किसी को अचम्भा न हुआ, भला अपनी दिनचर्या पर कभी किसे अचम्भा होता है !
मगर जिसने नई-दिनचर्या बनाई, जिसने रात के अंधेरे में अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को परिवर्तित कर डाला, उसके लिए उसे प्रति सबके लिए यह एक नव-प्रभात थी !
सुर्य उगा। अपने पथ पर षनैः-षैनः आगे बढ़ने लगा। उसे मालूम था कि वो क्या है, उसे कैसे जीना है ?
जीवन-पथ पर छाया अंधियारा आत्मज्ञानप्रकाष से दूर हो गया। पथिक संतुलित हो गया। सुगमता से पथ तय करने लगा, लक्ष्य-क्षेत्र का रूप उजागर हो चुका था !
यह पथिक सुदर्षन था ! विद्या-मंदिर को जाने तैयार हुआ कि रामपाल उसके कमरे में आया। उसके हाथ में एक पत्र था। उसे सुदर्षन की ओर बढ़ाते हुए बोला ‘‘आपकी चिटठी आई है !’’
‘‘मेरी चिटठी !’’
सुदर्षन को अचम्भा हुआ। उसे पत्र लिखने वाला कौन हो सकता है? उसे समझ न आया। पत्र खोला, पढ़ने लगा।
‘‘प्रिय भैया सुदर्षन !
नमस्कार !’’
‘भैया’ का संबोधन पड़कर वो चौंका, अचम्भे से बोला ‘‘मेरी बहन कौन ?’’ फिर पत्र के अंत में उसने निगाह दौड़ाई। प्रेषक नाम पड़कर उन्हीं भावों से बोला ‘‘सुनीता कौन ?’’
फिर बड़ी व्यग्रता से पत्र पड़ने लगा
‘‘अतीत के मोतियों को अगर अपने स्मृति पटल पर बिखेरोगे, तो तुम्हें एक बेबस-पंछी-स्वरूप-नारी का चेहरा स्मरण हो आएगा मुझे पहचान जाओगे ! जब मैं तुम्हें मिली थी, तब मैं सबीना थीं !’’
‘‘सबीना ! ओह !’’
कुछ क्षण सुदर्षन अपने मानव-पटल पर सबीना उर्फ सुनीता के चेहरे को स्मरण करने की चेष्टा करता रहा, फिर पत्र आगे पढ़ने लगा।
‘‘भाग्य का खेल बड़ा निराला होता हैं परिस्थितवष कहंू या अपने कुकर्मो के फलस्वरूप कहंू, मुझे चार बरस तक सुनीता के रूप के उपर सबीना का घिनौना सुखौटा पहन कर नरक-सम जीवन-वास करना पड़ा ! वेा दिन मेरे लिए बड़ा भाग्यषाली था, जिस दिन तुम सबीना के द्वार अपनी काम-लिप्सा मिटाने आए। सबीना ने तुम्हारी इच्छा-पूर्ति की, मगर बाद में तुम्हें पष्चाताप हुआ, और तभी तुमने उसे पुण्य-पथ पाने को ढ़ग बताया। सुदर्षन ! तुम पाप करके भी, पापी नहीं कहला सकते। तुमने मुझे नव-जीवन दिया, सुदर्षन ! तुम मेरे जीवन प्रदाता हो, तुम दीपक हो तुमने मुझे मेरे तममय पथ को प्रकाषित किया, और सुदर्षन, मैंने सब प्रकार की यातनाए सहते हुए ‘नारी-कल्याण-समिति’ से सम्पर्क स्थापित किया। मुझे वही से सहायता मिली मुझे गंदी नाली से निकाल कर फिर से बगिया का फूल बना दिया गया। अब मैं ‘नारी-कल्याण-समिति’ की एक षाखा में रहते हुए प्रषिक्षण प्राप्त कर रही हंू, ताकि अच्छी-राह पर चलकर मैं अपना षेष जीवन बिता सकंू !
‘‘सुदर्षन ! मै। जान गई हंू कि मानव-जीवन बार-बार नहीं मिलता। ये दुर्लभ है, इसलिए हमें इसे व्यवस्थित-ढ़ग से बिताना चाहिए। कुकर्मों से हमे नफरत करनी चाहिए पापों से दूर रहना चाहिए। हमें वही कर्म करने चाहिए, जिनको करने के लिए हमें हमारा अंतर्मन प्रेरणा देता हो। पर भैया ! हम अज्ञानी हैं। जानते नहीं कि आत्मा क्या है ? जब जानते हैं तो पष्चाताप के आंसू बहाते हैं।
अब बस !
आषा करती हंू तुम मुझे पत्र लिखोगे, सदा लिखते रहोगे। मैं तुम्हारी बहन हंू और तुम मेरे भाई, इसे भूल न जाना !
षुभकामनाओं सहित।
तुम्हारी बहन
सुनीता।’’
‘‘सुनीता , सुनीता ! सबीना, मेरी बहन !’’
सुदर्षन की आंखों से दो आंसू टपक पड़े ‘‘मैंने सतकर्म किया ! हां, मैंने किसी को अच्छी राह बताई ! पर मैं स्वयं किस राह पर चल रहा हंू ? बुरी पर ! हां, बुरी पर। नहीं, अब मैं अच्छा बनूंगा, अमित जैसा ! मेरी बहन ! मैं तुम्हें विष्वास दिलाता हंू कि मैं अब पापों से नफरत करूंगा। अच्छा बनूंगा, अब वही कार्य करूंगा, जिन्हें आत्मा निर्देषित करेगी ! हां-हां अब मैं अच्छा बनूंगा अमित जैसा आत्मज्ञानी, आत्मविष्वासी।’’
सुदर्षन ने आंसू पोंछे और फाईल उठाकर विद्या-मंदिर को चल पड़ा पैदल ही, जेब में पैसे जो नहीं थे।