोई और भला क्या छीन ले जाएगा। अपना है, जहां है वहीं पड़ा रहने दो, इसे बटोरने की क्या जरूरत ! लेकिन यह कभी नहीं सोचा था कि तूफान आकर सब कुछ बिखेर देता है। इतना साहस भी नहीं कर सका कि उसे नियन्त्रित करने का प्रयत्न करता। जो अपना है, अपना ही है। लेकिन जो होना है, वह भी तो होगा। उसे कौन रोकेगा ? चाह हमेशा सुंदर रही है लेकिन समुद्र की लहरें रेत के सारे महल तोड़ जाती हैं। रेत-ही-रेत ! और इस रेत में अकेला खड़ा मनुष्य कब तक उबेगा नहीं ? ----उब जाने पर आगे-पीछे आती लहरों में भी समय की बड़ी खाई बनी जान पड़ती है। सपने सभी सच हो जाए तो पल चाहे पल में ही न बीते, लेकिन ऐसा कभी महसूस नहीं होता कि कहीं कुछ गतिहीनता आई है। आगे बढ़ते एक के बाद एक सपना खंडहर बना दिखे तो पल युग समान लगता है। और, और मैंने एक वर्ष में कितने युग जी लिए ? कितने ?
‘‘ऊंची उड़ाने भरने की बात करता था मैं ! सब कुछ सरल जान पड़ता था, सब कुछ अपना ही लगता था। यही सोचता था कि जिस पर हाथ रखा वही मेरा बन गया है। ऐसी कुछ धारणा बना ली थी कि जिस ओर कदम बढ़ाएगा वही मेरे पास दौड़ता चला आएगा। लेकिन ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ। जो चाहता था, वही नहीं मिला। जो बनना था, वह बन नहीं सका। और जिन्हें देखकर कभी साहनुभूति उमड़ आती थी, वही बन गया हूं, वही, वैसा ही, लेकिन अपने से साहनुभूति नहीं जता पाता, अपने से तो घृणा करने का मन करता है मेरा, और धृणा है मुझे स्वयं से !’’
‘‘तुम पागल हो। इतनी जल्दी घबरा गए। इतनी जल्दी यथार्थ त्याग बैठे अरे ! कदम इतने छोटे है क्या तुम्हारे कि दो कदम चलकर ही थक गए ? तुम जो बनना चाहते थे, वह अब भी बन सकते हो। तुम जो चाहते हो वह अब भी पा सकते हो। कहां क्या कुछ असम्भव है ! और तुमने खोया भी तो क्या ? अभी हुआ भी क्या है ? अभी तो तुम्हें और बहुत चलना होगा, अभी तो तुम्हें और कई ठोकरें लगने की सम्भावना भी है। इतनी जल्दी हताश हो गए तो न बड़े आदमी बन पाओगे, न ही कविता तुम्हें मिलेगी !’’
‘‘कविता !’’
----साथ ही मैं फीकी हंसी हंसा।
‘‘क्यों ? क्या हुआ ?’’
‘‘कविता तो सपना है, दर्शन !’’
‘‘साधन होंगे तो उसे भी पा लेंगे।’’
‘‘उसकी शादी हो गई !’’
‘‘कब ?’’
‘‘कुछ दिन पहले ।’’
कुछ देर वह चुप रहा, फिर बोला ‘‘छोड़ो, भूल जाओ उसे। और बहुत कविताएं मिल जाएगी, लेकिन पहले तुम्हें बड़ा बनना है।’’
‘‘बड़ा बनना है मुझे, किसलिए ? मैं कविता के लिए ऊंचा उठना चाहता था। अब वह नहीं तो बड़ा बनकर क्या करूंगा ?’’
‘‘कविता में क्या रखा है ?’’
----दर्शन झल्लाया।
‘‘मेरा ‘मैं’.... !’’
‘‘तुम पागल हो।’’
‘‘सभी कहते हैं।’’
दर्शन मुझे और न समझा सका, चला गया। अब न जाने उससे कब मुलाकात होगी। लेकिन इतना मैं अवश्य जानता हूं कि वह कभी न हो पायेगा, जैसा वह देखना चाहता है। उसकी तमन्ना उसकी अपनी है। जो कुछ भी मुझसे उसने कहां, वह उसका अपना दृष्टिकोण है। मेरी और उसकी विचारधारा में साम्य कहां ! मैं कहां, वो कहां ! मेरी चाहत भला उसकी कैसे हो सकती हैं ? कठिनाईयों से पार पा लेना इतना सरल है क्या, जैसा वह कह रहा था ? मेरे पास जो था, वही है। बस एक लबादा था शानो-शौकत का जो और न ओढ़ा जा सका। ‘‘अब जो मेरे सामने है,जो मेरे पास है, वही वास्तव में मेरा था। ओर मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, वह अपने इस फटे हाल को ऐसा-का-ऐसा रखने के लिए तो। जो मेरे साथ है, वह भला मुझसे अलग कैसे हो सकता है। मैं जो कुछ भी हूं, वही हूं, वैसा हूं, जैसा मेरे भाग्य में लिखा है। मेरी कल्पना, कल्पना ही रहेगी, क्योंकि कोई साधन नहीं मेरे पास उसे साकार बनाने का। दर्शन कहता है ऊंचा उठा जा सकता है, हां, उठा जा सकता है। यदि दर्शन के लिए दर्शन स्वयं हो, साथ कोई सम्बल हो ! सम्बल उच्च परिवेश का। ऊंचा ही तो उठेगा। मुझ जैसा भला कैसे उसकी बराबरी कर सकता है ?जिसके पास वह स्वयं नहीं, जो इतना छोटा है कि ............
‘‘मेरी पेंट फटने को आ गई है। इस महीने मैं कुछ न दे सकूंगा।’’
----विवश था मेरा स्वर।
‘‘कुछ नहीं दे सकोगे तो रोटी का क्या होगा ! धर्मशाला में जाकर रहना है क्या ?’’ ----मां ने तीखे स्वर में कहा।
‘‘मैंने कभी देने से इंकार तो नहीं किया। लेकिन मजबूरी !’’
‘‘यहां भी तो मजबूरी है !’’ पैसे के बिना कोई राशन नहीं देता। और तुम यदि पैसा नहीं दोगे तो राशन कहां से आएगा ?’’
----कॉलेज में था तो ऐसा दिन कभी देखने को नहीं मिला था। जैसे भी हो मेरी हर मांग पूरी की जाती थी। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। मैं इनके लिए कितना बदल गया हूं। काश ! वही आनन्द होता।
‘‘लेकिन !’’
‘‘अपना खर्च कम करो। ----इस महीने सिगरेट न पीना।’’
‘‘सिर्फ सिगरेट ही तो पीता हूं।’’
‘‘मत पियो ! किसने कहा है रोज़ एक डिब्बी पीने को।’’
‘‘उसके बिना मैं जी नहीं सकता।’’
‘‘और रोटी के बिना ?’’
----मां के मुख पर व्यंग्य भाव छा गए।
रोटी के बिना जी सकता हूं क्या ? रोटी के बिना .......
मुझे पेट भरना है। मुझे तन ढकना है। मुझे अपनी और जरूरतें भी पूरी करनी हैं। लेकिन डेढ सौ रुपए में क्या कुछ करूं ? सौ घर दूं, चालीस सिगरेट में ....... बाकी कितने ?
कितने सपने अधूरे पड़े हैं। सिसकियां सुनकर भी जिसकी कोई ढाढस न बधाए वह अभागा ही तो है। अपने लिए सुख जुटाने की ललक किसमें नहीं ? कौन नहीं चाहता की वह सबसे सुखी हो। कौन नहीं चाहता की वह जीवन के सभी आनन्द पा लें। कौन है जो सबका प्यार नहीं चाहता। ऐसा क्या है जो मन में उठी उमंग को ऊंचा और प्यासा करता जाता है। प्यास बढ़ती है तो मैं ‘मैं’ नहीं, कोई मेरा मुझे अपना नहीं लगता, केलव आनन्द की वह मस्ती एक-न-एक दिन टूटनी थी, टूट गई। आनन्द को बस मात्र काल्पनिक पुरूष बनकर अपनी लम्बी जिन्दगी गुजारनी है, वह इस पहाड़ का बोझ भी सह लेगा। आनन्द का पहला रूप दूर कहीं बादलों में जाकर विलीन हो गया है और यह दुबला-पतला अस्तित्व उसे कॉलेज की यादों में, कविता के सपनों में, दर्शन के साथ में, इधर-उधर की भीड़ में खोजता फिर रहा है। हर किसी से पूछता है। ----मैं कहां ? ----मैं कहां ? निराशा कितनी गहरी हो चुकी है !