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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव (अट्ठाइस)
ISBN: 345
 
‘‘रात कुछ तन्हा-तन्हा, दिल भी कुछ तन्हा,
क्यों न मिलकर करें, फिर तन्हाई केा दूर।’’
अचानक सुदर्षन के मन में ये पंक्तियां गूंजी सुना, स्वयं ही वाणी में ढ़ल कर उसे सुनाई पड़ी। दो-तीन बार उसने इन्हें धीमे से गया। तभी आत्मा की आवाज़ सुनकर उसे विचारों की दुनिया में खो जाना पड़ा। वह कह रही थी ‘सुदर्षन ! रात की तन्हाई तो चांद दुर कर देता है, एक अमावस्या के दिन का आलम ही उसे तन्हाई में गुजारना पड़ता है। तुम्हारा दिल तन्हा है, था नहीं, अमावस्या की रात तुमने स्वयं ही अपने जीवन केा बनाया है। तुम्हारे जीवन पर तन्हाई का आलम अपनी परछाई भी न डाल सकता था, तुम्हारा जीवन तो एक सदाबहार उपवन था जिसमें कभी पतझ़ड नहीं आता। परंतु तुम बहुत निर्दयी हो, तुमने अपने हाथों से अपने सदाबहार उपवन को उजाड़ डाला, तुमने अपने दिल की मानकर अपने आपको तन्हाई की कैद में डाल दिया’’
 
सुदर्षन इस वक्त अपने कमरे में लेटा हुआ था। मानसिक अंतर्द्वंद्व अभी भी उसके भीतर चल रहा था: मां-बाप के पद-चिन्हों से सदा तुम्हारा जीवन हरा-भरा रहता। मगर हत्यारे को हत्या करने से कौन रोक सकता है ? तुमने स्वयं अपने हाथों से, अपने सुदर सपनों भरे जीवन का गला घोंट दिया, सुदर्षन ! कुकर्मी को दुःख ही मिलते हैं सुख नहीं !’’
 
‘‘कुकर्मी !’’ वह बड़बड़ाया। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। षायद वो पष्चाताप के आंसू थे।
‘‘क्या मैं कुकर्मी हंू ?’’
सिसकते हुए स्वयं से पूछा सुदर्षन ने।
 
वही आवाज़ उसे फिर सुनाई दी ‘‘और नहीं तो क्या ? तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें अच्छी तरह से पाल-पोस कर बड़ा किया और फिर उन्होंने स्कूल भेजा, षिक्षा-ग्रहण करने के लिए। पर तुमने ग्रहण क्या किया ? वो तुम्हें एक आदर्ष-विद्याार्थी बनाना चाहते थे, पर तुम बने क्या ? जुआरी और षराबी ! क्या विद्याार्थियों को षिक्षा भूलकर जुआ खेलना, सिगरेट-षराब पीना षोभा देता है, बोलो ! बताओे न कि विद्यार्थियों का कर्तव्य षिक्षा-ग्रहण करना है, या कि इस प्रकार के गलत कार्यो में आनन्द की झलक देख, उनको कर अपना जीवन बरबाद करना ?’’ आवाज़ बंद हो गई सुदर्षन से कुछ जवाब न बन पड़ा। बस रोने लगा। वो अपने किए पर पछता रहा था, उसमें पष्चाताप की आग तो जल उठी थी, पर अभी उसने उस आग में षुद्ध घी और हवन-सामग्री की आहुति नहीं डाली थी। फफकते हुए वह स्वयं से मन में कहने लगा ‘‘आज तक जिन्हें मैं अपनी हितैषी समझे बैठा था, वह सब आस्तीन के सांप निकले। काष ! इसका मुझे पहले से ही आभास हो गया होता काष ! मुझे पहले ही मालूम पड़ गया होता कि वह मेरे मित्र नहीं, बल्कि सबसे खतरनाक षत्रु हैं मैं अपने जेब-खर्च का आधे से ज्सादा भाग उनको खिलाने-पिलाने में ही व्यय कर देता था, वह सब मैं केवल इसलिए करता था कि वे सब मेरे परमप्रिय मित्र मेरे सच्चे हितैषी बनने का अभिनय किया करते थे। उस दिन जब मेरी आंखों पर छाया पर्दा खुला, तो मुझे उनके अभिनय का पता लगा, मुझे मालूम पड़ गया कि जिसे मैं वास्तविकता समझे बैठा था, वो कोरी-कल्पना थी, वो कुषलतापूर्वक अभिनीत किया जाने वाला एक नाटक था।
 
‘‘आखिर क्यों ? मैंने उनका क्या बिगाड़ा था ? मैंने तो कभी उनके साथ विष्वासघात करने की चेष्टा नहीं की, फिर क्यों उन्होंने मुझ संग विष्वासघात किया ? मैंने समझा था, वो मेरे सच्चे हमदर्द हैं। और इसी गलत फहमी में पड़कर मैंने डैडी को जवाब दिये मैंने इसी गरूर में डूबकर उन्हें जवाब दिये कि चाहे सारी दुनियां मुझे ठुकरा दें, लेकिन मेरे मित्र मुझे अपने गले से लगाए रखेंगे। काष ! मुझे इस बात का पहले ही एहसास हो गया होता न उनसे माफी मांग लेता, कितना अच्छा होता ! वह भी खुष हो जाते, और मुझे भी अपने जीवन की घड़ियां इस प्रकार अकेलेपन में न गुजारनी पड़ती।
 
‘‘देखता हंू कि मैंने आज तक जो राह अपनायी हुई थी, उस पर चलते वक्त मै। सिर्फ अपने जैसों के मुखों से अपनी प्रषंसा सुना करता था। मेरे प्रषंसकों को और मुझे, डैडी और अमित के समाज द्वारा दुतकारा जाता था, समझाने का प्रयत्न किया जाता था। मगर मैं न समझा, मै। उन्हें अपना दुष्मन समझता रहा ! जिन्हें मित्र कहता था, वो दुष्मन निकले। जिन्हे दुष्मन कहता था, वो क्या मित्र हैं ?’’
 
तभी अंर्तात्मा ने उतर दिया ‘‘हां, सुदर्षन ! वही तुम्हारे मित्र हैं वही तुम्हारे सच्चे हितैषी हैं ! सुदर्षन ! वह तुम्हें सच्ची राह बताना-दिखाना चाहते हैं, वह तुम्हें अपने समाज मे सात्विक-समाज में इज्जत दिलवाना चाहते हैं, वह तुम्हारे जीवन में बहार लाना चाहते हैं, सुदर्षन ! उठो ! जाकर अपने माता-पिता से माफी मांगो ! तुमने मां के दिल को दुखाया है जानते हो मां का दिल कितना ममतामयी कोमल भावनाओं वाला होता है ! उठो ! वह तुम्हें माफ कर देंगे, तुम्हें गले से लगा लेंगे ! तुम्हारी तंहाई दूर हो जाएगी, तुम्हारे जीवन में फिर से बहार आ जाएगी ! और सुदर्षन सब कुछ सुन-समझ कर वही आंसू पष्चाताप के आंसू बहाने लगा, आंसू बहते-बहते कब थमे, कब उसकी आंख लग गई, उसे मालूम ही न पड़ा !